मंगलवार, 19 मार्च 2019

आधुनिक समाज में होली के बदलते पर्याय

आधुनिक समाज में होली के बदलते पर्याय

रंगों का त्योहार होली हम सबके सामने दस्तक दे रहा है। यह वही होली है जिसमें कभी होरियारे होली को जीवंतता प्रदान करते थे। होली की बात हो तो उत्तर प्रदेश के मथुरा बरसाने की होली, और लट्ठमार होली की बात न हो ऐसा हो ही नहीं सकता, होली का संदर्भ जहाँ एक ओर प्रह्ललाद और होलिका के पौराणिक पक्ष को पीढियों के सामने रखता है, तो दूसरी ओर जीजा,साली और सरहज की होली, देवर और भाभी की होली की यादों को ताजा कर ही देता है। होली या वो माहौल भी याद आ ही जाता है जब फागुन की फाग लोक संगीत को कानों के रास्ते हृदय के अंतस में पिरोने का काम करती थी। बसंत के बाद आम की बौर फान्गुन के इस त्योहार का अभिनंदन करने के लिए जैसे आतुर हुआ करते थे, टेशू और पलाश के पेडो़ में लगे लाल सूरज की तरह धधकते फूल होली के रंगों को और ज्यादा गाढ़ा करने का काम करते थे।होली का वो एक पखवाड़े का उत्सव हमारे समाज को नई उर्जा देने का काम किया है। समय के साथ साथ होली का अस्तित्व भी परिवर्तित हुआ है, उसका स्वरूप भी बदल रहा है, जैसे जैसे हम आधुनिकता के दौर में जा रहे है, जैसे जैसे हम बाजारवाद की चपेट में आ रहे हैं, जैसे जैसे हम पाश्चात संस्कृति की ओर अंधानुकरण कर रहे हैं, हमारी पीढियाँ जब वैश्वीकरण के हाथों जकड़े जाने हेतु विवश हो रही हैं, तब होली का वो पौराणिक, धार्मिक, और सामाजिक अस्तित्व का खतरा यह है कि वो मात्र खाना पूर्ति के लिए तिथि त्योहार बनकर ना रह जाए। हम इस ओर कदम दर कदम बढ़ते जा रहे हैं। यह सब मूल्य खत्म ना हो जाएँ इस ओर हमारी कोशिश होनी चाहिए।
वर्तमान संदर्भों की बात की जाए तो टेशू और पलाश जैसे पेड़ खत्म होते जा रहे है, जब गाँव कांक्रीट के शहरी जंगल में बदल रहे हो, तब आम और सेमल के पौधों की उम्मीद करना और बौर देखना स्वप्न जैसा होता जा रहा है, बाजारवाद के चलते प्रदूषण इतना ज्यादा हो गया है कि होलिका दहन के लिए हरे हरे वृक्षों की बली दे दी जाती है, आपसी प्रतिद्वंदिता के युग में होलिका की चिता को ऊँचाई देने के खेल में आस पास की हरियाली को तबाह कर दिया जाता है, होलिका दहन अब एक रस्म आदायगी ही नहीं बल्कि समाजिक अस्मिता का प्रश्न बनकर उभरा है, शहरों में तो यह भी खाना पूर्ति की तरह हो गया है, पुरानी पीढी की स्त्रियों की बात छोड़ दें तो वर्तमान में कामगार महिलाओं के लिए इस अवसर पर घर में पकवान बनाने की परंपरा मात्र कांधे का बोझ ही प्रतीत होता, वो गुड़िया से लेकर खाझा, सलोनी खुरमी और भी अन्य व्यंजन बनाने की सोचती भी नहीं बल्कि इसकी जगह वो बाजार की मिलावटी पकवानों पर आश्रित होने की मजबूरी से विवश हैं, यदि संबंधों की बात की जाए तो जीजा -साली और देवर-भाभी के बीच इतनी ज्यादा नजदीकियां नहीं रह गई कि पुराने समय की तरह होली में सराबोर हो सकें,सभी अपने अपने छोटे परिवार को लेकर परदेश में बसे अपने जीवन को जीने के लिए विवश हैं, ये त्योहार अब छोटे छोटे परिवारों को करीब लाने का काम नहीं कर रहे हैं, परदेश में रहने वाले पतिदेव भी अब होली जैसे त्योहारों में अपने घर वापस नहीं आ पाते हैं। पत्नियाँ खुद छुट्टियों में होली में रंग लगाने चल देती हैं।
डिजिटलाइजेशन के इस युग में पोस्टकार्ड, अंतरदेशीय, जैसे संचार के माध्यम को और उनके विभागों को ताला लगा दिया गया है, डाकियों का विलुप्तीकरण हो रहा है, आज के डिजिटल आडियो विजुअल मैसेजेज होली को आधुनिकता से जॊड़ दिए हैं। अब तो डिजिट्ल माध्यम से होली मनाना आधुनिकता का प्रतीक बन गया है। होरियारों की टोलिया इस समय अपनी रोजी रोटी और बेरोजगारी में व्यस्त हैं, लोक संगीत और लोक भाषा में गाए जाने वाली फाग, क्षेत्रीय गीत खत्म होने की कगार में पहुंच गए हैं। बाजार ने सेंथेटिक रंगो का और आधुनिक विदेशों से आयातित खिलौनों की ऐसी खेप हमें बेच दी हैं जिसके चलते होली में अपनी माटी की महक खत्म होती जा रही हैं, कुछ स्थानों को छोड़ दें तो वर्तमान समय में होली का यह एक पखवाड़े का त्योहार मात्र एक या दो दिन में सिमट कर रह गया है। इसकी वहज समाज के हर तबके का त्योहारों के प्रति उदासीनता, समय की कमी और स्वाभाविक व्यस्तता को माना जा सकता है। आज के समय में जब हमें मोबाइल की आवश्यकता चौबीसों घंटे की हैं तब आने जाने की बात सोचना, फोन में हाल चाल लेना, खैर ख्वाहिश करना तो समय की बर्बादी का पर्याय ही समझा जाता है। अपने कुनबे में अपनी ही पारिवारिक समस्याओं को सुल्झाने में व्यस्त इंशान त्योहारों के उत्साह की बलि दे चुका है। व्यस्तताओं ने हमारी उमंगों और उत्साहों में बेडियाँ ड़ाल दिया है। हम सभी चाहते हुए भी लाचार बने बैठे हुए हैं। किंतु इस लाचारी के परे भी हमें अपने उत्साह को दो बारा नए मिजाज के साथ उचाइयाँ देना होगा। हमें अपने आसपास और अपनी सोशाइटी से ही यह शुरुआत करनी होगी। लोक संगीत से लेकर लोक परंपराओं को बचाने के लिए हमें एक जुट होने की आवश्यकता है ताकी फाल्गुन की मिठास, फाग की सुरीली आवाज विलुप्त ना हो जाए, ताकि आने वाली पीढ़ी को दाग और रंग के भेद अंतर पता हो।
होली के डिजिटलाइजेशन होने से होली की बहार अब प्रायोजित होने वाले कवि सम्मेलनों, चैनलों में होली के अवसर पर नेताओं और व्यवसाइयों पर व्यंग्य प्रहार करना, होली मिलन के आयोजन के बहाने शराब, भांग, सेवन करते हुए नाच गाने के साथ दो चार घंटे की औपचारिक मनोरंजन करना मात्र रह गया है। वर्तमान संदर्भों में सूखे रंगों की होली, प्राकृतिक रंगो की होली खेलने का चलन बढ़ा है, इसके चलते कैमिकल मिले हुए हानिकारक रंगों का प्रयोग कम करने का प्रयास किया जाना, पानी के संकट को देखते हुए पानी को व्यर्थ ना बहाने की इस कोशिश ने निश्चित ही जागरुकता और पर्यावरणीय चिंतक को इस हर्ष उल्लास के बीच शामिल किया है। हर त्योहार के पीछे का एक मूल मंत्र यही रहा है कि सत्य और संघर्ष की हमेशा विजय होती है माना गया है। होली के रंगीले त्योहार में भी यही मूल मंत्र छिपा हुआ है। हमारी आने वाली पीढ़ी को भी इस मंत्र का संज्ञान होना जरूरी है। होली के बहाने यदि हम अपने धार्मिक, पौराणिक, समाजिक, मूल्यों को बचा सके तो शायद इस त्योहार की सार्थकता होगी। इसी बहाने हम अगर अपने पुराने भूले बिसरे मित्रों को याद कर सके, मिल सके, सगे संबंधियों को मिलकर प्रेम के रंगों में भिगो सके, उनके चेहरों की मुस्कान और खुशी की वजह बन सकें तो इस त्योहार का मनाना सार्थक होगा। समाज का हर तबका होली के रंगीन मौसम में रंगों की खुशबू को महसूस कर सके, हम इस प्रयास में अपने स्तर का सहयोग कर सकें। अपने आस पास द्वेष भावना और आंतरिक नफरतों के दागों को मिटा कर अगर सतरंगी रंगों के गुलाल से वातावरण रंगीन बना दें तो निश्चित ही होली के पकवानों की मिठास दिलों की मिठास बनकर लंबे समय तक रहेगी, प्रेम और आपसी भाईचारे का यह गुलाल किसी भी पानी से नहीं धुलेगा। हमारी एक पहल इस होली को यादगार होली बना सकती हैं। तो फिर आइये इस बार होली में रंग गुलाल और अबीर को घर घर पहुँचाएँ और इसी बहाने ही सही दिलों में प्रेम और सौहारर्द के रंगों को हमेशा के लिए लगाने की एक कोशिश करें।
अनिल अयान,सतना

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