शनिवार, 19 जनवरी 2013

कस्बों के बडे स्कूल: कुकुरमुत्ता संस्कृति के फूल


कब तक सहें;======
-----------------------------
कस्बों के बडे स्कूल: कुकुरमुत्ता संस्कृति के फूल
-----------------------------------------------
इस वक्त इंग्लिश मीडियम और सी.बी.एस.ई. पैटर्न के स्कूलों के खुलने की क्रांति सी आ गई हैं। ऐसा लगता है कि हरी, नीली, पीली, सफेद क्रांति के बाद अब स्कूल क्रांति सी आ गई है। मोहल्ले-मोहल्ले में कुछ कमरे किराये से लेकर स्कूल की मान्यता ले ली जाती है और भगवान भरोसे शिक्षा का बंटाधार किया जाता है वही 10वीं, बारहवीं पास शिक्षक, 500 से 1500 की तनख्वाह, समय को पास करने का साधन बन कर रह जाते है यह स्कूल। कस्बों में छोटे स्तर से शुरू हुए कुल स्कूल जो नामी गिरामी बडे स्कूल की परंपरा तक पहुॅचने की असफल कोशिश करने में पूरा सत्रा गुजार देते है वहाॅ की माली हालत यह होती है कि शिक्षकों का अकाल हमेशा पडा रहता है। ऐसे स्कूलों का प्रबंधक या तो व्यवसायी होता है या किसी सरकारी स्कूल का भ्रष्टाचारी शिक्षक होते है जो अन्य साधनों को छिपाने के लिए स्कूल खोलकर ज्ञान बांटने का जरिया अपना लेते है। ऐसे विद्यालयों की स्थिति यह होती है कि अप्रैल और जुलाई में अच्छा खासा विज्ञापन होता शिक्षकों की आवश्यकता का और फिर उनकी भर्तियाॅ होती हैं भर्तियों की एक प्रक्रिया साक्षात्कार में सिर्फ मोलभाव होता है तनख्वाह का। कोई मूलभूत सुविधाएॅ नहीं होती है न सुविधायुक्त भवन न खेल का मैदान, न लैब, न सही ढंग से परीक्षाएॅ। सिर्फ खानापूर्ति होती है। सरासर शिक्षा के साथ बलात्कार किया जाता है और बलात्कार करने वाले वही शिक्षक और उन पर आदेश झाडने वाले उनके तथाकथित विद्वान प्रबंधक। ऐसे स्कूलों में शिक्षकों की आवश्यकता कम और शिक्षक जैसे या शिक्षक किस्म के लोगों की आवश्यकता होती है। अधिक से अधिक अभिभावकों को इस बात के लिए आकर्षित किया जाता है कि उनके बच्चें का विकास सर्वागीण स्तर पर होगा और विद्यालय तो नाम मात्रा के है। हमारा विद्यालय ही प्रतिष्ठित संस्थान है जब बच्चों का प्रवेश हो जाता है तब पैरेंट्स का गला विद्यालय के हाथों में फंस जाता है। न कोई कुछ कर सकता है सिर्फ उधर से मांगे डायरी में नोटिस के रूप में होती है और इधर से उसे पूरा ही करना होता है वरना परिणाम यह होता है कि बच्चे को सरेआम कक्षा में जलील किया जाता है ऐसेम्बली मंे लंबे समय तक खडा रखा जाता है। पैरेन्ट्स मजबूर होता है अपने बच्चे के भविष्य को अच्छा बनाने के लिए अपना पेट काट-काट कर स्कूल की फरमाइसें पूरी करता है। कभी यदि कोई पैरेन्ट्स अपने बच्चे का एडमीशन दूसरे बडे शहर की स्कूलों में करने की बात करता है तो फिर प्रबंधन उनके सामने वादों का ताजमहल खडा कर देते हैं। कस्बों में बडे स्कूलों की यह स्थिति होती है कि वहाॅ पर हाई और हायर सेकेण्डरी स्कूलों की छात्रा संख्या में लगातार कमी आती जा रही है। पार्टटाइम शिक्षकों को टेम्प्रेरी पीरियड में बुलाकर कोर्स पूरा कराने की कवायद होती है। पीरियड वाइज पढाने के वादे के साथ विदाई दी जाती है। ग्यारहवीं और बारहवीं में कस्बों के बडे विद्यालय अधिकतर कामर्स और आर्ट की कक्षाओं का संचालन करते है ताकि लैब आदि में पूंजी न लगाना पडे या फिर यदि मैथ और साइंस की कक्षाएॅ लगाते है तो उन्हें कुछ दिनांें के लिए अन्य जगह लैब में भेज दिया जाता है। कहने को बडे विद्यालय बडे होने का आडम्बर करते रहते है और बच्चे का समय उनके पैरन्ट् स की जेब ढीली करते है। कुछ कस्बों में विद्यालयों को पैसों के दम में आसानी से मान्यता मिल जाती है और वो अपने प्रचार प्रसार के लिए शहर के या बाहरी टीचर्स को अपने यहाॅ बुलवाते है। एक साल के प्रोवीजन पीरियड के समय पर इन टीचर्स के नेम, फेम और एक्सपीरियंस का इतना प्रचार प्रसार किया जाता है कि पैरेन्ट्स इनके जाल में फंसकर अपने बच्चों का एडमीशन करवा दें। इन शिक्षकांे को या तो कम वेतन देकर अधिक वेतन में हस्ताक्षर कराया जाता है ताकि मान्यता बनी रहे या फि र उन्हें इतना ज्यादा मनावैज्ञानिक दवाब दिया जाता है सितंबर से जनवरी के बीच ताकि वो बीच सत्रा में छोडकर चले जाए। इसका परिणाम यह होता है कि मैनेजमेन्ट बाईज्जत अपना बचाव कर लेता है उसका पेमेंट बच जाता है और इसी बचे पैमेंट से वो 1200 - 1500 के बेरोजगार युवाओं को फ्रेशर के रूप में खानापूर्ति कर लेते है। फीस के नाम पर बच्चों के पैरेन्ट्स को सेमेस्टर फीस के नये सिस्टम के अनुसार पूरा महीना होने से पहले परीक्षाओं के पहले पैरेन्ट्स के ऊपर दवाब बनाया जाता है कि वो पूरी फीस जमा करें नहीं तो बच्चे को परीक्षा में नहीं बैठाया जाएगा फिर मजबूरन पैरेन्ट्स अपनी जमापंूजी से फीस जमा करने की कवायद शुरू कर देता है।
इस तरह की स्थिति में न शिक्षा विभाग की नियमित जाॅच आयोग है न जाॅच कमेटी जो इन गैरसरकारी कुकुरमुत्तों के समान खुल रहे विद्यालयों की नाक पर नकेल कस सकें और इनकों सिस्टम में ला सके। ये विद्यालय चाहे बुक सेलर हो चाहे किताबों की दुकान सभी से अपना स्वार्थ साधने का दम रखते है। आज जरूरत है इस प्रकार के छोटे-मोटे विद्यालयों में अनुशासन गाइड लाइन और सिस्टम तैयार करने की इनकी मानिटरिंग करने की ताकि ये बच्चों और उनके पैरेन्ट्स के साथ खिलवाड करने से बाज आ सकें वरना वो इसी तरह शिक्षा नीतियों को ठेंगा दिखाते रहेंगे।
- अनिल अयान, सतना
9406781040

कोई टिप्पणी नहीं: