शनिवार, 30 मार्च 2013

आखिरकार कौन है संजय दत्त

आखिरकार कौन है संजय दत्त
पिछले एक सप्ताह से मीडिया ने एक नई लहर पूरे देश मे चला दी है २० वर्ष पूर्व किये गये अपराध मे मिली सजा से बचने के लिये संजय दत्त की माफी के लिये मुहिम छिडी हुई है..कोई अपने वोट ई मेल से कर रहा है कोई एस एम एस से वोटिंग कर रहा है. इतने दिनों की इस वैचारिक कुरुक्षेत्र को देखने के बाद मुझे यह महसूस होता है कि आखिरकार यह संजय दत्त है कौन. क्या पहचान है इस शक्स की. एक भारतीय, एक अभिनेता, मुन्नाभाई, संजू भैया, या फिर आतंकवादियो से गठजोड करने वाला काफिर,भारत देश की जनता संजय दत्त को किसी भी रूप मे देख रही हो. पर जनप्रतिनिधि उनके नाम परव वोट की राजनीति करने मे तुली हुयी है.. पूरे घटना क्रम को देखने के बाद मुझे तो ये लगा की अब बालीवुड का पावर सुप्रीम कोर्ट के पावर से कहीं ज्यादा पावरफुल है. देश को भी ना जाने क्या होता जा रहा है कि एक अभिनेता के लिये देश की जनता चाटुकार नेताओ के बहकावे और जस्टिस काटजू के बयानबाजी में आकर सुप्रीम कोर्ट के न्याय के विरोध मे जाकर माफीनामा तैयार करवाने मे अधी दौड दौड रही है. यही है न्यायपालिका का सम्मान,. और यही है लोकतांत्रिक देश मे संविधान की इज्जत, संविधान भी अपने इस स्थिति पे गोहारी मारता होगा, बाबा साहब ये कभी न सोचे रहे होगें की उनके स्वर्गवासी होने के बाद उनके देशवासी संविधान को आम और खास के बंटवारे मे शामिल हो जायेगी.
यदि राष्ट्रपति और राज्यपाल को इस प्रकार सजा माफी का अधिकार है तो उन्हे भी एक बार जनता से भी राय जानना चाहिये कि वो इस तरह के अपराधियों के बारे में क्या सोचती है. ये नही कि जन प्रतिनिधि अपराधियों के साथ हो जाये थो पूरी जनता की सहमति है. मेरे यह समझ मे नहीं आती कि यदि जनप्रतिनिधि यदि अपना पेट भर लेता है तो इसका मतलब ये समझ ले की जनता का भी पेट भर गया. ऐसा कभी नहीं होता है. आखिरकार कांग्रेस और अन्य दल के प्रतिनिधि, जस्टिस काटजू अपने बयानबाजी से यही बहुत बारीकी से जनता के गला रेतने का काम अंजाम दे रहे है.सुनील दत्त और नरगिस ने कभी नहीं सोचे होंगे कि उनके बेटे का इस तरह देश के खिलाफ व्यवहारिक रवैया रहेगा. जया बच्चन ने जिस तरह का संजय दत्त का पक्ष लेरही थी जैसे कि पहली बार किसी परिवार रखने वाले व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट ने सजा का आदेश दिया है. जैसे आम अपराधियों के बाल बच्चे होते ही नही है, कोई परिवार नही होता है. वाह जया जी. अमीरजादो के ऊपर आयी तो आप गोहारी मारने लगी. आम जनता पे मौन क्यो धारण कर लेती है. पहले के समय मे अभिनेता वाकये बहुत सालीन और संयमित होते थे. उनकी रियल और रील लाइफ मे अन्तर निकाल पाना मुस्किल था और आज के समय में अभिताब बच्चन से सैफ और सलमान से होते हुये संजय दत्त तक सभी की रील लाइफ उनकी रियल लाइफ से बहुत ज्यादा अलग होती है. इनके अपराध सिद्ध हो भी जाये तो इनके चेहरे मे एक सिकन तक नहीं दिखायी देती है. अजीब जलवा है बालीवुड का जिसे देखो वो किसी तरह की कोई भी हरकत करे लेकिन उसे राज्यपाल और राष्ट्र्पति से माफी दिलवाने के लिये पूरे देश के बुद्धिजीवी वर्ग मुहिम छेड देते है और सर्वहारा के लिये न्याय दिलाने के लिये ये सब अपने अपने बिल के अंदर घुस जाते है.क्या आज भारत की स्थिति ये हो चुकी है कि न्यायपालिका का कद बालीवुड के सामने बौना आँका जाये. मनोरंजन ,शासन और न्याय पर सवार होकर जीवन जीने लगा है. मानवीय संवेदना हर अपराध , हर अपराधी को बचाती रहेगी तो न्यायपालिका के न्याय का इसी तरह होलिका दहन होता रहेगा.बात संजय दत्त की ही सिर्फ़ नही बल्कि सभी सिने सितारो केउपर लागू होती है आखिरकार संजय दत्त को इस अवदान के तहत लोग उनकी सजा माफी की अपील कर रहे है. वो सिर्फ एक अभिनेता है सुप्रीम कोर्ट के सामने चाहे अभिनेता हो नेता हो या फिर आम जन हो सब बराबरी का दर्जा रखना चाहिये.क्यों संविधान मे इस तरह के कारनामों के लिये माफी का आप्सन दिया गया. जिस समय वो छोटा राजन को प्रमोट कर रहे थे उस वक्त वो बच्चे नही थे. आज जिस तरह अराजकता फैली हुई है देश मे उससे यह साफ जाहिर होता है कि सिने अभिनेता और कांग्रेसी राजनीतिज्ञ सुनील दत्त का कांग्रेसी अस्तित्व के चलते संजय दत्त का पक्ष ले रहे है. यदि ऐसा ही चलता रहेगा तो आने वाले समय में इसी तरह रील लाइफ वाले लोग अंडर वर्ड से हाथ मिलाते रहेगे और देश को कंगाल बनाते रहेंगे. इसी तरह माफी के लिये अर्जियां भेजी जायेगी और रिहाई दिलवाने के लिये दिन रात एक करते रहेंगे. इसी तरह राज महलों के निवासी सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देते रहेंगे. और न्याय पालिया की अरथी मे लोग राम नाम सत्य चिल्लाते रहेगे. न्याय की दुधारी तलवार गरीब को आम गलती के लिये सर कलम करेगी और पावर वालो को गुनाह के लिये भी बाइज्ज्त रिहा करेगी. हम सब बालीवुड के सिने अभिनेताओ और अभिनेत्रियों की पूजा अर्चना करते नजर आयेगे. भले ही वो देश को विदेशियों के हाथों बेंचने मे तुले हों....आखिरकार हम उदारवादी व्यक्तित्व के धनी भारतवासी जो ठहरे.

आखिरकार कौन है संजय दत्त

आखिरकार कौन है संजय दत्त
पिछले एक सप्ताह से मीडिया ने एक नई लहर पूरे देश मे चला दी है २० वर्ष पूर्व किये गये अपराध मे मिली सजा से बचने के लिये संजय दत्त की माफी के लिये मुहिम छिडी हुई है..कोई अपने वोट ई मेल से कर रहा है कोई एस एम एस से वोटिंग कर रहा है. इतने दिनों की इस वैचारिक कुरुक्षेत्र को देखने के बाद मुझे यह महसूस होता है कि आखिरकार यह संजय दत्त है कौन. क्या पहचान है इस शक्स की. एक भारतीय, एक अभिनेता, मुन्नाभाई, संजू भैया, या फिर आतंकवादियो से गठजोड करने वाला काफिर,भारत देश की जनता संजय दत्त को किसी भी रूप मे देख रही हो. पर जनप्रतिनिधि उनके नाम परव वोट की राजनीति करने मे तुली हुयी है.. पूरे घटना क्रम को देखने के बाद मुझे तो ये लगा की अब बालीवुड का पावर सुप्रीम कोर्ट के पावर से कहीं ज्यादा पावरफुल है. देश को भी ना जाने क्या होता जा रहा है कि एक अभिनेता के लिये देश की जनता चाटुकार नेताओ के बहकावे और जस्टिस काटजू के बयानबाजी में आकर सुप्रीम कोर्ट के न्याय के विरोध मे जाकर माफीनामा तैयार करवाने मे अधी दौड दौड रही है. यही है न्यायपालिका का सम्मान,. और यही है लोकतांत्रिक देश मे संविधान की इज्जत, संविधान भी अपने इस स्थिति पे गोहारी मारता होगा, बाबा साहब ये कभी न सोचे रहे होगें की उनके स्वर्गवासी होने के बाद उनके देशवासी संविधान को आम और खास के बंटवारे मे शामिल हो जायेगी.
यदि राष्ट्रपति और राज्यपाल को इस प्रकार सजा माफी का अधिकार है तो उन्हे भी एक बार जनता से भी राय जानना चाहिये कि वो इस तरह के अपराधियों के बारे में क्या सोचती है. ये नही कि जन प्रतिनिधि अपराधियों के साथ हो जाये थो पूरी जनता की सहमति है. मेरे यह समझ मे नहीं आती कि यदि जनप्रतिनिधि यदि अपना पेट भर लेता है तो इसका मतलब ये समझ ले की जनता का भी पेट भर गया. ऐसा कभी नहीं होता है. आखिरकार कांग्रेस और अन्य दल के प्रतिनिधि, जस्टिस काटजू अपने बयानबाजी से यही बहुत बारीकी से जनता के गला रेतने का काम अंजाम दे रहे है.सुनील दत्त और नरगिस ने कभी नहीं सोचे होंगे कि उनके बेटे का इस तरह देश के खिलाफ व्यवहारिक रवैया रहेगा. जया बच्चन ने जिस तरह का संजय दत्त का पक्ष लेरही थी जैसे कि पहली बार किसी परिवार रखने वाले व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट ने सजा का आदेश दिया है. जैसे आम अपराधियों के बाल बच्चे होते ही नही है, कोई परिवार नही होता है. वाह जया जी. अमीरजादो के ऊपर आयी तो आप गोहारी मारने लगी. आम जनता पे मौन क्यो धारण कर लेती है. पहले के समय मे अभिनेता वाकये बहुत सालीन और संयमित होते थे. उनकी रियल और रील लाइफ मे अन्तर निकाल पाना मुस्किल था और आज के समय में अभिताब बच्चन से सैफ और सलमान से होते हुये संजय दत्त तक सभी की रील लाइफ उनकी रियल लाइफ से बहुत ज्यादा अलग होती है. इनके अपराध सिद्ध हो भी जाये तो इनके चेहरे मे एक सिकन तक नहीं दिखायी देती है. अजीब जलवा है बालीवुड का जिसे देखो वो किसी तरह की कोई भी हरकत करे लेकिन उसे राज्यपाल और राष्ट्र्पति से माफी दिलवाने के लिये पूरे देश के बुद्धिजीवी वर्ग मुहिम छेड देते है और सर्वहारा के लिये न्याय दिलाने के लिये ये सब अपने अपने बिल के अंदर घुस जाते है.क्या आज भारत की स्थिति ये हो चुकी है कि न्यायपालिका का कद बालीवुड के सामने बौना आँका जाये. मनोरंजन ,शासन और न्याय पर सवार होकर जीवन जीने लगा है. मानवीय संवेदना हर अपराध , हर अपराधी को बचाती रहेगी तो न्यायपालिका के न्याय का इसी तरह होलिका दहन होता रहेगा.बात संजय दत्त की ही सिर्फ़ नही बल्कि सभी सिने सितारो केउपर लागू होती है आखिरकार संजय दत्त को इस अवदान के तहत लोग उनकी सजा माफी की अपील कर रहे है. वो सिर्फ एक अभिनेता है सुप्रीम कोर्ट के सामने चाहे अभिनेता हो नेता हो या फिर आम जन हो सब बराबरी का दर्जा रखना चाहिये.क्यों संविधान मे इस तरह के कारनामों के लिये माफी का आप्सन दिया गया. जिस समय वो छोटा राजन को प्रमोट कर रहे थे उस वक्त वो बच्चे नही थे. आज जिस तरह अराजकता फैली हुई है देश मे उससे यह साफ जाहिर होता है कि सिने अभिनेता और कांग्रेसी राजनीतिज्ञ सुनील दत्त का कांग्रेसी अस्तित्व के चलते संजय दत्त का पक्ष ले रहे है. यदि ऐसा ही चलता रहेगा तो आने वाले समय में इसी तरह रील लाइफ वाले लोग अंडर वर्ड से हाथ मिलाते रहेगे और देश को कंगाल बनाते रहेंगे. इसी तरह माफी के लिये अर्जियां भेजी जायेगी और रिहाई दिलवाने के लिये दिन रात एक करते रहेंगे. इसी तरह राज महलों के निवासी सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देते रहेंगे. और न्याय पालिया की अरथी मे लोग राम नाम सत्य चिल्लाते रहेगे. न्याय की दुधारी तलवार गरीब को आम गलती के लिये सर कलम करेगी और पावर वालो को गुनाह के लिये भी बाइज्ज्त रिहा करेगी. हम सब बालीवुड के सिने अभिनेताओ और अभिनेत्रियों की पूजा अर्चना करते नजर आयेगे. भले ही वो देश को विदेशियों के हाथों बेंचने मे तुले हों....आखिरकार हम उदारवादी व्यक्तित्व के धनी भारतवासी जो ठहरे.

रविवार, 24 मार्च 2013

होली के आधुनिक धतकरम


 होली के आधुनिक धतकरम
रंगों का त्योहार होली,,, सभी लोगो को दीवाली और होली का बेसब्री से इंतजार होता है. पहले के समय में होली का अपना अंदाज हुआ करता था. अरे मै तो बताना ही भूल गया फागुन और फगुआ की धूम तन और मन को हर्ष और उल्लास के सागर में गोते लगाने के लिये मजबूर कर देती थी.पहले के समय में गावों का वो हरियाली भरा माहौल और परिवार के सभी लोगों का होली की छुट्टी में घर आकर  कई दिनों तक होली के रंग मे सराबोर हो जाना, अपना अलग ही मजा हुआ करता था. जैसे होली सिर्फ़ रंग खेलना ही नहीं बल्कि खुशियों के रंग मे सभी को रंगने की कला होती थी. देवर भाभी की वो उमंग और अंगडाई देखते ही बनती थी. और जीजा साली के बीच की नोंक झोक और फिर रंग गुलाल की आमद पूरे परिवार को रंगा रंग कर देती थी. धुरेणी का हाल तो ये होता था की जो इस दिन घर से बाहर होली मना लेता था वो कई दिनो तक सिर्फ़ बाहर इस लिये नही निकलता था क्योंकी वो उस लायक बचता ही नहीं था. और इस तरह महिलाओं की स्थिति तो घर के बाहर निकलने लायक ही नहीं बचा करती थी. क्योकी घर के अंदर की होली यादों की होली बन जाया करती थी. इस तरह होली का त्योहार यादों मे समाहित हो जाया करता था, होलिका दहन का रात्रि पहर में होना और पूरे मोहल्ले और टोले के बच्चों,युवाओं, और बूढे बुजुर्गो का उत्साह देखने को बनता था. होली के नशे में वाकये सालीनता से नशा भी किया जाता था. होरियारों की टोलियों का गली गली मोहल्ले मोहल्ले मे जाकर फाग सुनाना और नास्ता पानी करना यह सब आम बात हुआ करती थी. पर जैसे जैसे समय ने करवट बदला यह त्योहार अपनी वास्तविकता को खोता चला गया.
समय के साथ होली के मायने बदल गये. रंगों के मायने बदल गये. रिस्तों के मायने बदल गये. गाँवो का अस्तित्व खोता चला गया. देवर भाभी दूर होते चले गये. जीजा ने साली को आधी घरवाली मान लिया. परिवार टूटते चले गये.हाईटेक युग में एक साथ मिलने बैठने की फुरसत नहीं रही. देश महगाई की दौड में ऐसे दौडा की रंगो और गुलालों की जगह खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाने लगा. पानी की समस्या ने होली खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया. लोगो के बीच जाति धर्म और पंथ को लेकर मतभेद मनभेद में बदलते चले गये. मानवीयता अमानवीयता मे बदलने लगी." होली खेले रघुवीरा, की धुन इस सब में गायब होगई. अमीरी और गरीबी के बीच की खाँई इतनी ज्यादा गहरी होगई की यदि हमारे पास में कोई गरीब रह रहा है तो हम उसके घर होली की मुबारकबाद देने नहीं जा सकते है. क्योकी हमारा स्तर कहीं उसके यहाँ जाने से गिर ना जाये. हम खील बतासे गुझियाँ सलोनी मिठाई खुरमी पेट भर खाये और फिर कचडे में भी फेक दिये. जरूरत समझे तो जानवरों को खिला दिये पर अपने आस पास गरीब लोगो के यहाँ लगुआ और बरेदियों की संज्ञा दिये जाने वाले आम सर्वहारा वर्ग का स्वागत करने से परहेज करने लगे. यही है आज की होली का धतकरम जो हर एक वर्ग का आदमी करता चला आया है. और यही हमारी विसंगति भी है. आज के समय पर होली की शुभकामनायें इंटरनेट और नेटवर्किंग साइट्स के युजर्स शब्दो, चित्रो और हाई टेक ईमेलस के द्वारा देने लगे है. ना किसी के पास इतना वक्त है कि वो एक दूसरे के पास जाये और मिलेजुले आज सब विकास की दौड के धावक है जिसे परिवार गाँव विरासत और रिस्तों से कोई मतलब नहीं है सब एक टेबल पर उपलब्ध है यही आधुनिक होली के धतकरम है.
 होली के इस धतकरम को किये बिना हम कुछ कर भी नहीं सकते है. क्योंकी आज की इस एहसान फरामोस दुनिया में चलने के लिये  और चलाने के लिये आपको त्योहार भी भ्रष्टाचार के रंग और टेक्नालाजी के गुलाल से मिल कर मनाना होगा जहाँ आदमियत की होली जलानी ही पडती है तभी आपकी, हमारी, और सब की होली सार्थक होगी. हम तो उस तरह की बचपन मे होली मनाया करते थे. आज तो सब झूँठा सा प्रतीत होता है. त्योहार के दिन ही नही लगता की आज होली का त्योहार है आज तो कैलेन्डर और एस.एम.एस बताते है कि भैया जगो होली आगयी है, वरना किसी को इतनी फुरसत ही नहीं है की होली को उसी धूम धडाके और मजे से मनाये कि आने वाले कई दिनो तक रंग और कई सालों तक यादें ना जाये..... चलिये अब चलता हूँ बहुत सालों के बाद कई दोस्त और भाभी आयी है मेरे साथ होली खेलने ,,, कल तक साली आने वाली है पर वो आधी घर वाली नही है इस बात की खुशी है.... उम्मीद करता हूँ आपके घर में ऐसी आवक जल्द होगी. तब तक के लिये होली मुबारक हो दोस्तो.
 होली मनायें प्रेम के चंदन अबीर से.
शुभकामनायें दे खुशी के अश्रु नीर से.
लोगो के रिस्तों मे यकीन हो गहरा
मुस्कान ,गुझियाँ और मीठी खीर से.
सच्चा गुलाल है सदा रिस्तो के बीच में
आँसू हमारे भी गिरे दूजे की पीर से.
अनिल अयान. सतना.

रविवार, 17 मार्च 2013

बेबुनियादी मुद्दों का पीछा करती व्यवस्था

बेबुनियादी मुद्दों का पीछा करती व्यवस्था
आज के समय मे ना जाने इस व्यवस्था को क्या हो गया है कि सब बेबुनियादी मुद्दों के पीछे ही ये भाग रही है. उन मुद्दों मे वो सारे विषय आते है जिनका विकास से कोई ताल्लुकात नहीं है. पहले के समय में यह काम कुछ साम्प्रदायिक संगठन किया करतेथे . पर आज के समय पर यह कार्य व्यवस्था और सरकार कर रही है. आजादी के पहले से यह सिलसिला चला आ रहा है कि आम जनता को कभी एमरजेंसी के नाम से. कभी जातिगत मुद्दों के नाम से , कभी धर्म के नाम से कभी जाति और वोट के नाम से बरगलाया जाता रहा है. जब भी आतंकवाद का मुद्दा भारत के सामने आया ,दिल्ली मे बैठी कोई भी सरकार हो अपना वोट बैंक सम्हालने के लिये हमेशा दोगला चेहरा दिखाया है.इसी समय देखिये. अवैध बाग्लादेशियों की घुसपैठ ,, अफ़जल गुरू की फ़ाँसी के पूर्व और पश्चात का घटनाक्रम कहीं ना कहीं जनता को झगझोडने वाला रहा है. फ़िर आया पाकिस्तानी हुक्मरानों का भारत दौरा और उसके बाद का आतंकी हमला. और अब सेक्स संबंध के उमर को लेकर बवाल और तमाशा. मेरे यह नहीं समझ मे आता है सरकार जितने भी काम करती है क्या उससे व्यव्स्था सुधरी है. जी नहीं सिर्फ़ व्यवस्था में टूटन उत्पन्न हुयी .पूरी व्यवस्था ही इस तरह से फ़र्जी मुद्दों में लोगों ओ पंजे मे लेने मे लगी हुयी है .सच यह है इस पूरे गेम मे सह प्रकार से सहयोग करने वाले सरकारी और गैर सरकारी तंत्र शामिल है जो व्यवस्था को गर्त मे लेजाने के लिये जुडे हुये है. पहले प्रधान मंत्री जी को लगता था की परिस्थितियाँ देश के विकास के लिये अनुकूल थी. दामिनी रेप केस .... उसके बाद हो रहे लगातार इस तरह के अपराधों की बढोत्तरी के चलते अब उम्र कम करके इस तरह के अपराधों में लगाम कसना चाहतें है. जो सरासर गलत होगा और इस तरह से भारतीय संस्कृति के विरोधी रवैये के धनी होते जा रहे है. वो और उनकी सरकार शायद यह नहीं जानती है कि इस तरह के अपराध उमर पर जितने आधारित होते है उससे कहीं ज्यादा हमारी मानसिकता की विकृति भाव से होती है. और उमर कम करके सरकार और व्यवस्था इस प्रकार के मानसिक विकृतिपूर्ण कार्य को बढावा दे रहे है. उमर चाहे १६ करे या १४ क्या फ़र्क पडता है. इस तरह के अपराधों को छूट देने का काम हमारी न्याय व्यवस्था और कार्यपालिका कर रही है. जहाँ पर इस तरह के अपराधों के लिये जल्द न्याय और कडी सजा का प्रावधान होना चाहियें उसकी बजाय सेक्स की उमर कम करके शर्म और लिहाज दोनो को हमारी आने वाली पीढी को सौपने की तैयारी कर रही है हमारी केन्द्र सरकार. ये भी हम नजरंदाज कैसे कर सकते है की सरकार का नजरिया धीरे धीरे इटली , अमेरिका, और अन्य विदेशी संस्कृति वाले पाश्चात देशों की संस्कृति के हवाले हो गया है. जिसमे कानून १३ साल के बाद ओपेन सेक्स की भी छूट देदेगी. और इसमे साथ देने वाले सभी दल साथ इसलिये देगें ताकि वोट और पद लोलुपता की माया से सब वशी भूत हो चुके है. तब तो फ़िर विवाह जैसे बंधनों की भी आवश्यकता महसूस नहीं होगी इस समाज में. और सरे आम लीव इन रेलेशनशिप का कान्सेप्ट आजाएगा. और यही तो सरकार भी चाहती है. मेरे यह समझ मे नहीं आरहा है कि बलात्कारियों को सजा सम्बंधित कानून बनाने की बजाय ,, आंतरिक सुरक्षा के मुद्दों ,, पडोसी देशो के साथ सम्बंधों की समीक्षा करने के बजाय बेबुनियादी मुद्दों मे अपना सिर खपा रही है यह व्यवस्था और और इसको सम्हालने वाली सरकार.
वैसे ज्यादातर नेता कौन से दूध के धुले हुये है. ये सब आसमान से गिरने के बाद खजूर मे लटके हुये खुश हो लेते है. दर असर यह पूरी व्यवस्था ही आज भी फ़र्जी मुद्दों पर टिकी हुयी है ना किसी को गरीबी की फ़िक्र है ना बेरोजगारी की. ना किसानो की आत्महत्याओ का भय और ना आतंकी हमलों की समीक्षा करने की फ़ुरसत. इस देश का सबसे बडा सच यह है कि आज हमारे जन प्रतिनिधियों में इतन दम है ही नहीं की वो बुनियादी मुद्दे और विकास के मुद्दो को उठा सकें वो इसकी आवश्यकता है समझते ही नहीं है. मुझे तो लगता है की जब फ़र्जी मुद्दो से ये सब देश चला रहे है और काम चल रहा है तो फ़िर कौन मुसीबत मे पडे, है...ना,, सब अपनी धुन रमाये है और देश को बेबुनियादी मुद्दों के पीछे पीछे व्यवस्था को फ़िराकर खुश हो रहे है. यह भी सच है कि इस तरह के मुद्दे यदि अरब देशों मे उठा होता तो अरब सीरत के मुताबिक मुद्दे उठाने वालों के सर कलम कर दिये जाते, और उनकी उमर जरूर खत्म हो जाती .

बेबुनियादी मुद्दों का पीछा करती व्यवस्था

बेबुनियादी मुद्दों का पीछा करती व्यवस्था
आज के समय मे ना जाने इस व्यवस्था को क्या हो गया है कि सब बेबुनियादी मुद्दों के पीछे ही ये भाग रही है. उन मुद्दों मे वो सारे विषय आते है जिनका विकास से कोई ताल्लुकात नहीं है. पहले के समय में यह काम कुछ साम्प्रदायिक संगठन किया करतेथे . पर आज के समय पर यह कार्य व्यवस्था और सरकार कर रही है. आजादी के पहले से यह सिलसिला चला आ रहा है कि आम जनता को कभी एमरजेंसी के नाम से. कभी जातिगत मुद्दों के नाम से , कभी धर्म के नाम से कभी जाति और वोट के नाम से बरगलाया जाता रहा है. जब भी आतंकवाद का मुद्दा भारत के सामने आया ,दिल्ली मे बैठी कोई भी सरकार हो अपना वोट बैंक सम्हालने के लिये हमेशा दोगला चेहरा दिखाया है.इसी समय देखिये. अवैध बाग्लादेशियों की घुसपैठ ,, अफ़जल गुरू की फ़ाँसी के पूर्व और पश्चात का घटनाक्रम कहीं ना कहीं जनता को झगझोडने वाला रहा है. फ़िर आया पाकिस्तानी हुक्मरानों का भारत दौरा और उसके बाद का आतंकी हमला. और अब सेक्स संबंध के उमर को लेकर बवाल और तमाशा. मेरे यह नहीं समझ मे आता है सरकार जितने भी काम करती है क्या उससे व्यव्स्था सुधरी है. जी नहीं सिर्फ़ व्यवस्था में टूटन उत्पन्न हुयी .पूरी व्यवस्था ही इस तरह से फ़र्जी मुद्दों में लोगों ओ पंजे मे लेने मे लगी हुयी है .सच यह है इस पूरे गेम मे सह प्रकार से सहयोग करने वाले सरकारी और गैर सरकारी तंत्र शामिल है जो व्यवस्था को गर्त मे लेजाने के लिये जुडे हुये है. पहले प्रधान मंत्री जी को लगता था की परिस्थितियाँ देश के विकास के लिये अनुकूल थी. दामिनी रेप केस .... उसके बाद हो रहे लगातार इस तरह के अपराधों की बढोत्तरी के चलते अब उम्र कम करके इस तरह के अपराधों में लगाम कसना चाहतें है. जो सरासर गलत होगा और इस तरह से भारतीय संस्कृति के विरोधी रवैये के धनी होते जा रहे है. वो और उनकी सरकार शायद यह नहीं जानती है कि इस तरह के अपराध उमर पर जितने आधारित होते है उससे कहीं ज्यादा हमारी मानसिकता की विकृति भाव से होती है. और उमर कम करके सरकार और व्यवस्था इस प्रकार के मानसिक विकृतिपूर्ण कार्य को बढावा दे रहे है. उमर चाहे १६ करे या १४ क्या फ़र्क पडता है. इस तरह के अपराधों को छूट देने का काम हमारी न्याय व्यवस्था और कार्यपालिका कर रही है. जहाँ पर इस तरह के अपराधों के लिये जल्द न्याय और कडी सजा का प्रावधान होना चाहियें उसकी बजाय सेक्स की उमर कम करके शर्म और लिहाज दोनो को हमारी आने वाली पीढी को सौपने की तैयारी कर रही है हमारी केन्द्र सरकार. ये भी हम नजरंदाज कैसे कर सकते है की सरकार का नजरिया धीरे धीरे इटली , अमेरिका, और अन्य विदेशी संस्कृति वाले पाश्चात देशों की संस्कृति के हवाले हो गया है. जिसमे कानून १३ साल के बाद ओपेन सेक्स की भी छूट देदेगी. और इसमे साथ देने वाले सभी दल साथ इसलिये देगें ताकि वोट और पद लोलुपता की माया से सब वशी भूत हो चुके है. तब तो फ़िर विवाह जैसे बंधनों की भी आवश्यकता महसूस नहीं होगी इस समाज में. और सरे आम लीव इन रेलेशनशिप का कान्सेप्ट आजाएगा. और यही तो सरकार भी चाहती है. मेरे यह समझ मे नहीं आरहा है कि बलात्कारियों को सजा सम्बंधित कानून बनाने की बजाय ,, आंतरिक सुरक्षा के मुद्दों ,, पडोसी देशो के साथ सम्बंधों की समीक्षा करने के बजाय बेबुनियादी मुद्दों मे अपना सिर खपा रही है यह व्यवस्था और और इसको सम्हालने वाली सरकार.
वैसे ज्यादातर नेता कौन से दूध के धुले हुये है. ये सब आसमान से गिरने के बाद खजूर मे लटके हुये खुश हो लेते है. दर असर यह पूरी व्यवस्था ही आज भी फ़र्जी मुद्दों पर टिकी हुयी है ना किसी को गरीबी की फ़िक्र है ना बेरोजगारी की. ना किसानो की आत्महत्याओ का भय और ना आतंकी हमलों की समीक्षा करने की फ़ुरसत. इस देश का सबसे बडा सच यह है कि आज हमारे जन प्रतिनिधियों में इतन दम है ही नहीं की वो बुनियादी मुद्दे और विकास के मुद्दो को उठा सकें वो इसकी आवश्यकता है समझते ही नहीं है. मुझे तो लगता है की जब फ़र्जी मुद्दो से ये सब देश चला रहे है और काम चल रहा है तो फ़िर कौन मुसीबत मे पडे, है...ना,, सब अपनी धुन रमाये है और देश को बेबुनियादी मुद्दों के पीछे पीछे व्यवस्था को फ़िराकर खुश हो रहे है. यह भी सच है कि इस तरह के मुद्दे यदि अरब देशों मे उठा होता तो अरब सीरत के मुताबिक मुद्दे उठाने वालों के सर कलम कर दिये जाते, और उनकी उमर जरूर खत्म हो जाती .

गुरुवार, 7 मार्च 2013

पब्लिक की जेब मे डाँका डालते पब्लिक स्कूल


पब्लिक की जेब मे डाँका डालते पब्लिक स्कूल
कान्वेंट और पब्लिक स्कूल की आँधी से आज अपना ही नहीं बल्कि देश के शत प्रतिशत शहर चपेट मे है. और इसका नुकसान पैरेंट्स की जेब को भोगना पडता है. यही इस तरह के स्कूल्स  की सबसे बडी खासियत है. नाम बडे और दर्शन छोटे वाली स्थिति होती है ऐसे स्कूल्स की. देखने के लिये अच्छा खासा इन्फ़्रास्ट्रेक्चर होता है. और इस तरह के कारखाने सिर्फ़ बच्चों के भविष्य को देखने का ख्याल बस ही नहीं करते है बल्कि नोट छापने के सबसे बडे अड्डे बन चुके है.पब्लिक स्कूल और कान्वेंट स्कूल का मूल विचार डे बोर्डिंग सिस्टम पे बनाया गया था. विकसित देशो से आया यह विचार जब भारत के बडे महा नगरों मे आया तो बडे तबके के लोगो को बहुत फ़ायदा हुआ. उसकी वजह यह थी की दम्पति नौकरी पेशे से जुडे होने की वजह से दिनभर  के लिये बच्चों के स्कूल मे छोड सकते थे. और वापिसी  मे लेकर आने मे उन्हे भी सुविधा होती थी.
 पर समय बदलने के साथ सब बदल गया. ये पब्लिक स्कूल का रूप रंग और ढंग भी बदल गया. जैसे शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ  इन स्कूल्स का आचरण भी पूरी तरह से व्यावसायिक हो गया. अब बच्चों का सर्वांगींण विकास का लक्ष्य सिर्फ़ पब्लिक को दिखाने के लिये होता है और पीछे से मैनेजमेंट के पैरेंट्स की जेब खाली करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये नये नये प्लान बना कर स्कूल मे उपयोग किये जाते है.आज के समय मे पब्लिक प्रेम की बजाय इन स्कूल्स का पैसा प्रेम ज्यादा दिखने लगा है. ये बच्चो से फ़ीस के अलावा अनेकानेक प्रकार के अन्य रास्तों से डोनेशन और रकम पूरे साल उगाही करने की कोशिशों मे सफ़ल रहते. नयी शिक्षा नीति के तहत जिस तरह से समान शिक्षा के अधिकार को तवज्जो दी गयी वह यहां पर अंतिम सांसे गिनता नजर आता है एडमीशन की स्थिति यह है कि अधिक्तर काम लाटरी सिस्टम के आधीन है अब लाटरी ही निर्णय लेती है की किसका प्रवेश होगा और कौन पैरेंट्स अपने बच्चे के साथ गेट के बाहर का रास्ता देखेगा. साल भर जिस स्कूल डेवलेपमेंट फ़ीस की वसूली की जाती है वह कितना स्कूल के विकास मे काम आती है इसका कोई हिसाब नहीं होता है और ना ही किसी को ये अधिकार होता है कि यह मैनेजमेंट से पूँछ सके.
   इस तरह के स्कूल मे बच्चों को रिफ़्रेंस बुक्स के नाम से सरासर उल्लू बनाया जाता है. इस बहाने सत्र के पहले ही उनके पास मुख्य किताबो के प्रश्नो के उत्तर होते है और विशय के शिक्षकों का काम पूरे साल आसान होजाता है इससे बच्चे रट्टू के साथ साथ कम से कम पढ कर अधिक से अधिक प्रतिशत प्राप्त करने के आदी हो जाते है. १९८६ मे लागू हुयी शिक्षा नीति और  शिक्षा के अधिकार नियम २००९ की धज्जियाँ उडाते ये पब्लिक स्कूल पब्लिक ही नही वरन सरकार को भी अच्छा खासा चूना लगा रहे है. इस प्रकार के पढने वाले स्कूल मे एक कक्षा के कई सेक्शन होते है और अलग अलग सेक्शन  मे अलग अलग ग्रेड के बच्चे रखे जाते है जिससे यदि काम्प्टीशन बढता है तो दूसरी ओर कुंठा भी पनपती है. इन स्कूल्स मे फ़ीस के नाम से बवंडर पैदा करना. बिना किसी पूर्व सूचना के फ़ीस मे मनमानी बढोत्तरी करना इनका धंधा हो गया है. म.प्र सरकार ने लगभग ७२००० सीट्स प्राइवेट स्कूल्स मे वंचितो के लिये सुरक्षित रखा है पर इसका कितना लाभ इस बच्चों को  मिल रहा है यह कोई नहीं जानता है. शो पीस बन चुके इन स्कूल्स मे बहुत से काम धंधे सिर्फ़ कमीशन के लिये किये जाते है, जैसे ड्रेसेस, किताबें और कापियाँ, स्टेशनरी आदि मे अच्छा खासा मुनाफ़ा स्कूल्स और अच्छा खासा नुकसान पैरेंट्स को होता है. हर एक दो सालो मे इन सब का चेंज हो जाना और नये नये नियम कानून कहीं ना कहीं सभी परिवारों को भारी पडते नजर आते है. कई पब्लिक स्कूल्स का ये हाल है कि एडमीशन के समय ही एक बांड भरवा लिया जाता हैजिसमे यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि स्कूल मैनेजमॆंट के निर्णयों के खिलाफ़ कोई पैरेंट्स नहीं जा सकता है यदि ऐसा होता है तो उसी दिन बिना किसी सूचना के उसके बच्चे का एडमीशन निरस्त कर दिया जायेगा और इसके खिलाफ़ कोई किसी तरह की आपत्ति नहीं करेगा. आज के समय मे बडे बडे उद्योगपति और राजनैतिक नेता और जनप्रतिनिधि मनी ट्रांसफ़ार्मेशन के लिये और अपनी काली कमाई को शोसल सर्विस के लबादे मे फ़िट करने के लिये पब्लिक स्कूल खोलने की रेस  मे सबसे आंगे है. और इसी वजह से इन स्कूल्स की बंटाधारी की प्रक्रिया उतनी ही तेज हो गयी है.आज जरूरत है कि पब्लिक स्कूल के लिये पब्लिक के जागरुक होने की. तभी कुछ हो सकता है वर्ना पब्लिक अपनी जेब मे डाँका डलवाने के लिये तैयार भी हो जाये, क्योकी सरकार और समाज सब कहीं ना कहीं मजबूरी मे चूडियां पहने बैठे हुये है.

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

ऐ कुंभ तेरा आभार


ऐ कुंभ तेरा आभार
उत्तर प्रदेश सरकार का एक ऐसा नगर जिसे प्रयाग के नाम से सब लोग जानते है. कहते है हर बारह वर्षो मे कुम्भ का धार्मिक आयोजन जरूर होता है इस भारत वर्ष मे और वह धरा कई वर्षो तक के लिये पावन हो जाती है. इस साल प्रयाग जरूर तर गया होगा इस धार्मिक आयोजन के पूर्ण होने पर.कभी कभी मै यह सोचता हूं की यदि इस साल कुंभ नहीं होता तो इस देश के भविष्य का क्या होता,इस पर्व ने कई चीजों, कई व्यव्स्थाओं की कलई खोल दी है और कई राजनैतिक मुद्दो मे फ़िर से जान फ़ूक दी है
 क्या संयोग बना है एक तो धार्मिक कुम्भ, दूसरा चुनावी मौसम का आगमन, तीसरा हादसों से बेफ़िक्र सरकार का बडबोलापन
सब ऐसे जाल का निर्माण किया है वक्त ने की धर्म राजनीति और सत्ता सब एक साथ संगम डुबकी लगाती मुझे नजर आई. और फ़िर शुरू हुया मीडिया मे इसी बहाने ब्रेकिंग न्यूज का केंद्र बनाने की होड जिसको देखो वही पत्रकारों के सामने और कैमरा मैन के सामने अपनी फ़ोटो खिंचवा कर लोगो को दिखाने के लिये जूझे मरे दिखायी पड रहे थे.
 इस पूरे पर्व मे मैने एक बात जाना की कुम्भ मे आस्था सभी वर्गो के हिन्दुओं की थी और अटूट थी. पर उ.प्र. सरकार का इंतजाम सभी के लिये नहीं था. तभी तो रेल्वे दुर्घटना का एक बचकाना हादसा हमारी नजरो के सामने से आज भी भुलाये नहीं भूलता है. इस हादसे मे भले ही उ.प्र. सरकार अपना पल्ला झाड कर पूरा दोष रेल्वे जोन के सिर मढ दे. मेरी नजरोंमें दोषी दोनो है. एक राज्य की जिम्मेवारी है की वो पुराने आंकडों से और अपने अनुभवो से ऐसी तैयारियां करे की आने वाले भक्त जनों और आम नागरिकों को कोई परेशानी ना होती. रेल मंत्रालय और इलाहावाद रेलवे के सभी आला अधिकारियों को चाहिये था की उनकी हर व्यवस्था युद्ध स्तर की होती.लेकिन सिर्फ़ अफ़सोस दिखाने के अलावा दोनो के पास कोई साधन नहीं दिखा इस पर्व के दौरान. अगला एक और अनुभव जो इस कुंभ के दौरान देखने को मिला वह यह था कि सारे प्रशासनिक अधिकारी. प्रभाव वाले नेता नपाडियों के साथ साथ सारे मंत्री संत्री तंत्री का जब काफ़िला निकलता देखा गया तो ऐसा लगा की सरकारी सारी व्यवस्थाओ का केन्द्र बिंदु यही है. फ़िर सारे नियमों को शिथिल करते हुये सारे नियम कानूनो को ताक मे रख कर स्नान कराया गया. और स्नान को शाही बनाने के लिये कोई कसर नहीं छोडी गयी. इनके सामने तो सारे बाबा , साधू संतों के अखाडे फ़ेल नजर आये.और संतो साधुओं को तो अपने दर्शन देने के लिये अपने को सुरक्षा व्यवस्थाओ से वैसे भी दूर रहना चाहिये था उन्हे किस बात का डर था. ताकि अधिक से अधिक  लोग उनके दर्शन करके अपने जीवन को धन्य बना सके. इसी अगला मुदा भी कुछ ऐसा ही नजर आया.
अगला मुद्दा जो महसूस हुआ वह यह था की सुरक्षा व्यवस्था का मुद्दा , जिसको देखो कमांडो और सुरक्षा गार्डो की टीम टाम व्यव्स्था के साथ सभी उच्च वर्गो के प्रतिनिधि, जनता के प्रतिनिधि, और धर्म के प्रतिनिधि नजर आये. अब सवाल यह उठता है की इतनी सुरक्षा व्यवस्था वो भी व्यक्तिगत रूप से प्रयाग ले जाकर दिखाने का दिखावा किस काम का था. क्या अब जन प्रतिनिधियों को श्रद्धालुओ से जनता से और भक्त जनो से असुरक्षा महसूस होने लगी है और यही हाल क्या धर्म के प्रतिनिधियो साधुओ और संतो का था. या फ़िर सरकार की व्यवस्थाओ को ठेंगा दिखाने की होड चल रही थी इन सबके बीच. यहं पर आम लोगो के लिये ना सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम थे. ना सेवा दलो के कर्मचारी थे. और ना ही सरकार के सशक्त नियामक तंत्र थे, सारा माजरा सारी व्यवस्थाये. सिर्फ़ और सिर्फ़ धन वैभव वाले राज तंत्र के लोगो प्रतिनिधियो के लिये ,जिनसे कोइ स्वार्थ सिद्ध हो सकता था, की गयी थी. आम श्रद्धालू सिर्फ़ और सिर्फ़ दर्शन ,डुबकियां, अपने गुरू महराजॊ के आशीर्वाद , अव्यवस्थाओ, कडकती ठंड, रेल और यातायात की भीडतंत्र. के मूक दर्शक के रूप मे इस पर्व को मनाया और गाहे बगाहे इस जन्म को पावन और पवित्र करके संतुष्ट हो गया. इसी बहाने पूरा का पूरा कुंभ पर्व केंद्रित नजर आया कई नामी गिरामी बाबाओं संतो के अखाडो के शाही स्नान के बहाने उनके धन वैभव के प्रदर्शन पे, राजनैतिक प्रतिनिधियों के आरोपो और प्रत्यारोपो के बीच धर्म संसद के अवसर पर मीडिया के द्वारा बनायी गयी ब्रेकिग न्यूजेज पे, और पल्ला झाडती और जिम्मेदारियो से बचाव करती उ.प्र, सरकार और अन्य व्यवस्थाओं की टीम के बहाने बाजी और बयानबाजी पे. और हां करोडो आम श्रद्धालुओ की तार तार होती आस्थाओ.सरकारी व्यवस्थाओ पर उठते और  टूटते यकीन पे. इस तरह इस वर्ष के कुम्भ को बहुत कुछ जाना पहचाना और बहुत कुछ अनजाना घटना क्रम दिखाने के लिये आभार...कोटिशः आभार.