गुरुवार, 7 मार्च 2013

पब्लिक की जेब मे डाँका डालते पब्लिक स्कूल


पब्लिक की जेब मे डाँका डालते पब्लिक स्कूल
कान्वेंट और पब्लिक स्कूल की आँधी से आज अपना ही नहीं बल्कि देश के शत प्रतिशत शहर चपेट मे है. और इसका नुकसान पैरेंट्स की जेब को भोगना पडता है. यही इस तरह के स्कूल्स  की सबसे बडी खासियत है. नाम बडे और दर्शन छोटे वाली स्थिति होती है ऐसे स्कूल्स की. देखने के लिये अच्छा खासा इन्फ़्रास्ट्रेक्चर होता है. और इस तरह के कारखाने सिर्फ़ बच्चों के भविष्य को देखने का ख्याल बस ही नहीं करते है बल्कि नोट छापने के सबसे बडे अड्डे बन चुके है.पब्लिक स्कूल और कान्वेंट स्कूल का मूल विचार डे बोर्डिंग सिस्टम पे बनाया गया था. विकसित देशो से आया यह विचार जब भारत के बडे महा नगरों मे आया तो बडे तबके के लोगो को बहुत फ़ायदा हुआ. उसकी वजह यह थी की दम्पति नौकरी पेशे से जुडे होने की वजह से दिनभर  के लिये बच्चों के स्कूल मे छोड सकते थे. और वापिसी  मे लेकर आने मे उन्हे भी सुविधा होती थी.
 पर समय बदलने के साथ सब बदल गया. ये पब्लिक स्कूल का रूप रंग और ढंग भी बदल गया. जैसे शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ  इन स्कूल्स का आचरण भी पूरी तरह से व्यावसायिक हो गया. अब बच्चों का सर्वांगींण विकास का लक्ष्य सिर्फ़ पब्लिक को दिखाने के लिये होता है और पीछे से मैनेजमेंट के पैरेंट्स की जेब खाली करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये नये नये प्लान बना कर स्कूल मे उपयोग किये जाते है.आज के समय मे पब्लिक प्रेम की बजाय इन स्कूल्स का पैसा प्रेम ज्यादा दिखने लगा है. ये बच्चो से फ़ीस के अलावा अनेकानेक प्रकार के अन्य रास्तों से डोनेशन और रकम पूरे साल उगाही करने की कोशिशों मे सफ़ल रहते. नयी शिक्षा नीति के तहत जिस तरह से समान शिक्षा के अधिकार को तवज्जो दी गयी वह यहां पर अंतिम सांसे गिनता नजर आता है एडमीशन की स्थिति यह है कि अधिक्तर काम लाटरी सिस्टम के आधीन है अब लाटरी ही निर्णय लेती है की किसका प्रवेश होगा और कौन पैरेंट्स अपने बच्चे के साथ गेट के बाहर का रास्ता देखेगा. साल भर जिस स्कूल डेवलेपमेंट फ़ीस की वसूली की जाती है वह कितना स्कूल के विकास मे काम आती है इसका कोई हिसाब नहीं होता है और ना ही किसी को ये अधिकार होता है कि यह मैनेजमेंट से पूँछ सके.
   इस तरह के स्कूल मे बच्चों को रिफ़्रेंस बुक्स के नाम से सरासर उल्लू बनाया जाता है. इस बहाने सत्र के पहले ही उनके पास मुख्य किताबो के प्रश्नो के उत्तर होते है और विशय के शिक्षकों का काम पूरे साल आसान होजाता है इससे बच्चे रट्टू के साथ साथ कम से कम पढ कर अधिक से अधिक प्रतिशत प्राप्त करने के आदी हो जाते है. १९८६ मे लागू हुयी शिक्षा नीति और  शिक्षा के अधिकार नियम २००९ की धज्जियाँ उडाते ये पब्लिक स्कूल पब्लिक ही नही वरन सरकार को भी अच्छा खासा चूना लगा रहे है. इस प्रकार के पढने वाले स्कूल मे एक कक्षा के कई सेक्शन होते है और अलग अलग सेक्शन  मे अलग अलग ग्रेड के बच्चे रखे जाते है जिससे यदि काम्प्टीशन बढता है तो दूसरी ओर कुंठा भी पनपती है. इन स्कूल्स मे फ़ीस के नाम से बवंडर पैदा करना. बिना किसी पूर्व सूचना के फ़ीस मे मनमानी बढोत्तरी करना इनका धंधा हो गया है. म.प्र सरकार ने लगभग ७२००० सीट्स प्राइवेट स्कूल्स मे वंचितो के लिये सुरक्षित रखा है पर इसका कितना लाभ इस बच्चों को  मिल रहा है यह कोई नहीं जानता है. शो पीस बन चुके इन स्कूल्स मे बहुत से काम धंधे सिर्फ़ कमीशन के लिये किये जाते है, जैसे ड्रेसेस, किताबें और कापियाँ, स्टेशनरी आदि मे अच्छा खासा मुनाफ़ा स्कूल्स और अच्छा खासा नुकसान पैरेंट्स को होता है. हर एक दो सालो मे इन सब का चेंज हो जाना और नये नये नियम कानून कहीं ना कहीं सभी परिवारों को भारी पडते नजर आते है. कई पब्लिक स्कूल्स का ये हाल है कि एडमीशन के समय ही एक बांड भरवा लिया जाता हैजिसमे यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि स्कूल मैनेजमॆंट के निर्णयों के खिलाफ़ कोई पैरेंट्स नहीं जा सकता है यदि ऐसा होता है तो उसी दिन बिना किसी सूचना के उसके बच्चे का एडमीशन निरस्त कर दिया जायेगा और इसके खिलाफ़ कोई किसी तरह की आपत्ति नहीं करेगा. आज के समय मे बडे बडे उद्योगपति और राजनैतिक नेता और जनप्रतिनिधि मनी ट्रांसफ़ार्मेशन के लिये और अपनी काली कमाई को शोसल सर्विस के लबादे मे फ़िट करने के लिये पब्लिक स्कूल खोलने की रेस  मे सबसे आंगे है. और इसी वजह से इन स्कूल्स की बंटाधारी की प्रक्रिया उतनी ही तेज हो गयी है.आज जरूरत है कि पब्लिक स्कूल के लिये पब्लिक के जागरुक होने की. तभी कुछ हो सकता है वर्ना पब्लिक अपनी जेब मे डाँका डलवाने के लिये तैयार भी हो जाये, क्योकी सरकार और समाज सब कहीं ना कहीं मजबूरी मे चूडियां पहने बैठे हुये है.

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