शनिवार, 27 अप्रैल 2013

कैन्डिल मार्च या सैन्डिल मार्च


  कैन्डिल मार्च या सैन्डिल मार्च
दामनी के बाद तो देश मे हैवानियत जैसे अपने मुँह को और बडा करने मे लगी हुयी है और इन्सानियत तो जैसे दुम दबाकर भारत के किसी कोने मे विश्राम करने लगी है. बलात्कार करना जैसे आज के समय में वीरता का काम बनता जा रहा है कोई भी किसी भी वक्त यह कृत्य करके अपने को गौरवान्वित और पुरुषार्थ की जीत का जश्न मनाता नजर आता है. कभी कभी तो यह लगता है कि संस्कार और विरासत तो कहीं खो सी गयी है.सभ्यता तो बिल्कुल अंतिम साँसें गिन रही है,. सिर्फ बची कुची जो इज्जत इन्सानियत के पास शेष है वो भी लोग बलात्कृत करके इन्शानों से छीनने में लगे हुये है. दिल्ली जैसे महानगरों में तो लडकी कोई खेलने वाली गुडिया बनकर रह गयी है. जिसमे कोई उमर की आवश्यकता नहीं है जो चाहे खरीदे , छीने खेले और कचडॆ में फेक दे. नियम और कानून की धज्जियाँ उडाते ये इन्सानो के भेष में छिपे दरिंदे वास्तविक रूप से अपनी मानसिक विकृति का शिकार मासूम  लडकियो को बनाते है, इनके लिये लडकियाँ किसी की माँ ,बहन ,बेटी,और परिवार का और भी कोई रिस्ता नहीं सिर्फ भोगने वाली मादा मानते है. जिसका उपयोग और उपभोग करके सिर्फ भोगवादी भूख और प्यास मिटाने का प्रबंध किया जा सके. जानवरों से भी बदतर इनका यह कृत्य यह शाबित कर देता है कि मानसिक सोच की पगडंडियाँ कितनी संकरी हो चुकी है. की अब उनकी चौडी होनी की संभावना बहुत कम है.
       जिस प्रकार दक्षिण अफ़्रीका की राजधानी केपटाउन है उसी तरह भारत की राजधानी दिल्ली अब रेपटाउन बनती जा रही है. और दिल्ली सरकार पुलिस और प्रशासन सब अपने घर की बेटियों यह सांस्कृतिक कार्यक्रम होने का जैसे इन्तजार करते बैठे हुये है. दिल्ली क्या भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है जहाँ यह कष्टकारी घटना ना घटती हो. मुझे तो लगता है कि प्रशासन पुलिस और सरकार क्या कर सकती है जब हम में ही चारित्रिक कमजोरी है और नैतिक पतन है. आज के समय देश वाकयै विकासशीलता का पालन कर रहा है. नैतिक विकास बहुत कम और अनैतिक विकास बहुत तेजी से हुआ है.आज के समय में पोर्नोग्राफी जहाँ युवाओं के मोबाइल्स की शान बने हुये है. जहाँ देश मे सन्नी लियोन और अन्य आइटम हीरोइन्स अपने जिस्म का प्रदर्शन करने मे गौरवान्वित महसूस करने लगी हो,. वहाँ पर रेप कैसे रुक सकते है. सामान्यतः मनोविज्ञान का मनोविज्ञान भी चकित है कि भारत के लोगो को क्या हो गया है. एक केस समाप्त होता नहीं है कि दूसरा अंजाम तक पहुँच जाता है. सरकार की सिरदर्दी भी कम नहीं हो पाती है.सबसे बडी बात कि इस तरह की घटनाओं में लोग कैंडिल मार्च करके शांति प्रदर्शन करने में जुट जाते है. थोडा बहुत शोक मनाते है और फिर अपने काम लग जाते है. जैसे कुछ हुआ हि नहीं है. सब सामान्य रूप से चलने लगता है. और सब लोग दुहायी देते है कि सरकार कुछ कर नहीं कर रही है. .अरे रेप करे आपके समाज का और आप हाथ मे हाथ धरे बैठे रहे ... फिर सरकार ,पुलिस और प्रशासन को दोष देते रहे. हम सब जानते है कि कानून हमारा इतना लचीला और सुस्त है कि अपराधियों को सजा देने में कई साल लग जाते है. न्याय तो कोर्ट के दरवाजे के सामने कुम्भकर्ण की नींद लेता नजर आता है. फरियादी और फरियादी का परिवार  अपने फरियादी होने पर दिन रात सोचते सोचते मर जाता है पर न्याय नहीं मिल पाता है. यही सब चलते रेप करने वाले दरिंदे खुले आम घूमते है एक के बाद एक अनगिनत रेप करते है पर हमारा कानून उदारवादी रवैये के चलते सिर झुका लेता है. देश की महिलाये , और अन्य जागरुक लोग दिन रात धरना प्रदर्शन करके सरकार से न्याय की गोहार लगाते है. सरकार पुलिस बल का प्रयोग करके लाठी चार्ज करती है.
      आज के समय पर जरूरत है की अपने मसले खुद निपटाओ. कब तक.....आखिरकार कब तक इस तरह महिलाये जिसे देवियों का स्थान दिया जाता है उन्हे लाठियाँ खाना पडेगा. वो खुद चाहें तो इस मसले को. बलात्कारियों को और अपने अपराधियों को ऐसी सजा दें की सब लोग देखे . क्या जरूरत है कोर्ट में जाकर अपना समय और रुपया बरबाद करने की. कैंडिल मार्च की जगह यदि इन बलात्कारियों के साथ सैंडिल मार्च किया जाये तो  हमारे देश की महिलाये और बेटियाँ इतनी है कि बलात्कारी सैंडिल खाते खाते बेमौत मर जायेगा.  क्योकीं दिल्ली में बैठी शीला दीक्षित जी तो कुछ करने से रहीं और सरकार सिर्फ बयानबाजी से बाज नहीं आती है. तो महिलाओं को यह काम अपने हाथों से करना होगा. इसके लिये देश की महिलाओं को एक जुट होकर सहयोग करके बलात्कारियों को सजा देना होगा, वरना अभी तो देश की राजधानी रेप टाउन बनी है आने वाले समय में पूरे राज्यों के हर शहर रेपटाउन बन जायेंगें.

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

संविधान का बदलते विधान में बाबा साहबह


संविधान का बदलते विधान में बाबा साहब
पिछले ही सप्ताह अम्बेडकर जयन्ती का आयोजन किया गया. कई जगह पर अनगिनत आयोजन किये गये. ऐसा लगा कि आज ही देश की बहुत सी पार्टियाँ, संगठन और सामाजिक संस्थायें अपने अपने तरीके से आयोजन किये और समाचार पत्रो की सुर्खियाँ बने. हमारे देश की परम्परा हो गयी है कि किसी भी महापुरुष की जयन्ती हो या किसी भी बडे साहित्यकार का जन्मदिवस , वह भी टोलों और गुटो के हवाले हो गयी है. बापू किसी राजनैतिक संगढन की विरासत बन गये. कोई जयप्रकाश के नाम पर ऐश कर रहे है. कोई लोहिया को अपने घर की बपौती समझ कर उसके नाम पर देश को अपने अगुलियों में नचाने की कवायद कर रहे है. और यही हाल अपने संविधान का विधान लिख्नने वाले बाबा साहेब का.कभी पढा था की बाबा साहेब दबे कुचले और आम सर्वहारा वर्ग के साथ थे. उन्होने समाजिक परिवर्तन के लिये सर्वहारा वर्ग के लिये लडते रहे.समाजिक वर्ग संरचना के विरोध में आम जन की आवाज बनते रहे. और आजाद भारत के संविधान की रचना करने का कार्य अपनी समिति के साथ मिल कर किया और. संविधान के जनक बन गये. पूरा देश आज उनके लिये कृतज्ञ है.
आजादी के बाद जैसे जैसे देश तरक्की करता गया,उसमे और भी बदलाव द्रुत गति से होते गये. देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था भी राजनेताओं के हवाले होती चली गयी.संविधान का विधान लिख्नने वाले बाबा साहेब की मेहनत को लोग भूलते चले गये और अपने स्वार्थ और राजनैतिक रोटियों को सेकने के लिये संविधान की सिगडी मे परिवर्तबन होता रहा और हर एक वर्ष ही अम्बेडकर जयन्ती मे सभी दलों के राज नेता यह कह्ते नजर आये कि आज भी भारत बाबा साहेब के संविधान मे अपना विकास कर रहा है. मेरे यह नही समझ मे आता है कि आज बाबा साहेब का संविधान रह कहां गया. इतने बार संसोधन होने के बाद तो बाबा साहेब की रूह भी सोचती होगी कि कहाँ से मैने भारत को चलाने के लिये संविधान बनाने के लिये दिन रात एक कर दिया और आज भारतवासी उसी के नाम की धज्जियाँ उडाने में लगे हुये है. आज देश मे हर दल का कदवार नेता और मंत्री दावे के साथ यह कहते नजर आते है कि हम बाबा साहेब का इतना आदर और सम्मान करते है कि आज भी उन्ही के बनाये संविधान मे चल रहे है. पर अफसोस की बात की बाबा साहेब की आत्मा को तो उसी दिन ही ठेस पहुँच गई थी जिस दिन संविधान में संसोधन होना शुरू हो गया था. आज जिस बात का राग अलापा जा रहा है वह पूरी तरह से बेबुनियाद है. बाबा साहब का संविधान आम सर्वहारा वर्ग के लिये और अमी्री गरीबी की खाई पाटने वाला था. और परिणाम भी जल्द भारत को देने वाला था. परन्तु जो भी सत्ता मे गया वह संविधान मे संसोधन मे उतारू हो गया. और अब दावा करना उनके राष्ट्र प्रेम को गालियाँ देने की तरह ही है.
  सबसे बडी बात बाबा साहब की १२३ वी जयन्ती मनाने वाला भारतवर्ष और उसके राज नेता जिस तरह की ईमानदारी बाबा साहेब के जीवित रहने के दौरान दिखा रहे थे मरने के बाद उनके अनुयायी उनके विरोध मे हो गये. अपने अपने गुट बना लिये और समय के साथ पाले बदल लिये. जहाँ पर बाबा साहेब के चरण पखारने वाले लोग,उनकी पूजा करने वाले लोग, उनके गुणगान करने से नहीं थकते थे. वो समय बदल जाने के साथ साथ अब उन्ही के नाम पर ऐश और कैश करते नजर आते है. आज बाबा साहब को निश्वार्थ भाव से याद करने वाला व्यक्ति कम मिलेगा और उनकी वसीहत के नाम पर अपनी जागीर बनाने वाले लोग गिनती से भी बढ कर है. बैर हाल वाकया कुछ भी हो परन्तु बाबा साहब के कार्यों को यूँ हवा में उडाने की प्रवृति छोड कर प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता है. और संविधान के विधान को सम्हालने की आवश्यकता और भी ज्यादा है.

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

अतिथि विद्वान,पडे उतान....


अतिथि विद्वान,पडे उतान....
स्कूल शिक्षा मे जो हाल संविदा शिक्षकों का सरकार ने कर रखा है वही हाल महाविद्यालयीन शिक्षा मे अतिथि विद्वानों का उच्च शिक्षा मे उच्च शिक्षा विभाग ने कर रखा है. बस जहाँ अंतर सिर्फ इतना है कि संविदा शिक्षको के वेतन मान का अन्य परमानेंट शिक्षकों की तुलना मे अनुपात ५००० और २५००० का है और अतिथि विद्वानो के विषय मे यह अनुपात ८०००-१०००० और ५००००-८०००० का अंतर है. कुल मिलाकर देखा जाये तो इनकी जीवन चर्या को गर्त में मिलाने का काम सरकार के उच्च शिक्षा विभाग ने बखूबी किया है. ये तथाकथित रूप से विद्वान का पद तो पाजाते है पर वेतन मान और अपनी विद्वता का पारितोषित पाने के लिये खून के आँसू बहाने पडते है. साल के दस महीने इनके जलवे  महाविद्यालय मे होते है और फिर काम निकल जाने के बाद इनको दूध मे पडी मक्खी की तरह निकाल कर फेक दिया जाता है. तब इनकी सेवा, शिक्षा , ज्ञान और अनुभव की बारा की ढेर हो जाती है. और सिर्फ यही कहा जाता है की यह नियुक्ति तो जनभागीदारी समिति के तहत सिर्फ पीरियड के तहत हुई थी. हम सब नियम कानून से बंधे हुये है.अतिथि विद्वान योग्यता में प्राध्यापकों की तुलना में कहीं भी कम नहीं होते है. वो नेट, पी.एच.डी. एम.फिल, सभी उच्च योग्यताओं से परिपूर्ण होते है. और ज्ञान में तो कभी कभी ६० वर्ष पूर्ण करने वाले प्राध्यापको से एक कदम आंगे ही होते है. क्योकी के वो अध्ययन में किसी से कम नहीं और अपने को समय समय में अपडेट करते रहते है. पर प्राध्यापक तो इन सबसे परहेज इस लिये है कि ना उनके पास इतना समय है और ना ही उनको जरूरत जब सरकार उन्हे ५००००-८०००० रुपये दे रही है तो पढना भी सिर्फ समय की बरबादी नजर आती है और कालेज के विद्यार्थी तो पढने आते कहाँ है. वो तो डिग्री लेने और राजनीति करने शासकीय महाविद्यालय में आते है.
          सरकार जहाँ एक तरफ प्राध्यापकों की नियुक्ति करने में असमर्थ है या ये कहे कि इतनी भी अब औकात नहीं रह गई की वो सहायक प्राध्यापक की सीधी भर्ती करके सभी महाविद्यालयों मे नियुक्ति करे ताकी यह स्थिति आये ही नहीं, सरकार के पास बैकलाग पदों की नियुक्ति करने का समय ,बजट और योजनायें है पर सामान्य भरती की कोई योजना नहीं है यह कहाँ का न्याय है. और दूसरी तरफ हर जगह महाविद्यालय लगातार कुकुरमुत्तों की तरह खुलते चले जारहे है. तो फिर छात्रो के पठन पाठन के हित के लिये अतिथि विद्वानों की नियुक्ति एक सामान्य प्राध्यापक की तरह क्यों नहीं की जाती है. कई जगह तो ऐसी है जिसमें प्राचार्य को छोड कर सारा स्टाफ अतिथि विद्वानों का है. पूरे सत्र मेहनत करने में ये कभी पीछे नहीं रहते है. वेतन मान में इनकों पीछे क्यों छोड दिया जाता है, सरकार इनके साथ इस तरह का सौतेला व्यवहार करती है जैसे सरकारी प्राध्यापक सरकार की जायज औलाद हो और ये नाजायज. इनका पूरा कार्य एक प्राध्यापक की तुलना में कहीं भी कम नहीं आँका जा सकता है, बल्कि कई मायनों में कामचोरी और पढने पढाने की चोरी के मामले में प्राध्यापक इन अतिथि विद्वानों से कई कदम आंगे होते है.
  कभी कभी तो ऐसा नहीं लगता है कि शासन की नजरों में जैसे ना इनका परिवार है. ना इन्हे. कोई जरूरत होती है. ये बिल्कुल फकीर है......आखिर क्या हो रहा है इस उच्च शिक्षा विभाग को क्यों इतना भेदभाव है. काम मे समान और वेतनमान में अलग अलग. आज जरूरत है कि उच्च शिक्षा विभाग  या तो लोक सेवा आयोग के तहत या तो परमानेंट नियुक्ति करे, या फिर इन अतिथि विद्वानों की योग्यता और अनुभव के आधार पर इनकी नियुक्ति के प्राध्यापक के रूप में करे तभी इनका भविष्य कुछ हद तक उज्ज्वल होगा. अन्यथा, आज तो ये पूरी तरह से उतान पडे हुये है. ना कोई माई बाप है ना कोई योजना इनका भविष्य बना रही है. और ना महाविद्यालय का कोई सहयोग.साल भर मे ९ महीने काम करने के बाद बाकी ३ महीने इनके कैसे परिवार चलते होंगे. कैसे इनका गुजारा होता होगा. और इनके परिवार का विकास कैसे होगा यह सोच कर चिंता होने लगती है. पर हमारा प्रशासन की कान में जूं तक नहीं रेगती, उसे इनके काम से सरोकार होता है परन्तु इनके जीवन इनके परिवार और इनके भविष्य से कोई सरोकार क्यों नहीं होता. यदि यही चलता रहा तो तय है कि आने वाले वक्त मे अतिथि विद्वान प्राइवेट विद्यालय और महा विद्यालय मे पढा लेगा पर सरकारी अतिथि विद्वान बनना नहीं पसंद करेगा, क्योंकि यदि मेजबान बेशर्म हो जाये तो अतिथि ना बनने में ही बडप्पन होगा.
अनिल अयान सतना.

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

मरीज हलाल डाक्टर खुशहाल


मरीज हलाल डाक्टर खुशहाल
बीमारियाँ बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारी जिंदगी मे आती है. और कब तक इनका ठिकाना रहेगा यह तो बीमार होने वाला व्यक्ति भी नहीं जानता है.बीमारी ,बीमार और अस्पताल का संबंध बिल्कुल लंगोटिये यार की तरह रहा है. जब भी बीमारी हमारी जिंदगी में आती है तो मजबूरी मे हमें अस्पताल रूपी यमलोक जाना ही पडता है. और यह स्थिति से सभी रूबरू होते है.आम आदमी को उस वक्त अपने आम तबके के होने का आभास हो जाता है जब वो गल्ती से सरकारी अस्पताल पहुँच जाये. जहाँ बीमारी चार दिन मे सही होने वाली होगी वहाँ चार सप्ताह में भी सही नहीं होती है. सरकारी अस्पताल यानी आपकी स्थिति एक जानवर से भी बदतर होती है यहाँ के लोग है भगवान और आप इंसान. इसके बीच का गैप इतना ज्यादा होता है कि आप चाह कर भी यहाँ के स्टाफ से मानवीयता की उम्मीद नहीं कर सकते है.
          सरकारी अस्पताल का हाल यूँ होता है कि मरीज डाक्टर की दवा खाकर ही मरते है. और डाक्टर बहुत ही सफाई से यह कह देता है कि भगवान के आँगे भला किसी की कैसे चल सकती है. सब कहने की बाते है. सरकारी अस्पताल का रवैया देख कर तो यह लगता है कि इस तरह की इमारते हमारे समाज मे सिर्फ मरीज से रुपया चूसने के लिये ही बनायी जाती है जिसमे एक वार्ड ब्वाय से लेकर एक अधिकारी तक सिर्फ मरीज और उसके परिवार वालों की चरसी उकेलने से बाज नहीं आते है. सिलसिला तब शुरु होता है जब उसे ओपीडी में घंटो खडे होकर सिर्फ दिखाने के लिये पर्ची कटवाने का इंतजार करना पडता है. फिर डाँक्टर साहब का इंतजार , उनके पास इतना समय कहाँ कि वो आम जन की बान को सुन सकें वो तो नर्सिंग होम्स और प्राइवेट प्रैक्टिस मे काफी व्यस्त रहते है. अब मरीज चाहे तो डाक्टर के घर जाकर या क्लीनिक जाकर अपना इलाज कराये वरना इलाज करवाने के लिये सूरज के डूबने तक का इंतजार करे,,,, मरीज और उसके परिवार वाले इस तरह की स्थिति देख कर झोलाछाप डाक्टर्स का सहारा लेने के लिये मजबूर है क्योंकि ना उनके पास उतना पैसा है और ना वक्त की डाक्टर साहब के नखडों को बरदास्त कर पाये. सरकारी अस्पताल की एक और खासियत होती है यहाँ पर कोई काम मुफ्त में नहीं होता है. हाँ मुफ्त रूप का जामा पहना दिया जाता है. मानवीयता तो यहाँ पर शर्म से पानी पानी नजर आती है. यहा पर भर्ती होने वाले मरीज तब ही यहाँ से जाते है जब वो जान जाते है कि अब मरने की स्थिति आगई है या फिर मरीज अब इन डाक्टर्स के बस का नहीं है.
यहाँ पर किसी मरीज को तभी सूचना दी जाती है जब वो पूरी तरह से टूट चुका होता है और दवाएँ मर्ज को सही कर पाने  मे असमर्थ हो जाते है. पूरी तरह से चूतिया बनाने का खेल चलता है अधिक्तर सरकारी अस्पतालों मे. यहाँ पर आम दवाएँ जो मरीजो को मुफ्त मे दी जानी चाहिये... या बुजुर्गों के इलाज की दवायें.. या गर्भवती महिलाओं के लिये योजनाये.... सभी सिर्फ नाम मात्र की है... इसके लिये भी यहाँ के कर्मचारियों के द्वारा मरीजों को परेशान कर लिया जाता है.और इतना परेशान किया जाता है कि दोबारा वो सरकारी योजनाओं के लाभ की बात सपनें में भी नहीं सोचते है.यहाँ का कोई भी कर्मचारी सही समय पर नहीं होता है. सबसे मिलने के लिये इंतजार और लंबा इंतजार करना ही पडता है, यहाँ के डाँक्टर्स को ना कभी रोक लगाई जाती है कि वो प्राइवेट प्रैक्टिस को इतना बढावा क्यों देते है नर्सिंग होम की कमाई के लिये क्यों मरीजों को परेशान करते है. मानवरूप मे इस तरह के भगवान और उनके चेलों से प्रेम की भाषा तो कोसों दूर नजर आती है.एक बात और जो देखने को मिलती है की इस लोगों को स्वागत सत्कार का मौका सिर्फ मेडिकल कम्पनियों के प्रतिनिधि खूब देते है. और उन्ही की सेवा सत्कार का परिणाम होता है कि डाक्टर्स को हर वर्ष मेडिकल कम्पनियों की तरफ से उनका दिया टारगेट पूरा करने के लिये फारेन टूर और अन्य सुविधाये और सेवाये भी बेरोकटोक दी जाती है. इस तरह की अप्रत्यक्ष रूप से दीजाने वाली सुविधा शुल्क का कोई माई बाप नहीं है. ना कोई इन पर लगाम लगाने के लिये आगे आता है.सरकार तो इस तरह के रिवाजों पे कोई भी प्रतिक्रिया नही देती है.
          अजीब है स्वास्थ्य विभाग और उसकी योजनाएँ,,,, भोपाल से समय समय में घोषणाएँ होती है पर मरीजों तक पहुँचना सिर्फ एक स्वपन ही होती है.ऐसा नहीं है कि सरकारी अस्पतालों के ऊपर आलाकमान नहीं है पर उनका निरीक्षण सिर्फ दिखावटी होता है, पहले से अस्पताल को पता होता है जिसके चलते वो अधिकारियों की भरपूर सेवाखुसामद करते है जिससे कमियाँ अपने आप छिप जाती है... निरीक्षण के दिन तो ऐसा लगता हैकि इससे अच्छा अस्पताल तो पूरे देश मे नहीं है.इस तरह के रवैये के चलते स्वास्थ विभाग चाहकर भी परदे के पीछे की तस्वीर नहीं देख पाता है.पूरी तस्वीर सिर्फ देखकर सोचने वाली होती है.देखने मे सब सामान्य सा दिखता है पर महसूस करने पर क्षोभ भी होता है और पीडा भी होती है. यही इस जहाँ की रीत है यदि अस्पतालों को जन सामान्य के लिये हित कर बनाना है तो पहले इन्हे नैतिक शिक्षा का पाठ पढने की आवश्यकता है. और फिर सी.एम.ओ. सी.एम.एच ओ. और हर व्यक्ति जो इस सेवा कार्य से जुडा हुआ है उनके स्वनुशासन की बहुत जरूरत वरना चाहे सरकार सिर के  बल भी खडी हो जाये चाहे स्वास्थ्य मंत्री दिन रात एक कर दे पर इनकी कालगुजारी से जनता और सर्वहारा वर्ग को नही बचाया जा सकता है इसी तरह आपरेशन्स मे औजार छूटते रहेंगे. गलत पतों पर शव प्रेषित किये जायेंगे. इसी तरह पब्लिक डाक्टर्स को सरे आम पीटेगी. क्योकी जनता इस तरह की मजाकबाजी कब तक इनके द्वारा बर्दास्त करती रहेगी.
अनिल अयान.सतना

बीमारियाँ बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारी जिंदगी मे आती है. और कब तक इनका ठिकाना रहेगा यह तो बीमार होने वाला व्यक्ति भी नहीं जानता है.बीमारी ,बीमार और अस्पताल का संबंध बिल्कुल लंगोटिये यार की तरह रहा है. जब भी बीमारी हमारी जिंदगी में आती है तो मजबूरी मे हमें अस्पताल रूपी यमलोक जाना ही पडता है. और यह स्थिति से सभी रूबरू होते है.आम आदमी को उस वक्त अपने आम तबके के होने का आभास हो जाता है जब वो गल्ती से सरकारी अस्पताल पहुँच जाये. जहाँ बीमारी चार दिन मे सही होने वाली होगी वहाँ चार सप्ताह में भी सही नहीं होती है. सरकारी अस्पताल यानी आपकी स्थिति एक जानवर से भी बदतर होती है यहाँ के लोग है भगवान और आप इंसान. इसके बीच का गैप इतना ज्यादा होता है कि आप चाह कर भी यहाँ के स्टाफ से मानवीयता की उम्मीद नहीं कर सकते है.
          सरकारी अस्पताल का हाल यूँ होता है कि मरीज डाक्टर की दवा खाकर ही मरते है. और डाक्टर बहुत ही सफाई से यह कह देता है कि भगवान के आँगे भला किसी की कैसे चल सकती है. सब कहने की बाते है. सरकारी अस्पताल का रवैया देख कर तो यह लगता है कि इस तरह की इमारते हमारे समाज मे सिर्फ मरीज से रुपया चूसने के लिये ही बनायी जाती है जिसमे एक वार्ड ब्वाय से लेकर एक अधिकारी तक सिर्फ मरीज और उसके परिवार वालों की चरसी उकेलने से बाज नहीं आते है. सिलसिला तब शुरु होता है जब उसे ओपीडी में घंटो खडे होकर सिर्फ दिखाने के लिये पर्ची कटवाने का इंतजार करना पडता है. फिर डाँक्टर साहब का इंतजार , उनके पास इतना समय कहाँ कि वो आम जन की बान को सुन सकें वो तो नर्सिंग होम्स और प्राइवेट प्रैक्टिस मे काफी व्यस्त रहते है. अब मरीज चाहे तो डाक्टर के घर जाकर या क्लीनिक जाकर अपना इलाज कराये वरना इलाज करवाने के लिये सूरज के डूबने तक का इंतजार करे,,,, मरीज और उसके परिवार वाले इस तरह की स्थिति देख कर झोलाछाप डाक्टर्स का सहारा लेने के लिये मजबूर है क्योंकि ना उनके पास उतना पैसा है और ना वक्त की डाक्टर साहब के नखडों को बरदास्त कर पाये. सरकारी अस्पताल की एक और खासियत होती है यहाँ पर कोई काम मुफ्त में नहीं होता है. हाँ मुफ्त रूप का जामा पहना दिया जाता है. मानवीयता तो यहाँ पर शर्म से पानी पानी नजर आती है. यहा पर भर्ती होने वाले मरीज तब ही यहाँ से जाते है जब वो जान जाते है कि अब मरने की स्थिति आगई है या फिर मरीज अब इन डाक्टर्स के बस का नहीं है.
यहाँ पर किसी मरीज को तभी सूचना दी जाती है जब वो पूरी तरह से टूट चुका होता है और दवाएँ मर्ज को सही कर पाने  मे असमर्थ हो जाते है. पूरी तरह से चूतिया बनाने का खेल चलता है अधिक्तर सरकारी अस्पतालों मे. यहाँ पर आम दवाएँ जो मरीजो को मुफ्त मे दी जानी चाहिये... या बुजुर्गों के इलाज की दवायें.. या गर्भवती महिलाओं के लिये योजनाये.... सभी सिर्फ नाम मात्र की है... इसके लिये भी यहाँ के कर्मचारियों के द्वारा मरीजों को परेशान कर लिया जाता है.और इतना परेशान किया जाता है कि दोबारा वो सरकारी योजनाओं के लाभ की बात सपनें में भी नहीं सोचते है.यहाँ का कोई भी कर्मचारी सही समय पर नहीं होता है. सबसे मिलने के लिये इंतजार और लंबा इंतजार करना ही पडता है, यहाँ के डाँक्टर्स को ना कभी रोक लगाई जाती है कि वो प्राइवेट प्रैक्टिस को इतना बढावा क्यों देते है नर्सिंग होम की कमाई के लिये क्यों मरीजों को परेशान करते है. मानवरूप मे इस तरह के भगवान और उनके चेलों से प्रेम की भाषा तो कोसों दूर नजर आती है.एक बात और जो देखने को मिलती है की इस लोगों को स्वागत सत्कार का मौका सिर्फ मेडिकल कम्पनियों के प्रतिनिधि खूब देते है. और उन्ही की सेवा सत्कार का परिणाम होता है कि डाक्टर्स को हर वर्ष मेडिकल कम्पनियों की तरफ से उनका दिया टारगेट पूरा करने के लिये फारेन टूर और अन्य सुविधाये और सेवाये भी बेरोकटोक दी जाती है. इस तरह की अप्रत्यक्ष रूप से दीजाने वाली सुविधा शुल्क का कोई माई बाप नहीं है. ना कोई इन पर लगाम लगाने के लिये आगे आता है.सरकार तो इस तरह के रिवाजों पे कोई भी प्रतिक्रिया नही देती है.
          अजीब है स्वास्थ्य विभाग और उसकी योजनाएँ,,,, भोपाल से समय समय में घोषणाएँ होती है पर मरीजों तक पहुँचना सिर्फ एक स्वपन ही होती है.ऐसा नहीं है कि सरकारी अस्पतालों के ऊपर आलाकमान नहीं है पर उनका निरीक्षण सिर्फ दिखावटी होता है, पहले से अस्पताल को पता होता है जिसके चलते वो अधिकारियों की भरपूर सेवाखुसामद करते है जिससे कमियाँ अपने आप छिप जाती है... निरीक्षण के दिन तो ऐसा लगता हैकि इससे अच्छा अस्पताल तो पूरे देश मे नहीं है.इस तरह के रवैये के चलते स्वास्थ विभाग चाहकर भी परदे के पीछे की तस्वीर नहीं देख पाता है.पूरी तस्वीर सिर्फ देखकर सोचने वाली होती है.देखने मे सब सामान्य सा दिखता है पर महसूस करने पर क्षोभ भी होता है और पीडा भी होती है. यही इस जहाँ की रीत है यदि अस्पतालों को जन सामान्य के लिये हित कर बनाना है तो पहले इन्हे नैतिक शिक्षा का पाठ पढने की आवश्यकता है. और फिर सी.एम.ओ. सी.एम.एच ओ. और हर व्यक्ति जो इस सेवा कार्य से जुडा हुआ है उनके स्वनुशासन की बहुत जरूरत वरना चाहे सरकार सिर के  बल भी खडी हो जाये चाहे स्वास्थ्य मंत्री दिन रात एक कर दे पर इनकी कालगुजारी से जनता और सर्वहारा वर्ग को नही बचाया जा सकता है इसी तरह आपरेशन्स मे औजार छूटते रहेंगे. गलत पतों पर शव प्रेषित किये जायेंगे. इसी तरह पब्लिक डाक्टर्स को सरे आम पीटेगी. क्योकी जनता इस तरह की मजाकबाजी कब तक इनके द्वारा बर्दास्त करती रहेगी.
अनिल अयान.सतना