सोमवार, 27 मई 2013

भारतीय लोकतंत्र बनाम बौद्ध गणतंत्र


भारतीय लोकतंत्र बनाम बौद्ध गणतंत्र
दो दिन पहले बुद्ध जयन्ती का आयोजन शहर मे धूमधाम से हुआ. मुद्दा था वही एक विरोधात्मक विचार बिंदु क्या बुद्ध के विचारों से भारत का लोकतंत्र चल सकता है. विषय कुछ अटपटा सा जरूर है परन्तु कुछ कहने का मन हो रहा है बौद्ध दर्शन और बुद्ध की गणतंत्र की परिकल्पना बनाम भारतीय लोकतंत्र व्यवस्था कहाँ से कोई जोड तोड ढूँढ कर लाया जाये यह यक्ष प्रश्न खडा मिला. तथागत बुद्ध जिसने पूरी राज सत्ता को त्याग कर ज्ञान प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करने हुये प्रवासी हो गये और अंतत जब ज्ञान प्राप्त कर लिया तब उन्होने नही विचारधारा का प्रतिपादन किया जिसे पंचशील का नाम दिया गया. जो शायद बौद्ध गणतंत्र की नींव मानी जा सकती है. बुद्धम शरणं गच्छामि, संघम शरणं गचछामि, धम्मं शरणं गच्छामि की परिकल्पना को मानने वाल बौद्ध धर्म आज भारत में किस स्थिति में है वो हमारी नजरों के सामने देखने को मिलता है.यह सच है कि बौद्ध धर्म मैत्री, शांति,प्रेम, और भाईचारे का संदेश देता है. परन्तु क्या देश वर्तमान स्थिति में यह संदेश लेकर हम किस समय तक इस विश्व की धरोहर में कायम रह पायेंगे.
  यह धर्म बुद्ध के संदेशो मे पिरोया गया था. आज के विश्व में सबसे अधिक इसी धर्म के लोग निवास करते है. इसी धर्म के अनुयाई है हर जगह बौद्ध शिलालेख हमें देखने और सुनने को मिल जायेगें. अधिक्तर देश बौद्ध धर्म, फिर ईसाइयत, और तत्पश्चात मुस्लिम धर्म के अनुयायी मिलेंगे. भारत मे यह स्थिति पूर्णतः विपरीत है. बौद्ध धर्म में जिस गणतंत्र का जिक्र मिलता है वह उस समय के लिये सही था. वहाँ पर वोट देने का अधिकार सदस्यों को ही हुआ करता था. और उत्तराधिकारी की नियुक्ति परिवार से ही की जाती थी. भारत की स्थिति कुछ या ये कहें की बहुत कुछ अलग है. हमारी सबसे बडी विडम्बना है कि हम हर प्रश्न की खोज हर महापुरुष की बातों में खोजने में उतारू हो जाते है ,बिना ये समझे कि वो किस समय यहाँ जन्म लिया था. उस समय इस देश की परिस्थितियाँ क्या थी. और उसने किन हालातों के चलते अपने अनुयायी बनाये. और फिर हमारा आँकलन शुरू हो जाता है. उसने कैसे यह बात कह दी है. क्या आज के समय में वह समसामायिक है. ये सारे फिजूल के भ्रम हमारे दिलो दिमाग में फितूर उतपन्न कर देता है. और फिर है उस महापुरुष को अपनी आलोचना का शिकार बना लेते है. बुद्ध के अनुयाई ही उनके विचारों को नहीं अपना पाये तो हमारे देश की क्या गिनती है. हमने सिर्फ अपने समय के अनुसार अपने आराध्य बदल दिये है. और आज के समय में तो सिर्फ राजतंत्र ही सबसे बडा तंत्र है. गणतंत्र तो कब का गायब हो चुका है.
  भारत की स्थिति कुछ ऐसी है कि भारत में सिर्फ वोट तंत्र चलता है वोट के लिये हमने दलाईलामा को अपने देश में शरण दिया. ताकि  उस समय में सत्ता में बैठी सरकार को लाभ हो जाये. हमने सिर्फ देश मे उन लोगो को बिठा दिया जिन्होने आज तक देश को सिर्फ बेंचने का काम किया है. चाहे वो प्रत्यक्ष रूप में हो या अप्रत्यक्ष रूप में इस सब के चलते क्या देश के हालात ऐसे  है कि बुद्ध के मैत्री , भाईचारा और प्रेम का संदेश ध्वज लेकर हम अपने शत्रुओं का सामना कर सकते है. नहीं आज के समय में यदि हमें विकास पथ पर लेचलना है तो हमे अपना नियम अपना कानून प्रायोगिक तौर पर बनाना होगा. बौद्ध दर्शन और बौद्ध गणतंत्र की परिकल्पना आज के समय में बेमानी सी लगती है. इतिहास गवाह रहा है कि बुद्ध के अनुयाई बुद्ध के विरोध में चले गये. जितने भी देश इस विचारधारा को मानते है वो आज भी मन ही मन अपने विकास की गति अवरोधक इसी को मानते है. चीन और जापान के बच्चे से जब यह पूँछा जाता है कि देश और बुद्ध में तुम किसे चुनोगे तो वह देश की बात करता है.और बुद्ध को किनारे कर देता है. हिन्दू धर्म में भी बुद्ध को लेकर बहुत से मिथक कथायें ग्रंथों मे उद्धरित है. बुद्ध के सिद्धाँत उस समय में प्रासंगिक हो सकते थे परन्तु आज के समय में वह भारत के परिपेक्षय मे उदासीन से दिखायी देते है.आज के समय में भारत को आवश्यकता है तटस्थ नेतृत्व की जिसके दम पर वह सही और गलत का फैसला देश हित मे कर सके. आज हमारे देश में लोकतंत्र तो कब का खत्म हो चुका है. परन्तु हम कहने से यह डरते है कि कहीं हम बवाल में ना फंस जायें सोचने वाली बात है कि आज एक घर में लोक तंत्र नहीं स्थापित कर सक्ते है तो देश में कैसे संभव हो सकता है. आज देश की जनता को सिर्फ और सिर्फ वोट देने का अधिकार है उसके बाद उसकी हालत चाय में पडी मक्खी की भाँति हो जाती है अगले चुनाव तक. बुद्ध को विष्णु का नवम अवतार माना जाता रहा है उस दृष्टि से वो हमारे आदरणीय और सम्माननीय पूज्य है परन्तु यह जरूरी नहीं ही हर पूज्य महापुरुष के विचारधारा को लेकर देश का प्रशासन चलाया जाये. यदि आज के समय मे देश उनके तरीके से चलता है तो देश अगली बार बहुत ही जल्द बौद्ध देशो का गुलाम हो जायेगा......
अनिल अयान, सतना,

मंगलवार, 21 मई 2013

अंतर्मन के द्वंद को मार्मिकता के समुन्दर मे डुबाती कहानियाँ;धूप और छाँव


अंतर्मन के द्वंद को मार्मिकता के समुन्दर मे डुबाती कहानियाँ

जिंदगी एक सधन वन ही तो है जिसमे धूप और छाँव हमसे लुका छिपी का खेल खेलते रहते है जैसे कि जिंदगी में दुख और सुख आते और अपने  मेहमानी करके चले जाते है. जी हाँ यह किसी कहाने की शुरुआत नहीं वरन एक कहानी संग्रह धूप छाँव के संदर्भ में मेरे मन की आवाज है.इस कहानी संग्रह को सतना की सुप्रसिद्ध समाज सेविका और साहित्य में अटूट रुचि रखने वाली श्री मती बेला मीतल ने लिखा है.यूँ तो उन्हे कोई भी कथाकार के रूप में नहीं जानता है.परन्तु यह भी मै दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस कहाने संग्रह को पढने के बाद हर पाठक उन्हे हमेशा एक अच्छा कथाकार मन से स्वीकार कर लेगा.धूप छाँव काल्पनिक कहानियों का संग्रह नही बल्कि  जीवन की टीस,कसक, अंतर्दंद, मर्म, और अंतर्मन के कुरुक्षेत्र को बेबाकी से बयान करने वाले पात्रों की अशेश दास्तान है. लेखिका ने अपने प्राक्कथन में खुद लिखा है कि" जीवन एक विशाल जटिल और गहन अरण्य है.वहां उसके सुंदर और असुंदर रूप दोनो विद्यमान होते है. हमारी जिंदगी मे समाजिक पक्ष जितना प्रभावी होता है भावनात्मक पक्ष उतना ही मार्मिक होता है , उतना ही याद गार होता है, और इस हद तक जीवन को प्रभावित करता है कि कोई अपने आप कलम उठा कर भाव और यादों को किसी भी विधा में कागज में उतार सकता है. और ताउमर के लिये उन्हे अमर कर सकता है.
 प्रस्तुत कहाने संग्रह सिर्फ चौदह कहानियों का संग्रह है. जिसमे हर कहानी  अपने नये आयाम छूती नजर आती है.विदाई, स्वीकृति,और पापा चले गये, एक मुट्ठी धूप, वादा, दोस्ती,धोखा, इंतजार,थैक्यू माँ, ऐसी कहानियाँ है जो पाठक एक ही बैठक में पढताहै. मानव संस्कृति सभ्यता की दुहायी देने वालों के समक्ष भावो को जीने वाले भावनात्मक रिस्ते बनाने वाले  पात्रों का प्रत्युत्तर देती ये कहानियाँ पाठक को यह संदेश देती है. कि दकियानूसी विचारधारा के चलते भावनात्मक रिस्तों के साथ बलात्कार करने वाले मठाधीश अपने  को भले विजयी मानकर आत्ममुग्ध होते रहें परन्तु वह जीवन अकी सबसे बडी हार को गले लगाकर उसका दंश उमर भर झेलते रहते है. इन कहानियों में लेखिका ने बताया कि हम उम्रभर भ्रम और द्वेश के चलते सच्चे प्रेम के रिश्तों को अपना नहीं पाते और जब हमें इस बात का पश्चाताप होता है तब तक समय बहुत आगे निकल चुका होता है.हमारे पास उस वक्त सिर्फ अफसोस  ही बचता है.
  संग्रह की अन्य कहानियाँ भी समाज में चलते रिस्तों के साथ खिलवाड और मजाक की पेशगी है.ये कहानियाँ भले ही प्रथम कहानी संग्रह हो परन्तु यह भी सच है कि इसमेम ऐसा ;लगता है कि लेखिका ने जीवन के हर छोटे बडे अनुभवों को , जिसने उन्हे अंतरमन में जाकर हृदय के दरवाजों मे दस्तक दी है, कहानी के रूप में उकेर दिया है. और साथ ही कागज मे भावों को साकार रूप दे दिया. अधिक्तर कहानियाँ चरित्र, भाव और घटनाप्रधान कहानियाँ है. इनके गढन ने ऐसा कही भी नहीं लगता कि कोई पात्र अनायास ही कथा में आकर विचलन उत्त्पन्न कर रहा है. कहानी के मापदण्ड मे हर तरह से खरी उतर रही ये कहानियाँ लेखिका को नये आयाम तक , उचाइयों तक ले जाती है. संग्रह की ८०% कहानियाँ जीवन के धूप छाँव के पलों को मास्टर पीस बना दिया है एक समाज सेविका से एक लेखिका बनने के इस सफर मे ये कहानियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आती है. इन कहानियों को पढने के समय पर ऐसा लगता है कि जैसे मेरे जीवन के उपन्यास के पन्नों से कुछ पल इन कहानियों ने चुरा लिये गये हो. जैसे यह हमारी जिंदगी बयां की जा रही है ऐसा तो हम भी कहना चाह रहे थे.समाज के क्रूरतम व्यवहार के खिलाफ मोर्चा खोलती ये कहानियाँ वह जवाव देती है जिसके सामने सारे सवालात धरासायी नजर आता है. कभी कभी तो मन को यह आभास होता है कि जैसे लेखिका ने अपने  जीवन के भोगे हुये यथार्थ और दंश को हू बहू बयाँ कर दिया है. अंततः मै  लेखिका को एक मार्मिक , गहराई ली हुई , अंतरमन के द्वंद को बया करती कहानियों का कहानी संग्रह पाठकों से समक्ष प्रश्तुत किया है वह काबिले तारीफ है और शुभकामनायें ताकि वो आने वाले वक्त में इसी तरह के मोती पिरोती रहे और हमे नये संग्रह पढने को मिले और अंत में
    हर लफ्ज जिसके जब तह ए दिल मे उतर जाते हों,
    उसके दिल की हर तह कई यादों का कब्रिस्तान होगी.
अनिल अयान,युवा कथाकार
सतना

रविवार, 19 मई 2013

बाल मजदूर ,होते बचपन से दूर.


बाल मजदूर ,होते बचपन से दूर.
आज के समय मे घर  द्वार हो या बाहर , समाज का हर तबका कहीं ना कहीं कभी ना कभी बाल मजदूरी के कुष्ठ से ग्रसित है. यही कारण है कि आज के समय मे बचपन अपने माँ की गोद से निकलता नहीं है कि वह मजदूरी में झोँक दिया जाता है. यह स्थिति मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय व्यवस्था मे अधिक देखने को मिलती है.जब परिवार संख्या बढती चली जाती है तो घर चलाने के लिये बाल मजदूरी ही एक सहारा इन बच्चों के लिये नजर आती है. कहते है कि मजवूरी का नाम महात्मा गाँधी है. लोग भी कम दाम में इनका खून चूसने के लिये बेबाकी से बेरोक टोक इनका उपयोग और उपभोग करते है. यही सब समाज के लिये दंश बना हुआ है,
आज के समय में बाल दिवस हो या कोई समारोह नेता और जन प्रतिनिधि सब अपने तरीके से यह राग अलापते मंच से नजर आते है कि मासूम बच्चे ही हमारे देश का भविष्य है और उनके कंधों में हमारे देश की व्यवस्था है. परन्तु हमारे देश का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के दोनो भाग प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक यह बात समय समय पर स्टिंग आपरेशन , ब्रेकिंग न्यूज, कवर स्टोरीज के रूप जनता के सामने रखते चले आये है कि आज भी भारत मे गरीब बच्चो का ७० प्रतिशत भाग बाल मजदूर के रूप में अपना बचपन स्वाहा कर रहा है. उसकी वजह कहीं ना कहीं माता पिता के द्वारा परिवार में वृद्धि. माता पिता का देहावसान हो जाना, गरीबी, और भी अन्य समाजिक कारण है जिसके चलते बच्चे बच्चियाँ सबसे पहले बडे बडे बंगलों में काम करने से शुरुआत करते है और फिर धीरे धीरे बाल मजदूरी के लिये खुद को पलायन वादी बना लेते है. कोई साइकिल ,और गैरेज मे काम करता है,कोई होटल में,कोई फैक्ट्री के अपना बचपन आग और कोयले में झोक देता है. देश में लगभग १० वर्ष से १७ वर्ष के वो बच्चे जो अनाथ है और जिनकी देख रेख करने वाल व्यक्ति कोई नहीं है वो इस तरह के अत्याचार और लगातार शोषण के चलते अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते है और इनका अंतिम संस्कार तक करने वाला भी कोई नहीं होता है. बडे बडे शहरों में मानव अंगो की तस्करी, स्मगलिंग, और अन्य बाल अपराध भी इन्ही बच्चों के ३० से ४० प्रतिशत भाग के बरगलाये या लालच में आये बाल मजदूर करते है.जो बाद में समाज से बहिष्कृत कर दिये जाते है. इस सब घटना चक्र मे देखे तो कहीं ना कहीं एक बात तो सामने आती है कि आज के समय मे देश को जरूरत है कि इन बच्चों का क्या इस दुनिया में आना ही कसूर है, या भारत में पैदा होना दूसरा बडा कुसूर, इनके  माता पिता तो इन्हे समाज के दलदल में फेंक कर चले जाते है.. और हम सब समाज ठेकेदार, सफेद पोश इनके बचपन को दफन करके  इनको मजदूर बना देता है. आज यदि हर व्यक्ति इनको मजदूर से मजबूर बनाने की बजाय सही दिशा में इनके जीवन को मोड सके तो सबसे बडा दायित्व इस देश के नाम पर पूरा माना जायेगा हाँ इस सोच को राजनीत में कम्युनिस्ट कहा जाता है तो कहने दीजिये. कब तक हम लोग क्या कहेगे इस बात का डर मन में बिढाये रहेंगे,

मंगलवार, 14 मई 2013

चाइना को आईना दिखाना जरूरी


चाइना को आईना दिखाना जरूरी.
बचपन में एक कहानी पढी थी. जिसमे चूहों की फौज के बीच यह बहस जारी थी कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा. और अंततः घंटी बाँध दी जाती है. ऐसे ही हालात इस वक्त देश के अंदर जारी है. पडोसी मुल्क चाइना अपने दंभ के चलते भारत के अंदर घुसबैठ कर रहा है और भारत यह सोच रहा है कि चाइना को आईना कैसे दिखाया जाये. ऐसा लग रहा है कि यक्ष प्रश्न भारत के सामने खडा हुआ है शांति स्थापित करने के लिये और भारत अभी भी समप्रभुता और एकता अखण्डता के लिये दिन रात मनन कर रहा है और चिंतन कर रहा है कि किया क्या जाये अपनी अस्मिता को बचाने के लिये और स्वाभिमान की रक्षा के लिये. इतिहास साक्षी है की भारत और चाइना बहुत अच्छे मुल्क है. जो हमेशा अपने रिस्तो का उपयोग और उपभोग बहुत अच्छे तरीके से करते रहे है. जब भी स्वार्थ की बात आयी है भारत मे चाइना ने अपना विस्तार करने की पहल की है. भारत में आज भी बहुत कुछ व्यवसाय भारत से मिलता है. भारत के घर घर में चाइना मेड सामान उपयोग हो रहा है जिसपे ना कोई विश्वास है और ना कोई भरोसा.
जब बाजारवाद मे चाइना का कोई भरोसा नहीं करता तो फिर हमारे प्रधानमंत्री जी और उनका मंत्रीमंडल कैसे विश्वास कर सकता है क्या वो इस देश में नही रहे क्या वो इस देश के साथ हुए चाइना के व्यवहार को भूल गये है. क्या वो दलाईलामा के भारत शरणागत होने की स्थिति में चाइना के व्यवहार और प्रतिकार को पूर्णतः बिसरा दिया है. खैर जो भी हो यह तो सरकार ही जानती है. पर यह तो तय है भारत अभी भी चाइना के समक्ष बौना है. चाइना का दल बल सेना सत्ता और समस्त अवयव संसाधन भारत की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावी , मारक और तेज है. उनके यहाँ की सत्ता से सेना सब देश के लिये , हित के लिये अपनी जान को कुर्बान कर देते है. और भारत में सिर्फ बात की जाती है. यही कारण है की आज भी भारत की सीमा में चाइना ने अपने बल पर २५ कि,मी तक कब्जा कर लिया तो भी रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री जी सेना को पीछे हटने की सिफारिश कर रहे है. धिक्कार है कि राजा खुद कह रहा है कि आओ और हमारे घर की इज्जत को सरे आम बिना विरोध किये लुट जाने का साक्षी बनो. दुश्मन चाहे जितना भी शक्ति शाली क्यों ना हो हमें पोरस की तरह लडना चाहियें , और अंतत एक राजा की तरह सिकंदर के सामने ताल ठोक कर कहना चाहिये कि ऐसा व्यवहार करो जैसे कि एक राजा दूसरे राज से करता है. एक विजेता दूसरे पराजित से नहीं. भारत में इस वक्त आंतरिक मामले इतना ज्यादा तूल पकडे हुये है कि उसे बाहरी और पडोसी दुश्मनो पर नजर रखने की फुरसत ही नहीं है. मै तो कहता हूँ कि काश भारत में लोकतंत्र की जगह यदि पूँजीवाद होता तो कहानी इस देश की कुछ और होती. तब भारत की रक्षा के लिये सेना को पीछे नहीं हटना पडता. ना ही प्रधान मंत्री जी को यह सोचना पडता की चाइना के साथ कैसा व्यवहार किया जाये. वहाँ पर तो एक ही नियम चलता की जो हमे सम्मान दे उसे सम्मान दो नही तो मौत का दान दो.
 चाइना ही नहीं बल्कि अन्य दुश्मन पडोसी मुल्क  को सीमा का संज्ञान होना चाहिये , अच्छी दीवारे अच्छे पडोसी तैयार करती है. यदि इस लोकोक्ति का असर पडोसी मुल्को पर नहीं है तो भारत को चाहिये कि बिना सोचे बिसूरे ईट का जवाब पत्थर से दे. ताकि दंभ से लोलुप हो चुके अन्य देश को भी पता चले की भारत कमजोर हो सकता है लोकतंत्रीय होसकता है पर वैस्याओं की भाँति कलाई में चूडियाँ और हाथ पैरों में मेंहदी नही सजा रखी है कि आप उसके साथ रास लीला रचाओ और वह विरोध भी ना कर सके क्योंकि आपके साथ उसके व्यावसायिक संबंध है. आज भारत को चाहिये कि रक्षा मामलों को सर्वोपरि मानकर काम करे. क्योंकि देश में सिर्फ व्यापार और व्यवसाय ही बस नहीं होता. लोगों की रक्षा और अपनी विरासत की हिफाजत भी महत्वपूर्ण होती है.
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सोमवार, 6 मई 2013

सबर की जीत नहीं ,हमारे सब्र की हार


सबर की जीत नहीं ,हमारे सब्र की हार
राजा जब शासन करने मे असमर्थ हो जाये तो उसकी विद्वता है कि वो राज गद्दी छोड कर अपनी जगह पर किसी और योग्य और समझदार शासक को बैठा दे.चाणक्य ने सही नसीहत दी थी चंद्रगुप्त को. आज यही कुछ हाल इस देश के शासन व्यवस्था का हो चुका है. और परिणाम यह है कि हम सब इस गल्ती का सिकार होते चले जारहे है. केन्द्र की सत्ता नपुंसक और नाकारा होती चली जा रही है. जो हाल कसाब और अफजल गुरु का भारत ने किया . उससे कहीं ज्यादा बदतर हाल पाक ने सबरजीत नाम के भारतीय का किया. फिर उदारवादिता का धतकरम हमे चूना लगा गया और हम सब स्वागत में खडे रहे. वाह रे सत्ता और सत्ता के मठाधीशों. इस तरह से देश के संग बलात्कार करने का अधिकार जिस तरह से जनता ने दिया है उसे तुम भरपूर उपयोग कर रहे हो. भारत तो हमेशा से ही अपने पडोसी मुल्को के प्रति ज्यादा ही मित्रवत रहा है.
   कितने सबरजीत और हमारा पडोसी मुल्क हलाल करता रहेगा. कितना सामन्जस्य हम ही बिठाते रहेंगे. कब तक वह पीठ मे छूरा घोंपता रहेगा. कब तक हम अपना हाथ मित्रता के लिये बढाते रहेंगें. यह सवाल आज हर भारतवासी मनमोहन सिंह जी से पूँछ रहा है. आखिरकार सबरजीत अपनी जीवन की जंग लडते लडते सबर खो दिया. और साथ ही संदेश दे गया कि. भारत में आम और खास की खाई कितनी गहरी है. कोई कुछ  नहीं कर सकता है. सब लाचार है. यदि गाहे बगाहे सबरजीत की जगह पर देश के किसी नेता , मंत्री, और बडे आलाअधिकारी का रिस्तेदार गया होता तो भारत हर शर्त मानने के लिये गुटनों के बल तैयार खडी होती. मै इतना जानता हूँ. कि देश भावनाओं में बहकर नहीं चलाया जाता बल्कि विवेक से चलाया जाता है. एक उदाहरण इटली के दो गुनहगारो और कातिल सेना के सिपाहियों की रिहाई के लिये पूरे देश के प्रशासन को उसके सामने झुकना पडा. पर भारत एक आम और बेकसूर नागरिक के लिये पाक को नहीं झुका सका. क्या समझ है. सबरजीत के मरणोपरांत तो ऐसे बयान आरहे थे. जैसे कि राजनीति अब बयानों की शक्ल में बाहर आरही हो. राजनीति की रोटियाँ सेकी जारही थी. और गृह प्रशासन ने तो जेलों की सुरक्षा भी बढा दिया. तीज त्योहारों को भूल कर शासन को जैसे इस बात की आशंका होने लगी कि कहीं धर्म का बलवा ना मच जाये. तीज त्योहारों मे जब हिन्दू और मुस्लमान एक साथ गले लगते है. तो इस तरह का घटिया काम कैसे कर सकते है.
  पाक को तो तब भी शर्म नहीं आयी. वो अपने कैदियों की माँग भी करने लगा है. क्या जज्बा पाया है भारत से.पर गलत तरीके से इसका उपयोग करने लगा है वह.आखिरकार खून का असर दिखायेगा ही.सबरजीत की मौत पाक का जवाब था . भारत के सत्ता के मठाधीशो को बताने के लिये. और एक संकेत है कि प्रशासन मे पारदर्शिता लाने के लिये. वरना अभी तो सबरजीत का परिवार खून के आँसू बहा रहा है. कहीं ये आह भारत के अन्य परिवारों को ना लग जाये. आज वक्त है चेतने का, और प्रधानमंत्री जी के तेज तर्रार रवैये का,वरना यह देश आपको कभी माफ नहीं करेगा.अब आपकी चुप्पी खलने लगी है. आपका मौन व्रत टूटने की आशा,अब आमंत्रण नहीं युद्ध की उम्मीद को और ज्यादा मजबूत करता है. क्योंकी इस शक्स की मौत भारत की उदारवादिता के सम्मान का बलात्कार और विश्वास नामक द्रोपदी का चीर हरण है. इस लिये अब आवश्यकता  है कि कडे कदम और प्रभावी दो टूक जवाब देने की. ना कि एक नव व्याहता स्त्री के कोमल अंगो की भाँति दुश्मन देश के गालों को सहलाकर रति क्रिया करने की.