रविवार, 19 मई 2013

बाल मजदूर ,होते बचपन से दूर.


बाल मजदूर ,होते बचपन से दूर.
आज के समय मे घर  द्वार हो या बाहर , समाज का हर तबका कहीं ना कहीं कभी ना कभी बाल मजदूरी के कुष्ठ से ग्रसित है. यही कारण है कि आज के समय मे बचपन अपने माँ की गोद से निकलता नहीं है कि वह मजदूरी में झोँक दिया जाता है. यह स्थिति मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय व्यवस्था मे अधिक देखने को मिलती है.जब परिवार संख्या बढती चली जाती है तो घर चलाने के लिये बाल मजदूरी ही एक सहारा इन बच्चों के लिये नजर आती है. कहते है कि मजवूरी का नाम महात्मा गाँधी है. लोग भी कम दाम में इनका खून चूसने के लिये बेबाकी से बेरोक टोक इनका उपयोग और उपभोग करते है. यही सब समाज के लिये दंश बना हुआ है,
आज के समय में बाल दिवस हो या कोई समारोह नेता और जन प्रतिनिधि सब अपने तरीके से यह राग अलापते मंच से नजर आते है कि मासूम बच्चे ही हमारे देश का भविष्य है और उनके कंधों में हमारे देश की व्यवस्था है. परन्तु हमारे देश का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के दोनो भाग प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक यह बात समय समय पर स्टिंग आपरेशन , ब्रेकिंग न्यूज, कवर स्टोरीज के रूप जनता के सामने रखते चले आये है कि आज भी भारत मे गरीब बच्चो का ७० प्रतिशत भाग बाल मजदूर के रूप में अपना बचपन स्वाहा कर रहा है. उसकी वजह कहीं ना कहीं माता पिता के द्वारा परिवार में वृद्धि. माता पिता का देहावसान हो जाना, गरीबी, और भी अन्य समाजिक कारण है जिसके चलते बच्चे बच्चियाँ सबसे पहले बडे बडे बंगलों में काम करने से शुरुआत करते है और फिर धीरे धीरे बाल मजदूरी के लिये खुद को पलायन वादी बना लेते है. कोई साइकिल ,और गैरेज मे काम करता है,कोई होटल में,कोई फैक्ट्री के अपना बचपन आग और कोयले में झोक देता है. देश में लगभग १० वर्ष से १७ वर्ष के वो बच्चे जो अनाथ है और जिनकी देख रेख करने वाल व्यक्ति कोई नहीं है वो इस तरह के अत्याचार और लगातार शोषण के चलते अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते है और इनका अंतिम संस्कार तक करने वाला भी कोई नहीं होता है. बडे बडे शहरों में मानव अंगो की तस्करी, स्मगलिंग, और अन्य बाल अपराध भी इन्ही बच्चों के ३० से ४० प्रतिशत भाग के बरगलाये या लालच में आये बाल मजदूर करते है.जो बाद में समाज से बहिष्कृत कर दिये जाते है. इस सब घटना चक्र मे देखे तो कहीं ना कहीं एक बात तो सामने आती है कि आज के समय मे देश को जरूरत है कि इन बच्चों का क्या इस दुनिया में आना ही कसूर है, या भारत में पैदा होना दूसरा बडा कुसूर, इनके  माता पिता तो इन्हे समाज के दलदल में फेंक कर चले जाते है.. और हम सब समाज ठेकेदार, सफेद पोश इनके बचपन को दफन करके  इनको मजदूर बना देता है. आज यदि हर व्यक्ति इनको मजदूर से मजबूर बनाने की बजाय सही दिशा में इनके जीवन को मोड सके तो सबसे बडा दायित्व इस देश के नाम पर पूरा माना जायेगा हाँ इस सोच को राजनीत में कम्युनिस्ट कहा जाता है तो कहने दीजिये. कब तक हम लोग क्या कहेगे इस बात का डर मन में बिढाये रहेंगे,

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