मंगलवार, 25 जून 2013

बारिश से धुलता नगर निगम का मेकप

बारिश से धुलता नगर निगम का मेकप
बरसात आते ही हमारे आसपास जब बाढ के बाद जल भराव की स्थिति निर्मित होने लगे तो ऐसा लगता हैकि दौंगरा के गिरने के पहले ही सब कुछ लबालब हो गया है. लबालब सडक,घर-घाट,पार्क,मैदान और सबसे बडी बात नालियाँ भी लबालब.क्या किया जासकता है सब नगर निगम की मेहरबानी है. नालियों का पानी जब सडक से बहने लगे  और सडक भी नाली की तरह दिखने लगे तब ऐसा लगता है कि ये भी सावन मनाने लगी है. और इनको भी बारिस का सुरूर छाने लगा है.बेचारी नौतपा से तपी नालियाँ अपने ऊपर पानी के बहाव बर्दास्त नहीं कर पाती है. और इस तरह बारिस बता देती है कि नगरनिगम के सफाई कर्मचारियों ने कितनी सफाई से इन्हे साफ किया है. और कैसे कैसे धतकरम किये है. और उनके कार्यों की औकात कितने समय तक है.ब्लैक आउट में बिजली विभाग का भी यही रोना रहता है.पहले तो जनता इस लिये झेलती थी कि मेंटीनेंस की वजह से कटौती झेलनी पडती थी. और अब तो वह इस लिये परेशान है कि लोवोल्टेज की वजह से या हाई वोल्टेज की वजह से सारे बिजली के सामान फूँक जाते है.एक सामान्य सा कलाम स्वच्छ सतना अपना सपना वह इन सब के चलते अधूरा सा लगता है. यही वजह है कि सतना राज मार्ग और राष्ट्रीय मार्ग के आस पास और कुछ वार्डों को छोड कर सामान्य रूप से स्थिति दयनीय है.बारिस के समय में कालोनियों के अंदर घुसते ही बरसात का टाँडव अपने आप दिखाई देने लगता है. जैसे बरसात नहीं कोई सुनामी आकर अपना काम करके लौट गई है. नगरनिगम का वार्षिक बजट जितना है उसमें से एक तिहाई भाग वार्ड के विकास में खर्च होना चाहिये. कई जगहों पर बहुत ही काबिले तारीफ काम हुआ है. अच्छी नालियाँ भी बनाई गयी थी. परन्तु आज भी वहाँ गंदगी का अंबार लगा हुआ है. यह सच है कि काम तो इफरात किये गये परन्तु रखरखाव के नाम पर शून्य कदम तय किया गया,यह वही कदम है जो सिर्फ़ सोचा जाता है. और उसके लिये नियुक्तियाँ की जाती है.वेतनमान भी बनता है और एक समय के बाद उनसे वह काम नहीं कराया जाता है.सफाई कर्मचारी सिर्फ सफाई करना , झाडू लगाना और कचडे को फेंकना जानते है.नालियों की दुर्गति तो उन्हे दिखाई ही नहीं पडती है.
   नालियाँ और बारिस में उनकी स्थिति देख कर नगर निगम के सफाई अभियानों और कामों के ढोल की पोल खुल जाती है.सीवेज सिस्टम की ऐसी की तैसी हो जाती है दो तीन दिन तक तो सडकें अपना वास्तविक रूप भूल जाती है.इतना ही नहीं जनता नगर निगम से और भी आशायें है.शहर में पार्क की कमी, दर्शनीय स्थलों की मरम्म्त और नवीनी करण और वार्डों का मूलचूल विकास कहीं ना कहीं जनता को रोजमर्रा की ख्वाहिशों से दूर करता नजर आता है. नगर निगम के तत्वावधान में प्रशासनिक स्तर पर बहुत से काम हुये है. जो विकास कार्यों की गाथा का गुणगान रेल्वेस्टेशन,चौराहों और मार्गों में करते है. परन्तु सिविललाइन ,पुलिस कालोनी,बाजार ,कबाडी टोला और भरहुत नगर, अन्य ऐसे मोहल्ले जिनका कोई माई बाप नहीं है और यदि माई बाप है वह  सुसुप्तावस्था में अपने घर के पलंग तोडते है. उनकी दुर्गति और विकास में बाधक बन रहे रोडों को भी हटाना जरूरी है.
 एक ज्वलंत उदाहरण  मुख्तयारगंज स्थित व्यंकटेश मंदिर की स्थिति जो मेरी नजर में एक दशक से अधिक पूरा कर चुका है परन्तु इसकी स्थिति अपने अंतिम संस्कार की तैयारी कर रही है.और मुहुर्त की बाट जोह रहा है.यह तो एक उदाहरण है सूची में और भी बहुत से नाम अभी शेष है.जब से सतना में नगर निगम की स्थापना हुई तब से बहुत से काम हुये,लेकिन जितने भी काम हुये वो सिर्फ सरकार को दिखाने के लिये और अपना वोट बैंक बनाने के लिये किये गये.नगरनिगम के कर्मचारी सिर्फ अतिक्रमण हटाने और किसी काम का प्रारंभ करने के लिए ही तेज तर्रार होते है जहाँ एक बार काम शुरू हो गया उसके वाद यह बंद भी हो जाये. या किस गति से चलेगा इसकी कोई खोज खबर नहीं ली जाती है.कुछ साल पहले सफाई अभियान के तहत बडे बडे कन्टेनर कचडा इकट्ठा करने के लिये उपलब्ध कराये गये थे. और यह भी कहा गया था कि समय समय पर सप्ताह में एक बार इस कचडे को नगर निगम खुद उठवा कर साफ सफाई बनाये रखेगा.परन्तु हुआ क्या वो कन्टेनर ही गल गये मुर्चा लग गया उनमे टाउन हाल के पीछे परन्तु वह कार्य द्रुत गति से हुआ ही नहीं. यही सब के चलते बारिश की हल्की सी बौछार नगर निगम के कामों को धो देती है और वह बेचारा हाँथ में हाँथ धरे देखने को विवश होता है.यह सच है कि प्रशासन अकेले ही सफाई स्वच्छता नहीं फैला सकता है समाज का भी भरपूर सहयोग चाहिये परन्तु आम इंशान जब नगर निगम के आफिस में जाता है तो वह सिकायत करने से सिर्फ इस लिये डरता है कि कहीं उसे ही इस दलदल में ना फँसा दे और उसे जेव ढीली करने पड जाये. हमारे आसपास होने वाली गंदगी को हम रोक सकते है और रोकते भी है परन्तु घरों में पानी भरने और उसे निकालने के लिये भी लोग एडी चोंटी का जोर लगायें यह कहाँ तक सही होगा. हाथ से हाथ मिलाकर ही हम इस सतना को स्वच्छ सतना बना सकते है. अन्यथा इसी तरह बारिस नगर निगम की करतूतों को में पानी फेरती रहेगी.

सोमवार, 17 जून 2013

व्यक्तिगत वर्चस्व बनाम संस्थागत समान्जस्य का कुरुक्षेत्र


व्यक्तिगत वर्चस्व बनाम संस्थागत समान्जस्य का कुरुक्षेत्र
२००४-०५,२००८-०९ और आज २०१३-१४ वो राजनैतिक महाक्रमण काल रहे है जब देश को आडवानीवाद का दंश झेलना पडा है और आज भी यह प्रभाव भारतीय जनता पार्टी को बैकफुट में लाने के लिये काफी है. चाहे वो अटल जी के अटल इरादों के साथ खडे आडवानी हो,चाहे वो जिन्ना की तारीफ करने वाले आडवानी हो,चाहे पिछले चुनाव की हार के जिम्मेवार प्रतिनिधि आडवानी हो, और आज के नरेन्द्र मोदी के शत्रु समान व्यवहार करने वाले आडवानी हो, उन्होने हर मुकाम मे भाजपा को अपने घर की मुर्गी समझा है जब चाहा तब इस्तीफा थमा दिया जैसे इस्तीफा कोई भीख हो, पिछले दो बार यही रवैया अपनाये हुये आड्वानी जी यही सोच रहे थे कि इस बार भी भाजपा के आला कमान के लोग आर एस एस के साथ उनके पीछे भागेगे और उनसे मिन्नते करेंगे कि चलिये आपके बिना हमारा और राजनीति का भला नहीं होने वाला है. मुझे यह समझ मे नहीं आता है कि गोवा के निर्णयों के बाद जब मोदी के नाम पर मोहर लगा दीगई तो फिर भी ये अपनी पदलोलुपता का गुणा भाग लगाकर क्या हासिल करना चाहते है. एक बार तो इन्होने अपनी औकात पार्टी को दिखा दी कि इनके कंधे मे यदि चुनाव की बंदूख से सत्ता का सपना देखना है तो वह पिछली बार की तरह खाली हाथ ही  मलना रह जायेगा. जहाँ तक मुझे पूरा घटना चक्र समझ मे आता है तो आडवानी कुछ गिने चुने मामलों को छोडकर संघीय विचार धारा का समर्थन कहीं किये हों. और इसी का पर्याय रहा जिसके अंतर्गत संघ के प्रस्तावित नरेन्द्र मोदी के विरोध मे खूँटा गाड दिया और पूरी भाजपा को एक तेज तूफान में डाल दिया.और चुपचाप शतरंज के खेल की अगली बाजी का इंतजार करने लगे.
  इस घटना चक्र ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि कोई नेता अपने आप को पार्टी का माईबाप समझने का भ्रम पालने लगे तो उसके साथ पार्टी को और उसके सिद्धांतो के परिपेक्ष में क्या कदम उठाना चाहिये.९० वर्ष पूरे कर रहे संधीय विचारधारा को धता बताने वाले आडवानी जी को यह आभास होगया कि १९९० के बाद भाजपा सिर्फ उन्हे एक बोझ की तरह ढो रही थी. वरना कब का बाहर का रासता दिखा दी होती.आडवानी जी यह याद रख सकते है कि उन्होने भाजपा को बनाया है और भाजपा को उन्हे प्रधानमंत्री बनाना ही चाहिये.परन्तु उनका कर्तव्य है कि वो यह भी तो जाने कि उनको भाजपाई किसने बनाया है.संघ ने यह पुष्टि कर दिया कि उसने आडवानी के राजनैतिक कैरियर को पैदा किया है  और संस्था से बढ कर कार्यकर्ता का कद नहीं है परन्तु आडवानी जी इस मन के फेर में है कि उन्होने भाजपा को अपने खून पसीने से पैदा किया है पाला पोसा है और यह  भाजपा के ऊपर उनका उधार है जिसे भाजपा को उन्हे पीएम बना कर शूद सहित चुकाना ही होगा जो किसी मायने में सच नही है.व्यक्तिगत वर्चस्व बनाम संस्थागत समान्जस्य का कुरुक्षेत्र जो इस समय लडा जा रहा है वह किस परिणाम तक भाजपा को ले जायेगा यह तो नही पता परन्तु यह तक है कि मोदी जी के इरादे जरूर फौलाद से ज्यादा मजबूत हो जायेंगें. क्योंकी उन्होने गुजरात चुनाव जीतने के बाद ही कहा था कि यदि लोग उन पर पत्थर उछालते है तो वह उन पत्थरों से मंजिलों को पाने की सीढी बना लेगे. यहाँ तो मामला और ज्यादा गंभीर है.
   यह मामला तो ठीक उसी तरह लगने लगा है जिस तरह कम्युनिस्ट १९६४ में बंट गये और आजाद भारत में कांग्रेस के बीच टकराव के कसीदे सुनायी पडे थी. यह भी सच है की आडवानी के तरफ की भावनात्मक सोच को लेकर भाजपा दूरगामी निर्णय नहीं ले पाती क्योंकी डूबने सूरज के साथ चलने वालों को शाम और रात का सामना तो करना ही पडेगा. संघीय विचारधारा जैसे अनुशासित विचारों के साथ के बावजूद यदि आडवानी जी सिर्फ तीन दायित्वधारी पदों से इस्तीफा दिया और अन्य उसी तरह बरकरार रखे थे. तो यह भी तय था कि उन्हे आज भी यह यकीन था कि शायद भाजपा अपना सिर झुका रह उनके वर्चस्व को कुबूल कर लेगी.वो भी क्या करे मानवोचित दुर्गुण से प्रेरित है. और अपना परिणाम भुगत रहें है. लेकिन यह भी तय है की खुशी में लिपटे इस दुख का इलाज जरूरी है इसके पहले की यह नासूर बनकर पूरे शरीर का सत्यानाश कर दे.किसी मुद्दे में जब आडवानी जी ने अपने आप को भीष्म कहा तो मुझे पूछने का मन हुआ कि वो भाजपा को किस सेना की संज्ञा देने के इच्छुक है कौरवों या पाण्डवों की सेना. भाजपा को चाहिये कि वो इस शतरंज के दाव की तरह अपनी चाल में चाणक्य नीति लाये और अवसरवादी आडवानी जी को भी रथ का हिस्सा बना कर इस चुनावी महासमर को विजयी करे परन्तु अर्जुन अर्थात पार्थ की भाँति संघ रूपी केशव को अपना विजय रथ जरूर सौंप दे और आस्वस्त हो जाये क्योंकी अभी वो भ्रम द्वंद के छल छद्म में भ्रमित सी महसूस होती है.
अनिल अयान,सतना.

सोमवार, 10 जून 2013

जिया ने क्या संदेश दिया



जिया ने क्या संदेश दिया
फिल्मों मे कैरियर की महत्वाकांक्षा का एक नामी गिरामी नाम है जिया खान एक सुप्रसिद्ध अभिनेत्री जिसने वालीवुड की सरहद में जाकर जाना कि वास्तविकता में यह किस जन्नत का नाम है. निःशब्द, हाउसफुल, और गजनी जैसी फिल्मों मे अदाकारा की भूमिका मे दिखी जिया खान ने लगभग सबके जिया को मन से जिया.जिन्दगी की जंग को इस तरह हार जाना उसके लिये बहुत कठिन था परन्तु आज वख्त है यह सोचने का कि जिया खान ने अपने जाने के बाद अपनी श्रेणी की अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की तरह युवा चहेतों को साथ ही साथ पूरे समाज के युवाओं और अन्य पीढी को क्या संदेश दिया है. क्या उसने नयी शोहरत का रास्ता अपनाया. या आत्मग्लानि ,अकेलेपन, हार ने मजबूर कर दिया कि अपनी जिंदगी को मौत के सामने आत्मसमर्पित कर दे. क्या सब भूल जाने वाली बात है? या इस बात की इंतजार करने वाली बात है कि हमारे घर की जिया का हम इसी तरह के परिणाम की उम्मीद के साथ बुलंदी मे पहुँचाने की चाह रखें. पिछले पंद्रह दिनों से लगभग यह बात मीडिया में छायी हुई है कि बालीवुड का वास्तविक चेहरा क्या है. हम सब जानते है कि जिया खान का नाम उन नेत्रियों मे सुमार होचुका है जिन्होने वख्त के पहले अपनी मौत को गले लगा लिया और पूरा देश, बालीवुड और समाज सिर्फ उनके नाम पर श्रृद्धांजलि और सहानुभूति ही अदा कर सका.
  हमारे देश का सबसे बडा मनोरंजन का बाजार है मुम्बई , एक ऐसी चकाचौंध जिसके सामने सारा ज्ञान और सारा दर्शन दर्शन लेने के लिये कतार में खरा नजर आता है. और आज के समय मे युवाओं की लम्बी फेहरिस्त में ९० प्रतिशत युवा आज इसी चकाचौंध की दुनिया के सितारे बनने के लिये संघर्ष करने पहुच जाते है इस जन्नत  में.स्कूल और कालेज के युवा उत्सव गवाही देते है कि जितने प्रतिभागी कार्यक्रमों भाग लेकर  निर्णायक मंडल के आशीर्वाद के पात्र बनते है उन सब को अपने अंदर एक अभिनेता, अभिनेत्री और अन्य वो सारे किरदार सपने मे दिखने लगते है जो इस चकाचौंध मे उन्हे पब्लिक फिगर बनाने में मददगार होते है. परन्तु जनाब वास्तविकता कुछ और ही होती है . हर साल मध्यम शहरी और कस्वाई क्षेत्र से जाने वाले युवाओं का प्रतिशत ८० प्रतिशत है जिसमें ३० प्रतिशत भाग तो मुम्बई की गलियों में गुम जाते है. ४० प्रतिशत भाग संघर्ष मे समाप्त हो जाते है. २० प्रतिशत युवाओं को अवसर की सर्तें विकलाँग बना देती है. और बचे कुचे युवाओं का अधिकतर समूह घर वापसी के डर से पलायन कर जाते है कहीं जाकर १०० मे से ३ से ५ युवा अपने को हर परिस्थिति में समर्पित करके चमक के सितारों तक का सफर प्रारंभ करते है. इस बालीवुड मे करोडो में १० कहीं जाकर पब्लिक फिगर बन पाते है. और उनका जमीर जानता है कि इस शोहरत और बुलंदी को पाने के लिये उन्होने मुम्बई मे क्या खोया और क्या पाया है. कितने दिन कितनी राते उनकी ,उनकी मर्जी के बगैर बेंच दीगई है अनजान हाँथों में.मुम्बई वह महासागर है जहाँ बडी मछली अपनी शोहरत को बढाने के लिये छोटी मछलियों का उपयोग और उपभोग करती है जिसकी कोई भी समय सीमा नहीं है  क्योंकी यदि आप इस श्रेणी में नही आना चाहते तो जिस दरवाजे से आप अपने सपने लेकर गये है वही दरवाजे आपकी बिदायी करने के लिये आपके अंतिम साथी जरूर साबित होते है.
   जिया खान की मौत ने यह बात समझाई है कि इस महासागर में दोस्त कोई नहीं है सब खरीदार भी है और दुकानदार भी है. यह समय बताता है कि आपको खरीदार कब बनना है और दुकानदार कब बनना है. बालीवुड वन वे रास्ता है जिसमें एक समय मे सिर्फ प्रवेश कर सकते है या निकल सकते है प्रवेश करते समय आप कुछ भी ना हों पर निकलते समय सिर्फ और सिर्फ आप पराजित ही होंगे. अवसरवाद का वह घना चक्रव्यूह है जिसमे समाजिक सारे रिस्ते असमाजिक नजर आते है. अवसाद , अकेलापन, छलावा, खरीदफरोक,तनहाई,शोहरत ये सब वो झूठे फसाने है जो किसी और के बारे में सुनने मे हमें बहुत मधुर महसूस होते है. परन्तु एक बार हम उस जगह में अपने को रख कर सोचते है  तो रूह को पता चलता है कि इस महासागर में मनोरंजन के लिये अदाकारा और अदाकार को जिस्म और रूह के हर भेद को खुले आम मनोरंजन के इस बाजार में मन-बेमन,प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष,रूप से भूखे जानवरों के सामने रखना ही पडता है नहीं तो आप भी जिया खान की श्रेणी मे खडे कर दिये जायेंगें या फिर मजबूर कर दिये जायेंगे.अब सवाल यह उठता है कि हम सब कितने सहभागी है इस सब में और हम सब का क्या रोल हो सकता है इस महासागर में इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिये.आज के हम जैसे उपभोकताओं की उपभोगवादी सोच ने वालीवुड को मजबूर कर दिया है हर इवेंट को हमारी कसौटी मे खरे उतरे और खरे उतरने की होड में हर फिल्म, हर अदाकारा, हर प्रोग्राम, हर सिने पत्रिका,वेबसाइट, सब ने बाजारूपन अख्तियार कर लिया है. क्योकी बाजार में बाजारवाद का पहला उसूल है कि अपने को शीर्ष मे रखने के लिये बाजारू हो जाओ. कुल मिला कर यदि दर्शक और श्रोता अपना नजरिया बदल ले तो उस पर केंद्रित बाजार भी अपने आप समय के साथ बदल जायेगा. पर यह भी सच है कि यह भारत है और इस जगह मे इस सोच हो लागू करना कुत्ते की पूँछ को सीधी करने जैसा दुरूह कर्म ही है. पर उम्मीद ना छोडना ही विजेता की फितरत है.

फिल्मों मे कैरियर की महत्वाकांक्षा का एक नामी गिरामी नाम है जिया खान एक सुप्रसिद्ध अभिनेत्री जिसने वालीवुड की सरहद में जाकर जाना कि वास्तविकता में यह किस जन्नत का नाम है. निःशब्द, हाउसफुल, और गजनी जैसी फिल्मों मे अदाकारा की भूमिका मे दिखी जिया खान ने लगभग सबके जिया को मन से जिया.जिन्दगी की जंग को इस तरह हार जाना उसके लिये बहुत कठिन था परन्तु आज वख्त है यह सोचने का कि जिया खान ने अपने जाने के बाद अपनी श्रेणी की अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की तरह युवा चहेतों को साथ ही साथ पूरे समाज के युवाओं और अन्य पीढी को क्या संदेश दिया है. क्या उसने नयी शोहरत का रास्ता अपनाया. या आत्मग्लानि ,अकेलेपन, हार ने मजबूर कर दिया कि अपनी जिंदगी को मौत के सामने आत्मसमर्पित कर दे. क्या सब भूल जाने वाली बात है? या इस बात की इंतजार करने वाली बात है कि हमारे घर की जिया का हम इसी तरह के परिणाम की उम्मीद के साथ बुलंदी मे पहुँचाने की चाह रखें. पिछले पंद्रह दिनों से लगभग यह बात मीडिया में छायी हुई है कि बालीवुड का वास्तविक चेहरा क्या है. हम सब जानते है कि जिया खान का नाम उन नेत्रियों मे सुमार होचुका है जिन्होने वख्त के पहले अपनी मौत को गले लगा लिया और पूरा देश, बालीवुड और समाज सिर्फ उनके नाम पर श्रृद्धांजलि और सहानुभूति ही अदा कर सका.
  हमारे देश का सबसे बडा मनोरंजन का बाजार है मुम्बई , एक ऐसी चकाचौंध जिसके सामने सारा ज्ञान और सारा दर्शन दर्शन लेने के लिये कतार में खरा नजर आता है. और आज के समय मे युवाओं की लम्बी फेहरिस्त में ९० प्रतिशत युवा आज इसी चकाचौंध की दुनिया के सितारे बनने के लिये संघर्ष करने पहुच जाते है इस जन्नत  में.स्कूल और कालेज के युवा उत्सव गवाही देते है कि जितने प्रतिभागी कार्यक्रमों भाग लेकर  निर्णायक मंडल के आशीर्वाद के पात्र बनते है उन सब को अपने अंदर एक अभिनेता, अभिनेत्री और अन्य वो सारे किरदार सपने मे दिखने लगते है जो इस चकाचौंध मे उन्हे पब्लिक फिगर बनाने में मददगार होते है. परन्तु जनाब वास्तविकता कुछ और ही होती है . हर साल मध्यम शहरी और कस्वाई क्षेत्र से जाने वाले युवाओं का प्रतिशत ८० प्रतिशत है जिसमें ३० प्रतिशत भाग तो मुम्बई की गलियों में गुम जाते है. ४० प्रतिशत भाग संघर्ष मे समाप्त हो जाते है. २० प्रतिशत युवाओं को अवसर की सर्तें विकलाँग बना देती है. और बचे कुचे युवाओं का अधिकतर समूह घर वापसी के डर से पलायन कर जाते है कहीं जाकर १०० मे से ३ से ५ युवा अपने को हर परिस्थिति में समर्पित करके चमक के सितारों तक का सफर प्रारंभ करते है. इस बालीवुड मे करोडो में १० कहीं जाकर पब्लिक फिगर बन पाते है. और उनका जमीर जानता है कि इस शोहरत और बुलंदी को पाने के लिये उन्होने मुम्बई मे क्या खोया और क्या पाया है. कितने दिन कितनी राते उनकी ,उनकी मर्जी के बगैर बेंच दीगई है अनजान हाँथों में.मुम्बई वह महासागर है जहाँ बडी मछली अपनी शोहरत को बढाने के लिये छोटी मछलियों का उपयोग और उपभोग करती है जिसकी कोई भी समय सीमा नहीं है  क्योंकी यदि आप इस श्रेणी में नही आना चाहते तो जिस दरवाजे से आप अपने सपने लेकर गये है वही दरवाजे आपकी बिदायी करने के लिये आपके अंतिम साथी जरूर साबित होते है.
   जिया खान की मौत ने यह बात समझाई है कि इस महासागर में दोस्त कोई नहीं है सब खरीदार भी है और दुकानदार भी है. यह समय बताता है कि आपको खरीदार कब बनना है और दुकानदार कब बनना है. बालीवुड वन वे रास्ता है जिसमें एक समय मे सिर्फ प्रवेश कर सकते है या निकल सकते है प्रवेश करते समय आप कुछ भी ना हों पर निकलते समय सिर्फ और सिर्फ आप पराजित ही होंगे. अवसरवाद का वह घना चक्रव्यूह है जिसमे समाजिक सारे रिस्ते असमाजिक नजर आते है. अवसाद , अकेलापन, छलावा, खरीदफरोक,तनहाई,शोहरत ये सब वो झूठे फसाने है जो किसी और के बारे में सुनने मे हमें बहुत मधुर महसूस होते है. परन्तु एक बार हम उस जगह में अपने को रख कर सोचते है  तो रूह को पता चलता है कि इस महासागर में मनोरंजन के लिये अदाकारा और अदाकार को जिस्म और रूह के हर भेद को खुले आम मनोरंजन के इस बाजार में मन-बेमन,प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष,रूप से भूखे जानवरों के सामने रखना ही पडता है नहीं तो आप भी जिया खान की श्रेणी मे खडे कर दिये जायेंगें या फिर मजबूर कर दिये जायेंगे.अब सवाल यह उठता है कि हम सब कितने सहभागी है इस सब में और हम सब का क्या रोल हो सकता है इस महासागर में इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिये.आज के हम जैसे उपभोकताओं की उपभोगवादी सोच ने वालीवुड को मजबूर कर दिया है हर इवेंट को हमारी कसौटी मे खरे उतरे और खरे उतरने की होड में हर फिल्म, हर अदाकारा, हर प्रोग्राम, हर सिने पत्रिका,वेबसाइट, सब ने बाजारूपन अख्तियार कर लिया है. क्योकी बाजार में बाजारवाद का पहला उसूल है कि अपने को शीर्ष मे रखने के लिये बाजारू हो जाओ. कुल मिला कर यदि दर्शक और श्रोता अपना नजरिया बदल ले तो उस पर केंद्रित बाजार भी अपने आप समय के साथ बदल जायेगा. पर यह भी सच है कि यह भारत है और इस जगह मे इस सोच हो लागू करना कुत्ते की पूँछ को सीधी करने जैसा दुरूह कर्म ही है. पर उम्मीद ना छोडना ही विजेता की फितरत है.

नक्सलवाद यदि आबाद तो देश बरबाद


नक्सलवाद यदि आबाद तो देश बरबाद
पिछले पंद्रह दिन से एक नया मुद्दा छत्तीसगढ में बहुत गरमाया हुआ है नक्सलवाद और माओवाद का कुप्रभाव और उसमे पिसते भारतीय जन.आम लोग हो या फिर खास किसी को नहीं छोडते है ये नक्सली जैसे इनकी विशेष दुश्मनी होती है हम सब से. चीन के माओ की जुवान को समेटे ये लोग हमे हमारा अधिकार सिर्फ बंदूख की नोंक से ही मिल सकता है.भारत का सत्यानाश करने में तुले हुये ये लोग कहीं ना कहीं भारत में आंतरिक आतंकवाद फैला रहे है.भारत वैसे भी अपने बाह्य मामलों में काफी परेशान रहा है. और परेशान होता चला आरहा है तो फिर यह नया मुद्दा कहीं ना कहीं देश की आंतरिक शांति व्यव्स्था को बिगाडने का नया खेल खेलते नजर आता है.कभी कभी लगता है कि नक्सल और माओवाद में मुख्य धारा का अंतर क्या है. क्यों ये शासन के विरोध में डंडा गाडे रहते है. क्यों ये मार काट में ज्यादा यकीन करते है. क्या इन्हे शांति प्रिय नहीं है. ऐसे बहुत से सवाल है जो कहीं ना कहीं हम सब के सामने खडे यक्ष प्रश्न की भाँति अटूट से नजर आते है.
   माओ के फालोवर जब भारत में आये तो उन्होने उन स्थानों को अपना निशाना बनाया जहाँ बेगारी और गरीबी अधिक थी. जहाँ शासन की ओर से कोई कारगर प्रयास नहीं किया गया.इतिहास गवाह रहा है कि दार्जिंलिंग और पश्चिम बंगाल के ऐसे बहुत से घटना चक्र है जो इस प्रकार घातक आँदोलनों को हवा देते रहे और देश की आंतरिक सुरक्षा को ठेंगा दिखाते रहे. जब यह झारखंड और फिर उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में पहुंचे तो वहाँ की सरकार को अपने दांतों तले अंगुली दबाना पड गया. फिर ये लोग दक्षिणी राज्यों और मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के उन आदिवासी इलाकों को अपना गढ बनाने की कोशिश में कामयाब हुये जिन जगहों पर सबका ध्यान लगभग ना के बराबर था........ युवाओं के हुनर को खरीद कर अपने अनुसार अन्याय के खिलाफ ये एक साथ मोर्चा खोलने की आदत बना चुके ये गिरोह कदम दर कदम अपने हौसलों को बढाते रहे.आंध्रा प्रदेश की यह स्थिति है जिसमे गनपंथी,आर.श्रीनिवासन,गणेश उइके और कट्टकम सुदर्शन जैसे ऐसे महानुभाव है जो पूरे आँध्रा मे अपना वर्चस्व स्थापित करने की सोच को लिये आगे बढ रहे है.इस हमले के बाद भारते में अलगाववादियों की स्थिति हावी होने जैसी हो गई है. ऐसा लगता है जैसे असुरक्षा का माहौल आज अपने पर पसारे आगे बढ कर देश को निगलने के लिये आतुर हो रहा है.१९६० के बाद शुरू हुआ यह संघर्ष देश की एकता और अखण्डता को नष्ट करने में लगा हुआ है.पढे लिखे ये नौजवानो की बदहवास फौज अपने पहले चरण में इतनी तेज गति से विद्रोह मचायी है कि पूरा देश अपने कर्मों में पश्चाताप इसलिये कर रहा है कि पहले इस मुद्दे पे कारगर कदम क्यों नहीं उठाये गये. जो काँग्रेस आज शासन और प्रशासन की दुहायी देरही है वह खुद ही विपक्ष में बैठे कभी माओ और नक्सलवादियों के खिलाफ बनाये जारहे कानून के सामने खूँटा गाडे खडी हुई थी. यह मै स्वीकार करता हूँ कि नक्सली हमले की वजह से भारत के कई राज्य अपना विकास नहीं कर पा रहे है.ना हि विकास की बातें सोच रहे है. उनका पूरा ध्यान इस समस्या को दूर करने के लिये लगा हुआ है. परन्तु दूसरा पहलू देखे तो यही राजनेता जब नक्सली हमलों मे सिर्फ शोक व्यक्त करके रह जाते है. या फिर बयानबाजी करके अपने आप को पापुलर करने के लिये मीडिया में धुरंधर बनकर चर्चाओं  में भाग लेते है तब इनका जमीर कहाँ सो जाता है. तब इनके लोग अपने परिवार और देशवासियों के परिवार की चिंता करके चुप हो जाते है. कोई कारगर कदम उठाने से परहेज क्यों कर जाते है. आज जब राजनैतिक प्रभुसत्ता पर आक्रमण हुआ तो काँग्रेस ऐसे चिल्लारही है या बौखला रही है जैसे कि किसी ने उसके घर में आग लगा दी है.गोरिल्ला आक्रमण का जवाब शायद किसी सरकार के पास नहीं है.
   इस तरह की घटनाओं में यह होना चाहिये कि ऐसे देश व्यापी मुद्दों में पूरे देश की राजनीति और राजनीतिज्ञों को एक साथ खडे होकर कारगर कदम उठाने चाहिये. जिन लोगो को यह भ्रम है कि सेना इस का सबसे सार्थक उपाय है तो इस बात में मुझे लगता है कि हम सिविलियन क्षेत्र में सेना को पूरा प्रशासन नहीं सौप सकते है. क्योंकी सेना को जिस तरह से ला और आर्डर सुधारने का काम सौपा जाता है वहाँ सिर्फ ओपन फायरिंग के अलावा कोई रास्ता नहीं है और इस काम के लिये यदि ऐसा किया जाता है तो यह मान लेना चाहिये कि जितने नक्सली मारे नहीं जायेंगे उससे कहीं ज्यादा बेगुनाह अपने बेगुनाह परिवार को इस मुठभेड में मरता देखने के बाद बंदूखें उठा लेंगें और इस तरह समस्या और बढ जायेगी. क्योंकी सेना की मुठभेड में गोलियाँ यह नही देखेंगी की नक्सली कौन है या आम जन कौन है. सरकारों को चाहिये की यदि इस आंतरिक घुसबैठ से निजात पाना है तो उसे सवसे पहले  हर जगह पर विकास कार्य बराबर करना होगा. चाहे वो विकसित जगह हो या आदिवासी जगह, चाहे वह फारवर्ड हो या बैकवर्ड इलाका. क्योंकी नक्सली वहीं अपना रहने का स्थान चुनते है जहाँ गरीबी और विकासहीनता अधिक है. अन्यथा भविष्य में सरकार से ज्यादा हुनर मंद युवा नक्सलियों के पास है जो साठ्योत्तर पार कर चुकी सरकार के हर हौसले को पस्त करने का दम रखती है.नक्सलियों के फालोवर सिर्फ युवाओं की उस उर्जा को इस्तेमाल करते है जिसे हम बेरोजगारी का जामा ओढा कर कचडे के डिब्बे में डाल देते है. सरकार को चाहिये हि अपनी सुरक्षा व्यवस्था को सुदृण करने के साथ साथ पारदर्षी विकास करें इसतरह के बाह्य और आंतरिक मामलों में एक जुट होकर खाली जगह को भरें वरना नक्सली तो बैठे ही है सरकार की अनियमितताओं और खाली जगहों को भरकर अपनी नयी सत्ता स्थापित करने के लिये.और यह भी तय है कि हम और हमारे सरकार उनके सामने घुटने टेकने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते है.यह छत्तीसगढ में हुआ नक्सली हमला चींख चींख कर कह रहा है.