सोमवार, 10 जून 2013

जिया ने क्या संदेश दिया



जिया ने क्या संदेश दिया
फिल्मों मे कैरियर की महत्वाकांक्षा का एक नामी गिरामी नाम है जिया खान एक सुप्रसिद्ध अभिनेत्री जिसने वालीवुड की सरहद में जाकर जाना कि वास्तविकता में यह किस जन्नत का नाम है. निःशब्द, हाउसफुल, और गजनी जैसी फिल्मों मे अदाकारा की भूमिका मे दिखी जिया खान ने लगभग सबके जिया को मन से जिया.जिन्दगी की जंग को इस तरह हार जाना उसके लिये बहुत कठिन था परन्तु आज वख्त है यह सोचने का कि जिया खान ने अपने जाने के बाद अपनी श्रेणी की अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की तरह युवा चहेतों को साथ ही साथ पूरे समाज के युवाओं और अन्य पीढी को क्या संदेश दिया है. क्या उसने नयी शोहरत का रास्ता अपनाया. या आत्मग्लानि ,अकेलेपन, हार ने मजबूर कर दिया कि अपनी जिंदगी को मौत के सामने आत्मसमर्पित कर दे. क्या सब भूल जाने वाली बात है? या इस बात की इंतजार करने वाली बात है कि हमारे घर की जिया का हम इसी तरह के परिणाम की उम्मीद के साथ बुलंदी मे पहुँचाने की चाह रखें. पिछले पंद्रह दिनों से लगभग यह बात मीडिया में छायी हुई है कि बालीवुड का वास्तविक चेहरा क्या है. हम सब जानते है कि जिया खान का नाम उन नेत्रियों मे सुमार होचुका है जिन्होने वख्त के पहले अपनी मौत को गले लगा लिया और पूरा देश, बालीवुड और समाज सिर्फ उनके नाम पर श्रृद्धांजलि और सहानुभूति ही अदा कर सका.
  हमारे देश का सबसे बडा मनोरंजन का बाजार है मुम्बई , एक ऐसी चकाचौंध जिसके सामने सारा ज्ञान और सारा दर्शन दर्शन लेने के लिये कतार में खरा नजर आता है. और आज के समय मे युवाओं की लम्बी फेहरिस्त में ९० प्रतिशत युवा आज इसी चकाचौंध की दुनिया के सितारे बनने के लिये संघर्ष करने पहुच जाते है इस जन्नत  में.स्कूल और कालेज के युवा उत्सव गवाही देते है कि जितने प्रतिभागी कार्यक्रमों भाग लेकर  निर्णायक मंडल के आशीर्वाद के पात्र बनते है उन सब को अपने अंदर एक अभिनेता, अभिनेत्री और अन्य वो सारे किरदार सपने मे दिखने लगते है जो इस चकाचौंध मे उन्हे पब्लिक फिगर बनाने में मददगार होते है. परन्तु जनाब वास्तविकता कुछ और ही होती है . हर साल मध्यम शहरी और कस्वाई क्षेत्र से जाने वाले युवाओं का प्रतिशत ८० प्रतिशत है जिसमें ३० प्रतिशत भाग तो मुम्बई की गलियों में गुम जाते है. ४० प्रतिशत भाग संघर्ष मे समाप्त हो जाते है. २० प्रतिशत युवाओं को अवसर की सर्तें विकलाँग बना देती है. और बचे कुचे युवाओं का अधिकतर समूह घर वापसी के डर से पलायन कर जाते है कहीं जाकर १०० मे से ३ से ५ युवा अपने को हर परिस्थिति में समर्पित करके चमक के सितारों तक का सफर प्रारंभ करते है. इस बालीवुड मे करोडो में १० कहीं जाकर पब्लिक फिगर बन पाते है. और उनका जमीर जानता है कि इस शोहरत और बुलंदी को पाने के लिये उन्होने मुम्बई मे क्या खोया और क्या पाया है. कितने दिन कितनी राते उनकी ,उनकी मर्जी के बगैर बेंच दीगई है अनजान हाँथों में.मुम्बई वह महासागर है जहाँ बडी मछली अपनी शोहरत को बढाने के लिये छोटी मछलियों का उपयोग और उपभोग करती है जिसकी कोई भी समय सीमा नहीं है  क्योंकी यदि आप इस श्रेणी में नही आना चाहते तो जिस दरवाजे से आप अपने सपने लेकर गये है वही दरवाजे आपकी बिदायी करने के लिये आपके अंतिम साथी जरूर साबित होते है.
   जिया खान की मौत ने यह बात समझाई है कि इस महासागर में दोस्त कोई नहीं है सब खरीदार भी है और दुकानदार भी है. यह समय बताता है कि आपको खरीदार कब बनना है और दुकानदार कब बनना है. बालीवुड वन वे रास्ता है जिसमें एक समय मे सिर्फ प्रवेश कर सकते है या निकल सकते है प्रवेश करते समय आप कुछ भी ना हों पर निकलते समय सिर्फ और सिर्फ आप पराजित ही होंगे. अवसरवाद का वह घना चक्रव्यूह है जिसमे समाजिक सारे रिस्ते असमाजिक नजर आते है. अवसाद , अकेलापन, छलावा, खरीदफरोक,तनहाई,शोहरत ये सब वो झूठे फसाने है जो किसी और के बारे में सुनने मे हमें बहुत मधुर महसूस होते है. परन्तु एक बार हम उस जगह में अपने को रख कर सोचते है  तो रूह को पता चलता है कि इस महासागर में मनोरंजन के लिये अदाकारा और अदाकार को जिस्म और रूह के हर भेद को खुले आम मनोरंजन के इस बाजार में मन-बेमन,प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष,रूप से भूखे जानवरों के सामने रखना ही पडता है नहीं तो आप भी जिया खान की श्रेणी मे खडे कर दिये जायेंगें या फिर मजबूर कर दिये जायेंगे.अब सवाल यह उठता है कि हम सब कितने सहभागी है इस सब में और हम सब का क्या रोल हो सकता है इस महासागर में इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिये.आज के हम जैसे उपभोकताओं की उपभोगवादी सोच ने वालीवुड को मजबूर कर दिया है हर इवेंट को हमारी कसौटी मे खरे उतरे और खरे उतरने की होड में हर फिल्म, हर अदाकारा, हर प्रोग्राम, हर सिने पत्रिका,वेबसाइट, सब ने बाजारूपन अख्तियार कर लिया है. क्योकी बाजार में बाजारवाद का पहला उसूल है कि अपने को शीर्ष मे रखने के लिये बाजारू हो जाओ. कुल मिला कर यदि दर्शक और श्रोता अपना नजरिया बदल ले तो उस पर केंद्रित बाजार भी अपने आप समय के साथ बदल जायेगा. पर यह भी सच है कि यह भारत है और इस जगह मे इस सोच हो लागू करना कुत्ते की पूँछ को सीधी करने जैसा दुरूह कर्म ही है. पर उम्मीद ना छोडना ही विजेता की फितरत है.

फिल्मों मे कैरियर की महत्वाकांक्षा का एक नामी गिरामी नाम है जिया खान एक सुप्रसिद्ध अभिनेत्री जिसने वालीवुड की सरहद में जाकर जाना कि वास्तविकता में यह किस जन्नत का नाम है. निःशब्द, हाउसफुल, और गजनी जैसी फिल्मों मे अदाकारा की भूमिका मे दिखी जिया खान ने लगभग सबके जिया को मन से जिया.जिन्दगी की जंग को इस तरह हार जाना उसके लिये बहुत कठिन था परन्तु आज वख्त है यह सोचने का कि जिया खान ने अपने जाने के बाद अपनी श्रेणी की अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की तरह युवा चहेतों को साथ ही साथ पूरे समाज के युवाओं और अन्य पीढी को क्या संदेश दिया है. क्या उसने नयी शोहरत का रास्ता अपनाया. या आत्मग्लानि ,अकेलेपन, हार ने मजबूर कर दिया कि अपनी जिंदगी को मौत के सामने आत्मसमर्पित कर दे. क्या सब भूल जाने वाली बात है? या इस बात की इंतजार करने वाली बात है कि हमारे घर की जिया का हम इसी तरह के परिणाम की उम्मीद के साथ बुलंदी मे पहुँचाने की चाह रखें. पिछले पंद्रह दिनों से लगभग यह बात मीडिया में छायी हुई है कि बालीवुड का वास्तविक चेहरा क्या है. हम सब जानते है कि जिया खान का नाम उन नेत्रियों मे सुमार होचुका है जिन्होने वख्त के पहले अपनी मौत को गले लगा लिया और पूरा देश, बालीवुड और समाज सिर्फ उनके नाम पर श्रृद्धांजलि और सहानुभूति ही अदा कर सका.
  हमारे देश का सबसे बडा मनोरंजन का बाजार है मुम्बई , एक ऐसी चकाचौंध जिसके सामने सारा ज्ञान और सारा दर्शन दर्शन लेने के लिये कतार में खरा नजर आता है. और आज के समय मे युवाओं की लम्बी फेहरिस्त में ९० प्रतिशत युवा आज इसी चकाचौंध की दुनिया के सितारे बनने के लिये संघर्ष करने पहुच जाते है इस जन्नत  में.स्कूल और कालेज के युवा उत्सव गवाही देते है कि जितने प्रतिभागी कार्यक्रमों भाग लेकर  निर्णायक मंडल के आशीर्वाद के पात्र बनते है उन सब को अपने अंदर एक अभिनेता, अभिनेत्री और अन्य वो सारे किरदार सपने मे दिखने लगते है जो इस चकाचौंध मे उन्हे पब्लिक फिगर बनाने में मददगार होते है. परन्तु जनाब वास्तविकता कुछ और ही होती है . हर साल मध्यम शहरी और कस्वाई क्षेत्र से जाने वाले युवाओं का प्रतिशत ८० प्रतिशत है जिसमें ३० प्रतिशत भाग तो मुम्बई की गलियों में गुम जाते है. ४० प्रतिशत भाग संघर्ष मे समाप्त हो जाते है. २० प्रतिशत युवाओं को अवसर की सर्तें विकलाँग बना देती है. और बचे कुचे युवाओं का अधिकतर समूह घर वापसी के डर से पलायन कर जाते है कहीं जाकर १०० मे से ३ से ५ युवा अपने को हर परिस्थिति में समर्पित करके चमक के सितारों तक का सफर प्रारंभ करते है. इस बालीवुड मे करोडो में १० कहीं जाकर पब्लिक फिगर बन पाते है. और उनका जमीर जानता है कि इस शोहरत और बुलंदी को पाने के लिये उन्होने मुम्बई मे क्या खोया और क्या पाया है. कितने दिन कितनी राते उनकी ,उनकी मर्जी के बगैर बेंच दीगई है अनजान हाँथों में.मुम्बई वह महासागर है जहाँ बडी मछली अपनी शोहरत को बढाने के लिये छोटी मछलियों का उपयोग और उपभोग करती है जिसकी कोई भी समय सीमा नहीं है  क्योंकी यदि आप इस श्रेणी में नही आना चाहते तो जिस दरवाजे से आप अपने सपने लेकर गये है वही दरवाजे आपकी बिदायी करने के लिये आपके अंतिम साथी जरूर साबित होते है.
   जिया खान की मौत ने यह बात समझाई है कि इस महासागर में दोस्त कोई नहीं है सब खरीदार भी है और दुकानदार भी है. यह समय बताता है कि आपको खरीदार कब बनना है और दुकानदार कब बनना है. बालीवुड वन वे रास्ता है जिसमें एक समय मे सिर्फ प्रवेश कर सकते है या निकल सकते है प्रवेश करते समय आप कुछ भी ना हों पर निकलते समय सिर्फ और सिर्फ आप पराजित ही होंगे. अवसरवाद का वह घना चक्रव्यूह है जिसमे समाजिक सारे रिस्ते असमाजिक नजर आते है. अवसाद , अकेलापन, छलावा, खरीदफरोक,तनहाई,शोहरत ये सब वो झूठे फसाने है जो किसी और के बारे में सुनने मे हमें बहुत मधुर महसूस होते है. परन्तु एक बार हम उस जगह में अपने को रख कर सोचते है  तो रूह को पता चलता है कि इस महासागर में मनोरंजन के लिये अदाकारा और अदाकार को जिस्म और रूह के हर भेद को खुले आम मनोरंजन के इस बाजार में मन-बेमन,प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष,रूप से भूखे जानवरों के सामने रखना ही पडता है नहीं तो आप भी जिया खान की श्रेणी मे खडे कर दिये जायेंगें या फिर मजबूर कर दिये जायेंगे.अब सवाल यह उठता है कि हम सब कितने सहभागी है इस सब में और हम सब का क्या रोल हो सकता है इस महासागर में इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिये.आज के हम जैसे उपभोकताओं की उपभोगवादी सोच ने वालीवुड को मजबूर कर दिया है हर इवेंट को हमारी कसौटी मे खरे उतरे और खरे उतरने की होड में हर फिल्म, हर अदाकारा, हर प्रोग्राम, हर सिने पत्रिका,वेबसाइट, सब ने बाजारूपन अख्तियार कर लिया है. क्योकी बाजार में बाजारवाद का पहला उसूल है कि अपने को शीर्ष मे रखने के लिये बाजारू हो जाओ. कुल मिला कर यदि दर्शक और श्रोता अपना नजरिया बदल ले तो उस पर केंद्रित बाजार भी अपने आप समय के साथ बदल जायेगा. पर यह भी सच है कि यह भारत है और इस जगह मे इस सोच हो लागू करना कुत्ते की पूँछ को सीधी करने जैसा दुरूह कर्म ही है. पर उम्मीद ना छोडना ही विजेता की फितरत है.

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