गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

जेलों में कई बेगुनाह,कौन सुनेगा इनकी आह

कब तक सहे
जेलों में कई बेगुनाह,कौन सुनेगा इनकी आह
भारत की जेलों में आज के समय में ८० प्रतिशत गुनहगार सजा काट रहे हैं. और २० प्रतिशत ऐसे दोषी है जिन्हे इस बात का पता ही नहीं है कि उन्हे किस बात का दोषी माना गया है. कभी या तो किसी गुनहगार का साथ देने के कुसूर ने उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया. तो कभी अपने की जान बचाने की कीमत अदा करने के लिये सलाखों के पीछे चले गये. इस देश की बहुत सी समाजिक पत्रिकायें है बहुत से पत्रकार हैं जो इस बात का पता लगाने के लिये अपने जीवन तक को दाँव में लगा दिया परिणाम आया कि जेलों में सिर्फ समाज के गुनहगार ही सजा नहीं काट रहे है. बल्कि वो बेगुनाह भी अपना जीवन सश्रम कारावास, या कारावास भोग रहे है जिनका कोई माई बाप नहीं है.कोई सुनने वाला नहीं है. समाज में बहुत सी घटनायें घटित होती है जिसमें शक के बिनाह में लोगों को हिरासत में लिया जाता है. उन पर केश चलता है और सुनवाई भी होती है. परन्तु निर्णय यह आता है कि सबूत जिसका समर्थन करते है वो बाइज्जत बरी हो जाता है. और अन्य जेल की सजा भुगत रहे होते है. कभी यह नहीं खोजा जाता है कि सबूत वास्तविक कितने है या फिर कितना मूल्य देकर खरीदा गया है. न्यायालय की व्यवस्था ही ऐसी है जिसमें सबूत और दलीलों का सम्राज्य होता है.जिस पक्ष की दलीलें प्रभावी होती है वो पक्ष ही विजयी होता है. और समय गुजरने के साथ इस तरह के केस की फाइल बंद कर दी जाती है. और फिर शायद ही कोई सुनवाई होती है.समाजिक सरोकारों के झमेले में पडकर ये लोग जेल की सजा भुगत रहे होते है और इनका जीवन भी जेल के अंदर बदतर होता है जेल के बाहर निकलने पर बद से भी बदतर हो जाता है.इसके लिये मै समाज के बेताल खोपडी को ही दोषी मानता हूँ. समाज अपने अख्खड स्वभाव की बेडियों को पहननें के लिये मजबूर होते है.वो आम इंसान के पावर और मजबूरियों को समझने के लिये तैयार ही नहीं होता है.
जेल की चारदीवारी खुद सबूत है हर साल कई महिलायें पुरुष और युवा वर्ग की ऐसी कतार है जो जेल में पहुँचने के बाद अपनी रिहाई की मिन्नते माँगते है और असफल रहते है. जेल की सजा के कुछ दिन तक सब लोग समय समय पर मिलने आते है और समय समय पर अपनी याद दिलाते है परन्तु धीरे धीरे,जैसे जैसे समय गुजरता चला जाता है वैसे वैसे ही लोग दूर होते चले जाते है. ये बेगुनाह मजबूर होकर जेल में अपना जीवन पूरा नहीं तो काफी समय गुनहगारों के बीच गुजारने के लिये मजबूर होते है. गुनाह धीरे धीरे उनके मन मष्तिस्क में प्रवेश करने लगता है. क्योंकि उम्मीद पूरी तरह से इस समाज और उनके परिवार के द्वारा समाप्त कर दी जातीहै. या तो ऐसे बेगुनाह लोग जेल से बाहर जिंदा निकल नहीं पाते है और यदि ऊपर वाले की कृपा से कभी बची कुची जिंदगी का यापन करने यदि ये बाहर आते भी है तो समाज के कुछ प्रतिनिधि धन्ना सेठ इनको दुत्कार दुत्कार कर इस स्थिति में ला देते है कि ये परिस्थितिजन्य अपराधी बनने के लिये मजबूर हो जाते है. कभी जरा इस बात मे गौर करें कि इस तरह के जेलों में बेगुनाह जीवन जीने वालों के लिये माई बाप कौन है. या ये सब भी गेहूँ के साथ घुन के पिसने वाली कहावत चरितार्थ करने के लिये मजबूर ही रहेंगे. आजकल इस समाज के कई कोनों में बहुत संस्थाये है जो इस तरह की दुनिया वाले  बेगुनाह लोगों के जीवन के पीछे अपने जीवन के शोध को लगा देते है. परिवार के साथ मिलकर नया संबल दिया जाता है.टूटती आस को दोबारा बाँधा जाता है और फिर से अधूरी जंग को दोबारा शुरू करने के लिये कदम उठा ही लिया जाता है.तब कहीं जाकर फाइलें खुलती है फिर से जाँच शुरू होती है और फिर से सुनवाई के बाद पक्ष में निर्णय हो पाते है. आखिर न्याय तो मिलता है परन्तु बहुत देर हो जाती है. परन्तु जिन बेगुनाह लोगों तक ये प्रतिनिधि नहीं पहुँच पाते है उनका माईबाप कौन होता है. कोई नहीं ये अपनी बेबस जिंदगी जीने के लिये श्रापित होते है. मुझे लगता है कि अब आवश्यकता है कि न्याय व्यवस्था को ज्यादा पारदर्शी बनाया जाये. उसके बाद जेलों के अंदर भी काउंसिलिंग सेंटर होना चाहिये जो इस तरह के कारावासियों के साथ बात करके कुछ समयोपयोगी समाधान निकाल सकें और पुलिस समाज तथा इन लोगों के बीच एक संबंध स्थापित कर सकें.यदि साल भर में एनजीओ के प्रभावी और कारगर कदम उठे तो इस में कोई शक नहीं है कि इस तरह के केसेस बहुत कम हो जायेंगें. परनुत सबसे ज्यादा परिवर्तन की आवश्यकता है न्यायपालिका के आंशिक परिवर्तन की. जो इस तरह के बेगुनहगारों सही तरीके से जीवन यापन का रास्ता दिखायेगा.अंततः समाज की भूमिका तो सबसे अहम तो हमेशा होती है. यदि शासन माईबाप नहीं बन सकता तो हम सब तो मित्रवत मदद तो कर ही सकते है.
अनिल अयान.सतना.

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