शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता
            मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया.अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी.क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ.अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था.उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५८७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है.आजादी ६५ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे.शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.
            स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने यह कभी सपने में भी ना सोचा होगा कि आने वाले समय में उन्हें आतंक वादी की तरह पाठ्यक्रमों में बच्चों के सामने लाया जायेगा.वो भी इस लिये क्योकि सरकार वामपंथ और दक्षिण पंथी रवैया अपनाये हुये है.जो सरकार आती है वह अपने पंथ के सेनानियों को शहीद और अन्य को आतंकवादी के रूप में पाठ्यक्रम में सुमार कर देती है.उस समय बिना किसी स्वार्थ के बलिदान देने वाले सच्चे सपूतों को आज स्वार्थपरिता के तले गुटने टेकने पड रहे है. आज लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान जय किसान का नारा बेमानी हो चुका है.बापू का भारत के कृषि प्रधान होने का सपना मिट्टी में मिल चुका है. आज ना किसान की जय है और ना ही जवान की जय है.किसान आज भुखमरी,लाचारी और बेबसी से आत्महत्या करने के लिये मजबूर है.पहले के समय में लगान ना देने में जमीदार लोग किसानों को पेडों से लटकाकर कोडे मरवाते थे.पुलिस के जवान उन्हे जूते की मार देते थे.आज के समय में यदि कर ना दिया जाये तो पटवारी और राजस्व विभाग उनकी जमीन की जप्ती कर लेते है.किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ छलावा है.यदि पटवारियों और सरपंचों को घूस ना दी जाय तो किसानी का मुआवजा भी नहीं मिल पाता है.शास्त्री जी का किसान,और बापू के कृषि प्रधान देश में कृषि और कृषक ही आत्महत्या करने के लिये बेबस है.
            जवानों की स्थिति यह है कि युवा वर्ग आज अपनी आभासी दुनिया में व्यस्त है.कैरियर में शार्टकट रवैया उन्हें मंजिलों से ज्यादा दूर कर दिया है.युवा जवान वर्ग अपने रोजगार के लिये भटक रहे है.प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये सरकार के द्वारा की गई मनमानी के जवाब में अहिंसात्मक आंदोलन ,धरना प्रदर्शन करने में व्यस्त है.समाज में उनके लिये ना कोई सकारात्मक स्थान है और ना ही समर्थन है.सुरक्षा के जवानों की यह स्थिति है कि आजादी इतने वर्षों के बाद भी उनको ना सुविधाये मुहैया कराई गई और तो और उनके शस्त्रों में भी धांधलेबाजी और घोटाले किये गये.जिन दुश्मन देशो से वो भारत को बचाने के लिये हर मौसम में सीमा में डटे रहे,आतंकवादियों और घुसबैठियों को भारत की सीमा के नजदीक ना आने दिया.हमारे देश के रहनुमा उन्ही देशो के साथ मित्रता का संबंध बनाने के लिये योजनाये बनाते रहे राजनैयिक सलाहकार आतंकवादियों से मिलकर उन्ही की भाषा में बात करने लगे.
            आजादी के इतने सालों के बाद स्त्री सुरक्षा और सशक्तीकरण का स्वांग भरने वाला भारतीय गणतंत्र राष्ट्र, गनतंत्र की व्यवस्था को पालन करने में लग गया.जिसकी लाठी उसी की भैंस की कहावत का पालन होने लगा.जब गणतंत्र, गनतंत्र में परिवर्तित हुआ तो उसमें दिल्ली,उ.प्र.और बिहार,सबसे आगे निकल गये.बंदूखों की नोक में अत्याचार होने लगे,अस्मिता लूटे जाने लगी,हमारा देश विकास की होड में इतना आगे निकल गया कि,मूल्यों के लिये जगह ही नहीं बची,आजाद भारत की यही परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने देखी रही होगी,धर्मनिरपेक्षता का यह हाल है कि लोग धर्म को अपनी स्वार्थ की रोटियाँ सेकने और हवस मिटाने का स्थान बना लिया.कोई धर्म के नाम को कैश करने लगा और कोई धर्म की आड लेकर राजनीति के अखाडे में दाँव आजमाने लगा.धरम के नाम पर दंगो और अराजकता की आग ने अमन,शांति सुख,चैन,सब को जला कर खाक कर दिया. यहा पर  स्वतंत्रता का अधिकार किसी को मिला तो इतना मिला कि वो इतना अमीर होता चला गया और इतना अमीर होगया जिसके दम पर वो सरकार को झुकाने लगा.और दूसरे की स्वतंत्रता पर डांका डालने लगा.वैचारिक स्वतंत्रता और भाषा गत आजादी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा वोट बैंक के लिये राजनेताओं के द्वारा किया गया..वाक युद्ध में तो मर्यादा तार तार होती रही.
            इस आजाद मुल्क के शुरुआती दिनों में भारत के राजनेता भी ईमानदार,लोकतंत्र और गणतंत्र की परंपरा का निर्वहन करने वाले हुआ करते थे.समाज में धर्म निरपेक्षता और आजादी का जश्न हर गली मोहल्ले में देखा जा सकता था.पंद्रह अगस्त को छुट्टी की तरह राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया जाता था.आज बाजारवाद और वैश्वीकरण ने इस राष्ट्रीय त्योहार को निगल लिया है.आज के समय पर पंद्रह अगस्त छुट्टी का दिन अधिक और आजादी की वर्षगांठ कम नजर आता है.आज हर जगह सब अपने अपने में व्यस्त है.देश के बारे में जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के ८० प्रतिशत युवाओ और बच्चों को अभी यह नहीं पता की देश का राष्ट्रगान और राष्ट्र गीत क्या है राष्ट्र चिन्हों की कोई जानकारी ही नहीं है.इनसबके लिये जितना सरकार दोषी है उतना हम सब भी गुनहगार है.यदि हम आने वाली पीढी को समुचित जानकारी नहीं प्रदान करेंगें तो वह भारत में तो रहेगी परन्तु भारत के बारे में जानेगी कुछ भी नही.स्वतंत्रता दिवस मनाना , स्वतंत्रता की रक्षा के लिये वचन बद्ध होना,और स्वतंत्रता की कीमत को समझकर उसकी रक्षा करना तीनो में बहुत ही बडा अंतर है.आजादी के इस जश्न को आज व्यापक बनाने की आवश्यकता है ताकि इसकी याद और गूँज आने वाली पीढी के जहन में लंबे समय तक बनी रहे.


अनिल अयान ,सतना

अतिक्रमण जरूर हटाओ , पर खुद को तटस्थ बनाओ.

अतिक्रमण जरूर हटाओ , पर खुद को तटस्थ बनाओ.
नगरनिगम हो या नगर पंचायत हो इन संस्थाओं के पास अतिक्रमण विरोधी दस्तों का इंतजाम जरूर होता है.दस्ता,दस्ते के कर्मचारी,और वाहन व्यवस्था सर्व सुविधा युक्त युक्त होती है.ये संस्थायें सतना में नहीं वरन रीवा,सीधी पन्ना और भी अन्य जिलों में यह कार्यवाही साल भर में दो तीन बार नियमित रूप से करती है.और यदि कोई राजनैति शक्सियत आने वाली होती है तब यह कार्यवाही तेज हो जाती है.सरकार को यह दिखाने का प्रयास किया जाता है कि यहाँ की सुंदरता में कोई ग्रहण नहीं लगा हुआ है.एक दो दिन पूर्व सतना शहर में एक दो स्थानों से अतिक्रमण हटाया गया,इस बार अतिक्रमण हटाने के केंद्र बिंदु थे आई.जी. महोदय जिनके नेतृत्व में नगर निगम को यह सफलता हाथ लगी.पर क्या वजह है कि अतिक्रमण हटाने की आवश्यकता बार बार नगर निगम को पडती है. कितना समय,श्रम,और अर्थ पानी की तरह हर बार बहा दिया जाता है इन प्रश्नो का जवाब किसी के पास नहीं है.शहर कोई भी हो परन्तु महानगरों की बात छोड दें तो सबकी कहानी एक जैसे है. हर बार जो दस्ता इस कार्यवाही को अंजाम देता है उसके ऊपर लाखों रुपये खर्च होता है. परन्तु एक सप्ताह के बाद उसका परिणाम शून्य ही नजर आता है.
            अतिक्रमण का मूल अर्थ है किसी की सम्पत्ति पर गैरकानूनन रूप से कब्जे की प्रक्रिया,आज अतिक्रमण करना और करवाना दोनो बायें हाथ का खेल हो गया है.फुटपाथियों और गरीब तबके का दुकानदार अपनी मजबूरी और रोटी ,कपडा, मकान के लिये किसी शासकीय भूखंड का इस्तेमाल अपना व्यवसाय करने के लिये करता है. परन्तु शाम होते ही वह उस जगह को खाली करके चला जाता है और सुबह फिर उसी जगह पर अपना सामान बेंचने के लिये गावों से आता है.शासन की दृष्टि में यह अतिक्रमण किरकिरी की तरह चुभता है.अधिकारियों को यह अतिक्रमण दिन रात परेशान करके रखता है. अतिक्रमण का दूसरा भी प्रकार है जिसका उपयोग बडे व्यवसायी,उद्योगपति,और माफिया वर्ग करता है शासन के भूखंड में गैरकानूनन रूप से कब्जा करते है उसको धार्मिक रूप से प्रचारित प्रसारित करते है. वहाँ या तो खदानें,या कालोनियाँ , बहुमंजिली इमारतों के पास की सुंदरता बढाने के लिये उपयोग करते है.राजनेता इस प्रकार के अतिक्रमण का इस्तेमाल आज के समय पर मैरिज गार्डन और अन्य प्रकार के ओपन कैंपस पैलेस खोलने के लिये करते है.इस प्रकार के अतिक्रमण कभी आदतन और बंदूख की नोंक पर होते है.या कभी सुविधा शुल्क का उपयोग कर अधिकारियों की सेवा करके किया जाता है.इस प्रकार के अतिक्रमण के लिये ना ही नगर निगमों के पास कोई दस्ता होता है और ना ही शासन के पास कोई अमला होता है. यह प्रश्न भी उठता है कि प्रशासन  इस अतिक्रमण को हटाने के लिये कौन से मुहुर्त का इंतजार कर रहा है.क्या इससे शासकीय राजस्व का नुकसान शासन के कुछ कमाऊखोर अधिकारी नहीं कर रहे है.इसको देखने के लिये कौन सी कमेटी है.क्या वह भी इन दस्तो की तरह तटस्थ रूप से काम करना बंद कर चुकी है.कौन जवाब देगा इन सब प्रश्नों के,शायद अभी उत्तर निरुत्तर है.आज के समय पर अतिक्रमण हटाने का काम हमेशा चेहरा ,पावर,राजनैतिक पहुँच देख कर किया जाता है.इस कार्यप्रणाली में सुधार करने की सबसे ज्यादा आवश्यकता है.

            जगह कोई भी हो,शहर कोई भी हो, परन्तु शासकीय जमीन में कुछ समय बिता कर, अपना व्यवसाय कर,रोजी रोटी कमाने की स्वतंत्रता हर रहवासी को है.ये अतिक्रमण कारी जो फुटपाथ में बैठ कर ,सडक के किनारे दुकान लगाकर अपनी रोजी रोटी कमाते है वो खुद इस बात को स्वीकार करते है कि यदि शासन गलत काम करने की बजाय हमें कोई जगह निर्धारित कर दे तो हम वहीं व्यवसाय करेंगें.परन्तु नगर निगम और नगर पंचायत के कुछ ऐसे भी कर्मचारी है जो इनको निर्वासित करने की पहल तो करते है परन्तु इन्हे एक स्थाई स्थान प्रदान करने की पहल नहीं कर सकते है.प्रशासन बडे उद्योगपतियों के अतिक्रमण को भूल जाता है और इन फुटपाथियों के अतिक्रमण का स्थाई इलाज नहीं खोज पाया है.इनसे नगर निगम की वसूली की जाती है.बिजली का टी.सी. बिल वसूला जाता है.पुलिस के द्वारा दादागिरी दिखाई जाती है. और ऐन मौके पे इनका ठेला,बोरिया बिस्तर उठाकर जब्त भी कर लिया जाता है.मुझे लगता है कि अतिक्रमण करने वाले जितने दोषी है उससे कहीं ज्यादा दोषी प्रशासन के ये लोग भी है.यदि अतिक्रमण कारियों को सजा दी जाती है तो इन अधिकारियों और विभागों पर भी कार्यवाही होना चाहिये. यह सब तो एक तरफा बात है बडे कदवार अतिक्रमणकारियों से शासन की जमीन अथवा भूखंड को अतिक्रमण मुक्त करना चाहिये.अतिक्रमण करना गुनाह है परन्तु अतिक्रमण कारियों को शासकीय सह देना उससे बडा गुनाह है. यह भी सच है कि यदि मंडियों ,के लिये,मीट मार्केट के लिये ,सब्जी वालों के लिये,दूधवालों के लिये स्थान निर्धारित है तो इन ठेलेवालो और गुमटी वालों के लिये कटराबाजार की व्यवस्था क्यों नहीं है.यदि इस व्यवस्था को लागू कर दिया गया और आर्थिक मदद शासन प्रदान करे तो शासन को इस प्रकार के अतिक्रमण से राहत तो मिलेगी ही साथ में उसका इस पर खर्च होने वाला अर्थ,श्रम,और समय भी बचेगा.अब शासन को बडे अतिक्रमण कारियों की ओर रुख करना होगा साथ ही साथ इसके लिये नियम ,कानून और सजा को और कडी करने की आवश्यकता है.शासन के हर इस तरह के कामों में यदि तटस्थता होगी तो किसी को नुकसान और पीडा नहीं होगी.

शनिवार, 9 अगस्त 2014

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता
मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया.अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी.क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ.अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था.उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५८७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है.आजादी ६५ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे.शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.
स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने यह कभी सपने में भी ना सोचा होगा कि आने वाले समय में उन्हें आतंक वादी की तरह पाठ्यक्रमों में बच्चों के सामने लाया जायेगा.वो भी इस लिये क्योकि सरकार वामपंथ और दक्षिण पंथी रवैया अपनाये हुये है.जो सरकार आती है वह अपने पंथ के सेनानियों को शहीद और अन्य को आतंकवादी के रूप में पाठ्यक्रम में सुमार कर देती है.उस समय बिना किसी स्वार्थ के बलिदान देने वाले सच्चे सपूतों को आज स्वार्थपरिता के तले गुटने टेकने पड रहे है. आज लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान जय किसान का नारा बेमानी हो चुका है.बापू का भारत के कृषि प्रधान होने का सपना मिट्टी में मिल चुका है. आज ना किसान की जय है और ना ही जवान की जय है.किसान आज भुखमरी,लाचारी और बेबसी से आत्महत्या करने के लिये मजबूर है.पहले के समय में लगान ना देने में जमीदार लोग किसानों को पेडों से लटकाकर कोडे मरवाते थे.पुलिस के जवान उन्हे जूते की मार देते थे.आज के समय में यदि कर ना दिया जाये तो पटवारी और राजस्व विभाग उनकी जमीन की जप्ती कर लेते है.किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ छलावा है.यदि पटवारियों और सरपंचों को घूस ना दी जाय तो किसानी का मुआवजा भी नहीं मिल पाता है.शास्त्री जी का किसान,और बापू के कृषि प्रधान देश में कृषि और कृषक ही आत्महत्या करने के लिये बेबस है.
जवानों की स्थिति यह है कि युवा वर्ग आज अपनी आभासी दुनिया में व्यस्त है.कैरियर में शार्टकट रवैया उन्हें मंजिलों से ज्यादा दूर कर दिया है.युवा जवान वर्ग अपने रोजगार के लिये भटक रहे है.प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये सरकार के द्वारा की गई मनमानी के जवाब में अहिंसात्मक आंदोलन ,धरना प्रदर्शन करने में व्यस्त है.समाज में उनके लिये ना कोई सकारात्मक स्थान है और ना ही समर्थन है.सुरक्षा के जवानों की यह स्थिति है कि आजादी इतने वर्षों के बाद भी उनको ना सुविधाये मुहैया कराई गई और तो और उनके शस्त्रों में भी धांधलेबाजी और घोटाले किये गये.जिन दुश्मन देशो से वो भारत को बचाने के लिये हर मौसम में सीमा में डटे रहे,आतंकवादियों और घुसबैठियों को भारत की सीमा के नजदीक ना आने दिया.हमारे देश के रहनुमा उन्ही देशो के साथ मित्रता का संबंध बनाने के लिये योजनाये बनाते रहे राजनैयिक सलाहकार आतंकवादियों से मिलकर उन्ही की भाषा में बात करने लगे.
आजादी के इतने सालों के बाद स्त्री सुरक्षा और सशक्तीकरण का स्वांग भरने वाला भारतीय गणतंत्र राष्ट्र, गनतंत्र की व्यवस्था को पालन करने में लग गया.जिसकी लाठी उसी की भैंस की कहावत का पालन होने लगा.जब गणतंत्र, गनतंत्र में परिवर्तित हुआ तो उसमें दिल्ली,उ.प्र.और बिहार,सबसे आगे निकल गये.बंदूखों की नोक में अत्याचार होने लगे,अस्मिता लूटे जाने लगी,हमारा देश विकास की होड में इतना आगे निकल गया कि,मूल्यों के लिये जगह ही नहीं बची,आजाद भारत की यही परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने देखी रही होगी,धर्मनिरपेक्षता का यह हाल है कि लोग धर्म को अपनी स्वार्थ की रोटियाँ सेकने और हवस मिटाने का स्थान बना लिया.कोई धर्म के नाम को कैश करने लगा और कोई धर्म की आड लेकर राजनीति के अखाडे में दाँव आजमाने लगा.धरम के नाम पर दंगो और अराजकता की आग ने अमन,शांति सुख,चैन,सब को जला कर खाक कर दिया. यहा पर स्वतंत्रता का अधिकार किसी को मिला तो इतना मिला कि वो इतना अमीर होता चला गया और इतना अमीर होगया जिसके दम पर वो सरकार को झुकाने लगा.और दूसरे की स्वतंत्रता पर डांका डालने लगा.वैचारिक स्वतंत्रता और भाषा गत आजादी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा वोट बैंक के लिये राजनेताओं के द्वारा किया गया..वाक युद्ध में तो मर्यादा तार तार होती रही.
इस आजाद मुल्क के शुरुआती दिनों में भारत के राजनेता भी ईमानदार,लोकतंत्र और गणतंत्र की परंपरा का निर्वहन करने वाले हुआ करते थे.समाज में धर्म निरपेक्षता और आजादी का जश्न हर गली मोहल्ले में देखा जा सकता था.पंद्रह अगस्त को छुट्टी की तरह राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया जाता था.आज बाजारवाद और वैश्वीकरण ने इस राष्ट्रीय त्योहार को निगल लिया है.आज के समय पर पंद्रह अगस्त छुट्टी का दिन अधिक और आजादी की वर्षगांठ कम नजर आता है.आज हर जगह सब अपने अपने में व्यस्त है.देश के बारे में जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के ८० प्रतिशत युवाओ और बच्चों को अभी यह नहीं पता की देश का राष्ट्रगान और राष्ट्र गीत क्या है राष्ट्र चिन्हों की कोई जानकारी ही नहीं है.इनसबके लिये जितना सरकार दोषी है उतना हम सब भी गुनहगार है.यदि हम आने वाली पीढी को समुचित जानकारी नहीं प्रदान करेंगें तो वह भारत में तो रहेगी परन्तु भारत के बारे में जानेगी कुछ भी नही.स्वतंत्रता दिवस मनाना , स्वतंत्रता की रक्षा के लिये वचन बद्ध होना,और स्वतंत्रता की कीमत को समझकर उसकी रक्षा करना तीनो में बहुत ही बडा अंतर है.आजादी के इस जश्न को आज व्यापक बनाने की आवश्यकता है ताकि इसकी याद और गूँज आने वाली पीढी के जहन में लंबे समय तक बनी रहे.

अनिल अयान ,सतना

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

प्रेमचंद्र की प्रगतिशीलता से उपजे सवाल और जवाब.

 प्रेमचंद्र की प्रगतिशीलता से उपजे सवाल और जवाब.
(मुंशी प्रेमचंद -३१ जुलाई १८८० से ८ अक्टूबर १९३६)
मुंशी प्रेमचंद, एक ऐसा छद्म नाम जो धनपत राय को हिन्दी कथा साहित्य में अमर कर दिया.हंस के संपादक होने के साथ उनका कथा और उपन्यास साहित्य का सफर इतना गतिशील रहा कि आज भी उनकी कथा और उपन्यास के मुरीद इस देश में ही नहीं वरन विदेशों में भी उपस्थित है. लगभग एक महीने पूर्व ए.अरविंदाक्षन की पुस्तक प्रेमचंद के आयाम पढने को प्राप्त हुई उस पुस्तक को पढ कर यह भान हुआ कि वाकयै मुंशी प्रेमचंद ने अपने पात्रों में भारतीय ग्राम्य जीवन और परंपरा को जिया है.प्रेमचंद की रचनाशीलता सदैव साहित्य सरिता में प्रवाहित होती रही है. उन्होने वह सब अपनी कहानियों और उपन्यासों में लिखा जो उस समय भारत में घट रहा था और आज भी वही घट रहा है.बस  उन घटनाओं के परिदॄश्य बदल गये है.उन्होने अपनी नजदीकियों को ही बस नहीं अपनी दूरियों को भी बाकायदे अपनी कहानियों में उभारा है.उन्होने अपने सरल आदर्शवाद के चलते जन मानस की संवेदना,पीडा,सुख दुख और सामन्जस्य को केंद्र में रखकर अपनी कहानियों के पात्र और कथोपकथन को साहित्य में स्थान दिया है.इसी वजह से हम सब उन्हें कथा सम्राट कहते है.प्रेमचंद के स्वराज की कल्पना भी अनोखी थी.उनके स्वराज में शोषण रहित समाज का दृश्य था.कहीं भी सामाजिक राजनैतिक विषमता का कोई भी स्थान नहीं था.प्रेमचंद ने ग्राम्य जीवन के लिये नगर पाश्चात सभ्यता का आक्रमण खतरनाक माना था.उन्होने भारतीय किसान,मजदूर और स्त्री विमर्ष का बहुत पहले से अपने उपन्यासों और कथाओं में जिक्र कर चुके थे.उन्होने स्त्रीविमर्श के संदर्भ में यह मत था कि स्त्री ना पुराने धर्म संस्कारों से जकडी हो और ना वह मातृत्व सेवा भावना, करुणा से विमुख होकर पश्चिमी सभ्यता अपनाने वाली स्त्रियों की तरह अतिचंचल,विलासप्रिय और अनुत्तरदायी बने.उन्होने अपने कथा साहित्य में दलित विमर्श को भी बखूबी उकेरा है.उनका मानना है कि दलित चिंतन कोई भी करे,पर अंबेडकर का अनुवर्ती ना होकर पूर्ववर्ती होना चाहिये,सहवर्ती होना चाहिये.
          अर्धशतकीय उपन्यास और शतकीय प्रसिद्ध कथाओं की रचना करने के बाद भी बहुत सी ऐसी रचनाये है जो पाठको के समक्ष आ ही नहीं पाई है.क्योंकि जिस वक्त वो अपने लेखन के चरम बिंदु में थे उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था और विपरीत परिस्थितियों से उन्होने अपनी कथाओं को सजाया और संवारा था.वो हंस पत्रिका के संपादक भी थे.और यह कार्य उनसे अपनी पत्रिका के लिये छद्म नामों से कई कहानियों की रचना भी करवा गया.शोज ए वतन नाम की पहली कृति आज भी अधिक्तर पाठकों की नजरों के सामने नहीं आ पायी है.और भी शतक पूरी कर रही रचनायें है जो आज भी विलुप्त हो गई है.उनके बेटे ने उनके देहांत के बाद कई रचनाओं को संग्रहित करके उनका संग्रह प्रकाशित करवाया था परन्तु सिर्फ इतना ही काफी नहीं था.आज के समय में मुंशी प्रेमचंद वह पेटेंट नाम है जिसका उपयोग करके कई प्रकाशक कैश कर रहे है.उनके कहानियों और उपन्यासों को कई बार प्रकाशको ने अलग अलग शीर्षक से प्रकाशित किये और पाठको को बेंच दिया .परन्तु आज भी पाठकों की वह प्यास बुझी नहीं है.मुंशी प्रेमचंद वो रचनाकार है जिन्होने भारत की दुर्दशा को स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से स्वतंत्रता के पश्चात भी अपनी नजरों से देखा था उसी का परिणाम रहा है कि उनकी कहानियों और उपन्यासों में किसानों,ग्राम्य जीवन,भ्रष्टाचार,अत्याचार,स्त्रीविमर्श,दलित समुदाय के मुद्दे,अपने समय से पहले ही रखे जा चुके थे.उन्होने प्रगतिशीलता का भाव अपने लेखन पहले ही स्पष्ट कर दिया था.
          आज वामपंथ और दक्षिण पंथ और उनके समुदाय के लेखक प्रेमचंद को अपने अपने कुनबे का साबित करने में लगे हुये है.कम्युनिष्ट उन्हें अपने कुनबे का प्रमुख मानरहे है.प्रगतिशील उन्हें अपने कुल का दीपक मान रहे है.दक्षिणपंथी उन्हें अपनी परंपरा का पोषक माने बैठे है.परन्तु प्रेमचंद के अनुसार वास्तव में हर लेखक कवि प्रगतिशील होता है.वो अपने समय घटनाओं के माध्यम से भविष्यदृष्टा के रूप में भविष्य की परिकल्पना करता है. क्योंकि वास्तविक पृष्ठभूमि में खडा होकर ही कल्पना का उद्गम करता है और रचनाकर्म को पूर्ण करता है.प्रगतिशील लेखक संघ का बार बार इस बात का उल्लेखकरना कि प्रेमचंद उनके पूर्वज है तो उस संदर्भ में लखनऊ अधिवेशन के दौरान उन्होने स्पष्ट कर दिया था कि प्रगतिशील लेखक वह लेखक जो अपने समय में रहकर विकास की बात करे जो हर कलमकार करता है.बस अंतर इतना होना है जो जिस बैनर तले होना है उसका महत्व उतला बढ जाता है और जो स्वतंत्र लेखन करता है उसके लेखन और उसकी विचार धारा के लिये हमेशा ही साहित्यकारों में विवाद बना रहता है.हम यदि प्रेमचंद के रचना संसार को पढे तो पता चलेगा की वो प्रारंभ से ही प्रगतिशील थे.पर उनकी पीठ में बार बार कुरेदना कि वो प्रगतिशील ही है.बार बार उनके नाम का उपयोग करके कैश करना गलत है.प्रेमचंद सृजन पीठ उज्जैन में है परन्तु अफसोस है कि वो भी प्रेमचंद के साहित्य को समाज तक बखूबी नहीं पहुचा सकी.फंड आये और गये परन्तु कार्यक्रम सिर्फ फाइलों में कैद होकर रह गये.आज अच्छे पाठक की मजबूरी है कि उसे यदि कालजयी साहित्य को पढना है तो प्रेमचंद कहानियों और उपन्यासों से मुख्तसर होना ही पडेगा.जो उस समय का था, वर्तमान समय का भी है और भविष्य का भी उसी तरह प्रासंगिक बना रहेगा.अंतत यही कहना चाहता हूँ कि प्रेमचंद्र जैसे शिखर पुरुष के नाम पर कैश करना छोड कर ,राजनीति करना छोड कर यदि उनके लेखन को आत्मसात करने का प्रयास किया जाये उसे आने वाले पीढी के साथ साझा किया जाये तो यही उनके लिये सबसे बडी श्रृद्धांजलि होगी.एक अमर कलमकार को सच्ची श्रृद्धांजलि.

अनिल अयान,सतना.

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनी, वैदिक की पाक यात्रा

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनी, वैदिक की पाक यात्रा
एक सप्ताह से डा वेद प्रकाश वैदिक जी के मिलन प्रसंग को बहुत समय से अवलोकन कर रहा हूँ.उनका पाकिस्तान जाना, नवाज शरीफ ,प्रधान मंत्री पाकिस्तान से मिलना और फिर वहाँ के पत्रकारों के कहने बस से मोस्ट वांटेड हाफिज सईद से मुलाकात कर लेना, मिलकर भारत आने का निमंत्रण दे देना.यह सब इतना ज्यादा आसानी से वो मीडिया को बता रहे थे जैसे उन्होंने बहुत बडा कार्य करके पाकिस्तान से लौटे या ये कहें कि काश्मीर मुद्दा और अन्य समस्याओं का निपटारा करवा कर लौटे हो.और तो और कई न्यूज चैनल के प्रस्तुत करताओं को ऐसे डाँट रहे थे जैसे उन्होने वैदिक जी से सवालात करके देश द्रोह कर दिया हो.और उसके बाद क्या हुआ हम सब जानते है.आज उनके खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर हो गई है.
मै खुद वैदिक जी के बहुत से आलेख पढा हूँ.उनकी विद्वता का कायल रहा हूँ.विषय विशेषज्ञ मानने लगा था.परन्तु इस बार की घटना ने सबके साथ मुझे भी सोचने के लिये मजबूर कर दिया है कि क्या वैदिक जी का हाल अपने मुँह मिया मिट्ठू बनने जैसी हो गई है. और इसी के चलते वो पाकिस्तान में जल्द बाजी में हाफिज सईद से भी मिलने के लिये तैयार हो गये क्योंकि वहाँ के पत्रकारों ने अपने शब्द जाल के मोहपाश में वैदिक जी को मोहित कर लिये थे.वैदिक जी का यात्रा वृतांत और उनके जीवन के महत्वपूर्ण लमहों को उनके मुँह से ही सुनने के बाद लगा कि  वो अति उत्साह वादिता के शिकार थे और इसी का परिणाम रहा है कि वो आज इस हाल में है.उनका हाल कुछ ऐसा हो गया है कि गये थे हरि भजन को और औटन लगे कपास.वो चाहे जितना अपने को राष्ट्र भक्त और सबसे बडा वीवी आई पी व्यक्ति और भारत का नागरिक घोषित कर ले परन्तु उनकी भाषा शैली को सुनने के बाद लगता है कि वो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा करने में लगे है.क्योंकि जो लोग गहरे होते है वो अपना गुणगान नहीं करते है.अतिउत्साहवादिता का परिणाम था कि वो इतना सब कुछ होने के बाद भी वो अपने किये गये कार्य और उसके परिणाम से उठे विवाद का कोई दुख नहीं है वो विदेश मंत्री, विदेश सचिव,और अन्य राजनेताओं को भी गलत मान रहें है.वो अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करते है. पर इस स्वतंत्रता से उठे शैलाब और सुनामी का कोई छोभ तक नहीं है.अपने को पत्रकार मानते है.पर कैसे वो पाकिस्तान के प्रधान मंत्री से मुलाकात की अनुमति भारत से मिली कैसे उन्हें पाकिस्तान भेजने की प्रक्रिया पूरी की गई.क्या यह शासकीय यात्रा थी या व्यक्तिगत यात्रा थी. व्यक्तिगत यात्रा थी तो फिर वहाँ के प्रधान मंत्री से क्या काम था.हाफिज सईद की मुलाकात यदि शासकीय नहीं थी तो उसका वीडियों और पिक्चर क्यों खीची गयी. और यदि व्यक्तिगत थी तो फिर वैदिक जी को व्यक्तिगत क्या काम आन पडा हाफिज शहीद से ,और वो भी तब ,जब प्रधान मंत्री जी ब्रिक्स सम्मेलन में अपनी भागीदारी और अपने देश का परचम लहरा रहा है. कांग्रेस का कोई संबंध नहीं है. आर एस एस का कोई  संबंध नही है. विवेका नंद फाउंडेशन से उनका कोई नाता नहीं है. तो भी इतने झूठ क्यों बोले गये जो साफ साफ जनता और मीडिया के पकड में आगये.अपने को राष्ट्र वादी और प्रसिद्ध पत्रकार का राग अलापने वाले वैदिक जी को काश्मीर को आजाद करवाने और हाफिज शहीद को भारत में न्योता देने का अधिकार किसने दिया था. कुछ ये ऐसे प्रश्न है जिसका जवाब ना वैदिक जी के पास है और ना ही भारत की सरकार के पास.
इन सवालों के जवाब ही निर्णय तक पहुँचा सकते है कि वैदिक जी कैसे है. वैसे ,जैसे वो अपने विचारों के माध्यम से आम जनता को अखबारों में नजर आते है. या फिर वैसे ,जैसे वो इस धमाचैकडी मचाने के बाद टीवी चैनलों में हम सब को दिख रहे है. जिस हाफिज सईद के लिये देश की सेना पाकिस्तान से युद्ध के लिये तैयार है.जिसके लिये रक्षा मंत्रालय अपने दांव पेच आजमा रहा है. भारत के शहीदों के परिवारों के लिये वो सबसे बडा जानी दुश्मन है.भारत सरकार जिसके लिये पाकिस्तान से कोई समझौता करने के लिये कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं है.उससे मिलना और मिलकर भारत आने का निमंत्रण दे देना.और तो और काश्मीर को पाक को आजाद करके सौंप देने की घोषणा करके आना. देश द्रोह नहीं तो और क्या है.  वैदिक जी विद्वता का नकाब ओढ कर पत्रकारिता का घोषणा पत्र लिये अतिउत्साह वादिता की सजा भोग रहे है.और इस बात की सजा भी मिलनी चाहिये क्योंकि उन्होने भारत की सरकार की अनुमति के बिना दुश्मन देश से गये वहाँ पर देश के सबसे बडे आतंकी अपराधी से मेल मिलाप कर अपने देश में उसकी पैरवी कर रहे है.मै इतना जानता हूँ .भारत की जगह कोई और देश होता तो काफिर करार कर सिर कलम कर दिया गया होता.इस प्रकार के बहुत से उदाहरण अरब देशों में मौजूद है.हमारी उदारवादिता और हमारी स्वतंत्रता देश की रक्षा व्यवस्था से बढकर नहीं हो सकती है.इस बात को वैदिक जी और उन जैसे लोगों को स्वतः ही समझ लेना चाहिये.
अनिल अयान.सतना

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

छिडा घमासान,धर्म व आस्था में कौन महान


छिडा घमासान,धर्म व आस्था में कौन महान
बहुत दिनों से वैचारिक कुरुक्षेत्र का जीताजागता उद्धरण देखने को  मिल रहा है.और उसका परिणाम यह है कि संवादों से विवादों का उदय हो रहा है. नित नूतन वाक युद्ध से आस्थाये और धर्म आहत हो रहे है. वाकयुद्ध के प्रहार इतने तगडे है कि इनकी आँच धर्मावलंबियों, धर्मशास्त्रियों और तो और भक्तों में भी दिख रही है.मामला सिर्फ इतना सा है कि धर्म की भक्ति पुरातन काल से चली आरही है परन्तु इसमें आस्था का केंद्र बिंदु परिवर्तित होने से धर्मगुरु खिन्न हो गये है.और वाकयुद्ध का प्रारंभ जाने अनजाने ही हो गया है.आपत्ति जनक संवाद किये जारहे है. आस्थायें और भक्ति दोनो ही परिचर्चाओं के घेरे में खडी हो गई है.यहाँ तक की अदालत तक का दरवाजा खटखटाना पडा है.साई बाबा भक्तों और सनातन धर्म गुरु शंकराचार्य के बीच का विवाद का कुछ परिणाम निकलने की संभावना अब कम नजर आ रही है
      सवाल कुछ भी हो ,सब परिस्थितियों का खेल नजर आता है. इतने वर्षों से मौन धारण करके रखना और अचानक इस तरह के संवेदनशील विषय पर वैचारिक और वाक युद्ध की स्थिति निर्मित करने का श्रेय धर्मगुरु को ही दिया जा सकता है.क्योंकि उनके ही बयान से यह स्थिति निर्मित हुई है.शिरडी की साई पीठ को अपने बयान में शामिल करना उनके आय व्यय के बारे में प्रश्न चिन्ह खडा करना,साई भक्तों को हिंदू देवी देवताओं की पूजा ना करके अपमान करने का श्रेय देना और तो और साई बाबा के धर्म को मुस्लिम धर्म की श्रेणी में लाना कहीं ना कहीं अराजकता को भी बढावा देने जैसा ही था.सनातन धर्म को मानने वाले किसी तरह के राग अलापने के मुहताज नहीं होते है.और किसी के कहने पर कोई अपनी पूजा अर्चना करना  नहीं बदल सकता है और ना ही छोड सकता है.हम सब जानते है कि हिन्दू धर्म नहीं बल्कि वैदिक कालीन परंपरा है जिसका असर हर भारतवासी के मन में है.इस परंपरा को हिंददेश में रहने वाला बखूबी जानता है.उसके प्रचार प्रसार या विज्ञापन के दम पर मजबूत नहीं किया जा सकता है.एक शेर याद आ रहा है.
      यूनान मिश्र रोमा सब मिट गये जहाँ से
      क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
हम सब जिस धर्म के अनुयायी है उसी धर्म को मानते हुये अन्य धर्मों का आदर करने की विरासत हमें अपने पूर्वजों से मिली है. परन्तु इस तरह  का वाकयुद्ध हमारी इस विरासत को छिन्न भिन्न करती है.संविधान में भी हमारे मौलिक अधिकारों में अपनी आस्था के अनुरूप धार्मिक अनुष्ठान करने और पूजा अर्चना करने का अधिकार प्राप्त है बशर्ते उससे अन्य लोगो की भावनाओं को ठेस न पहुँचे. कोई भी धर्म गुरु अपने प्रभाव से किसी भी व्यक्ति को यह बाध्य नहीं कर सकता है कि वो देवी देवताओं को यदि मानेगा तो उसे साई बाबा के दर में जाने और उनकी पूजा करने से परहेज करना होगा. क्योकि आस्था रक्त की तरह हमारी धमनियों में बहती है वो किसी भी उत्प्रेरक से प्रभावित होकर अपना बहाव बंद नहीं कर सकती है और ना ही दिशा बदल सकती है. हिंदू धर्म में ही हम अपने गुरु बाबा,कुल गुरुओ,और संतो का आदर करते है.पूजा करते है उन्हें भगवान का दर्जा देते है.देवभाषा संस्कृत में भी कई शुभाषित श्लोको में भी इस बात का जिक्र मिलता है और हम अपनी अगली पीढी को सिखाते है.क्या यह सब मिथ्या है या सिर्फ आदर्शवादी बातें ही है.जब हम अपने आसपास देखते है तो बहुत से ऐसे हिंदू धर्म के लोग है जो कभी चर्च में प्रेयर में शामिल होते है ,कभी गुरुद्वारे में अरदास में शामिल होते है और रोजा में मुस्लिम भाईयों के साथ रमजान  का हिस्सा बनते है. तो क्या धर्म गुरुओं के अनुसार इनको हिंदू धर्म से बहिस्कृत कर देना चाहिये क्योंकि ये हिन्दू देवी देवताओं के अलावा अन्य धर्म स्थलों में शामिल हो रहें है.शायद यह संभव नहीं है हिंदू धर्म इतना कट्टर नहीं है.कि इन लोगों का सिर कलम कर दिया जाये.यह विवाद सिर्फ अनुयाइयों को बरगलाने का एक प्रयास के अलावा कुछ नहीं है.
      यदि कोई भक्त शिरडी में जाकर किलो सोना भेंट करता है पूजा अर्चना करता है तो धर्मावलंबियों को इस बात का दुख नहीं होना चाहिये.शंकराचार्य जी सभी भारतवासियों के लिये सम्मान के पात्र है.परन्तु यह भी तय है कि वो इस तरह के बयान देकर वो इस सम्मान को कम कर रहें है.साई बाबा संत हो ,फकीर हो,या फिर कुछ और हो,उनकी पूजा करना किसी की आस्था का प्रश्न है आस्था पर प्रहार करना किसी धर्म के गुरु का दायित्व नहीं है.उनके अलावा उनके मठ के कई लोगों के यही बयान भी है कि सबको अपनी आस्था के अनुरूप पूजा अर्चना करने अधिकार है.और हम किसी को पूजा अर्चना करने के लिये बाध्य नहीं कर सकते है. साई बाबा है या ईश्वर ,उनके चमत्कार का कोई सबूत है या नहीं है.दस्तावेज है या नहीं है यह सब ऐसे प्रश्न है जिसका संबंध हिंदू धर्म ग्रंथों से भी उतना ही है.हमने ना भगवान देखा है और ना ही साई बाबा को परन्तु अपनी अपनी अभिरुचि के अनुसार किसी ना किसी देवी देवता और साई बाबा की पूजा करते है. मेरे यहाँ खुद दोनो की एक स्थान पर मूर्ति रख पूजा की जाती है. एक और बात आपसे कहना चाहता हूँ कि एक दोहा है.
      गुरु गोविंद दोऊ खडे काके लागो पाय
      बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय
इस में तो गुरु की चरण वंदना करने का निर्देश भगवान श्री कृष्ण ने खुद कवि को दिया ,तब हर गुरु की पूजा करने वाला भक्त,माता पिता की पूजा करने वाला पुत्र,सब हिंदू धर्म का अपमान कर रहें है.सबको इस धर्म से बहिष्कृत कर देना चाहिये.शकराचार्य जी के अनुसार तो ऐसा ही किया जाना एक मात्र रास्ता है हिंदू धर्म को कालजयी बनाने के लिये.उधर साई सेवा ट्रस्ट का माने तो यह सब खेल ट्रस्ट में ट्रस्टी बनने के लिये सरकार के कुछ सदस्यों की नियुक्ति के माध्यम से अपने प्रमुख और खास लोगों को उस स्थान पर बैठाने के लिये है. यथा संभव ट्रस्ट के द्वारा आमदनी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये यह सब वाककुरुक्षेत्र जारी है.वर्ना यह सब अभी तक प्रारंभ भी नहीं हुआ था.अचानक शंकराचार्य जी को क्या सूझा कि वो इतने उग्र हो उठे अभी तक वो  साई पूजा नामक चाय में पडी मक्खी को आंख बंद कर निगलते रहे.इस सवाल का फिर हाल कोई जवाब हमारे धर्म गुरु के नहीं है.इतने दिनों के घटना क्रम में ट्रस्ट ने हर सवाल का जवाब दिया है.परन्तु धर्म गुरु की तरफ से सवालो के लिये चुप्पी कहीं ना कहीं उनके ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाती है. और सोचने के लिये मजबूर करती है कि कहीं इस वाक युद का एक मात्र उद्देश्य धर्म और आस्था का सहारा लेकर ट्रस्ट के लाभ को अपने नाम करना तो नहीं है. खैर कुछ भी हो परन्तु  जैसा कि मैने प्रारंभ में कहा था कि धर्म आस्था में कोई भी महान नहीं हो सकता धर्म से आस्था उसी तरह से मिली हुई है जैसे हवा में इत्र की खुशबू.इस लिये सनातन धर्म को धर्मगुरु अदालत और बहस का मुद्दा ना बनाये.और किसी को धर्म से दखल करने,बाध्य करने का ऐलान उनहें नहीं करना चाहिये.क्योंकि भक्ति और आस्था बाध्यता का मुद्दा नही वरन हृदय की आंतरिक और वैचारिक समझ का विषय है. इस तरह के विवाद समाज में अराजकता और धर्म निरपेक्षता को तार तार करने के लिये कदम होते है.अपने लाभ के लिये धर्म आस्था शास्त्र और भक्ति को शस्त्र बनाना यथोचित नहीं है.
अनिल अयान.सतना.
९४०६७८१०४०

शनिवार, 5 जुलाई 2014

व्यापम घोटाले,नखडे निराले,कौन सम्हाले.


व्यापम घोटाले,नखडे निराले,कौन सम्हाले.
जब हम अपने विद्यालय में पढते थे तो हमें हमारे मास्टर साहब ने सिखाया था कि सफलता का कभी भी कोई शार्टकट नहीं होता है.और जो शार्टकट खोजने की कोशिश करता है. कभी ना कभी उसे पकड ही लिया जाता है.और वह मुँह की खाता है.कभी भी सफल होने के लिये शार्ट कट नहीं खोजना चाहिये क्योकि जब गले में फंदा फसता है तो कोई माई बाप काम नहीं आता है.पर जब हम अपनी महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिये जोर जुगाड से पद ,या फिर,प्रवेश पाना चाहता है तो वह जुगाड ही उनके लिये सजा की राह खोल देता है. और हमारे मध्य प्रदेश में व्यापमं का जो फर्जीवाडा और घोटाला सामने आया है वह इस प्रदेश की बनी बनाई इमेज को मिट्टी पलीत करने में लगा हुआ है.
व्यापमं का गठन इसलिये मध्यप्रदेश उच्च शिक्षा मंत्रालय में किया गया था कि ताकि आयोजित होने वाली प्रवेश परीक्षाओं और अन्य व्यावसायिक रोजगार के लिये परिक्षाओं को नियमित रूप से निगमन किया जा सके. कई सालों इस संगठन की कार्य प्रणाली बहुत सही और सहज तरीके से चल रही थी.परन्तु जिस प्रकार यह पीएमटी घोटाला और अन्य परीक्षाओं से संबंधित घोटालों से यह परदा हटा है वह व्यापमं से जुडे हुये लोगों की कार्यप्रणाली को संधिग्ध बना दिया है.इस प्रकार के घोटाले परीक्षाओं में शामिल होने वाले विद्यार्थियों और उनके परिवारों को सामाजिक प्रतिष्ठा से संबंधित खतरों से घेर लिया है.जो विद्यार्थी इससे बचकर भी परीक्षा दिये थे वो भी शक के घेरे में आ गये है.सबकी पेशी एस.टी.एफ. की जाँच के घेरे आगये है.बच्चों के भविष्य के साथ उनके माता पिता या रिस्तेदारों ने जिस जोर जुगाड का इस्तेमाल करके,रुपया पैसा खर्च करके गैरकानूनी तरीके से कालेज में दाखिला दिला कर डाँक्टर बनने का ख्याली पोलाव पका रहे थे वो सब धरासायी हो गये है.और सब एक दूसरे का चेहरा देखकर इस मुसीबत से बचने का रास्ता खोजने में लगे हुये है.वही सीख जो हमारे मास्टर साहब ने हमें सिखाया था वह इस सब लोगों पर भी लागू होता है.परन्तु ये सब रुपये पैसे ,जोड जुगाड,और पहुँच का इस्तेमाल करके इसी सफलता के शार्ट कट में चलने का दंश और सजा भोग रहे है.
पीएमटी घोटाले,अभी आयोजित हुये आयुर्वेदिक डाक्टर की परीक्षाओं का निरस्त हो जाने जैसी घटनाओं से व्यापमं की छवि धूमिल कर दिया है.पर इस तरह के घोटालों से यदि राजनीतिज्ञ का कैरियर समाप्त हो जाता है उससे कहीं ज्यादा बेखबर नौजवानों का भविष्य चौपट हो जाता है.चारा घोटाला,थ्री जी घोटाला,कोयला घोटाला,जैसे घोटाले तो किसी युवा के कैरियर से खिलवाड नहीं करता है परन्तु इस तरह के घोटाले से शिक्षा और रोजगार के गोरखधंधे की अनायास ही नींव रख चुकी है. आज के समय पर रोजगार के प्रति युवाओं की अति महत्वाकांक्षा का ही परिणाम है कि इस तरह के घोटालों को भरण पोषण मिल रहा है.घोटालों से ही समाज में सरकार और विरोधियों के बीच में सरकार को खामोश होना पडता है.और अपने भविष्य के प्रति अति जागरुक होना पडता है.प्रमुख मुद्दा यह है कि क्या व्यापम से आयोजित होने वाली अन्य परीक्षाओं का भी यही अंजाम होने वाला है क्या और भी अभ्यर्थी इस जाल के शिकार हो जायेंगें.और अपने भविष्य की बलि दे देगें. अब फैसला हमें करना होगा कि अपने आने वाले युवाओं को हम किस राह में ले जाना चाहते है. अपने आस पास से यह शुरुआत करनी होगी.अपनी आगे वाली पीढी को यह समझाना ही होगा कि यदि हमे पर्मानेंट सफलता चाहिये तो शार्टकट रास्ते में पेपर पता करना,कापी बनवाना,नंबर बढवाना अदि कामों के लिये इफरात रुपये माफियाओं को सौंपते है और अपनी गर्दन को भी अनजाने सौंप देते है इसलिये जरूरी है कि आने वाली पीढी को इस जहर से बचाना ही उद्देश्य होना चाहिये. रही बात घोटालों की तो वह तो देश के विकास में कलंक राजनेता के द्वारा लगा ही दिये जायेंगें.यह तो सरकार ही रोक सकती है.
इतिहास गवाह रहा है कि घोटालों का लंबा अध्याय है जब इस पर से पर्दा हटा है तब आरोपी पकडे गये है वर्ना रामराज्य  मना रहे घोटाले बाजों की चाँदी हमेशा रही है.मध्य प्रदेश में विगत पाँच वर्षों में इस प्रकार के घोटाले का खुलना और फर्जीवाडे का पर्दाफास होना कहीं ना कहीं जनता और नागरिकों की उम्मीदों की हत्या की तरह है. सरकार को चाहिये कि इस तरह के लोगों के खिलाफ कडे से कडा कदम उठाये.और इस तरह के अधिकारियों की छुट्टी करके कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति करे.इस घोटालों में हिंदूवादी संगठनों के कथित रूप से कार्यकर्ताओं का आना भी इन संगठनों की भूमिका को समाज में संदिग्ध बनाती है.जाँच का जारी रहने तक इन कुसूरवारों को जीवन दान है जाँच समाप्त होने के बाद सभी संबंधित लोगों  का अपने क्षेत्र में कैरियर इस लिये समाप्त हो जायेगा. परन्तु इस तरह के घोटालों का केंद्र वो सब लोग और अतिमहत्वाकांक्षायुक्त मजबूरी है जिसकी वजह से वो समाज में सफलता और सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने के लिये शार्टकट अपनाने के लिये मजबूर होते है. इस लिये जो रास्ता लंबा है उस रास्ते में चल कर मंजिलों को तलाशिये ना कि शार्टकट तरीके से घोटालेबाजों के हाथ का खिलौना बनिये.अब जाँच ही बतायेगी कि कितनी परीक्षाओं की पोल खुलेगी और कितने लोग जेल में सजा काटेंगें.

अनिल अयान,सतना.
९४०६७८१०४०

पढाई के बोझ तले बचपन की खोज.


पढाई के बोझ तले बचपन की खोज.

जब मै शिक्षा महाविद्यालय में बाल मनोविज्ञान का अध्यापन किया करता था तब शिक्षाशास्त्र के विद्यार्थियों को यह बताया जाता था कि बच्चे को करके सीखने का अवसर दिया जाना चाहिये.या फिर बालकेंद्रित शिक्षा को बढाना चाहिये. जिसमें एक एस का मतलब स्टूडेंट,दूसरे एस का मतलब सेलेबस,तीसरे एस का मतलब,स्कूल,और बीच में टी अर्थात टीचर. महात्मा गाँधी ने थ्री एच का सिद्धांत दिया था. जिसमें बच्चें को समाजोपयोगी शिक्षा और स्वामी विवेकानंद ने मानव निर्माण की शिक्षा का जिक्र किया है.आज के इंगलिशमीडियम के विद्यालयों में बच्चों से अधिक उनके पैरेंट्स मेहनत करते नजर आते है.
परन्तु आज के समय बच्चों को सिर्फ ट्रेनिंग दी जारही है.सिर्फ इसलिये ताकि वो परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करके सिर्फ ग्रेड हासिल कर सके.दो दशक गुजरने के बाद आज हम जहाँ खडे हुये है उस जगह में सिर्फ पैरेंट्स को ब्रांड नेम के पीछे दौडाया जारहा है.और पैरेंट्स भी आँख बंद करके इन विद्यालयों में विश्वास करके उनके भविष्य को एक कलमघिस्सू बनाने में खुद ही बच्चों को शिक्षा के कारखाने में मजदूर बनने के लिये झोंक देते है.आज के हालात यह है कि स्कूल के शुरू होते ही सबसे ज्यादा चिंता बच्चों को यह होती है कि गर्मी में मिले प्रोजेक्ट पूरा कैसे किया जाये.इस चिंता को बढाने का काम खुद बच्चों के पैरेंट्स करते है.पूरी गर्मी की छुट्टियाँ सिर्फ स्कूलों के द्वारा मिला हुआ प्रोजेक्ट पूरा करने में व्यतीत होने के बाद भी यह पूरा होने का नाम ही नहीं लेता है. किसी भी पैरेंट्स की इतनी हिम्मत नहीं होती है कि वो स्कूल से यह सवाल कर सके कि छोटे बच्चों को इस तरह के प्रोजेक्ट देने से क्या लाभ जिनका अधिक्तर काम उनके माता पिता के द्वारा पूरा किया जाता है.वो भी सिर्फ इसलिये किया जाता है क्योंकि उनके बच्चे की कक्षा में अच्छी पोजीशन बनी रहे. .पर इस परिस्थिति में हर नन्हा मुन्हा बच्चा अपनी पढाई पर दिन रात रोता है.उसे खेलने कूदने के लिये भी अपने माता पिता से भीख मांगना पडता है.जैसे मजदूर अपने मालिक से गिडगिडाता है पर उसे निराशा ही हाथ लगती है.
पाँचवी तक बच्चों को सिर्फ ऐसे ही पास नहीं किया जाता था.बच्चों से मेहनत करायी जाती है.और परिणाम यह होता था कि पैरेंट्स को अच्छा रिजल्ट मिलता था.किताबों में बच्चों को बोझ नहीं महसूस होता था. बस्तों का बोझ भी बहुत कम होता था.गर्मी में दो महीने की छुट्टी भी मिलती थी. और जब जुलाई से स्कूल शुरू होता था तो उनके चेहरे में मुस्कान होती थी.और सबसे बडी बात स्कूल में पढाई के घंटे भी कम हुआ करते थे.पैरेंट्स के जेब पर डाँका भी नहीं पडता था.पर आज दो दशक के बाद विद्यालय शिक्षा उद्योगों में बदल गये है. बस्तों का बोझ किसी पल्ले दार के बोरे से कम नहीं है. बच्चों के बीच में कम बल्कि उनके पैरेंट्स में अधिक काप्टीशन होता है ताकि उनके बच्चे से उनका नाम समाज में कम ना हो जाये.बच्चों को हर तरफ का विकास करने केलिये तीन चार ट्यूशन दिलाये जाते है.स्कूल से ज्यादा फीस ट्यूशन वाले ले जाते है. बच्चों को प्रोजेक्ट से ज्ञान मिला हो या ना मिला हो पर बच्चों की माँओं को अपने पढाई के दिन याद जरूर आ जाते है.इन विद्यालयों में शिक्षा का अधिकार अपने लाचार होने पर चींखता रहता है. विद्यालयों की फीस में बहुत सा भाग अप्रत्यक्ष रूप से छिपा होता है.
बाल केद्रित शिक्षा,करके सीखना,और मानव निर्माण की शिक्षा,जैसे विचार और नीतियाँ अब सिर्फ शिक्षा शास्त्र की किताबों में गुम हो गयी है.सीसीई पद्धति पर बच्चों का ऐकेडमिक विकास शून्य हो जाता है.बच्चों में पासिंग प्रतिशत तो बढ जाता है पर प्रतियोगी परीक्षाओं में उनका परिणाम औसत से भी कम होता है.आज के समय की माँग है कि बच्चों को स्किलफुल बनाया जाये.ना कि कोर्स को रटा कर परीक्षा पास करने के ट्रेंड किया जाये.इसके लिये सरकार,शिक्षा विशेषज्ञो,और शिक्षा अनुसंधान परिषद को कदम बढाना ही होगा. आज के समय के पैरेंट्स को अपनी अपेक्षाये सीमित करनी चाहिये.बच्चों को अपनी आयु और समय के अनुसार विकास करने का अवसर देना चाहिये.वर्ना हम सब जानते है कि यदि अंकुरित बीज को किसान ज्यादा खाद,पानी देता है तो फसल की उपज बोये गये बीज के बराबर भी नहीं हो पाती है. आइये बच्चों को एक स्वस्थ वातावरण पढाई के लिये दें ना कि उन्हें मजदूर या रोबोट बनाकर अपनी अपेक्षाओं को उन पर लादें.निर्णय हम सब को लेना है कि हम बच्चों को ज्ञान देना चाहते है या मानसिक मजदूरी करवाना चाहते है.

अनिल अयान,सतना.
९४०६७८१०४०
 

मँहगाई का पैगाम,मोहि कहाँ विश्राम

मँहगाई का पैगाम,मोहि कहाँ विश्राम
१८५७ से प्रारंभ हुई भारतीय रेल सेवा का यह वर्ष सुरसा की तरह अपना मुँह खोले आम  जनता को निगलने के लिये उत्साहित नजर आरहा है.और यह अवसर है जब बिना रेल बजट के किराये भाडे में उम्मीद से अधिक वृद्धि करना.१४.२ प्रतिशत किराये में वृद्धि और ६.५ प्रतिशत माल भाडे में वृद्धि ने जनता और सत्ता को झकझोर कर रख दिया है.मोदी सरकार के द्वारा बढाए गयी दरों को यह कह कर बचाव किया जा रहा है कि देश को पुराने किराये भाडे से हर दिन ९०० करोड का आर्थिक बोझ देश पर पड रहा था.और इस फैसले से ८ करोड प्रतिदिन का अतिरिक्त बोझ कम होगा. सरकार का यह कहना कि यह वृद्धि यूपीए सरकार के द्वारा ही लागू की जा चुकी थी.हमने सिर्फ उसे लागू किया है. ऐसा लगा कि उन्होने उत्तराधिकार का भरपूर उपयोग कर जनता का खून जोंक की तरह चूसने की परंपरा का निर्वहन किया है.रेल सेवा का मँहगा होना यातायात,परिवहन और आवागमन को आम जन की जेब से कहीं ज्यादा दूर कर दिया है.सरकार के द्वारा बजट सत्र का इंतजार ना कर पाने का कार्य और अनर्गल प्रलाप करके अपनी जिम्मेवारियों और वादों के प्रति विस्मरण भी कहीं ना कहीं आम जन के गले से नींचे नहीं उतर रहा है.विपक्षी दलों के लिये ही भले ही यह कुम्भकर्णी नींद से जागने वाले छण की तरह हो जो उन्हें राजनीति में पुनः सुबह की बेला की तरह एहसास करवा रहा है.पर उनका इन सब से वास्तविक रूप में कोई लेना देना नहीं है.ना उन्हें मँहगाई से कोई लेनादेना है और ना ही किराये भाडे से.वो तो इसमे भी वोट फैक्ट्री का नया दरवाजा बनाने की सोच रख रहें है.

किराया वृद्धि और भाडे में बढोत्तरी के घटाने के पक्ष में मै नहीं हूँ पर इस कदर से एकदम फर्श से अर्श तक पहुँचा देना जनता और औसतन रूप से लोगों की जेब में डाँका डालने से कम भी नहीं है. दोगला चरित्र दिखाने वाले जन प्रतिनिधि विपक्ष में बैठने पर बढोत्तरी की तीखी आलोचना करते है और अब सत्ता में है तो अमृत का रूप देकर रेल मंत्रालय के विकास  लबादा उठा कर कर्मचारियों की सहानुभूति लेकर जनता को पिलाना चाहते है.इस तरह की परिस्थितियों में जनता की आवश्यकता को बट्टा ही लगा है.बेबस जनता को हर सामान जिसका परिवहन रेल मंत्रालय के द्वारा किया जाता है मँहगा ही मिलेगा.यह तो प्रस्तावना है मँहगाई की अभी तो आम बजट और रेल बजट का आना बाकी है.एनडीए सरकार के अच्छे दिन की प्रस्तावना इस तरह से जनता को प्रथम उपहार के रूप में मिलेगी. इसके बारे में मध्यमवर्गीय और सर्वहारा वर्ग के लोग सोचे भी नहीं थे. सरकार के इतने दिन होने को आये है परन्तु अभी तक आम जन के पक्ष में सिर्फ वादे ही हुये है.इसका कार्य रूप में रूपांतरण अब तक तो नहीं हुआ है.और पहला निर्णय भी आया तो आर्थिक सुनामी लाकर पूरे देश में रख दिया है.कुछ वर्ष पहले एक फिल्म आई थी पीपली लाइव,जिसका एक गीत था. मँहगाई डायन खाये जात है. तो क्या इस डायन को पोषण का कार्य मोदी सरकार कर रही है.यदि आम जनता की जेब पर डाँका डाल कर ही मँहगाई को बढाने के लिये कदम उठाये जायेंगे तो जनता के द्वारा किये गये सत्ता परिवर्तन का परिणाम बहुत दुखद होगा.क्योंकि जनता के सामने मँहगाई चिल्लाते हुये कह रही है कि रोक सको तो रोक लो मोहि कहाँ विश्राम.१९८९ में बने रेलवे एक्ट में बदलाव की आवश्यकता है जिसके अंतर्गत रेलवे डेवलेपमेंट अथारटी को स्वायत्ता पर गंभीरता से विचार और विमर्श करना होगा.

हम सब जानते है कि भाडे से हर सामान मँहगा होगा, अमीर और अमीर होते चले जायेंगे और  गरीब तथा मध्यम वर्गीय जनता और गरीब होती चली जायेगी.और अर्थशास्त्र के अनुसार माँग बढेगी ,बाजार में आपूर्ति इस लिये कम हो जायेगी क्योंकि विभिन्न टैक्स से सामान मँहगा होगा . यह कदम  कालाबाजारी के लिये भी व्यवसाइयों को नई राह खोल दिया है.कुल मिला कर मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भी जनता को अप्रत्यक्ष रूप से कडा संघर्ष करना होगा.क्योंकि जब बजट जनता के सामने आयेगा तो सरकार इसी भाडे से उत्पन्न मँहगाई की दुहाई देकर पल्ला झाड लेगी. अभी भी २५ जून के लिये समय है. हम सब जानते है कि किराये का बजट से कोई ज्यादा संबंध नहीं है. यदि हमारा रेल मंत्रालय गरीब हो गया है. और संकट में है तो उसे और अधिक बजट मिलना चाहिये.राज्यों  से मदद लेना चाहिये. ना कि जनता के आवागमन और दैनिक उपयोग के सामान के भाडे में बढोत्तरी कर कमर टॊड देना चाहिये.नई सरकार से बहुत उम्मीदे है मतदाताओं को.इस तरह के तात्कालिक निर्णय कहीं ना कहीं सरकार के पंचवर्षीय रिपोर्टकार्ड में लाल चिन्ह लगा सकते है, २५ जून के पहले यदि जनता को कारगर छूट मिलती है तो कुछ तो जेब को राहत मिलेगी.वरना मँहगाई डायन अपने भोजन में रेल की गति से आम जनता का सुकून और विकास निगलती रहेगी.जनता को जिस नारे के तहत अच्छे दिन आने वाले है के स्वप्न लोक में सरकार ने बैठाया हुआ है उस लोक से हर परिस्थिति में जनता को सरकार से अपने पक्ष में निर्णयों की उम्मीद है और यदि अपेक्षायें अधिक की जाने लगे तो पूरी होने पर सरकार को जितना लाभ होगा,वहीं दूसरी ओर ना पूरी होने पर सरकार अधिक हानि होगी क्योंकि यह पब्लिक है यह सब जानती है सबका हिसाब रखती है और निर्णय समय आने पर जब देती है तो राजनैतिक पार्टियों के रोंगटे खडे नजर आते है.जनता को सीधी बातें जल्दी समझ में आती हैं. अर्थशास्त्र,विकास दर,मुद्रा स्फीति दर आदि परिभाषाये और दलीलें जनता की सोच से परे है. सरकार को अब यह सोचना होगा कि उसके वादे और विकास  मंत्र किस तरह जनता को संतुष्ट करते है और मँहगाई से निजात दिलाते है.
अंत में
मँहगाई को देख कर जनता हुई अधीर.
अच्छे दिन के पहले ही बढ गई है पीर.
भाडे से मँहगा हुआ जरूरत का हर सामान.
किराये ने धीमा किया आगमन और प्रस्थान.


अनिल अयान,
सतना, म.प्र.
९४०६७८१०४०

शनिवार, 14 जून 2014

क्या सिर्फ धारायें लगायेंगी बलात्कार में विराम

क्या सिर्फ धारायें लगायेंगी बलात्कार में विराम
आज के समय में बलात्कार ,गैंगरेप,छेडखानी,और मौखिक छींटाकसी जैसी वारदातें,भारत के हर कोने में हो रहीं है.पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों में यह परिदृश्य देखने को मिला,उत्तर प्रदेश को तो मीडिया ने पूरी तरह से इस मामले में खामोश करके नंगा करने में कोई कसर नहीं छोडा.ऐसा नहीं है कि ये घटनायें सिर्फ कुछ दिनों पूर्व से शुरू हुई है. हम शायद गत वर्ष दामनी कांड को भुला चुके है.मध्यप्रदेश के वह क्षेत्र जहाँ पर आदिवासी निवास करते है उनके साथ गांव में सामूहिक दुष्कर्म और बाद में गांव में नग्न घुमाने जैसा घिनौना कृत्य स्थानीय समाचार पत्रों और चैनलों से छिपे नहीं है.पर इसके नियंत्रण के लिये क्या किया जा रहा है या जो भी किया जा रहा है उसने कितना प्रभावी बदलाव लाया है. इस पर कोई विचार नहीं कर रहा है. सब बयान बाजी और,आरोपो प्रत्यारोपों के भंवर जाल में एक दूसरे को कैद करने में लगे हुये है. यदि इन राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों की बहन बेटियों और घर की इज्जत को इन घटनाओं से तार तार करने की कोई कोशिश करे तो शायद उस समय ये पूरे दल बल के साथ उस गुनहगार को उसके परिवार रिश्तेदारों सहित जमींजोद कर देंगे.कोर्ट,पुलिस,एफ.आई.आर.,सजा जैसी सरकारी शब्दावली का इनके सामने कोई अस्तित्व नहीं होगा.तब ये नहीं कहेगें कि बलात्कार आवेश में गल्ती से हो जाता है. ना ही उस समय कोई मंत्री,जनप्रतिनिधि,और नेता,नपुंसकतापूर्ण बयानबाजी नहीं करेगा.
संविधान में कहने को बहुत सी धारायें है.धारा ३७२,पर क्या इसके लिये बनी धारा ३७२ काफी है बलात्कार रोकने के लिये.बिल्कुल भी नहीं.क्योंकि बलात्कारियों के लिये इस धारा का डर खत्म हो गया है.पुलिस भी इस धारा के परिणामों को जनता तक पहुँचाने में असफल रही है.जब इसतरह की घटनाये देश में घटती है तो सरकार ,मुख्यमंत्री और जन प्रतिनिधियों के अनर्गल प्रलाप गुनहगारों को और छूट दे देते है.इस धारा से बचने के लिये पुलिस भी दबाव में आकर ३७६-घ,३५४-क, ३२३, और ५०६ धाराये लगाने के लिये मजबूर है.ऐसा क्यों होता है कि हमारे आसपास होने वाली इस तरह की घटनाओं के लिये अदालतें उसी तरह से कछुआ चाल से न्याय प्रक्रिया का प्रारंभ करती है जिस तरह से वो दीवानी और फौजदारी मुकदमों के लिये अपना क्रियाकलाप दिखाती चली आई है.न्याय प्रक्रिया हो या पुलिस कार्यवाही सब कछुआ चाल से अपने दस्तावेज पूरा करते है. क्या इसी तरह महिला सुरक्षा पर सवाल उठते रहेंगें.हम नारी जागरुकता वर्ष और स्त्री सशक्तीकरण वर्ष का राग अलापते है परन्तु इन सब का कोई अर्थ नहीं होता यदि हमारे समाज में ऐसी घटनायें घटती रहेंगी.
जो लोग यह बयान करते है.जो संगठन पुरुषवादी कट्टर सोच का प्रतिनिधित्व करते है और कहते है- कि बलात्कार तब तक नहीं रुकेगा जब तक कि लडकियाँ अपना पहनावा नहीं बदलेगीं,फिल्मों में आकर्षक दिखने वाले उत्तेजक सीन चलते रहेंगें. गानों में अस्लीलता और हनी सिंह जैसे रैप सिंगर अपने गाने गाते रहेंगें.जब तक प्रेम की अनुभूति दिखाने वाले गाने हर घरों में गूँजेगें,जब तक टीवी के प्रचार में महिलायें सिरकत करती रहेंगी. आदि आदि...... पर जब गावों में इस तरह की घटनायें घटती है,कस्बों में या शहरों में महिलाओं और बच्चों के साथ गैंगरेप की घटनायें होती है तब भी इस तरह के कारक कार्यकरते है.शायद नहीं क्या हमारे घर में परिवार की महिलायें,बच्चियाँ,हर प्रकार से रहती है तो क्या उनके साथ रेप हो जाता है.नहीं.क्योंकि हमारी नैतिकता वासना तक नहीं पहुँचती है.वासना का अनियंत्रित हो जाना बलात्कार को पैदा करता है.कई लोग पुरातन काल के कुछ मिथकों को उदाहरण बनाकर बलात्कार को ऐतिहासिक दंस बताते है.पर उस समय की परिस्थितियाँ और आज की परिस्थितियाँ पूर्णतः भिन्न है.यह बात सभी को समझना चाहिये जो आवश्यक भी है.
इस लिये आज के समय पर सजा की कडाई का स्तर बढाना चाहिये.फास्टट्रैक कोर्ट होना चाहिये और एक सप्ताह के अंदर सजा का प्रावधान होना चाहिये और आंगे कोई सुनवाई नहीं होनी चाहिये.और सबसे बडी बात है कि जब तक समाज मे हम सब अपनी नैतिकता को हवस में परिवर्तित होने मे नियंत्रण नहीं कर सकते है तब तक कोई धारा या कोई सजा बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं को कोई नहीं रोक सकता है.धाराओं से सजा दिलायी जा सकती है पर धाराओं का डर पैदा करना न्यायपालिका की क्रियाशीलता पर निर्भर करता है. आज के समय पर नैतिकता दम तोड चुकी है.जब तक हम खुद के परिवार से यह शुरुआत नहीं करेंगे तो,सेक्स को सब कुछ मानने की भूल कुंठित मानसिकता वाले लोग करते रहेंगें.सजा जितनी कष्टकारी होगी तो गुनाह उतना ही कम होगा.हर दिशा से इस पर पहल करने की आवश्यकता है. सरकार का काम है बहसबाजी की बजाय त्वरित क्रियाशीलता दिखाये.न्यायपालिका का काम है फास्ट्रट्रैक कोर्ट में एक सप्ताह के अंदर निर्णय हो.पुलिस का काम है कि इसप्रकार के मामलों के लिये विशेश सेल बने तुरंत अपराधियों को पकडा जाये और अदालतों तक पहुँचाये. और सबसे बडी जिम्मेवारी हम सब की है हमें अपने परिवार से नैतिकता की शुरुआत करनी चाहिये.परिवार को समझाना चाहिये कि हवस,सेक्स,को अपराध में परिवर्तित करना गुनाह की राह को तय करती है.नियंत्रण करना हमें आना चाहिये.डर और तत्काल सजा से यह जघन्य अपराध कम होगा.तो आइये मिल कर सब एक बार पहल करें.धारायें हमें राह दिखा सकती है.धाराऒं पर पूरी तरह से आश्रित नहीं रहा जा सकता है. हाँ इस बात से ताल्लुकात जरूर रखता हूँ कि संविधान में यदि धाराओं का परिष्करण और परिवर्धन होता है तो शायद इनका प्रायोगिक परिणाम निकल सकता है.वरना यह संविधान मे लिखी सिर्फ पक्तियों के अलावा कुछ नहीं है. जिसका उपयोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये भारत में अपराधी वकीलों के माध्यम से अदालतों में करते है.यही सच जनता को पता है परन्तु अपराध को रोकने के लिये सब बेबस है.
अनिल अयान,सतना
९४०६७८१०४०

मंगलवार, 3 जून 2014

सिर्फ डिग्रियों के दम पर ही नहीं चलता देश

सिर्फ डिग्रियों के दम पर ही नहीं चलता देश

सत्ता परिवर्तन हुआ ही था कि विरोधी पार्टियों की तरफ से एक नया रोडा अटकाया गया.इस रोडे का नाम था डिग्री का हौआ. जिसके चलते श्री मती स्मृति ईरानी और बाद में माननीय मुंडा जी भी घेराव में आगये.कभी कभी यह लगता है कि क्या डिग्री ही सब कुछ है.या कोई इसके अलावा भी ऐसे कारक है जो मनुष्य के विकास में सहायक हो सकते है.यदि डिग्रियों से ही किसी जिम्मेवारी का मापदंड है तो फिर रावडी देवी जी के संदर्भ में लोग क्या कहेंगें.जो लालूयादव जी की सत्ता को कई वर्षों तक दम खम के साथ चलायी.हम सब जानते है कि डिग्रियों को बेचने वाले विश्वविद्याल और महाविद्यालय हमारे देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुले हुये है.और जो चाहे,जब चाहे,जैसे चाहे डिग्रियाँ थोक का थोक खरीद कर अपने को डिग्री धारी की उपाधि दे सकता है.आज के समय में तो हर वर्ष नये नये प्राईवेट विश्वविद्यालय खुल रहे है.और इस प्रकार डिग्री का व्यवसाय भी फल फूल रहा है.मै अपने बारे में खुद बताऊ तो मै यदि एम.एस.सी. और एम.एड हू तो मैने कौन सा सातवें आसमान से तारे तोड लिया. कम से कम ज्ञान का सहारा लेकर अपनी बात आप सबके सामने कहने का संबल तो प्राप्त कर लिया है. यही स्थिति अन्य स्थानों के युवाओं की है.वो भी डिग्री का घंटा लिये बाजार में फिर रहें है परन्तु उन्हें कोई पूँछने वाला नहीं है.ना ही उनका कोई माई बाप है.
          जिस डिग्री के लिये कांग्रेस और अन्य घटक दल मानवसंसाधन विकास मंत्री युवा स्मृति ईरानी के तिल का ताड बनाने में लगे हुये थे ,उनहें शायद अपने माई बापों की भी डिग्री का अनुमान या खोज खबर नहीं है.जब यू पी ए सरकार अस्तित्व में आई तब ४० प्रतिशत मंत्री स्नातक के नीचे थे. तब भी दस साल देश में अपनी नालायकी और नाकारापन के दम पर राज्य किये.और मंत्रालय चलाये. और अधिक बढे तो हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री जी जाने माने अर्थशास्त्री थे डाक्ट्रेट थे,उनके दस साल किस तरह बीते वो अपनी आपबीती बखूबी जानते है.क्या वो अपने डिग्री के जलवे सत्ता में दिखा पाये ,नहीं क्योंकि उनकी सुप्रीमों जो उनसे कम पढी लिखी थी उनके सिर पर अपना शासन चला रही थी. और कोई कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सका और तो और इसी का परिणाम था कि आज कांग्रेस का अस्तित्व जनता,मीडिया,और राजनीति में खतरे में है.इतिहास में ऐसे बहुत से राजनीतिज्ञो के नाम दर्ज है जो पढे नहीं थे ज्यादा बल्कि लढे थे. उनका यही अनुभव राजनीति में उनको अमर कर दिया. और उनके नाम का जाप करके उनके शिष्य आज राजनीति में अपना नाम रोशन कर रहें है.और दूसरे तरीके से बात करें तो जब स्मृति ईरानी चुनाव लडने का फार्म दाखिल किया.किसी ने कुछ नहीं बोला,जब वो जीत दर्ज की तब किसी ने कुछ नहीं बोला, जब उन्हें संसदीय मंत्रिमंडल में जगह मिली और महत्वपूर्ण पद दिया गया तो ही क्यों सभी लोगों के दिमाग के घंटे बजने लगे.और असीम कष्ट का अनुभव होने लगा.क्या किसी नये व्यक्ति को सत्ता में मंत्रालय में बिठाना गलत है.या सबको यह लगता है कि स्मृति ईरानी नरेंद्र मोदी की खासम खास है. और यदि बात आदर्श वादिता की है कि उन्होंने गलत ढंग से अपने शिक्षा को चुनाव आयोग के सामने रखा गलत शपथ पत्र दाखिल किया तो राजनीति में इस तरह के कर्मकांड करने वाले नेताओं के प्रतिशत ९० प्रतिशत से ऊपर है तब किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है. ना ही कोई गोहार लगाता है.
          डिग्री का मूल्य यदि इतना ही अधिक है तो मुझे लगता है कि चपरासी से कलेक्टर पद के लिये ली जाने वाली चयन परीक्षा को बंद कर देना चाहिये.सिर्फ डिग्रियों और उसमे अंकित प्रतिशत के आधार पर ही लोगों को नौकरी मिल जानी चाहिये.इस प्रकार की परीक्षाओं को लेने का मतलब है कि सरकार को डिग्रियों पर विश्वास रहा ही नहीं इस लिये वो परीक्षाओं का ढकोसला करने में उतारू रही,चपरासी के लिये पाँचवीं पास वाले को क्यों भर्ती नहीं किया जाता है. क्यों परीक्षाओं में स्नातक तक के विद्यार्थी इस पद के लिये परीक्षा देते है. इन सब का कोई जवाब नहीं है सरकार के पास. आज के समय में डिग्रियाँ सिर्फ जेब में रखी जाने वाली रुमाल है.जो आवश्यकता ना होने पर फेंक दी जाती है.और आकर्षक दिखने वाली दूसरी खरीद ली जातीहै.जिससे लोगों के बीच आकर्षक का केंद्र बन सकें.क्या हम नहीं जानते कि डिग्री पाने के लिये जुगाड और मुद्रा से कापी बनवाई जाती है,प्रश्न पत्र खरीदे जाते है. और तो और मुद्रा देकर मनपसंद अंक भी प्राप्त किये जा सकते है.इन सबके बीच किसी जनप्रतिनिधि का जनता के बीच से चुनकर संसद में कार्य करने हेतु जाने की प्रक्रिया में डिग्री के मापदंड उठाना .सिर्फ ध्यानाकर्षक के अलावा कुछ नहीं है. जनता खुद जानती है और स्मृति ईरानी भी कि जनता को कार्य करने से मतलब है जिसके लिये जनता वोट करती है या भविष्य में करेंगी.रही बात अनुभव की तो वह करने से होता है.सही मार्गदर्शन मिलने से अनुभवहीन भी अनुभव प्राप्तकर अनुभवयुक्त बनजाता है. इसलिये डिग्री को देखने की बजाय मंत्रियों के फैसले और किये जाने वाले कार्यों पर ध्यान देना चाहिये.जो सत्ता समाज और समय की माँग भी है.
अनिल अयान,सतना.
९४०६७८१०४

रविवार, 1 जून 2014

संविलयन और विलगन की उहापोह में काश्मीर

संविलयन और विलगन की उहापोह में काश्मीर..

नरेद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद ग्रहण करते ही एक बहुत ही सार्थक पहल हुई है सरकार के सपथ ग्रहण समारोह में पडोसी राष्ट्रो को आमंत्रण और इसी बहाने पाकिस्तान से बात करने का जरिया खोजना.यह सब कितना कारगर रहा वह आज के समय में उत्पन्न हुये धारा ३७० के खत्म करने और परिवर्तित करने की मुहिम के प्रसंग से समझ में आ रहा है.जटिलता की दृष्टि से देखे तो पाकिस्तान के साथ संबंध बनाना इतना कठिन नहीं हैजितना कि काश्मीर को भारत में संविलयित करने की कार्यप्रणाली. वास्तविकता यह है कि काश्मीर समस्या इतनी ज्यादा कठिन है कि देखने मे सीधी साधी और समाधान करने में उतनी कठिन है.
     धारा ३७० का अर्थ है काश्मीर के सुरक्षा कवच की भाँति मजबूत स्वतंत्रता जो भारत की तरफ से काश्मीर को उपहार स्वरूप दिया गया था. हम सब इतिहास के उस पन्ने से वाकिफ है जिस समय पर काश्मीर में पाक के आतंकियों ने आक्रमण कर कब्जा करने में उतारू था और काश्मीर मजबूर था अपने को बचाने के लिये जिसकी वजह से उसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी के सामने संधि का प्रस्ताव स्वीकार करना पडा.काश्मीर की आज भी तीन भागों की विचारधारा में बटी हुई है. एक पक्ष पाकिस्तान की शरण में जाना चाहता है.दूसरा पक्ष स्वतंत्र रहना चाहता है और तीसरा पक्ष भारत से जुडना चाहता है.पाकिस्तान और भारत के जबडों के बीच में फंसे काश्मीर नाम भर का स्वतंत्र राज्य घोषित है पूरा का पूरा सुरक्षा का खर्चा भारत के जिम्मे ही रहता है भारत अपनी सुरक्षा मंत्रालय का ९५ प्रतिशत भाग काश्मीर सुरक्षा के लिये नियुक्त कर रखा है.भारत के अधिक्तर युद्ध काश्मीर सुरक्षा के लिये हुये है और होते रहेंगें.भारत यदि उस समय चाहता तो राष्ट्रसंघ के कहने पर जनमत संग्रह करवा काश्मीर को भारत संविलयन वाले भाग को अपने पास रखकर अन्य भाग को स्वतंत्र कर देता तो आज यह कहानी नहीं होती.हमारा मोह हमें काश्मीर को अपने से अलग करने नहीं देता है.और संवैधानिक रूप से ३७० धारा को परिवर्तित करना भी भारत के लिये बहुत कठिन है.धारा ३७० को परिवर्तित करने के लिये यह आवश्यक है कि संसद में धारा परिवर्तन के साथ साथ अन्य राज्यों की विधानसभाओं में भी ८८ प्रतिशत पारित होना चाहिये और सबसे महत्वपूर्ण बात काश्मीर की संवैधानिक समिति के सामने धारा पर परिवर्तन ही एक मात्र रास्ता है.और काश्मीर की संवैधानिक निर्माण समित को अद्यतन किया ही नहीं किया गया.इस समिति को अद्यतन करने में ही सरकार को पसीने छूट जायेंगें. इस धारा का परिवर्तन ,काश्मीर की सत्ता के लिये नकारात्मक और भारत के लिये सकारात्मक पहल सिद्ध हो सकती है.परन्तु यह प्रायोगिक रूप से यदि लागू होती है तब इसका परिणाम फलदायक रहेगा.लेकिन प्रश्न यह उठता है कि परिणाम तक पहुँचने में ही बहुत से ब्रेकर्स उत्पन्न हो रहे है. अबदुल्ला परिवार ,पी.डी.पी. पार्टी इसमें कोई बदलाव नहीं चाहती है और क्योंकि उनको मिलने वाला विशेष धन और सुरक्षा उनसे छिन जायेगी. वही दूसरी तरफ अब भारत सरकार का पूरा मूड है कि इसपे बहस होना चाहिये जो भारत के विकास और समान राज्यों की परिकल्पना के लिये अति आवश्यक .समाज में हो या देश में बदलाव के लिये लहर उठाने और बदलाव करने के लिये संघर्ष और विरोध को झेलना ही पडता है .इस बीच कुशल प्रशासक वही बन सकता है जो इस सब मनोवैज्ञानिक दबाव के बीच अपने कार्य को सिद्ध करले और देश को विकास के पथ में लेजाने के लिये धर्म परायण के साथ साथ विकास परायण भी बने.यह पहल नरेद्र मोदी पहले ही दिन से कर चुके है.
     एक राज्य के लिये और उसकी स्वतंत्र सत्ता के लिये पूरा धन बल लगादेना जब मंहगा पडने लगे और उस परिस्थिति में जब वह भारत के द्वारा किये गये उपकारों को बिना महत्व दिये यह राग अलापे कि वह स्वतंत्र राज्य बनकर रहना चाहता है.भारत के किसी नागरिक का उस राज्य में कोई मान्यता नहीं हो.उस राज्य की विधानसभा के बिना भारत का कोई नागरिक वहाँ रह नहीं सकता कोई जमीन खरीद नहीं सकता.और भी अन्य बंधन है जो भारत के नागरिको के लिये काश्मीर में लागू है.यह सब कहाँ तक उचित है क्या नेहरू जी ने अपने कार्यकाल में काश्मीर से संधि करके जो कार्य किया था वह भारत के लिये बहुत बडी रुकावट है,यह सब प्रश्न आज भी सबके जेहन में गूँजते है.धारा पर राजनीति करना सही नहीं है परन्तु यह भी सच है इस पर बात चीत ना करना भी सबसे बडी कायरता है.अब देखना यह है कि हमारी सरकार जिस काम को आगाज किया है वह अंजाम तक पहुँचता है या कि समय के बहाव में विलुप्त हो जाता है. काश्मीर का भारत में संविलियन भारत की प्रगति के लिये प्रथम कदम है इसमें कोई दो राय नहीं है. बस आवश्यता है राजनैतिक रूप दिये बिना इस पर निष्कर्ष हेतु बैठक होनी चाहिये.और भारत की शर्तों पर या यह कहूँ कि सामन्जस्य पूर्ण निर्णय लेने में काश्मीर के हुक्मरानों को मदद भी करनी चाहिये .शायद इसी में उनकी भलाई है.क्योंकि भारत से अलग होने के बाद काश्मीर पर किसी और उपनिवेशी ताकत की हुकूमत होगी. अब फैसला काश्मीर को करना है कि भारत के साथ संविलयित होना है या भारत से विलगित.
अनिल अयान,सतना

९४०६७८१०४०

देह स्पर्श से जुडे है रिस्तों की गहराई

देह स्पर्श से जुडे है रिस्तों की गहराई

सामान्यतः देखा गया है कि हर रिस्ते मे गहराई का मापदंड आँका जाने लगा है और उसी  का परिणाम रहा है कि रिस्तों में टूटन और कमजोरी समझ में आने लगी है.समय के साथ देह का संबंध रिस्तों की मजबूती के लिये अति आवश्यक है.सदेह प्रेम की कल्पना ही आज के समय पर प्रायोगिक रूप से देखी जा रही है. हम चाहे किसी जाति धर्म और संप्रदाय के हों परन्तु यह भी शास्वत सत्य है कि आजकल देहिक प्रेम रह गया है.और इसी प्रेम के सहारे हर रिस्ते की नींव परवान चढती है.जितना अधिक दैहिक सुख प्राप्त होता है दो पार्टनर्स उतना नजदीक आते है.यदि हम आज के परिवेश में सिर्फ मनो वैज्ञानिक और मानसिक सुख हेतु प्यार और मोहब्बत की बात करें तो यह बेमानी सा लगता है.
     इतिहास और शास्त्र गवाह रहे है कि पूर्व काल से देह के लिये या देह की वजह से युद्ध लडे गये और विनाश का कारण बने है.कामशास्त्र का जिक्र ना करना इस संदर्भ में भी बेमानी होगी.आज के समय में मन के रिस्ते ,दिल की तह तक जगह देने वाले रिस्तें सिर्फ फेंटेसी में रह गये है.जिनका जिक्र कहानियों उपन्यासों और काव्य साहित्य तक सीमित रह गया है.जिन शब्दों को हम अश्लीलता की श्रेणी में लाकर खडे कर देतें है और यह कह कर नकार देते है कि यह हमारी मर्यादा तोडने के लिये जिम्मेवार है वह सब टूट कर खंड खंड हो गया है.और आज के समय पर हर जगह इस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल होने लगा है या यह कहें कि इस्तेमाल करने में फक्र महसूस करने लगे है हम.आज के समय में ९० प्रतिशत सक्रिय रिस्तों की बुनियाद दैहिक वजहों से निर्मित होती है. यदि हम उदाहरण स्वरूप अपने घर या पडोस से लें तो समझ में आता है कि जब तक माता पिता का स्पर्श बच्चे को प्राप्त होता है यानि बाल्यकाल तक तब तक यह रिस्ता ईमानदारी से बच्चा निभाता है हर कहना बच्चा माता पिता का मानता है. परन्तु जैसे वह अपने विषमलिंगी सहपाठी से या मिलता है और किशोरावस्था वा युवावस्था में प्रवेश करता है और उसके जीवन में जीवन संगिनी या जीवन साथी आते है तब यह परिणाम होता है कि स्पर्श का एहसास बदल जाता है तो रिस्तों मे प्राथमिकतायें बदल जाती है .अब वह व्यक्ति अपने माता पिता के साथ साथ या यह कहे की उससे कहीं अधिक अपनी प्रेमिका,या पत्नी की ज्यादा सुनता है मानता है और विवश होता है दैहिक सुख से जुडा होने की वजह से.वह चाहकर भी अपने माता पिता और अन्य रिस्तों को अपनी प्रेमिका और पत्नी से बने रिस्तें से ज्यादा प्राथमिकता नहीं देता है.क्योकि देह का संबंध अब पत्नी और प्रेमिका के साथ अधिक होने से समय अधिक उनके साथ ही बीतता है और सुख भी उन्ही से प्राप्त होता है और उसकी आकांक्षा में वह उनकी तरफ ही झुकाव रखता है.और उम्र होने के साथ इन रिस्तों में गहराई भी बढती जाती है जिसकी वजह से अन्य रिस्तों की प्राथमिकतायें द्वितीयक होती चली जाती है.अर्थात कुल मिलाकर देह के स्पर्श का असर रिस्तों को कमजोर भी बनाता है और मजबूत भी बनाता है. हम यह कह सकते है कि यह प्रभावी गुण है जो युवावस्था में सबसे अधिक पाया जाता है.मुखर रूप से पुरुषों में और मौन रूप से स्त्रियों में. वैज्ञानिक रूप से एंडोक्राईनोलाजी के अंतर्गत ग्रंथियों और हार्मोंस का प्रभाव भी इसका वैञानिक पक्ष है.जिसे कोई भी नकार नहीं सकता है.जो इस पक्ष को नहीं मानते है वो दिल के रिस्तों की बनावट को ही समझने में इतना समय निकाल देतें है जिस समय तक रिस्तों की मजबूती भी खतरे में आ जाती है.जो समाज को विधटित कर रहें है.एक तरफ व्यक्तिगत सुख और सुकून है दूसरी तरफ समाजिक सुख.अब बात यहाँ पर आ जाती है कि व्यक्ति से समाज का अस्तित्व बनता है या समाज से व्यक्ति का अस्तित्व .यह बहस का विषय है जिसका निष्कर्ष विचारधारा के अनुरूप अलग अलग होता है.
     मिथकों की बात को यदि एक समय पर किनारे करें तो प्रायोगिक रूप से समाज में नजर डालने में समझ में आता है कि रिस्तों के विघटन का प्रमुख कारण इसी को माना गया है. एकल परिवार की रूपरेखा भी इसी कारक की वजह से निर्मित होती है क्योंकि इससे प्राथमिकता के लिये कोई चयन नहीं करना होता है.प्राईवेसी के लिये भी अन्य रिस्तों से संघर्श नहीं करना पडता है.मै इस बात का समर्थन करता हूँ कि इस प्रयोगिक विवशता को टोडना ही समाज को सही दिशा दे सकता है पर इसके लिये हमें खुद ही प्रयास करना होगा.और कितना समय लगेगा.यह कोई नहीं जानता है.
अनिल अयान,सतना

९४०६७८१०४०

रविवार, 18 मई 2014

अतिसमन्वयवादिता से देश को मुक्ति दिलायेंगें मोदी-अनिल अया


अतिसमन्वयवादिता से देश को मुक्ति दिलायेंगें मोदी.
अनिल अयान.
सोलहवीं लोकसभा चुनाव परिणाम हम सब के सामने है.सारी योजनागत रणनीति ने अपने निष्कर्ष जनता के सामने रख दिया है.परिणाम यह खुलासा कर रहें है कि भाजपा राष्ट्रीय पार्टी के रूप अपना सर्वोत्तम देश को मोदी के माध्यम से सौंप दिया है.अन्य दल ऐडी चोटी का जोर लगाने के बाद भी मुंह ही खाकर जमीन में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये जगह ढूँढ रहें है.इस लोक सभा चुनाव की सबसे बडी खासियत यह रही की वाक कुरुक्षेत्र का दौर हर चरण के चुनाव में चलता रहा.सारे नेता और जन प्रतिनिधि अपना अपना दांव पेंच आजमाने में दिन रात जुटे हुये थे.अंततः परिणामों ने यह साबित कर दिया कि मोदी केंद्रित एन डी ए ने ऐतिहासिक विजय हासिल करके देश को पुनः एकैक राजनीति में बाँध कर रख दिया है.
इस बार यह तो हर नागरिक को पता है कि नरेंद्र मोदी ही देश के प्रधानमंत्री बनेंगें इस दरमियान जनता जनार्दन की आगामी प्रधानमंत्री जी से अपेक्षायें बहुतायत हैं,युवा,बुजुर्ग,आम,खास,उद्योगपति,भाजपा के उनके टीम मेम्बर,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ.सभी की उम्मीदों के सितारे नरेंद्र मोदी देश के मुखिया बनने जारहें हैं.मोदी के विजय के पीछे चाहे जितने ही विनिंग फैक्टर काम किये हों.परन्तु जीत के बाद उनके विचार और सोचने का नजरिया भी अब केंद्रित हो गया है.इस बात का समर्थन देश ही नहीं वरन विदेश तक के प्रधानमंत्री और देशों के राष्ट्रपतियों ने किया है. विदेश नीतियों का कालचक्र जिस तरह चल रहा है अब उन नीतियों को परिवर्तित करने का समय आगया है.हमारा देश कई अनुपयोगी मुद्दों में विगत दस वर्षों से उलझा रहा है.उसमें एक मुद्रा का काफी भाग खर्च कर दिया गया.लेकिन परिणाम शून्य रहा.नरेंद्र मोदी जी का प्रधानमंत्री शासन काल इस बात का गवाह होगा की देश को अब किस दिशा में लेकर जाना है. विगत दस वर्षों से हमने अपने पडोसी देशों के प्रति ज्यादा ही अति समन्वयवादिता को दर्शाया है. परन्तु उसके परिणाम स्वरूप हमें सिर्फ घाव ही मिले हैं.हम सबको पता है कि मोदी का जितना घनिष्ट संबंध भारतीय जनता पार्टी से हैं उससे कहीं ज्यादा घनिष्ट संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हैं. वो एक ईमान दार स्वयंसेवक हैं.जिनके रग रग में राष्ट्रवाद बहता है.जिसका कोई विकल्प कोई भी नहीं खोज सकता है. भारत का अस्तित्व इसी में है कि देश की विदेश नीति को बदलाव करके विकास नीति की तरफ मोडा जाये .गुजरात माडल और वाराणसी को आध्यात्मिक गढ बनाने की कवायद में तेजी लायी जाये. वरना हम सब जानते है कि यह जनता परिवर्तन की आदी हो चुकी है.मोदी मय हो चुके जनता के मनःस्थिति में अब मोदी ही हैं जो देश को पूर्णतः परिवर्तन के तीव्र वेग से चलायेंगें.घिघियाने और विनती करने की परंपरा को त्यागकर निर्णय और विकास हेतु विदेशों को आमंत्रण पर जोर दे सकते हैं.गुजरात माडल और गुजरात सरकार को चलाने वाले नरेंद्र मोदी के समय और दिन दोनो साथ साथ चलने के लिये तैयार हैं.जनता की वैचारिक पृष्ठभूमि में कदम रखने वाले मोदी को चाहिये कि वो देश को औद्योगिक विकास,सामाजिक विकास,आर्थिक विकास,वैचारिक विकास,और तत्पश्चात आध्यात्मिक विकास के पथ पर अग्रसर करें.देश को उस रास्तें में लेजाने की आवश्यकता है जहाँ अंतरिक कलह,क्षेत्रवाद,भाषावाद,जातिवाद,निम्नस्तरीय विचारशीलता से छुटकारा मिले और अनायास विदेशी शत्रुओं से डर की वजह से रक्षा मंत्रालय का अतिरिक्त व्यय रोका जाये जो कि शत्रुदेशों की आतंकवादी और घुसबैठी गतिविधियों को रोकने हेतु खर्च होता है.इसके लिये चाहे कोई भी कदम उठाने पडे.
देश में राजनीतिक दलों का भी एकत्रीकरण आवश्यक हैं.क्योंकि आज के समय में राजनीति करने वाले दल राजनीति छोड कर सीधे नालायकी में उतर कर अपना ध्वजारोहण करने में लगे हुये हैं.इसी लिये जनता को यह गठबंधन नागवार गुजरा,और पूर्ण बहुमत से जन प्रतिनिधियों को चुनकर संसद में भेजा ताकि कोई भी नियम कानून निर्णय के लिये बार बार विरोधी दलों के सामने घिघियाना और चिरौरी विनती ना करनी पडे कि समर्थन दे वरना सरकार गिर जायेगी. इस बार तो विपक्ष भी औपचारिक रूप से अधिकार हीनता का शिकार हो गया है. इन सब परिस्थियों में जनता को परिवर्तन की अपेक्षा ज्यादा है.और नरेंद्र मोदी को इसी परिवर्तन की आधारशिला रखना होगा.वरना आगामी पाँच वर्षों के बाद फिर से जनता को ही निर्णय लेना होगा.विकास की ओर देश को लेजाना,मंहगाई से निजात,युवाओं को सही कैरियर का मिलना.देश को आर्थिक रूप से सुदृण बनाना और अंतत बार बार काश्मीर और सीमा कब्जा जैसे नासूरों से हमेशा के लिये छुटकारा दिलाकर  देश का सर्वांगीण विकास भी कुछ ऐसे प्रमुख मुद्दे हैं जिसका जनता प्रधानमंत्री द्वारा स्थाई हल चाहती है.आने वाला समय बतायेगा कि मोदी सरकार और उसके सिपेसलार कितना उम्मीदों में खरे उतरते हैं.

नयी दिशा में कर गई अब सरकार प्रवेश.
अब मित्रो है देखना कहाँ जायेगा देश.


अनिल अयान,सतना
९४०६७८१०४०

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

राजनीति में रिस्तों की विभीषणगिरी

राजनीति में रिस्तों की विभीषणगिरी
राजनीति का चुनावी बिगुल बजते हीं परिवार की यारी छोड कर सारे नेता वोटों की यारी शुरू कर दी है.समय बदलने के साथ नेता भी अपने परिवार की माँ की आँख निकालने में लगे होते है.किसी भी रिस्ते की बात कर लें परंतु राजनीति का मंत्र है कि वोटो के नाम पर परिवार के हर रिस्ते को आमने सामने ला रहे है.सब राजनीतिज्ञ अपने अपने पारिवारिक सदस्यों के सामने अपनी पार्टी के लिये अपने ही घर की इज्जत नीलाम करने में बाज नहीं आ रहे है. पार्टी के साथ मिलकर अन्य पार्टी के नेता की बुराई सिर्फ वोट के लिये करना, समझ में आता है. परन्तु दूसरे नजरिये से बात करें रिस्तों को आमने सामने रखकर वोटों की राजनीति ही सबसे सबसे बडी राजनीति आज के समय की है.चाहे मेनका गांधी और सोनिया गांधी ,रावड़ी देवी और साधू यादव, करुणाकरण और उनके बेटे की चुनावी बिगुल हो.यह तो कुछ उदाहरण है ऐसे सैकडों उदाहरण है जिसमें राजनीति में आकर कुर्सी पाने के लिये राजनेता अपने ही परिवार के किसी भी सदस्य के विरोध में खडे होकर यह साबित कर देते है कि कुर्सी घर में आनी चाहिये चाहे किसी भी तरीके से और किसी भी पार्टी से आये.घर में लाल बत्ती का होना जरूरी है.
आज के समय में यह देखा गया है राजनेता अपने पूर्वजों की परंपरा के निर्वहन के चलते चुनावी मैदान में उतर जाते है.यदि उनकी पुस्तैनी पार्टी उन्हे टिकट देने से परहेज करने की सोचें भी तो वह दूसरी पार्टी से टिकट की ख्वाहिस करने में देर नहीं लगती है.आज के समय में हर पार्टी को नये युवा चेहरे की तलाश के चक्कर में फिरते रहते है.और इस तरह इन लोगों की तलाश पार्टी में जाकर पूरी होती है और पार्टी की तलाश इन युवा चेहरों और इनके पारिवारिक संपत्ति में जाकर खत्म होती है.ये चेहरे चुनाव जीतें या ना जीतें परन्तु जनता जनार्दन को लुभाने का ठेका जरूर पूरा कर लेते है. पार्टी का अपना स्वार्थ भी सिद्ध हो जाता है.समाज और जनता को इसी सब तरीकों से राजनीति का प्रभाव दिखने लगता है. अपने परिवार के हर रिस्ते पिता पुत्र,बेटा बेटी,चाचा भतीजा, पति पत्नी जैसे रिस्ते राजनीति के रंग में रंगने के लिये तैयार है तो चुनाव का रंग अपने आप समझ में आने लगता है.परिवार के सरहद निकल कर राजनीति की दहलीज में ये रिस्तों के सौदागर जिस तरह राजनीति के दामन को छूकर आँगे बढने की ख्वाहिश रखने लगे है वह राजनीति के निकटतम भविष्य के लिये कितना लाभप्रद है वह तो आने वाला लोक सभा चुनाव ही बतायेगा.इस प्रकार के राजनैतिक महासमय से इन पारिवारिक रिस्तों का क्या होता होगा.चुनाव के माहौल में उन लोगों का क्या होता होगा जो इन परिवारों के मुरीद होते होंगे. और वो किसे वोट करते होंगें.रिस्तों की यह विभीषणगिरी का भी अपना एक मजा होता है.घर की दहलीज के अंदर सब रिस्तेदारी निभाते है और पार्टी के मंच में आते है एक दूसरे को गाली देना शुरू कर देते है.बुला भला कहता शुरू कर देते है.यही सब रीति राजनीति सहचरी बन जाती है. कहते है कि सबसे बडा धर्म आज के समय में सत्ता धर्म है और सबसे बडा ज्ञान आज के समय में राजनीति है.जो इसे सीख गया वह देश की बागडोर सम्हालने की अग्नि परीक्षा में पास हो जाता है.
आज की राजनीति का हाल कुछ ऐसा है कि चुनाव आयोग हर प्रत्याशी पर अपनी बाज की आँख लगा कर बैठा है. चाहे वो राजनीति का कोई भी रिस्ता हो.कोई भी इस हाईटेक युग के चुनाव आयोग किसी को नहीं छोडने वाला है.हर मापडंड में खरे उतरने के बाद ही ये रिस्तेदारी चुनाव के महासमर को जीत सकते हैं.कुर्सी के महारास में कौन विजयी होगा यह तो लोकसभा चुनाव बता ही देगा.इस विभीषणगिरी का दुष्परिणाम यह होता है कि जीतने वाला तो जस्न में डूबा रहता है. पर हारने वाला विद्रोह करने के लिये उतारू हो जाता है.यह राजनैतिक रास्तों से होता हुआ पारिवारिक पगडंडियों में पहुँच जाता है.और एक कलह का कारण बनता है.जो इस राज यज्ञ के मंत्र को पढना शुरू कर देते है उन्हें इससे भी कोई फर्क नही पडता है.कुर्सी पाने के लिये समझौतों की श्रंखला तक पार करने की जहमत उठा सकते है.लाल बत्ती पा सकते हैं.विजय रथ में सवार हो सकते है.परिवार छोड सकते हैं पार्टी के लेफ्ट हैंड बन सकते है.जीवन में साम दाम दंड भेद अपनाकर सत्ता का सुख भोग सकते है भले ही इसके लिये अपने आदर्शों को टके सेर तक गिरवी रख सकते हैं. यही विभीषणगिरी राजनीति की आत्मा है. राजनेता इसकी देह.
अनिल अयान सतना

रविवार, 2 मार्च 2014

कहाँ नहीं है साहित्य

कब तक सहे
कहाँ नहीं है साहित्य  
    साहित्यिक पत्रकारिता का आज के समय में हाल बेहाल हो चुका है.हर तरफ से यह देश साहित्य से दूर जा रहा है.साहित्य को हर तरफ सुना जा रहा है या यह कहें कि जबरन सुनवाया जा रहा है.हर तरफ साहित्य की चर्चा लगभग ना के बराबर है.जो कुछ भी बचा है वह गोष्ठियों तक सीमित हो कर रह गया है और गोष्ठियों से निकल कर एक दिवसीय कार्यशालाओं तक सिमट कर रह गया है.बडे बडे कालेज और विश्वविद्यालय में भी साहित्यिक आयोजन गाहे बगाहे होते रहते है.जिसमें साहित्यकार की जगह में अकादमिक प्राध्यापक गण और छात्र छात्राएँ अधिक होते है.साहित्यिक चर्चा की बजाय साहित्य की कक्षा के नाम पर भर्रेशाही होती है.आज के समय पर कविसम्मेलन भी काफी जोर पकड रहे हैं.जिसमें कविता की तरह कुछ होता ही नहीं है.हास्य के नाम पर फूहडता,ओज के नाम पर पाकिस्तान को गाली देने के अलावा कुछ भी नहीं होता और हर जगह वही जुगाडपन जरूरी हो गया है.साहित्य अब कहीं आलमारी के अंदर रखी कृतियों में देखने को मिल सकता है और यदा कदा पत्र पत्रिकाओं के पृष्ठों में देखने को मिलता है.नहीं तो फिर अखबारों में टुकडियों में साहित्य को पाला पोसा जा रहा है. समय के साथ साहित्य के प्रतिमान भी बदलाव है.साहित्यिक पत्र पत्रिकायें अपनी आखिरी सांसो की प्रतीक्षा में अपने दिन गिन रही है.
      साहित्य आज हर जगह मौजूद है पहले के समय में इसे दीवारों में उकेरा जाता था पत्तों और छालों में लिखकर सुरक्षित रखा जाता था.धीरे धीरे इसे कपडों में,कागजों में चित्रों और वर्णों के माध्यम से सुरक्षित करने की कोशिश की जाती रही है. पहले के समय में जितना प्रयास होता रहा है उससे कही ज्यादा प्रयास होता रहा है. परन्तु सफलता की कोटि भी बहुत कम रह गई है.संस्कृत भाषा के साहित्य में जितना विकास किया गया उससे ज्यादा विकास हिन्दी के साहित्य में होना चाहिये परन्तु बाग्ला भाषा के साहित्य का विकास हिन्दी से ज्यादा हुआ.चाहकर भी हिन्दी के साहित्यकार अपने शिखर तक नहीं पहुच पा रहे है.इसका सबसे बडा कारण है गुटबाजी का इस क्षेत्र में शामिल हो जाना. साहित्य अनेको तरीकों से हमारे जीवन में शामिल है परन्तु उस राह में बढकर कोई व्यक्ति अपनी योग्यता शाबित नहीं कर पाता है.आज के समय में पाठकों की संख्या में बढोत्तरी करना ही साहित्य का मुख्य लक्ष्य रह गया है.साहित्य आज के समय में आलेखों कविताओं और व्यंग्यों की पुस्तकों तक सीमित होकर रह गयाहै. पुस्तक मेले में भी पुस्तकों की बिक्री की बुरी हालत रही है.प्रकाशक भी लेखको और कवियों को जहमत देने का काम कर रहे है. साहित्य हर जगह होकर भी हर व्यक्ति को सुलभ नहीं हो पा रहा है.पत्रिकाये सुलभ रूप से पाठकों तक नहीं पहुँच पारही है. साहित्यिक पत्रकारिता की हालत और दुस्वार हो चुकी है. साहित्यिक पत्रकारिता के नाम पर आज के समय पर सिर्फ
कमप्यूटर से कट कापी पेस्ट का जमाना रह गया है.कोई अपना लिखना नहीं चाहता.और पढने की आदत तो लगभग समाप्त हो गया है.कोई अपने आप लिखना नहीं चाहता है.सब किसी ना किसी जरिये से बहुत जलदी प्रसिद्ध होना चाहता है और इसी के चलते वह अध्धयन छॊड चुका है और हम सब जानते है कि बिन अध्ययन कुछ भी संभव नहीं है,संपादक को आज के समयमें कोई सामग्री नहीं मिल पा रही है प्रकाशन के लिये विज्ञापन के लिये कोई संभावना नहीं बन पा रही है.साहित्यिक पत्रकारिता आज के समय में अपने घुटने टेके आने वाले अपने भविष्य के लिये चिंता की चिता में जल रही है.पर इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि जहाँ एक ओर पत्रकारिता अपना दम तोड रही है.वही दूसरी ओर समाचार पत्र इस परंपरा को जीवनदान देने का प्रमुख काम कर रहे है.और यदि इस परंपरा को वो ही बस इसी तरह चलाते रहेंगे तब भी साहित्यिक पत्रकारिता अपनी सांसे लेती रहेगी.
      इस युग में स्मार्ट फोन,इंटरनेट,वीडियो गेम्स के चलते किसी भी युवा के पास इतना समय नहीं है कि वो साहित्य की तरफ रुख करे.
आज के युवाओ को फेसबुक ट्वीटर ब्लाग्स से फुरसत नहीं है तो वह साहित्य कहाँ से पढेगा.इसमें भी उनका कुसूर नही है आज के समय की मांग है कि हर समय हम अपने को व्यस्त रखें.और् इससे सरल माध्यम कहीं और उपलब्ध नहीं हैं
इस लिये वर्तमान की माँग है कि साहित्य की हर विधा को. हर भाषा को सुरक्षित रखा जाये.तभी हम आने वाली पीढी को हम कुछ दे पायेंगे. वरना सिर्फ आभासी दुनिया के अलावा हमारे पास अब कुछ भी नहीं बचा है. अब हम सब को सोचना है कि हर जगह पर रहने वाला साहित्य हर व्यक्ति तक पहुँचेगा कि नहीं.
अनिल अयान.
     
     



बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

कब तक सहे
बच्चों को कलम घिस्सू बनाने की कवायद में अभिभावक.
इस समय वार्षिक परीक्षाओं की तैयारी में सभी बच्चे और उनके अभिभावक लगे हुये हैं.परीक्षा वह शब्द है जिससे जड और चेतन दोनो को बहुत भय लगता है.इस के प्रभाव से कोई भी डर के बिना बचकर नहीं निकल पाया है. हम चाहे किसी उम्र के हो जायें परन्तु जब भी समय यह कहेगा कि वह हमारी परीक्षा लेगा तब हमें वही भय लगता है जो बचपन में परीक्षा भवन में जाने से लगता था.फरवरी और मार्च का महीना हर विद्यालय में पढने वाले बच्चों के लिये किसी हाउआ से कम नहीं होता है.क्योंकि बचपन से पचपन तक हमें यही सिखाया गया है कि परीक्षा वह नाव है जिससे हम अपनी पढाई के ज्वार से बच सकते हैं. कभी बच्चों को किताबों की दुनिया से हटकर सोचने की कोशिश नहीं की गई माता पिता और शिक्षकों के द्वारा. हमेशा एक ही परिपाटी में बैल की भाँति जोत देते हैं.ताकि कोल्हू से हमारे सपनों की सरसो से तेल निकाल सके भले ही वह थके बीमार हो या कमजोर होता चला जाये. सब अभिभावक एक ही तरह की सोच रखते हैं.कोई शुरू से यह सोच रखते है कोई बच्चों के बडे होने के साथ साथ अपनी सोच बदल लेते हैं. कोई कुछ भी नहीं कर सकता है.मजबूर है अपने समाजिक अस्तित्व की लडाई में शतरंज के मोहरा बनाकर शोहरत हासिल करने की कवायद में.

अप्रैल से मार्च तक बच्चा ऐसा अनुभव करता है कि वह जेल में फिर से डाल दिया गया है जिसमें उसे दस महीने अपने खून के आँसू रोने वाले होते है.कभी सोचिये आप उस उमर में थे तो आप से कितना बनता था.शायद बच्चों से बहुत कम बनता था. आज के समय के बच्चे इतने ज्यादा स्मार्ट होते है कि जो विषय वस्तु हम पहली या दूसरी कक्षा मे सीखते थे वह वो पैदा होने के पहले सीख चुके होते है इसमें दोष उनका नहीं उनके पालकों का है जिसतरह द्रोपदी के गरभ में रह कर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह का भेद रहस्य जान लिया था उसी तरह माँ के गरभ में रहकर आज कल के बच्चे हर विषय के बारे में पैदा होने के पहले जान लेते हैं.परन्तु आज के समय में यदि बच्चे बाप बनते जारहे है तो बाप भी महाबाप बनने में लगे हुये है. वो बच्चों से इस धरती के महान गणितज्ञ,वैज्ञानिक और सबसे बुद्धिमान बनाने की कोशिश करने मे लीन होते है. जुलाई से मार्च एक सत्र पूरा होने में बच्चे को कोल्हू के बैल की तरह पेर दिया जाता है और फिर गर्मियों की छुट्टियों में भी कटने वाले बकरे की भाँति खूब खिलाया पिलाया जाता है. आज के समय यदि बच्चे ८० प्रतिशत अंक भी प्राप्त करता है तो पालको के चेहरे में बारह बजे होते है. जैसे उन्हें अभी किसी मैयत में जाना हो. सबसे ज्यादा दर्शनीय क्षण किसी स्कूल के परीक्षा परिणाम के निकलने वाले पैरेंट्स मीटिंग में होता है जब हर पालक अपने बच्चे के बारे उसके कक्षाअध्यापक से ऐसे हर एक बात पूँछता है जैसे उसके बेटे या बेटी ने बहुत बडा गुनाह कर दिया हो.बच्चों का बचपना तो कब का गुम हो चुका है. सरकार और शिक्षा विशेषज्ञ चाहे जितना योजना आयोग बना लें. जितनी योजनायें बना लें परन्तु बाल केद्रिंत शिक्षा का कोई प्रभाव पालक शिक्षक और विद्यालय में देखने को नहीं मिलता है.हर विद्यालय पालकों की अपेक्षाओं में खरा उतरने के लिये बच्चों को किसी सर्कस का शेर बनाने की कोशिश करता है. कोई उसे कलम घिस्सू बनाने की कोशिश करने में अपना जीवन न्योछावर कर देते है.आज के समय में सबसे सार्थक सामाजिक स्तर बनाने वाल एक चिह्न है ट्यूशन और कोचिंग.जिसका बच्चा जितने महगें शिक्षक या शिक्षक जैसे प्राणी से ट्यूशन पढता है वह उतना ही स्तरीय व्यक्ति होता है.और फिर उस टीचर के पीछे उस स्थान के हर परिवार हाथ धोकर पड जाते है ताकि वह उनके बच्चों को भी विद्वान बना दे चाहे उसकी जितनी कीमत देना पडे. आखिर कार हम अपने बच्चों को लिये कहाँ जा रहे है. कभी इस दौड से अपने और अपनी झूटी प्रतिष्ठा के नकाब को हटा कर देखिये जनाब. आप अपने बच्चों को कब से अपना गुलाम बनाने की कवायद करने में जी जान लगाये हुये है.
यदि आपने एक हिन्दी फीचर फिल्म थ्री ईडियट देखी हो तो उसका एक सूत्र हर परिवार को अपने बच्चों के लिये बनालेना चाहिये बाबा रणछोरदास का प्रवचन का सार यह है कि बच्चों को अपने अंदर छिपे प्रकृति प्रदत्त हुनर को आँगे बढाने में उनकी मदद करना चाहिये ताकि उनको अफसोस ना हो कि उन्हें अपने जीवन में सफलता नहीं मिली या वो खुश नहीं है उस समाजिक स्तर से. जैसे कि मैने पहले भी कहा है कि वो हम से बहुत आगे की सोच रखते है.हमें बस उस सोच को जान कर उसके पीछे एक जुनून और अवेयरनेस के साथ बढने की सलाह देनी चाहिये वरना हम उनके गाड फादर नहीं बन सकते उनके एनीमेटर बनने से उनकी सफलता में सहयोगी बनी.आपका यह व्यवहार उन्हे अपने गोल को बनाने और हासिल करने में मदद करना हि उन्हें अपने तरीके से कलमघिस्सू बनाने की कवायद में पूर्ण विराम लगाना होगा.अनिल अयान ,सतना.
कब तक सहे
बच्चों को कलम घिस्सू बनाने की कवायद में अभिभावक.
इस समय वार्षिक परीक्षाओं की तैयारी में सभी बच्चे और उनके अभिभावक लगे हुये हैं.परीक्षा वह शब्द है जिससे जड और चेतन दोनो को बहुत भय लगता है.इस के प्रभाव से कोई भी डर के बिना बचकर नहीं निकल पाया है. हम चाहे किसी उम्र के हो जायें परन्तु जब भी समय यह कहेगा कि वह हमारी परीक्षा लेगा तब हमें वही भय लगता है जो बचपन में परीक्षा भवन में जाने से लगता था.फरवरी और मार्च का महीना हर विद्यालय में पढने वाले बच्चों के लिये किसी हाउआ से कम नहीं होता है.क्योंकि बचपन से पचपन तक हमें यही सिखाया गया है कि परीक्षा वह नाव है जिससे हम अपनी पढाई के ज्वार से बच सकते हैं. कभी बच्चों को किताबों की दुनिया से हटकर सोचने की कोशिश नहीं की गई माता पिता और शिक्षकों के द्वारा. हमेशा एक ही परिपाटी में बैल की भाँति जोत देते हैं.ताकि कोल्हू से हमारे सपनों की सरसो से तेल निकाल सके भले ही वह थके बीमार हो या कमजोर होता चला जाये. सब अभिभावक एक ही तरह की सोच रखते हैं.कोई शुरू से यह सोच रखते है कोई बच्चों के बडे होने के साथ साथ अपनी सोच बदल लेते हैं. कोई कुछ भी नहीं कर सकता है.मजबूर है अपने समाजिक अस्तित्व की लडाई में शतरंज के मोहरा बनाकर शोहरत हासिल करने की कवायद में.

अप्रैल से मार्च तक बच्चा ऐसा अनुभव करता है कि वह जेल में फिर से डाल दिया गया है जिसमें उसे दस महीने अपने खून के आँसू रोने वाले होते है.कभी सोचिये आप उस उमर में थे तो आप से कितना बनता था.शायद बच्चों से बहुत कम बनता था. आज के समय के बच्चे इतने ज्यादा स्मार्ट होते है कि जो विषय वस्तु हम पहली या दूसरी कक्षा मे सीखते थे वह वो पैदा होने के पहले सीख चुके होते है इसमें दोष उनका नहीं उनके पालकों का है जिसतरह द्रोपदी के गरभ में रह कर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह का भेद रहस्य जान लिया था उसी तरह माँ के गरभ में रहकर आज कल के बच्चे हर विषय के बारे में पैदा होने के पहले जान लेते हैं.परन्तु आज के समय में यदि बच्चे बाप बनते जारहे है तो बाप भी महाबाप बनने में लगे हुये है. वो बच्चों से इस धरती के महान गणितज्ञ,वैज्ञानिक और सबसे बुद्धिमान बनाने की कोशिश करने मे लीन होते है. जुलाई से मार्च एक सत्र पूरा होने में बच्चे को कोल्हू के बैल की तरह पेर दिया जाता है और फिर गर्मियों की छुट्टियों में भी कटने वाले बकरे की भाँति खूब खिलाया पिलाया जाता है. आज के समय यदि बच्चे ८० प्रतिशत अंक भी प्राप्त करता है तो पालको के चेहरे में बारह बजे होते है. जैसे उन्हें अभी किसी मैयत में जाना हो. सबसे ज्यादा दर्शनीय क्षण किसी स्कूल के परीक्षा परिणाम के निकलने वाले पैरेंट्स मीटिंग में होता है जब हर पालक अपने बच्चे के बारे उसके कक्षाअध्यापक से ऐसे हर एक बात पूँछता है जैसे उसके बेटे या बेटी ने बहुत बडा गुनाह कर दिया हो.बच्चों का बचपना तो कब का गुम हो चुका है. सरकार और शिक्षा विशेषज्ञ चाहे जितना योजना आयोग बना लें. जितनी योजनायें बना लें परन्तु बाल केद्रिंत शिक्षा का कोई प्रभाव पालक शिक्षक और विद्यालय में देखने को नहीं मिलता है.हर विद्यालय पालकों की अपेक्षाओं में खरा उतरने के लिये बच्चों को किसी सर्कस का शेर बनाने की कोशिश करता है. कोई उसे कलम घिस्सू बनाने की कोशिश करने में अपना जीवन न्योछावर कर देते है.आज के समय में सबसे सार्थक सामाजिक स्तर बनाने वाल एक चिह्न है ट्यूशन और कोचिंग.जिसका बच्चा जितने महगें शिक्षक या शिक्षक जैसे प्राणी से ट्यूशन पढता है वह उतना ही स्तरीय व्यक्ति होता है.और फिर उस टीचर के पीछे उस स्थान के हर परिवार हाथ धोकर पड जाते है ताकि वह उनके बच्चों को भी विद्वान बना दे चाहे उसकी जितनी कीमत देना पडे. आखिर कार हम अपने बच्चों को लिये कहाँ जा रहे है. कभी इस दौड से अपने और अपनी झूटी प्रतिष्ठा के नकाब को हटा कर देखिये जनाब. आप अपने बच्चों को कब से अपना गुलाम बनाने की कवायद करने में जी जान लगाये हुये है.
यदि आपने एक हिन्दी फीचर फिल्म थ्री ईडियट देखी हो तो उसका एक सूत्र हर परिवार को अपने बच्चों के लिये बनालेना चाहिये बाबा रणछोरदास का प्रवचन का सार यह है कि बच्चों को अपने अंदर छिपे प्रकृति प्रदत्त हुनर को आँगे बढाने में उनकी मदद करना चाहिये ताकि उनको अफसोस ना हो कि उन्हें अपने जीवन में सफलता नहीं मिली या वो खुश नहीं है उस समाजिक स्तर से. जैसे कि मैने पहले भी कहा है कि वो हम से बहुत आगे की सोच रखते है.हमें बस उस सोच को जान कर उसके पीछे एक जुनून और अवेयरनेस के साथ बढने की सलाह देनी चाहिये वरना हम उनके गाड फादर नहीं बन सकते उनके एनीमेटर बनने से उनकी सफलता में सहयोगी बनी.आपका यह व्यवहार उन्हे अपने गोल को बनाने और हासिल करने में मदद करना हि उन्हें अपने तरीके से कलमघिस्सू बनाने की कवायद में पूर्ण विराम लगाना होगा.अनिल अयान ,सतना.