शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता
            मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया.अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी.क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ.अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था.उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५८७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है.आजादी ६५ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे.शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.
            स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने यह कभी सपने में भी ना सोचा होगा कि आने वाले समय में उन्हें आतंक वादी की तरह पाठ्यक्रमों में बच्चों के सामने लाया जायेगा.वो भी इस लिये क्योकि सरकार वामपंथ और दक्षिण पंथी रवैया अपनाये हुये है.जो सरकार आती है वह अपने पंथ के सेनानियों को शहीद और अन्य को आतंकवादी के रूप में पाठ्यक्रम में सुमार कर देती है.उस समय बिना किसी स्वार्थ के बलिदान देने वाले सच्चे सपूतों को आज स्वार्थपरिता के तले गुटने टेकने पड रहे है. आज लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान जय किसान का नारा बेमानी हो चुका है.बापू का भारत के कृषि प्रधान होने का सपना मिट्टी में मिल चुका है. आज ना किसान की जय है और ना ही जवान की जय है.किसान आज भुखमरी,लाचारी और बेबसी से आत्महत्या करने के लिये मजबूर है.पहले के समय में लगान ना देने में जमीदार लोग किसानों को पेडों से लटकाकर कोडे मरवाते थे.पुलिस के जवान उन्हे जूते की मार देते थे.आज के समय में यदि कर ना दिया जाये तो पटवारी और राजस्व विभाग उनकी जमीन की जप्ती कर लेते है.किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ छलावा है.यदि पटवारियों और सरपंचों को घूस ना दी जाय तो किसानी का मुआवजा भी नहीं मिल पाता है.शास्त्री जी का किसान,और बापू के कृषि प्रधान देश में कृषि और कृषक ही आत्महत्या करने के लिये बेबस है.
            जवानों की स्थिति यह है कि युवा वर्ग आज अपनी आभासी दुनिया में व्यस्त है.कैरियर में शार्टकट रवैया उन्हें मंजिलों से ज्यादा दूर कर दिया है.युवा जवान वर्ग अपने रोजगार के लिये भटक रहे है.प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये सरकार के द्वारा की गई मनमानी के जवाब में अहिंसात्मक आंदोलन ,धरना प्रदर्शन करने में व्यस्त है.समाज में उनके लिये ना कोई सकारात्मक स्थान है और ना ही समर्थन है.सुरक्षा के जवानों की यह स्थिति है कि आजादी इतने वर्षों के बाद भी उनको ना सुविधाये मुहैया कराई गई और तो और उनके शस्त्रों में भी धांधलेबाजी और घोटाले किये गये.जिन दुश्मन देशो से वो भारत को बचाने के लिये हर मौसम में सीमा में डटे रहे,आतंकवादियों और घुसबैठियों को भारत की सीमा के नजदीक ना आने दिया.हमारे देश के रहनुमा उन्ही देशो के साथ मित्रता का संबंध बनाने के लिये योजनाये बनाते रहे राजनैयिक सलाहकार आतंकवादियों से मिलकर उन्ही की भाषा में बात करने लगे.
            आजादी के इतने सालों के बाद स्त्री सुरक्षा और सशक्तीकरण का स्वांग भरने वाला भारतीय गणतंत्र राष्ट्र, गनतंत्र की व्यवस्था को पालन करने में लग गया.जिसकी लाठी उसी की भैंस की कहावत का पालन होने लगा.जब गणतंत्र, गनतंत्र में परिवर्तित हुआ तो उसमें दिल्ली,उ.प्र.और बिहार,सबसे आगे निकल गये.बंदूखों की नोक में अत्याचार होने लगे,अस्मिता लूटे जाने लगी,हमारा देश विकास की होड में इतना आगे निकल गया कि,मूल्यों के लिये जगह ही नहीं बची,आजाद भारत की यही परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने देखी रही होगी,धर्मनिरपेक्षता का यह हाल है कि लोग धर्म को अपनी स्वार्थ की रोटियाँ सेकने और हवस मिटाने का स्थान बना लिया.कोई धर्म के नाम को कैश करने लगा और कोई धर्म की आड लेकर राजनीति के अखाडे में दाँव आजमाने लगा.धरम के नाम पर दंगो और अराजकता की आग ने अमन,शांति सुख,चैन,सब को जला कर खाक कर दिया. यहा पर  स्वतंत्रता का अधिकार किसी को मिला तो इतना मिला कि वो इतना अमीर होता चला गया और इतना अमीर होगया जिसके दम पर वो सरकार को झुकाने लगा.और दूसरे की स्वतंत्रता पर डांका डालने लगा.वैचारिक स्वतंत्रता और भाषा गत आजादी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा वोट बैंक के लिये राजनेताओं के द्वारा किया गया..वाक युद्ध में तो मर्यादा तार तार होती रही.
            इस आजाद मुल्क के शुरुआती दिनों में भारत के राजनेता भी ईमानदार,लोकतंत्र और गणतंत्र की परंपरा का निर्वहन करने वाले हुआ करते थे.समाज में धर्म निरपेक्षता और आजादी का जश्न हर गली मोहल्ले में देखा जा सकता था.पंद्रह अगस्त को छुट्टी की तरह राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया जाता था.आज बाजारवाद और वैश्वीकरण ने इस राष्ट्रीय त्योहार को निगल लिया है.आज के समय पर पंद्रह अगस्त छुट्टी का दिन अधिक और आजादी की वर्षगांठ कम नजर आता है.आज हर जगह सब अपने अपने में व्यस्त है.देश के बारे में जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के ८० प्रतिशत युवाओ और बच्चों को अभी यह नहीं पता की देश का राष्ट्रगान और राष्ट्र गीत क्या है राष्ट्र चिन्हों की कोई जानकारी ही नहीं है.इनसबके लिये जितना सरकार दोषी है उतना हम सब भी गुनहगार है.यदि हम आने वाली पीढी को समुचित जानकारी नहीं प्रदान करेंगें तो वह भारत में तो रहेगी परन्तु भारत के बारे में जानेगी कुछ भी नही.स्वतंत्रता दिवस मनाना , स्वतंत्रता की रक्षा के लिये वचन बद्ध होना,और स्वतंत्रता की कीमत को समझकर उसकी रक्षा करना तीनो में बहुत ही बडा अंतर है.आजादी के इस जश्न को आज व्यापक बनाने की आवश्यकता है ताकि इसकी याद और गूँज आने वाली पीढी के जहन में लंबे समय तक बनी रहे.


अनिल अयान ,सतना

अतिक्रमण जरूर हटाओ , पर खुद को तटस्थ बनाओ.

अतिक्रमण जरूर हटाओ , पर खुद को तटस्थ बनाओ.
नगरनिगम हो या नगर पंचायत हो इन संस्थाओं के पास अतिक्रमण विरोधी दस्तों का इंतजाम जरूर होता है.दस्ता,दस्ते के कर्मचारी,और वाहन व्यवस्था सर्व सुविधा युक्त युक्त होती है.ये संस्थायें सतना में नहीं वरन रीवा,सीधी पन्ना और भी अन्य जिलों में यह कार्यवाही साल भर में दो तीन बार नियमित रूप से करती है.और यदि कोई राजनैति शक्सियत आने वाली होती है तब यह कार्यवाही तेज हो जाती है.सरकार को यह दिखाने का प्रयास किया जाता है कि यहाँ की सुंदरता में कोई ग्रहण नहीं लगा हुआ है.एक दो दिन पूर्व सतना शहर में एक दो स्थानों से अतिक्रमण हटाया गया,इस बार अतिक्रमण हटाने के केंद्र बिंदु थे आई.जी. महोदय जिनके नेतृत्व में नगर निगम को यह सफलता हाथ लगी.पर क्या वजह है कि अतिक्रमण हटाने की आवश्यकता बार बार नगर निगम को पडती है. कितना समय,श्रम,और अर्थ पानी की तरह हर बार बहा दिया जाता है इन प्रश्नो का जवाब किसी के पास नहीं है.शहर कोई भी हो परन्तु महानगरों की बात छोड दें तो सबकी कहानी एक जैसे है. हर बार जो दस्ता इस कार्यवाही को अंजाम देता है उसके ऊपर लाखों रुपये खर्च होता है. परन्तु एक सप्ताह के बाद उसका परिणाम शून्य ही नजर आता है.
            अतिक्रमण का मूल अर्थ है किसी की सम्पत्ति पर गैरकानूनन रूप से कब्जे की प्रक्रिया,आज अतिक्रमण करना और करवाना दोनो बायें हाथ का खेल हो गया है.फुटपाथियों और गरीब तबके का दुकानदार अपनी मजबूरी और रोटी ,कपडा, मकान के लिये किसी शासकीय भूखंड का इस्तेमाल अपना व्यवसाय करने के लिये करता है. परन्तु शाम होते ही वह उस जगह को खाली करके चला जाता है और सुबह फिर उसी जगह पर अपना सामान बेंचने के लिये गावों से आता है.शासन की दृष्टि में यह अतिक्रमण किरकिरी की तरह चुभता है.अधिकारियों को यह अतिक्रमण दिन रात परेशान करके रखता है. अतिक्रमण का दूसरा भी प्रकार है जिसका उपयोग बडे व्यवसायी,उद्योगपति,और माफिया वर्ग करता है शासन के भूखंड में गैरकानूनन रूप से कब्जा करते है उसको धार्मिक रूप से प्रचारित प्रसारित करते है. वहाँ या तो खदानें,या कालोनियाँ , बहुमंजिली इमारतों के पास की सुंदरता बढाने के लिये उपयोग करते है.राजनेता इस प्रकार के अतिक्रमण का इस्तेमाल आज के समय पर मैरिज गार्डन और अन्य प्रकार के ओपन कैंपस पैलेस खोलने के लिये करते है.इस प्रकार के अतिक्रमण कभी आदतन और बंदूख की नोंक पर होते है.या कभी सुविधा शुल्क का उपयोग कर अधिकारियों की सेवा करके किया जाता है.इस प्रकार के अतिक्रमण के लिये ना ही नगर निगमों के पास कोई दस्ता होता है और ना ही शासन के पास कोई अमला होता है. यह प्रश्न भी उठता है कि प्रशासन  इस अतिक्रमण को हटाने के लिये कौन से मुहुर्त का इंतजार कर रहा है.क्या इससे शासकीय राजस्व का नुकसान शासन के कुछ कमाऊखोर अधिकारी नहीं कर रहे है.इसको देखने के लिये कौन सी कमेटी है.क्या वह भी इन दस्तो की तरह तटस्थ रूप से काम करना बंद कर चुकी है.कौन जवाब देगा इन सब प्रश्नों के,शायद अभी उत्तर निरुत्तर है.आज के समय पर अतिक्रमण हटाने का काम हमेशा चेहरा ,पावर,राजनैतिक पहुँच देख कर किया जाता है.इस कार्यप्रणाली में सुधार करने की सबसे ज्यादा आवश्यकता है.

            जगह कोई भी हो,शहर कोई भी हो, परन्तु शासकीय जमीन में कुछ समय बिता कर, अपना व्यवसाय कर,रोजी रोटी कमाने की स्वतंत्रता हर रहवासी को है.ये अतिक्रमण कारी जो फुटपाथ में बैठ कर ,सडक के किनारे दुकान लगाकर अपनी रोजी रोटी कमाते है वो खुद इस बात को स्वीकार करते है कि यदि शासन गलत काम करने की बजाय हमें कोई जगह निर्धारित कर दे तो हम वहीं व्यवसाय करेंगें.परन्तु नगर निगम और नगर पंचायत के कुछ ऐसे भी कर्मचारी है जो इनको निर्वासित करने की पहल तो करते है परन्तु इन्हे एक स्थाई स्थान प्रदान करने की पहल नहीं कर सकते है.प्रशासन बडे उद्योगपतियों के अतिक्रमण को भूल जाता है और इन फुटपाथियों के अतिक्रमण का स्थाई इलाज नहीं खोज पाया है.इनसे नगर निगम की वसूली की जाती है.बिजली का टी.सी. बिल वसूला जाता है.पुलिस के द्वारा दादागिरी दिखाई जाती है. और ऐन मौके पे इनका ठेला,बोरिया बिस्तर उठाकर जब्त भी कर लिया जाता है.मुझे लगता है कि अतिक्रमण करने वाले जितने दोषी है उससे कहीं ज्यादा दोषी प्रशासन के ये लोग भी है.यदि अतिक्रमण कारियों को सजा दी जाती है तो इन अधिकारियों और विभागों पर भी कार्यवाही होना चाहिये. यह सब तो एक तरफा बात है बडे कदवार अतिक्रमणकारियों से शासन की जमीन अथवा भूखंड को अतिक्रमण मुक्त करना चाहिये.अतिक्रमण करना गुनाह है परन्तु अतिक्रमण कारियों को शासकीय सह देना उससे बडा गुनाह है. यह भी सच है कि यदि मंडियों ,के लिये,मीट मार्केट के लिये ,सब्जी वालों के लिये,दूधवालों के लिये स्थान निर्धारित है तो इन ठेलेवालो और गुमटी वालों के लिये कटराबाजार की व्यवस्था क्यों नहीं है.यदि इस व्यवस्था को लागू कर दिया गया और आर्थिक मदद शासन प्रदान करे तो शासन को इस प्रकार के अतिक्रमण से राहत तो मिलेगी ही साथ में उसका इस पर खर्च होने वाला अर्थ,श्रम,और समय भी बचेगा.अब शासन को बडे अतिक्रमण कारियों की ओर रुख करना होगा साथ ही साथ इसके लिये नियम ,कानून और सजा को और कडी करने की आवश्यकता है.शासन के हर इस तरह के कामों में यदि तटस्थता होगी तो किसी को नुकसान और पीडा नहीं होगी.

शनिवार, 9 अगस्त 2014

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता
मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया.अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी.क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ.अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था.उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५८७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है.आजादी ६५ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे.शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.
स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने यह कभी सपने में भी ना सोचा होगा कि आने वाले समय में उन्हें आतंक वादी की तरह पाठ्यक्रमों में बच्चों के सामने लाया जायेगा.वो भी इस लिये क्योकि सरकार वामपंथ और दक्षिण पंथी रवैया अपनाये हुये है.जो सरकार आती है वह अपने पंथ के सेनानियों को शहीद और अन्य को आतंकवादी के रूप में पाठ्यक्रम में सुमार कर देती है.उस समय बिना किसी स्वार्थ के बलिदान देने वाले सच्चे सपूतों को आज स्वार्थपरिता के तले गुटने टेकने पड रहे है. आज लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान जय किसान का नारा बेमानी हो चुका है.बापू का भारत के कृषि प्रधान होने का सपना मिट्टी में मिल चुका है. आज ना किसान की जय है और ना ही जवान की जय है.किसान आज भुखमरी,लाचारी और बेबसी से आत्महत्या करने के लिये मजबूर है.पहले के समय में लगान ना देने में जमीदार लोग किसानों को पेडों से लटकाकर कोडे मरवाते थे.पुलिस के जवान उन्हे जूते की मार देते थे.आज के समय में यदि कर ना दिया जाये तो पटवारी और राजस्व विभाग उनकी जमीन की जप्ती कर लेते है.किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ छलावा है.यदि पटवारियों और सरपंचों को घूस ना दी जाय तो किसानी का मुआवजा भी नहीं मिल पाता है.शास्त्री जी का किसान,और बापू के कृषि प्रधान देश में कृषि और कृषक ही आत्महत्या करने के लिये बेबस है.
जवानों की स्थिति यह है कि युवा वर्ग आज अपनी आभासी दुनिया में व्यस्त है.कैरियर में शार्टकट रवैया उन्हें मंजिलों से ज्यादा दूर कर दिया है.युवा जवान वर्ग अपने रोजगार के लिये भटक रहे है.प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये सरकार के द्वारा की गई मनमानी के जवाब में अहिंसात्मक आंदोलन ,धरना प्रदर्शन करने में व्यस्त है.समाज में उनके लिये ना कोई सकारात्मक स्थान है और ना ही समर्थन है.सुरक्षा के जवानों की यह स्थिति है कि आजादी इतने वर्षों के बाद भी उनको ना सुविधाये मुहैया कराई गई और तो और उनके शस्त्रों में भी धांधलेबाजी और घोटाले किये गये.जिन दुश्मन देशो से वो भारत को बचाने के लिये हर मौसम में सीमा में डटे रहे,आतंकवादियों और घुसबैठियों को भारत की सीमा के नजदीक ना आने दिया.हमारे देश के रहनुमा उन्ही देशो के साथ मित्रता का संबंध बनाने के लिये योजनाये बनाते रहे राजनैयिक सलाहकार आतंकवादियों से मिलकर उन्ही की भाषा में बात करने लगे.
आजादी के इतने सालों के बाद स्त्री सुरक्षा और सशक्तीकरण का स्वांग भरने वाला भारतीय गणतंत्र राष्ट्र, गनतंत्र की व्यवस्था को पालन करने में लग गया.जिसकी लाठी उसी की भैंस की कहावत का पालन होने लगा.जब गणतंत्र, गनतंत्र में परिवर्तित हुआ तो उसमें दिल्ली,उ.प्र.और बिहार,सबसे आगे निकल गये.बंदूखों की नोक में अत्याचार होने लगे,अस्मिता लूटे जाने लगी,हमारा देश विकास की होड में इतना आगे निकल गया कि,मूल्यों के लिये जगह ही नहीं बची,आजाद भारत की यही परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने देखी रही होगी,धर्मनिरपेक्षता का यह हाल है कि लोग धर्म को अपनी स्वार्थ की रोटियाँ सेकने और हवस मिटाने का स्थान बना लिया.कोई धर्म के नाम को कैश करने लगा और कोई धर्म की आड लेकर राजनीति के अखाडे में दाँव आजमाने लगा.धरम के नाम पर दंगो और अराजकता की आग ने अमन,शांति सुख,चैन,सब को जला कर खाक कर दिया. यहा पर स्वतंत्रता का अधिकार किसी को मिला तो इतना मिला कि वो इतना अमीर होता चला गया और इतना अमीर होगया जिसके दम पर वो सरकार को झुकाने लगा.और दूसरे की स्वतंत्रता पर डांका डालने लगा.वैचारिक स्वतंत्रता और भाषा गत आजादी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा वोट बैंक के लिये राजनेताओं के द्वारा किया गया..वाक युद्ध में तो मर्यादा तार तार होती रही.
इस आजाद मुल्क के शुरुआती दिनों में भारत के राजनेता भी ईमानदार,लोकतंत्र और गणतंत्र की परंपरा का निर्वहन करने वाले हुआ करते थे.समाज में धर्म निरपेक्षता और आजादी का जश्न हर गली मोहल्ले में देखा जा सकता था.पंद्रह अगस्त को छुट्टी की तरह राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया जाता था.आज बाजारवाद और वैश्वीकरण ने इस राष्ट्रीय त्योहार को निगल लिया है.आज के समय पर पंद्रह अगस्त छुट्टी का दिन अधिक और आजादी की वर्षगांठ कम नजर आता है.आज हर जगह सब अपने अपने में व्यस्त है.देश के बारे में जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के ८० प्रतिशत युवाओ और बच्चों को अभी यह नहीं पता की देश का राष्ट्रगान और राष्ट्र गीत क्या है राष्ट्र चिन्हों की कोई जानकारी ही नहीं है.इनसबके लिये जितना सरकार दोषी है उतना हम सब भी गुनहगार है.यदि हम आने वाली पीढी को समुचित जानकारी नहीं प्रदान करेंगें तो वह भारत में तो रहेगी परन्तु भारत के बारे में जानेगी कुछ भी नही.स्वतंत्रता दिवस मनाना , स्वतंत्रता की रक्षा के लिये वचन बद्ध होना,और स्वतंत्रता की कीमत को समझकर उसकी रक्षा करना तीनो में बहुत ही बडा अंतर है.आजादी के इस जश्न को आज व्यापक बनाने की आवश्यकता है ताकि इसकी याद और गूँज आने वाली पीढी के जहन में लंबे समय तक बनी रहे.

अनिल अयान ,सतना

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

प्रेमचंद्र की प्रगतिशीलता से उपजे सवाल और जवाब.

 प्रेमचंद्र की प्रगतिशीलता से उपजे सवाल और जवाब.
(मुंशी प्रेमचंद -३१ जुलाई १८८० से ८ अक्टूबर १९३६)
मुंशी प्रेमचंद, एक ऐसा छद्म नाम जो धनपत राय को हिन्दी कथा साहित्य में अमर कर दिया.हंस के संपादक होने के साथ उनका कथा और उपन्यास साहित्य का सफर इतना गतिशील रहा कि आज भी उनकी कथा और उपन्यास के मुरीद इस देश में ही नहीं वरन विदेशों में भी उपस्थित है. लगभग एक महीने पूर्व ए.अरविंदाक्षन की पुस्तक प्रेमचंद के आयाम पढने को प्राप्त हुई उस पुस्तक को पढ कर यह भान हुआ कि वाकयै मुंशी प्रेमचंद ने अपने पात्रों में भारतीय ग्राम्य जीवन और परंपरा को जिया है.प्रेमचंद की रचनाशीलता सदैव साहित्य सरिता में प्रवाहित होती रही है. उन्होने वह सब अपनी कहानियों और उपन्यासों में लिखा जो उस समय भारत में घट रहा था और आज भी वही घट रहा है.बस  उन घटनाओं के परिदॄश्य बदल गये है.उन्होने अपनी नजदीकियों को ही बस नहीं अपनी दूरियों को भी बाकायदे अपनी कहानियों में उभारा है.उन्होने अपने सरल आदर्शवाद के चलते जन मानस की संवेदना,पीडा,सुख दुख और सामन्जस्य को केंद्र में रखकर अपनी कहानियों के पात्र और कथोपकथन को साहित्य में स्थान दिया है.इसी वजह से हम सब उन्हें कथा सम्राट कहते है.प्रेमचंद के स्वराज की कल्पना भी अनोखी थी.उनके स्वराज में शोषण रहित समाज का दृश्य था.कहीं भी सामाजिक राजनैतिक विषमता का कोई भी स्थान नहीं था.प्रेमचंद ने ग्राम्य जीवन के लिये नगर पाश्चात सभ्यता का आक्रमण खतरनाक माना था.उन्होने भारतीय किसान,मजदूर और स्त्री विमर्ष का बहुत पहले से अपने उपन्यासों और कथाओं में जिक्र कर चुके थे.उन्होने स्त्रीविमर्श के संदर्भ में यह मत था कि स्त्री ना पुराने धर्म संस्कारों से जकडी हो और ना वह मातृत्व सेवा भावना, करुणा से विमुख होकर पश्चिमी सभ्यता अपनाने वाली स्त्रियों की तरह अतिचंचल,विलासप्रिय और अनुत्तरदायी बने.उन्होने अपने कथा साहित्य में दलित विमर्श को भी बखूबी उकेरा है.उनका मानना है कि दलित चिंतन कोई भी करे,पर अंबेडकर का अनुवर्ती ना होकर पूर्ववर्ती होना चाहिये,सहवर्ती होना चाहिये.
          अर्धशतकीय उपन्यास और शतकीय प्रसिद्ध कथाओं की रचना करने के बाद भी बहुत सी ऐसी रचनाये है जो पाठको के समक्ष आ ही नहीं पाई है.क्योंकि जिस वक्त वो अपने लेखन के चरम बिंदु में थे उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था और विपरीत परिस्थितियों से उन्होने अपनी कथाओं को सजाया और संवारा था.वो हंस पत्रिका के संपादक भी थे.और यह कार्य उनसे अपनी पत्रिका के लिये छद्म नामों से कई कहानियों की रचना भी करवा गया.शोज ए वतन नाम की पहली कृति आज भी अधिक्तर पाठकों की नजरों के सामने नहीं आ पायी है.और भी शतक पूरी कर रही रचनायें है जो आज भी विलुप्त हो गई है.उनके बेटे ने उनके देहांत के बाद कई रचनाओं को संग्रहित करके उनका संग्रह प्रकाशित करवाया था परन्तु सिर्फ इतना ही काफी नहीं था.आज के समय में मुंशी प्रेमचंद वह पेटेंट नाम है जिसका उपयोग करके कई प्रकाशक कैश कर रहे है.उनके कहानियों और उपन्यासों को कई बार प्रकाशको ने अलग अलग शीर्षक से प्रकाशित किये और पाठको को बेंच दिया .परन्तु आज भी पाठकों की वह प्यास बुझी नहीं है.मुंशी प्रेमचंद वो रचनाकार है जिन्होने भारत की दुर्दशा को स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से स्वतंत्रता के पश्चात भी अपनी नजरों से देखा था उसी का परिणाम रहा है कि उनकी कहानियों और उपन्यासों में किसानों,ग्राम्य जीवन,भ्रष्टाचार,अत्याचार,स्त्रीविमर्श,दलित समुदाय के मुद्दे,अपने समय से पहले ही रखे जा चुके थे.उन्होने प्रगतिशीलता का भाव अपने लेखन पहले ही स्पष्ट कर दिया था.
          आज वामपंथ और दक्षिण पंथ और उनके समुदाय के लेखक प्रेमचंद को अपने अपने कुनबे का साबित करने में लगे हुये है.कम्युनिष्ट उन्हें अपने कुनबे का प्रमुख मानरहे है.प्रगतिशील उन्हें अपने कुल का दीपक मान रहे है.दक्षिणपंथी उन्हें अपनी परंपरा का पोषक माने बैठे है.परन्तु प्रेमचंद के अनुसार वास्तव में हर लेखक कवि प्रगतिशील होता है.वो अपने समय घटनाओं के माध्यम से भविष्यदृष्टा के रूप में भविष्य की परिकल्पना करता है. क्योंकि वास्तविक पृष्ठभूमि में खडा होकर ही कल्पना का उद्गम करता है और रचनाकर्म को पूर्ण करता है.प्रगतिशील लेखक संघ का बार बार इस बात का उल्लेखकरना कि प्रेमचंद उनके पूर्वज है तो उस संदर्भ में लखनऊ अधिवेशन के दौरान उन्होने स्पष्ट कर दिया था कि प्रगतिशील लेखक वह लेखक जो अपने समय में रहकर विकास की बात करे जो हर कलमकार करता है.बस अंतर इतना होना है जो जिस बैनर तले होना है उसका महत्व उतला बढ जाता है और जो स्वतंत्र लेखन करता है उसके लेखन और उसकी विचार धारा के लिये हमेशा ही साहित्यकारों में विवाद बना रहता है.हम यदि प्रेमचंद के रचना संसार को पढे तो पता चलेगा की वो प्रारंभ से ही प्रगतिशील थे.पर उनकी पीठ में बार बार कुरेदना कि वो प्रगतिशील ही है.बार बार उनके नाम का उपयोग करके कैश करना गलत है.प्रेमचंद सृजन पीठ उज्जैन में है परन्तु अफसोस है कि वो भी प्रेमचंद के साहित्य को समाज तक बखूबी नहीं पहुचा सकी.फंड आये और गये परन्तु कार्यक्रम सिर्फ फाइलों में कैद होकर रह गये.आज अच्छे पाठक की मजबूरी है कि उसे यदि कालजयी साहित्य को पढना है तो प्रेमचंद कहानियों और उपन्यासों से मुख्तसर होना ही पडेगा.जो उस समय का था, वर्तमान समय का भी है और भविष्य का भी उसी तरह प्रासंगिक बना रहेगा.अंतत यही कहना चाहता हूँ कि प्रेमचंद्र जैसे शिखर पुरुष के नाम पर कैश करना छोड कर ,राजनीति करना छोड कर यदि उनके लेखन को आत्मसात करने का प्रयास किया जाये उसे आने वाले पीढी के साथ साझा किया जाये तो यही उनके लिये सबसे बडी श्रृद्धांजलि होगी.एक अमर कलमकार को सच्ची श्रृद्धांजलि.

अनिल अयान,सतना.