मंगलवार, 5 अगस्त 2014

प्रेमचंद्र की प्रगतिशीलता से उपजे सवाल और जवाब.

 प्रेमचंद्र की प्रगतिशीलता से उपजे सवाल और जवाब.
(मुंशी प्रेमचंद -३१ जुलाई १८८० से ८ अक्टूबर १९३६)
मुंशी प्रेमचंद, एक ऐसा छद्म नाम जो धनपत राय को हिन्दी कथा साहित्य में अमर कर दिया.हंस के संपादक होने के साथ उनका कथा और उपन्यास साहित्य का सफर इतना गतिशील रहा कि आज भी उनकी कथा और उपन्यास के मुरीद इस देश में ही नहीं वरन विदेशों में भी उपस्थित है. लगभग एक महीने पूर्व ए.अरविंदाक्षन की पुस्तक प्रेमचंद के आयाम पढने को प्राप्त हुई उस पुस्तक को पढ कर यह भान हुआ कि वाकयै मुंशी प्रेमचंद ने अपने पात्रों में भारतीय ग्राम्य जीवन और परंपरा को जिया है.प्रेमचंद की रचनाशीलता सदैव साहित्य सरिता में प्रवाहित होती रही है. उन्होने वह सब अपनी कहानियों और उपन्यासों में लिखा जो उस समय भारत में घट रहा था और आज भी वही घट रहा है.बस  उन घटनाओं के परिदॄश्य बदल गये है.उन्होने अपनी नजदीकियों को ही बस नहीं अपनी दूरियों को भी बाकायदे अपनी कहानियों में उभारा है.उन्होने अपने सरल आदर्शवाद के चलते जन मानस की संवेदना,पीडा,सुख दुख और सामन्जस्य को केंद्र में रखकर अपनी कहानियों के पात्र और कथोपकथन को साहित्य में स्थान दिया है.इसी वजह से हम सब उन्हें कथा सम्राट कहते है.प्रेमचंद के स्वराज की कल्पना भी अनोखी थी.उनके स्वराज में शोषण रहित समाज का दृश्य था.कहीं भी सामाजिक राजनैतिक विषमता का कोई भी स्थान नहीं था.प्रेमचंद ने ग्राम्य जीवन के लिये नगर पाश्चात सभ्यता का आक्रमण खतरनाक माना था.उन्होने भारतीय किसान,मजदूर और स्त्री विमर्ष का बहुत पहले से अपने उपन्यासों और कथाओं में जिक्र कर चुके थे.उन्होने स्त्रीविमर्श के संदर्भ में यह मत था कि स्त्री ना पुराने धर्म संस्कारों से जकडी हो और ना वह मातृत्व सेवा भावना, करुणा से विमुख होकर पश्चिमी सभ्यता अपनाने वाली स्त्रियों की तरह अतिचंचल,विलासप्रिय और अनुत्तरदायी बने.उन्होने अपने कथा साहित्य में दलित विमर्श को भी बखूबी उकेरा है.उनका मानना है कि दलित चिंतन कोई भी करे,पर अंबेडकर का अनुवर्ती ना होकर पूर्ववर्ती होना चाहिये,सहवर्ती होना चाहिये.
          अर्धशतकीय उपन्यास और शतकीय प्रसिद्ध कथाओं की रचना करने के बाद भी बहुत सी ऐसी रचनाये है जो पाठको के समक्ष आ ही नहीं पाई है.क्योंकि जिस वक्त वो अपने लेखन के चरम बिंदु में थे उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था और विपरीत परिस्थितियों से उन्होने अपनी कथाओं को सजाया और संवारा था.वो हंस पत्रिका के संपादक भी थे.और यह कार्य उनसे अपनी पत्रिका के लिये छद्म नामों से कई कहानियों की रचना भी करवा गया.शोज ए वतन नाम की पहली कृति आज भी अधिक्तर पाठकों की नजरों के सामने नहीं आ पायी है.और भी शतक पूरी कर रही रचनायें है जो आज भी विलुप्त हो गई है.उनके बेटे ने उनके देहांत के बाद कई रचनाओं को संग्रहित करके उनका संग्रह प्रकाशित करवाया था परन्तु सिर्फ इतना ही काफी नहीं था.आज के समय में मुंशी प्रेमचंद वह पेटेंट नाम है जिसका उपयोग करके कई प्रकाशक कैश कर रहे है.उनके कहानियों और उपन्यासों को कई बार प्रकाशको ने अलग अलग शीर्षक से प्रकाशित किये और पाठको को बेंच दिया .परन्तु आज भी पाठकों की वह प्यास बुझी नहीं है.मुंशी प्रेमचंद वो रचनाकार है जिन्होने भारत की दुर्दशा को स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से स्वतंत्रता के पश्चात भी अपनी नजरों से देखा था उसी का परिणाम रहा है कि उनकी कहानियों और उपन्यासों में किसानों,ग्राम्य जीवन,भ्रष्टाचार,अत्याचार,स्त्रीविमर्श,दलित समुदाय के मुद्दे,अपने समय से पहले ही रखे जा चुके थे.उन्होने प्रगतिशीलता का भाव अपने लेखन पहले ही स्पष्ट कर दिया था.
          आज वामपंथ और दक्षिण पंथ और उनके समुदाय के लेखक प्रेमचंद को अपने अपने कुनबे का साबित करने में लगे हुये है.कम्युनिष्ट उन्हें अपने कुनबे का प्रमुख मानरहे है.प्रगतिशील उन्हें अपने कुल का दीपक मान रहे है.दक्षिणपंथी उन्हें अपनी परंपरा का पोषक माने बैठे है.परन्तु प्रेमचंद के अनुसार वास्तव में हर लेखक कवि प्रगतिशील होता है.वो अपने समय घटनाओं के माध्यम से भविष्यदृष्टा के रूप में भविष्य की परिकल्पना करता है. क्योंकि वास्तविक पृष्ठभूमि में खडा होकर ही कल्पना का उद्गम करता है और रचनाकर्म को पूर्ण करता है.प्रगतिशील लेखक संघ का बार बार इस बात का उल्लेखकरना कि प्रेमचंद उनके पूर्वज है तो उस संदर्भ में लखनऊ अधिवेशन के दौरान उन्होने स्पष्ट कर दिया था कि प्रगतिशील लेखक वह लेखक जो अपने समय में रहकर विकास की बात करे जो हर कलमकार करता है.बस अंतर इतना होना है जो जिस बैनर तले होना है उसका महत्व उतला बढ जाता है और जो स्वतंत्र लेखन करता है उसके लेखन और उसकी विचार धारा के लिये हमेशा ही साहित्यकारों में विवाद बना रहता है.हम यदि प्रेमचंद के रचना संसार को पढे तो पता चलेगा की वो प्रारंभ से ही प्रगतिशील थे.पर उनकी पीठ में बार बार कुरेदना कि वो प्रगतिशील ही है.बार बार उनके नाम का उपयोग करके कैश करना गलत है.प्रेमचंद सृजन पीठ उज्जैन में है परन्तु अफसोस है कि वो भी प्रेमचंद के साहित्य को समाज तक बखूबी नहीं पहुचा सकी.फंड आये और गये परन्तु कार्यक्रम सिर्फ फाइलों में कैद होकर रह गये.आज अच्छे पाठक की मजबूरी है कि उसे यदि कालजयी साहित्य को पढना है तो प्रेमचंद कहानियों और उपन्यासों से मुख्तसर होना ही पडेगा.जो उस समय का था, वर्तमान समय का भी है और भविष्य का भी उसी तरह प्रासंगिक बना रहेगा.अंतत यही कहना चाहता हूँ कि प्रेमचंद्र जैसे शिखर पुरुष के नाम पर कैश करना छोड कर ,राजनीति करना छोड कर यदि उनके लेखन को आत्मसात करने का प्रयास किया जाये उसे आने वाले पीढी के साथ साझा किया जाये तो यही उनके लिये सबसे बडी श्रृद्धांजलि होगी.एक अमर कलमकार को सच्ची श्रृद्धांजलि.

अनिल अयान,सतना.

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