सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

उपमहाद्वीप में वर्चस्व की खोज

उपमहाद्वीप में वर्चस्व की खोज
दक्षिण एशिया के अंतिम छोर में हिंद महासागर के नाम से चिन्हित हमारे प्रधानमंत्री की श्रीलंका,सेशल्स और मारीशस यात्रा पूरी होने के बाद इस उपमहाद्वीप में अपने वर्चस्व की खोज करती ज्यादा नजर आती है। भारत कहीं ना कहीं चीन को अपना प्रतिद्वंदी मानता रहा है। इस यात्रा में मालदीव को छोड देना इस वर्चस्व की लडाई की प्रमुख चाणक्य नीति है। भारत को अच्छी तरह से पता है कि चीनी सरकार ने आज कल सामुद्रिक रेशम पथ की नीति को अंजाम दे रहा है। जो भारत को कहीं ना कहीं खल रहा है।और उसे खलना भी चाहिये। क्योंकि सन 1902 में लार्ड कर्जन ने हिंद महासागर को भारतीय सामुद्री क्षेत्र कहा था।और आज के समय में रेशम पथ नीति के चलते चीन अपने वर्चस्व को इस क्षेत्र में दोहरा रहा है। भले ही उन्होने प्रति स्पर्धा की बात ना कहीं हो परन्तु हमारे प्रधानमंत्री जी को यह बात अच्छी तरह से पता है कि कान पकडना मूल उद्देश्य है कैसे पकडा गया है यह कोई मायने आज की राजनीति में नहीं रखता है।
मालदीव के राष्ट्रपति यामीन चीन के मुराद हैं और वो नहीं चाहते की भारत का साथ देकर वो चीन की नजरों में किरकिरी बनें।वहीं दूसरी तरफ विपक्ष के नेता और पूर्व राष्ट्रपति नशीद भारत के मुरीद थे इस वजह से हमारे प्रधानमंत्री जी ने मालदीव को नकार दिया और वहाँ की यात्रा को निरस्त करके श्रीलंका में बौद्ध अनुयायियों को संबोधित करने के साथ श्रीलंका का दिल जीत लिया। 28 वर्ष पहले समाप्त की गई इस तरह की यात्राओं को दोबारा प्रारंभ करके हमारे प्रधानमंत्री जी ने श्रीलंका को अपने पक्ष में मिलाने की प्रस्तावना रख दी है। मालदीव को नकारना और श्रीलंका को अपने पक्ष में मिलाना कितना सार्थक होगा यह सोचने वाली बात है।
पिछले पाँच दशक का चिट्ठा उठाकर देखें तो श्रीलंका में चीन 70 करोड डालर से अधिक निवेश कोलंबो और अन्य क्षेत्रों में निवेश सिर्फ इसलिये किया ताकि वो सामुद्री मार्ग में श्रीलंका की जमीन से अपना मार्ग प्रशस्त कर सके जो पूर्व में यूरोप होता हुआ पोलैंड तक जाता था।इस मार्ग में यदि चीन का वर्चस्व काबिज हो जाता है। तो अन्य देशों को चीन की चाटुकारिता करने के लिये मजबूर होंगें। हमारे प्रधानमंत्री मारीशस और सेशल्स की सरकार को अपने साथ लेकर इस सामुद्री आधिपत्य की पहल कितनी सफल होगी यह तो आने वाला वक्त बतायेगा। परन्तु हमारे प्रधानमंत्री जी को यह बात का भान होना चाहिये कि क्या चीन के विरोध में जाकर श्रीलंका भारत का खुलकर समर्थन देगा। वो भी जानता है कि भाई बंधु राजनीति के लिये ज्यादा वफादार नहीं होते बल्कि अपने धर्म के लिये ज्यादा वफादार होते हैं। भारत और श्रीलंका राजनैतिक भाई बंधु ठहरे जबकि चीन और श्रीलंका धार्मिक भाई बंधु हैं। भारत के इन देशों के साथ पूर्व इतिहास में कैसे रिस्ते रहें हैं यह हम सबसे छिपी नहीं है। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने भले ही इस देशों को भारत की सागर माला कहा हो परन्तु आज के समय में यह सागर माला भारत के वर्चस्व से बाहर जाती नजर आ रही है। इस क्षेत्र  में गाहे बगाहे चीन काबिज है। भारत की यह स्वस्थ वैश्विक विदेश नीति भले ही हो। भारत भले ही उन्हें वीजा और व्यवसायिक निवेश की खुली छूट दे पर भारत इस यात्रा से क्या खोया क्या पाया,इसका आंकलन करने में हम घाटे में नजर आते हैं।
आने वाले समय में क्या हिंदमहासागर यात्रा भारत के पक्ष में निर्णय दे पायेगी। क्योंकि भारत की राजनीति की पृष्ठभूमि और इन देशों की राजनैतिक पृष्ठभूमि में धार्मिक समानता का मूल विभेद है।चीन को मिला कर ये देश बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। धार्मिक आस्था के मायनों में ये देश परम मित्रों मे है। अब देखना है कि धार्मिक आस्था के रिस्ते ज्यादा वफादार हैं या राजनैतिक पडोसियों के रिस्ते ज्यादा वफादार हैं। इस उपमहाद्वीप में भारत और चीन की तुलना की जाये तो भारत चीन से ज्यादा शक्तिशाली है। हमारी पहल वाकयै काबिले तारीफ है। परन्तु चीन भी सामुद्र के सरताज का ओहदा यूँ ही नहीं छोडेगा। उपमहाद्वीप में वर्चस्व की खोज करती यह यात्रा हिंदमहासागर में भारत के व्यावसायिक लाभ को कितना बढा पायेगी इस बात की निर्भरता चीन श्रीलंका के राजनैतिक और धार्मिक रिश्ते की डोर पर टिकी है।
अनिल अयान, सतना
9479411407/9479411408

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