शनिवार, 30 अप्रैल 2016

श्रमिक-श्रम संगढन बनाम स्वाबलंबन

श्रमिक-श्रम संगढन बनाम स्वाबलंबन
दिहाडी करके पेट पालने की व्यथा हो या फिर ठेकेदारी में दस से बारह घंटे काम करने दर्द भरी कथा हो, शारीरिक श्रम करने के बदले हो रहे शोषण की गाथा को अपने अंदर छिपाये हुये हैं. हर जगह, पुरुष महिला और यहां तक किशोर भी श्रमिक बनने की कगार में हर शहर,हर कस्बे,में मिल जाते है. हर शहर में एक ऐसा अड्डा होता है जहां दूर दूर से दिहाडी करने के लिये मजदूरों का बाजार लगता है. और कामगारी के लिये उनके मोलभाव के साथ उनसे जी तोड मेहनत करवाने की प्रथा का निर्वहन लगातार चला आरहा है.मई दिवस को मजदूर दिवस बनाकर मजबूर श्रमिक,श्रम के लिये श्रम संगढनों और सामाजिक संगढनों की कवादय दिखती है. एक दो दिन बाद फिर से मजदूर मजदूरी करने में व्यस्त हो जाता है. यह हमारी विडंबना है कि हमारे देश में सिर्फ शारीरिक श्रम करने वाले कामगार ही श्रमिक की श्रेणी में आते हैं मानसिक श्रम की श्रेणी श्रमिक से काफी दूर है.आज के समय में जितने मजदूर दिहाडी करने के लिये रोज मसक्कत करते हैं उससे कहीं ज्यादा ठेकेदारों के यहां कोल्हू के बैल की तरह श्रम करते हैं. उनकी मजदूरी का भुगतान कितना रोज होता है. और कितना ठेकेदार के दवारा मार लिया जाता है इसका कोई भी हिसाब नहीं लगा पाता. मजबूर मजदूर इतना जागरुक नहीं होता कि वो अपने श्रम की सही कीमत ठेकेदार से मांग सके और ऐसे मे ठेकेदार उनका भगवान बना रहता है.अधिकांशतः मजदूरों की यहीं व्यथा कथा देखने को मिलती है.
इंटरनेशनल लेवर आर्गनाइजेशन ने श्रमिको के सम्मान के लिये न्यूनतम दैनिक मजदूरी तय की हुई है. श्रमिकों के लिये बहुत से नियम कानून बनाये गये हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस बनाया गया, साथ ही साथ सरकार के द्वारा नरेगा और मनरेगा जैसी बहुत सी योजनायें चलाई जा रही है. परन्तु वह सब अपने मुख्यालयों से तो लाभकारी होने का चोला ओढकर निकलती है.परन्तु मजदूरॊ तक पहुंचते पहुंचते उससे स्वरूप में इतना ज्यादा मूल चूल परिवर्तन हो जाता है या यह कहू कि दलालों के द्वारा कर दिया जाता है कि मजदूरों को इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिये अपनी गाढी कमाई को घूस के लिये खर्च करना पडता है. हर कालखंड की यही कहानी रही है. कि मजदूरॊ को श्रम साध्य बनाने के लिये, उन्हें आत्म निर्भर बनाने के लिये,और स्वाबलंबन का रास्ता दिखाने के लिये कोई सरोकार यहां मौजूद नहीं है. ये योजनायें मजदूरों को सरकारी मजदूरी तो उपलब्ध कराने में सफल होती हैं परन्तु उन्हें स्वयं से जीवकोपार्जन करने का रास्ता मुहैया नहीं कराती है. अधिक्तर यह देखा गया कि नरेगा और मनरेगा जैसी योजनाओं के अंदर कराये जाने वाले काम में अधिक्तर काम मशीनों से करवाकर मजदूरो के नाम के सामने उनके अंगूठे के निशान लगवाकर,मजदूरी का कुछ भाग देकर सारा पैसा हजम कर लिया जाता है. मजदूर उसी समय में दूसरी जगह काम करके अलग से भी कुछ ज्यादा कमा लेता है. इस प्रकार की घटनायें यह सिद्ध करती हैं कि श्रमिक योजनायें और योजनाओं के माईबाप कितने ज्यादा दोगले हो चुके हैं. रही बात मजदूरों के संगढनों की करें तो ये सारे संगढन चाहे वो एटक यो या इंटक, या फिर अमुक या तमुक,सभी मौका परस्त होते हैं. उद्योगों और फैक्ट्रियों के मजदूरों को एकत्र करके उनके रोजगार से खिलवाड करने की कवायद इनमें अधिक पाई जाती है. मैनेजमेंट से हांथ मिला कर मांगों को भूलने वाली हडतालें करना इनका मूल कर्तव्य होता है. इनके पास दिहाडी या कामगारी करने वाले मजदूरों का भला करने का कोई रास्ता नहीं होता है.औद्योगिक क्रांति करने से ले कर भारत में औद्योगिक क्रांति का स्वप्न देखने वाले वामपंथी,मार्क्स और लेनिन की आयतों में काम करने का दावा करने वाले राज नेता तो आज के समय में सत्ता के गलियारे में पलने वाले मोहपाश में कैद हो चुके हैं. वो मजदूर नेता कम और राजनेता अधिक हैं. उन्हें श्रमिकों के कल्याण से कोई वास्ता या सरोकार नहीं हैं. वो सिर्फ मिथ्या क्रांति का राग अलापने के लिये राजनीति में शामिल हो चुके हैं. सबसे ज्यादा मरन असंगठित मजदूरों की है जिनका कोई माई बाप नहीं है. इस लिये उन्हें जो सहारा मिल रहा है वो उन सहारों को ठुकराना नहीं चाहते हैं,
आज के आंकडॊ में यह तय हो चुका है कि श्रम मंत्रालय और श्रम न्यायालय तक हमारे देस में मौजूद हैं परन्तु व्यवस्थाओं में नजीर का इतना ज्यादा दखल है कि इन न्यायालयों से अधिक्तर फैसले मजदूर के विपक्ष में ही गए हैं. क्योंकि न्यायालय न्यायाधीश और अधिवक्ता मजदूर की पहुंच से बाहर हैं.मजदूरों की व्यथा को दूर करने के लिये यह आवश्यक है कि उन्हें अपने पैरों में खडे होने के लिये प्रशिक्षित करना ही होगा. उन्हें संगठित होना ही पडेगा,मंत्रालय से लेकर संगठनों को ईमानदारी से श्रमिकों के पक्ष और लाभ के लिये सोचना ही पडेगा. श्रमिकों को यह सोच छोडना ही पडेगा कि हम साल में १०० दिन काम कर लिये हैं तो अगले २६५ दिन घर में बैठ कर गुजारेंगें.तभी उनके श्रम को सही मजदूरी मिल पायेगी और श्रमिकों को सम्मान मिल सकेगा.वरना उनकी किस्मत में सिर्फ ठेकेदारों की गालियां और लातमार ही लिखा रहेगा. मजदूरों को अपने जीवन संघर्ष से इतना तो जागरुक होना पडेगा कि वो अपनी लडाई खुद लडने के काबिल बन सके. वरना व्यवस्थायें ऐसी हैं कि जेबें भरने के लिये ही योजनायें सक्रिय होती हैं. और कागजों में फाइलों के अंदर इनकी इतिश्री हो जाती है.बदले में श्रमिक सिर्फ उम्मीद से मुंह ही ताकता रहता है.
अनिल अयान सतना
९४७९४११४०७

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

पानी बिन सब सून

पानी बिन सब सून
जल स्रोत सूख चुके हैं. प्यास बढती जा रही है. प्यास बुझाने वालों का पानी खत्म हो चुका है. जिनको जल आपूर्ति की व्यवस्था सौंपी गई थी वो आज कर अपनी व्यवस्थाओं में मग्न हो चुके हैं. त्राहि त्राहि चारो ओर मची हुई है.ऐसा लग रहा है कि गर्मी का विकराल रूप सभी के अंदर का पानी खतम करके ही चैन लेगा. देश के ३५ फीसदी क्षेत्र ऐसे हैं जहां वर्ष भर पानी की त्राहि त्राहि बनी रहती है.बारिस ने हर मौसम की तरह खुद को बदल लिया है. जल संकट किसी आपातकालीन संकट से कम नहीं है.इस समय की स्थिति को देखकर ऐसा लग रहा है कि जल जंगल जमीन खतरे में होते हुये भी सरकार की पानीदारी विलुप्त हो चुकी है. एक जगह पर रेलगाडी से पानी की जल ट्रेन भेजने से बस जिम्मेवारी से उऋण होने का भ्रम सरकार ने पाल रखा है. मुझे एक लतीफा इस समय पर बहुत ही मौजूं है " एक नाती अपने बाबा से पूंछता है कि बाबा हमारा देश कितना विकास किया है? बाबा हंसते हुये जवाब देता है छोरे हमारे देश ने विकास ही तो किया है पहले हम पानी एक कोस से कम दूरी पर पैदल लाते थे. कुछ समय के बाद हमारे छोरों ने पानी बैलगाडी से लाना शुरू कर दिया. उसके बाद साईकिल और मोटर साइकिल से पानी लाया गया. अब टैंकर से पानी की सप्लाई की जा रही है. सरकार ने इस बार तो पानी के लिये ट्रेन चलवा दी. आने वाले समय में हवाई जहाज में हमारे यहां पानी आया करेगा. यह हमारे देश का विकास ही तो है." सच है,हमारा देश कितना विकास कर लिया है. पानी का स्टैंडर्ड भी कितना जल्दी आम से खास और अब तो वीवीआईपी के जैसे हो गया है. पानी के लिये तो हाई टेक पुलिस भी लगा दी जाती है.ऐसा लगता है ऐसा लगता है कि आपात काल की तरह एक दिन  सेना भी ना कहीं बुलवा ली जाये. पानी के लिये लिखे गये सभी उक्तियां और मुहावरे हमें चिढा रहे हैं. लोककथाये हमें सचेत करती रह गई हैं परन्तु हम सुधर नहीं सके. हम अपनी आदतों से मजबूर हो चुके हैं. हमारी आलीशान और सुविधायुक्त जीवनशैली ही हमारे लिये घातक सिद्ध हो रही है. यही वजह है कि प्रकृति का संतुलन पूरी तरह से बिखर चुका है. जब गर्मी होनी चाहिये तब गर्मी नहीं पडती या बहुत ही ज्यादा पडती है. बरसात में बारिस नहीं होती या फिर बाढ की स्थिति बन जाती है. पेड पौधों से हमारा जुडाव पूरी तरह से खत्म हो चुका है. हम आजके समय में मानव निर्मित आर्टीफिशियल पेड पौधों और सजावटी फूलों से अपने दिल को बहलाने के आदी हो चुके हैं.
यह तो सच है कि सरकार के मत्थे कुछ भी नही होने वाला जल को बचाने के लिये हमारे अंदर पानीदारी की आवश्यकता है.हम भी पानी के होने पर अलाल हो जाते हैं जल संकट भुला कर खूब मजे करते हैं. पहले कहा जाता था कि पानी पर लकीरें खींचना नामुमकिन हैपरन्तु आजकल तो राज्यों ने जल स्रोतों पर भी सीमा रेखायें खींच ली हैं.कुछ दिनों पूर्व दिल्ली के जल संकट और उस पर अन्य राज्यों की प्रतिक्रिया को हम नहीं भुला सकते हैं.परन्तु कभी कभी मेरे जेहन में ख्याल आता है, कि मै कैसे स्वीकार करूं कि पानी का अकाल उत्सव मनाया जा रहा है. एक तरफ पानी की त्राहि त्राहि का हो हल्ला है. दूसरी तरफ पैकेज्ड पानी धडल्ले से बाजार में बंट रहा है. मम के पाउच और रेल नीर,बिसलरी, जैसे उत्पाद क्या इसके परे की दुनिया से आते हैं. बडे बडे उद्योगों के लिये क्या जल संकट नहीं है? क्या उनके लिये विशेष जल श्रोतों का इंतजाम सरकार के द्वारा किया गया है. क्या ये सब सरकारी दामाद हैं जो आम जनता से ज्यादा भारत की सुविधाओं के हकदार हैं? आज के समय में पुरातन जल स्रोत मर चुके हैं.बावलियां,गहरे कुएं,प्राकृतिक जल स्रोत आत्म हत्या कर चुके हैं. एक समय हुआ करता था कि इस तरह के विरासती स्रोत एक गांव नहीं बल्कि कई गावों की प्यास बुझाने के लिये काफी हुआ करते थे. इनकी पूजा होती थी. ताकि इनके जल स्तर पर देवी देवताओं की कृपा दृष्टि बनी रहे. परन्तु आज ये सब विलुप्त प्राय हो चुके है. हमारे बाजारवाद ने इन्हें दफन कर दिया है. रही बात ट्यूब वेल जैसे आधुनिक स्रोतों का तो  ट्यूब वेल के पाइपों से प्राकृतिक जल स्रोतों का मिलाप संभव नहीं हो पाता है. वारिस तो ईद का चांद हो चुकी है.ऐसे में जल संकट तो पैदा ही होगा. मै यह सोचता हूं की खाये अघाये लोगों के लिये पानी क्या हूर की परी इस गर्मी में आपूर्ति करती हैं. या फिर पानी के उद्योग इन्ही के यहां की बपौती है. हमारे देश में आम जन के लिये जल संकट मुख्य मुद्दा है. खास और खास म खास लोगों के लिये यह तो बहुत लाजमी समस्या है. यह अंतर खत्म होना चाहिये. तभी सभी को रोटी कपडा मकान और पानी बराबरी से मिलेगा. यह अमीरी गरीबी का अंतर पानीदारी को खत्म करने के लिये काफी है. रहीम दास जी ने सही लिखा है." रहिमन पानी राखिये, पानी बिन सब सून।पानी गये ना ऊबरे, मोती मानुष चून।" इसमें तो कोई दो राय नहीं है पानी को बचाने के हमें अगर दस कदम चलना है तो सरकार को हमारे साथ नब्बे कदम चलना ही पडेगा. अन्यथा हमारी स्थिति उस चकवे की तरह हो जायेगी जिसके आस पास पानी तो होता है परन्तु वो स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले पानी  की एक बूंद के लिये प्यासा अपनी उम्र गुजारता है.
पानी को बचाने के लिये हमारी इच्छा शक्ति की आवश्यकता बहुत जरूरी है. कुछ दिन पूर्व ही विश्व धरा दिवस हम मना चुके हैं. पूरा देश इस चिंतन में व्यस्त है कि धरती का तापमान बढने से कैसे रोका जाये. पानी की आवश्यकता लगातार बढ रही है. पूरे विश्व में जिस पानी की आवश्यकता है वह पीने लायक नहीं है. मृत सागर इसी का प्रसिद्ध उदाहरण है. पानी के संग्रहण के बारे में हमें खुद ही आगें आना होगा. पहले के समय में सोख्ता पिट बनाते थे. इन्हें दोबारा शुरू करने की आवश्यकता है.बावलियां.राजों रजवाडों के समय के कुएं, और अन्य जल श्रोतो के और ज्यादा गहरीकरण की आवश्यकता है. नदियां, और अन्य बडे तालाबों के रखरखाव को ज्यादा वरीयता से देखने की आवश्यकता है. दूसरी तरफ जल आपूर्ति परियोजनाओं को सरकार के द्वारा कम से कम समय में जनता के लिये उपलब्ध कराना चाहिये.जलावर्धन योजनाओं,,बाणसागर परियोजनाओं जैसे अनेकों योजनाये हैं जिसके पूर्ण होने पर प्यास बुझाई जा सकती है. परन्तु इनके अधूरे होने पर कहीं ना कहीं सरकार ही दोषी है. पानी के लिये अलग से विभाग और मंत्रालय है परन्तु उसमें आने वाले फंड की उपयोगिता सिर्फ धरती को छलनी करने तक ही सीमित है. जिन नदियों के दम से शहरों को जल आपूर्ति की दावेदारी विभाग द्वारा की जाती है वो उन्ही नदियों को पोषण नहीं दे पा रहे हैं. सफाई से लेकर इंबैंकमेंट तक की कोई व्यवस्था नहीं हैं नदियों के गहरीकरण तो होता नहीं परन्तु नदियों के आसपास की बालू को बेंच करके उथला बनाने षडयंत्र तेजी से जरूर चल रहा है. हमारी सरकार के दावे सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं परन्तु गहराई से देखने से समझ में आता है कि पूरी की पूरी व्यवस्थायें ही चरमराई हुई है..जिस नांव में बैठकर दावे किये जाते हैं उसी नाव में रोज छेद किये जाते हैं ताकि लीक प्रूफ की खरीद फरोक्त करके सबको बेवकूब बनाया जा सके .. इस तरह की आदतों से आला अफसरों को बाज आना चाहिये. संयुक्त संरक्षण और जल श्रोतों के उन्नयन से ही हम पानी को भविष्य के बचा सकते हैं. अस्थिर पर्यावरण के दंश से बचने के लिये हम सबको एक साथ कदम बढाना ही होगा. हमें यह स्वीकार करना होगा कि यदि हम चाहते हैं कि गर्मी सर्दी को अपने स्तर तक सीमित किया जाये तो हमें अपने पर्यावरण को स्थानीय स्तर से सुधार करना होगा. जल स्तर बनाने के लिये हमारे पूर्वजों के द्वारा प्रदान किये गये जल स्रोतों को नवीनीकृत करने के साथ साथ खुद भी नए स्रोतों को निर्मित करके आगामी पीढी के लिये सुरक्षित रखना होगा तभी पानी के साथ यह जग भविष्य में सुरक्षित रह पायेगा.
अनिल अयान.सतना
९४७९४११४०७

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

जल रही हैं जंगलों की चिता

जल रही हैं जंगलों की चिता
जैसे जैसे तापमान अपनी चरम सीमा में पहुंच रहा है.वैसे वैसे हमारे आस पास के जंगल और तराई के इलाके भी इसके प्रभाव से खुद को नहीं बचा पा रहे हैं.बढता तापमान हवाओं का पारा भी सातवें आसमान में पहुंचा चुका है.परिणाम हमारे सामने नजर आने लगा है. सतना,रीवा,पन्ना के तराई के इलाओं में फल फूल रहे जंगल अपनी उमस को जाने अनजाने आग की चपेट में ले आ रहे हैं.जंगलों से मनुष्य का सह अस्तित्व बहुत पुराना रहा है.इसी के चलते जंगलों की दशा और दिशा को निर्धारित करने की पहल पहले मनुष्य ने किया. तराई अंचलों में अभी से आग भडक रही है. जंगलों में विकसित होने वाले पेड पौधे जल रहे हैं.उनकी दशा और जलती चिता में रोने वाले उनके अपने कोई नहीं बचे. जिनको जिम्मेवारी सौंपी गई है वो नितांत ही निरीह शाबित हो रहे हैं. वन संपदा और वन्य जीव साथ ही उनका जीवन भी अस्तव्यस्त हो रहा है. इसके लिये क्या जंगल स्वयमेव दोशी हैं,कौन है जो जंगलों की चिता सजाने का काम कर रहा है.इसके स्वार्थ की भट्टी की लौ और तिनगी जंगल में पहुंच चुकी है और मूल्यवान पेडॊं को राख के ढेर में तब्दील कर रहे हैं. यह जितना चिंता का विषय है उतना ज्यादा चिंतन का विंदु भी है.सतना ही नहीं वरन पूरा विंध्य में भारी तादाद में वन संपदा अपार रूप से जिस तरह फैली है उस तरीके से उनकी सुरक्षा नहीं की जा रही है. उन्हें अनाथ और लावारिस की भांति मौंत के इंतजार में छोड दिया गया है. इस बार यह कोई पहला मौका नहीं है बल्कि हर साल यह संपदा आग के प्रभाव में राख में तब्दील हो जाती है.
सतना रीवा और पन्ना की तराई में फैले जंगल जितने संसाधित हैं उतने ही रिस्की भी बन चुके हैं. अप्रैल में जिस तरह तापमान पैतालिस डिग्री सेल्सियस के ऊपर पहुंच चुका है उस बीच, तेज गर्म हवाओं,आंधी और अंधड के कारण बांस और भी अन्य इमारती पेड खुद बखुद आग की चपेट में लगातार आ रहे हैं. विंध्य के लगभग ७० प्रतिशत गांव इन्ही वनपरिक्षेत्र में आते हैं.इन्हीं से उन गावों की जीवन शैली भी जुडी हुई हैं. सतना में खुद नरो,परसमनिया, बरौंधा,मझगवां और उत्तर प्रदेश के सरहदी इलाके ,आदि वन क्षेत्रों में इसी तरह की चितायें जल रही हैं. अधिक्तर वनों के आसपास बनने वाले भट्टे जो ईट के बडी संख्या में उत्पादक बने हुये हैं वो भी इस काम में अपनी महती भूमिका निर्वहन करते हैं साथ ही सरकारी अमलों के लिये उतनी बडी चुनौती बने हुये हैं. उत्पाद के नाम पर तेदूं पत्ता और महुआ बिननेवालो की स्थिति भी इस मौसम में संदिग्ध हो ही जाती है. ज्यादा साफ सफाई के चलते जंगलों के बीच मैदानी भागों की तलाश के चलते लगाई जाने वाली आग से भी इस प्रकार की चितायें खुद ब खुद सज जाती हैं. हम सब भूल जाते हैं कि जंगल से ही हमारी हरियाली के साथ साथ मूल भूत आवश्यकतायें जुडी हुई हैं. जंगल के नाम पर पूरा वन विभाग और मंत्रालय अच्छा खासा फंड ले रहा है. कितने लोग रोजगार से जुडे हुये हैं. परन्तु अपनी जरूरतों के चलते वो अपने कर्तव्य को भूल चुके हैं. इस प्रकार की आग से बचने के लिये सिर्फ कागजी फायर एक्स्टिंग्यूसर इस्तेमाल हो रहे हैं. रेंजर और डिप्टी रेंजर जैसे जिम्मेवार अधिकारियों के पास सिर्फ मौखिक सफाई ही शेष बची है. धू धू करके जल रही इन चिताओं के लिये कौन जिम्मेवारी उठायेगा. किसके ये जंगल और वन परिक्षेत्र में आने वाले पेड पौधे गोहार लगायें यह समझ के परे है.
हम सबको यह नहीं भूलना चाहिये कि यदि आज जंगलों को नहीं बचाया गया तो आने वाले मौसम में ना बारिस मिलेगी, ना पानी मिलेगा,और तो और सिर्फ धुंआ ही धुंआ ही पहाडों से उठता दिखाई देगा,तराई से लगे गांववासियों को भी चाहिये कि आगजनी से खुद और जंगलों की रक्षा करें,हमारी ग्लोबल सोच और घर से होने वाली पहल ही इससे बचने का रास्ता अख्तियार करती है. पेड पौधे तो विभाग में कागजों में लगाये जा रहे हैं. परन्तु जो पेड पौधे हमारे पूर्वज लगा गये हैं. इतना बडा विंध्य में ग्रीन बेल्ट बना कर गये हैं. उसकी चिता सजाने की गल्ती नहीं होनी चाहिये. इस प्रकार के संसाधन विंध्य की शान हैं. उसके बिना विंध्य अधूरा है.वन विभाग की भी जिम्मेवारी है कि जिसकी खाते हैं उसकी सुरक्षा के लिये बारिस के बाद,लाइन कटाई,काउंटर फायर की व्यवस्था और अव्यवस्थित झाडियों की साफ सफाई दुरुस्त करें ताकी आगजनी को रोका जा सके.. आज भी सुंदर लाल बहुगुणा जैसे वन प्रेमियों की आवश्यकता है.आज भी चिपको आंदोलनों की आवश्यकता उसी तरह बनी हुई है.शासन भले ही बहाने बाजियों से बाज ना आ रहा हो. परन्तु हम सब मिलकर संगढनों को जागृत करके इस प्रकार के अंतिम संस्कार से निजात पा सकते हैं.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

धार्मिक समीकरणों का राजनैतिक सफर

धार्मिक समीकरणों का राजनैतिक सफर
दिसम्बर दो हजार पंद्रह से ही राम नाम का सफर धार्मिक समीकरणों की गाडी को राजनैतिक राह पर राजधानी एक्सप्रेस की तरह दौडाने की कवायद शुरू हो गई है। केंद्रीय मंद्री श्री स्वामी जी ने इस गाडी की कंडेक्ट्ररी का दायित्व बखूबी निभाया है। राम नाम मणि दीप धरे का अर्थ इस समय चरितार्थ करते इस मुद्दे से जुडे नुमाइंदे राम मंदिर निर्माण की तथाकथित दिनांक तक घोषित कर चुके हैं।आस्था के पर्याय भगवान श्री राम अब इंशान से ऊंचे घरौंदे में रहने की आस लिये इन संगढनों से उम्मीद लगाये बैठे हैं। मैने सुना था कि भगवान हमारे हृदय में निवास करते हैं। मूर्तिपूजा का प्रतिनिधित्व करते मंदिर इसके आधुनिक पर्याय बन चुके हैं। पांच वर्ष पूर्व इस विषय पर अदालत में मामले का निर्णय चुका था,जो अनियतकालिक रवैये की तरह ठंडे बस्ते में डाला जा चुका था। इस निर्णय में दोनो धार्मिक संप्रदाय कुछ वर्षों के लिये मौन धारण कर लिये थे। परन्तु केंद्र सरकार को उत्तर प्रदेश में सत्ता सुख ना प्राप्त होने का वनवास हमेशा की तरह इस बार भी खलने लगा है। केंद्र के चुनावों के समय पर वाराणसी को चुनावी बिगुल की प्रस्तावना के रूप में चुनना इस वनवास को खत्म करने के लिये समसामायिक निर्णय का प्रथम आहट थी,और अगला पडाव इसी दिसम्बर में संघ शक्ति महाशक्ति द्वारा प्रारंभ किया जा चुका है।
     यह बात छिपी नहीं है कि इस मुद्दे में केंद्रीय मंत्री श्री स्वामी जी द्वारा दिल्ली में किये जा रहे सेमीनार में काग्रेस के स्व.राजीव गांधी का जिक्र करना  कहीं ना कहीं राम मुद्दे में कांग्रेस का समर्थन प्राप्त करने के इरादे को स्पष्ट करता है। संघ शक्ति ने इस २०१६ सन को केंद्र सरकार के रथ में सवारी कर राम मंदिर निर्माण वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय ले चुकी है। ताकि २०१७ के चुनाव में राम के वनवास की तरह भाजपा भी उत्तर प्रदेश की सत्ता का वनवास खत्म करने के लिये चुनावी सुनामी को अपने पक्ष में काबू रख सके।स्व.राजीव गांधी का जिक्र भाजपा के द्वारा किया जाना इस आग में घी की भूमिका से कम नही हैं। जैसा कि हम जानते हैं अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी की मृत्यु की संवेदना का सीधा लाभ उनके बेटे राजीव गांधी को उसदौर के लोक सभा चुनावों में मिला था। जब उन्होने किसी महिला के न्यायालयीन केस के चलते मुस्लिम महिला एक्ट में बदलाव करवाया तब भी हिंदूवादी शक्तियां उग्र हुई थी। इस आंधी को दिशा परिवर्तन के लिये उन्होने उस समय राम मंदिर का भूमि पूजन करके सबके चहेते बन गये।इसी तथ्य का लाभ आज भाजपा उठाना चाहती है,यह राजनीति के नजरिये से गलत नहीं है यदि कांग्रेस इसमें हाथ मिला लेती है। दिल्ली में इसतरह का आयोजन दोबारा केंद्र में धार्मिक विद्वेष को बढाने का काम करेगा। यह आग अयोध्या से लेकर दिल्ली की धरती में उत्तर प्रदेश चुनावों तक धधकती रहेगी।
     राम मंदिर की मंशा जितनी तीव्र हो गई है। वह समाज को यही संदेश देती है कि सारे हिंदू एक होकर इस वर्ष में राम मंदिर बनाने के लिये एडी चोटी का जोर अपने स्तर पर लगायें ताकि हमे सफलता हासिल हो। उधर बाबरी मस्जिद के आवेदकों का मानना है कि मोदी सरकार उनके साथ गलत नहीं करेगी। क्योंकि भले ही नरेंद्र मोदी इस विषय की धुरी हों परन्तु वो आज भी पाकिस्तान के साथ सहयोग की आशा रखते हैं और अपने देश में रह रहे मुसलिम समुदाय को हानि कदापि नहीं पहुंचायेंगें। बाबरी मस्जिद और राम मंदिर मुद्दे से कहीं ना कहीं जो आंच दोबारा उठ रही है वह सामाजिक समरसता के लिये हानिकारक है ।यदि हम न्यायिक परिदृश्य की बात करें तो क्या न्यायालय के विरोध में जाकर इस मुद्दे को संवैधानिक मोहर लगेगी। या सरकार का दबाव इस मुद्दे को दोबारा न्यायालय की बेंच में खोलने और चर्चा के लिये विवश करेगा। क्योंकि न्यायपालिका के विरुद्ध विधायिका के जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।राम मंदिर के लिये दिल्ली में सेमीनार का होना और अयोध्या में राम मंदिर के लिये मुहिम तेज करना एक बडे टकराव को जन्म दे रहा है अब देखना यह है कि इससे निकलने वाली आंच से संबंधित संगढन को उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में अनुमानित लाभ मिलता है  या फिर पूर्ववत स्व. राजीव गांधी की पहली पंच वर्षीय में चार सौ से ऊपर सीट प्राप्त करने वाली कांग्रेस सरकार की तरह नब्बे के दशक वाली हार का सामना करना पडता है।  हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि बिहार में भी इसी तरह के कुछ धार्मिक मुद्दों को आंच दी गई थी परन्तु हाल हम सबके सामने उपस्थित हो चुका है।
अनिल अयान
सतना
९४७९४११४०७