बुधवार, 6 अप्रैल 2016

धर्म-आस्था बनाम सामाजिक सशक्तीकरण

धर्म-आस्था बनाम सामाजिक सशक्तीकरण
पिछले कुछ समय से महिलाओं की धार्मिक आस्था में प्रहार करने की कोशिश की जा रही है। पूरे देश में अलग अलग धर्म और संप्रदाय के आला कमानों ने अपने अपने फतवे जारी कर दिये हैं कि महिलाओं का कुछ पूजा घरों में जाना वर्जित है। इसकी शुरुआत शनि देव मंदिर से प्रारंभ होकर दरगाह तक पहुंच गई है। धर्म की पाबंदियां आस्थाओं पर बेडियों का काम कर रही है। हमारा समाज महिलाओं को अशक्त बनाने की कोशिश कर रहा है।जहां पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व देश की रक्षा,सेवा,और विकास के हर क्षेत्र में फैल चुका है उस बीच इस तरह की पाबंदियों और आस्थाओं के पंखों को कतरने की धार्मिक शाजिस महिला सशक्तीकरण में बडी दीवार खडी करती है। यह पहला मौका नहीं है जब महिलाओं पर फब्तियां ना कसी गई हों। इसके पूर्व भी महिला जन प्रतिनिधियों पर देश के बडे राजनेताओं द्वारा सरे बाजार अश्लील और अशक्तीकरण को प्रस्तुत करने वाली फब्तियां और कमेंट कसे गये और जनता के द्वारा मजाक उडाया गया। इसमें सबसे आगें सरकार के नुमाइंदे ही हैं। निचले दर्जे की राजनीति से प्रभावित होकर अपने वाक्पटुता का इस्तेमाल बडे ही शातिर ढंग से किया जाता है।यह राजनीति ही है जिसके चलते महिलाओं को मुखिया भी बना कर यह शाबित किया जाता है कि वो देश में सर्वोपरि प्राप्त करने वाली नागरिक हैं और दूसरी ओर उनकी धार्मिक आस्थाओं में प्रश्न चिन्ह लगा कर यह अहसास भी कराया जाता है कि धार्मिक मसलों में महिलायें आज भी छुआछूत की पात्र हैं यदि महिलाओं के साथ न्याय करना है तो यह समझना जरूरी है कि सामाजिक और राजनैतिक मसले धार्मिक मसलों से भिन्न कैसे हैं। धर्म वह आदत है जिसे हम पुरातन काल से धारण करते चले आये है। आस्था की पूर्ति इसी के चलते होती है। हमने अपने स्वार्थों के चलते पिंजडे में कैद सोन चिरैया के रूप में महिलाओं को बनाना चाहते हैं।
      धार्मिक पाबंदियां धर्म की सजिल्द पुस्तकों में उद्धत है। इसको विस्तार से बताने की जिम्मेवारी धर्म गुरुओं की है।पर धर्म गुरुओं के साथ जब गुरुवाइनों का रहन सहन दिखने लगा तब इन तथ्यों का धार्मिकीकरण होता चला गया।महिलाओं का गुणसूत्र तो इन गुरुवाइनों के अंदर भी है। तो फिर इन्हे धर्म स्थलों में पूजा करने और आस्था के तवे में अपने निहितार्थ स्वार्थो को बल देने का अवसर भी यही धर्म प्रदान करता है।उन्हे धार्मिक क्रिया कर्म करने की छूट इस तथ्य से मिलती है जिसकी वजह से वो परिवार छॊड कर तथाकथित ब्रम्हचर्य का पालन करने का प्रण ले चुकी होती है। परन्तु मठों से गुरुडमों के अंदर निवास करने वाली माताओं और दीदियों का ब्रम्हचर्य कहां तक सुरक्षित है यह सभी के समझ की सीमा के अंतर्गत आता है। यदि महिलाओं का पूजा स्थलों में प्रतिबंध है तो इन पर प्रतिबंध क्यों नहीं महामंडलेश्वरो और आकाओं की सेविकाओं का मंदिरों के भूमिगत तलों में निवास होता तब धर्म के ठेकेदारों को कोई आपत्ति नहीं होती है।बडे बडे धार्मिक पूजा स्थलों में जो ट्रस्ट बनते हैं उनकी कमेटी में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिया जाता है तब किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है।अनेक राज्यों में महिलाओं का आरक्षण बढा दिया जाता है। सरकार में महिलाओं को पूरा का पूरा मंत्रालय दे दिया जाता है। तब इन राजनैतिक लोगों  के प्रतिबंध क्या कुंभकर्णी नींद ले रहे होते हैं। जब हम महिला सशक्तीकरण के संकल्प के साथ आगे बढते है। तो इस तरह के विचार हमारी मानसिक दरिद्रता का बुद्धू बक्सा बन कर जनता के सामने आता है।
      महिला और पुरुष के बीच के अंतर्गत संबंधों के चलते कई लेखकों ने आदिकाल से वर्तमान तक महिलाओं को देवियों के रूप में देवताओं से पहले स्थान दिया है। यत्र नार्यंतु पूज्यंतो रमन्ते तत्र देवता जैसे शुभाषित उक्तियों से जब स्त्रियों को देव तुल्य इन्ही धर्म ग्रंथों ने बना दिया तो पूजा स्थलों में इन्ही देवियों को देवताओं के आस्थायुक्त संगम से धर्म के ठेकेदारों का परहेज सोची समझी शाजिस के अलावा कुछ भी नहीं है। स्त्री ही पुरुष के साथ हर संबंधों में बराबरी का दर्जा प्राप्त कर धर्म से लेकर समाज में अपना स्थान सुनिश्चित करती है। तो फिर इस तरह के दोमुहे तर्कों से महिलाओं का पूजा स्थलों में शामिल होकर अपनी आस्थाओं को पूर्ण करने में प्रतिबंध लगाने का राग वैचारिक दाग के रूप में देखा जा सकता है। यदि हम समाज में बराबरी का उद्घोष करते हैं तो फिर समय समय पर धर्म ग्रंथों की इबारतों को दोबारा विमर्श के कटघरे में लाकर एक समसामायिक निर्णय लेने की आवश्यकता है जिससे इस तरह के प्रतिबंधों की बोलती बंद की जा सके।और यह कार्य धर्म गुरुओं के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता है। क्योंकि आज भी सरकार चाहे किसी की भी हो परन्तु आस्था और धर्म पर धर्म गुरुओं की वाणी ही सर्वोपरि होती है।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७


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