शनिवार, 16 अप्रैल 2016

जल रही हैं जंगलों की चिता

जल रही हैं जंगलों की चिता
जैसे जैसे तापमान अपनी चरम सीमा में पहुंच रहा है.वैसे वैसे हमारे आस पास के जंगल और तराई के इलाके भी इसके प्रभाव से खुद को नहीं बचा पा रहे हैं.बढता तापमान हवाओं का पारा भी सातवें आसमान में पहुंचा चुका है.परिणाम हमारे सामने नजर आने लगा है. सतना,रीवा,पन्ना के तराई के इलाओं में फल फूल रहे जंगल अपनी उमस को जाने अनजाने आग की चपेट में ले आ रहे हैं.जंगलों से मनुष्य का सह अस्तित्व बहुत पुराना रहा है.इसी के चलते जंगलों की दशा और दिशा को निर्धारित करने की पहल पहले मनुष्य ने किया. तराई अंचलों में अभी से आग भडक रही है. जंगलों में विकसित होने वाले पेड पौधे जल रहे हैं.उनकी दशा और जलती चिता में रोने वाले उनके अपने कोई नहीं बचे. जिनको जिम्मेवारी सौंपी गई है वो नितांत ही निरीह शाबित हो रहे हैं. वन संपदा और वन्य जीव साथ ही उनका जीवन भी अस्तव्यस्त हो रहा है. इसके लिये क्या जंगल स्वयमेव दोशी हैं,कौन है जो जंगलों की चिता सजाने का काम कर रहा है.इसके स्वार्थ की भट्टी की लौ और तिनगी जंगल में पहुंच चुकी है और मूल्यवान पेडॊं को राख के ढेर में तब्दील कर रहे हैं. यह जितना चिंता का विषय है उतना ज्यादा चिंतन का विंदु भी है.सतना ही नहीं वरन पूरा विंध्य में भारी तादाद में वन संपदा अपार रूप से जिस तरह फैली है उस तरीके से उनकी सुरक्षा नहीं की जा रही है. उन्हें अनाथ और लावारिस की भांति मौंत के इंतजार में छोड दिया गया है. इस बार यह कोई पहला मौका नहीं है बल्कि हर साल यह संपदा आग के प्रभाव में राख में तब्दील हो जाती है.
सतना रीवा और पन्ना की तराई में फैले जंगल जितने संसाधित हैं उतने ही रिस्की भी बन चुके हैं. अप्रैल में जिस तरह तापमान पैतालिस डिग्री सेल्सियस के ऊपर पहुंच चुका है उस बीच, तेज गर्म हवाओं,आंधी और अंधड के कारण बांस और भी अन्य इमारती पेड खुद बखुद आग की चपेट में लगातार आ रहे हैं. विंध्य के लगभग ७० प्रतिशत गांव इन्ही वनपरिक्षेत्र में आते हैं.इन्हीं से उन गावों की जीवन शैली भी जुडी हुई हैं. सतना में खुद नरो,परसमनिया, बरौंधा,मझगवां और उत्तर प्रदेश के सरहदी इलाके ,आदि वन क्षेत्रों में इसी तरह की चितायें जल रही हैं. अधिक्तर वनों के आसपास बनने वाले भट्टे जो ईट के बडी संख्या में उत्पादक बने हुये हैं वो भी इस काम में अपनी महती भूमिका निर्वहन करते हैं साथ ही सरकारी अमलों के लिये उतनी बडी चुनौती बने हुये हैं. उत्पाद के नाम पर तेदूं पत्ता और महुआ बिननेवालो की स्थिति भी इस मौसम में संदिग्ध हो ही जाती है. ज्यादा साफ सफाई के चलते जंगलों के बीच मैदानी भागों की तलाश के चलते लगाई जाने वाली आग से भी इस प्रकार की चितायें खुद ब खुद सज जाती हैं. हम सब भूल जाते हैं कि जंगल से ही हमारी हरियाली के साथ साथ मूल भूत आवश्यकतायें जुडी हुई हैं. जंगल के नाम पर पूरा वन विभाग और मंत्रालय अच्छा खासा फंड ले रहा है. कितने लोग रोजगार से जुडे हुये हैं. परन्तु अपनी जरूरतों के चलते वो अपने कर्तव्य को भूल चुके हैं. इस प्रकार की आग से बचने के लिये सिर्फ कागजी फायर एक्स्टिंग्यूसर इस्तेमाल हो रहे हैं. रेंजर और डिप्टी रेंजर जैसे जिम्मेवार अधिकारियों के पास सिर्फ मौखिक सफाई ही शेष बची है. धू धू करके जल रही इन चिताओं के लिये कौन जिम्मेवारी उठायेगा. किसके ये जंगल और वन परिक्षेत्र में आने वाले पेड पौधे गोहार लगायें यह समझ के परे है.
हम सबको यह नहीं भूलना चाहिये कि यदि आज जंगलों को नहीं बचाया गया तो आने वाले मौसम में ना बारिस मिलेगी, ना पानी मिलेगा,और तो और सिर्फ धुंआ ही धुंआ ही पहाडों से उठता दिखाई देगा,तराई से लगे गांववासियों को भी चाहिये कि आगजनी से खुद और जंगलों की रक्षा करें,हमारी ग्लोबल सोच और घर से होने वाली पहल ही इससे बचने का रास्ता अख्तियार करती है. पेड पौधे तो विभाग में कागजों में लगाये जा रहे हैं. परन्तु जो पेड पौधे हमारे पूर्वज लगा गये हैं. इतना बडा विंध्य में ग्रीन बेल्ट बना कर गये हैं. उसकी चिता सजाने की गल्ती नहीं होनी चाहिये. इस प्रकार के संसाधन विंध्य की शान हैं. उसके बिना विंध्य अधूरा है.वन विभाग की भी जिम्मेवारी है कि जिसकी खाते हैं उसकी सुरक्षा के लिये बारिस के बाद,लाइन कटाई,काउंटर फायर की व्यवस्था और अव्यवस्थित झाडियों की साफ सफाई दुरुस्त करें ताकी आगजनी को रोका जा सके.. आज भी सुंदर लाल बहुगुणा जैसे वन प्रेमियों की आवश्यकता है.आज भी चिपको आंदोलनों की आवश्यकता उसी तरह बनी हुई है.शासन भले ही बहाने बाजियों से बाज ना आ रहा हो. परन्तु हम सब मिलकर संगढनों को जागृत करके इस प्रकार के अंतिम संस्कार से निजात पा सकते हैं.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

कोई टिप्पणी नहीं: