धर्मनिरपेक्षता बनाम कामन सिविल कोड
हमारे देश
में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर काफी व्यूह रचे गये हैं.इनका उपयोग समय समय पर राजनीति
में किया जाता रहा है.यह वो शब्द है जो संविधान में भारत के अंदर रहने वाले हर धर्म
के लोगों को अपने धार्मिक क्रियाकलापों को करने की आजादी देता है. भारत इसी की वजह
से हर धर्म के लिये सुरक्षित स्थान बना हुआ है.भारत में हर धर्म के लोग रह रहे हैं.किंतु
केंद्र सरकार ने गाहे बगाहे कई दशकों के बाद कामन सिविल कोड की अनुशंसा करके धर्मनिरपेक्षता
को कटघरे में खडा कर दिया है,सन अठारह सौ चालीस और दोबारा सन उन्नीस सौ पचासी में कामन
सिविल कोड को देश में लागू करने की पहल उठी थी परन्तु उस समय गोवा को छोड कर पूरे देश
में इसको लेकर काफी हंगामा हुआ और परिणाम हम सबके सामने हैं. पुराने समय में अंग्रेजों
ने जोखिम नहीं उठा सके कि वो इस कानून को लागू करने की सोच रहे थे.एक देश एक कानून
देखने में और सुनने में इतना अच्छा लगता है परन्तु वास्तविकता यह है कि इसको लागू करने में सरकार को लोहे के चने
चबाने पडेगें. सरकार ने भले ही कानून मंत्रालय को इस पर अपनी अनुशंसा सौंपने को कहा
है.सभी पर्शनल ला बोर्डस को एक राय बनाने के लिये कहा है. किंतु क्या ये सब संगढन आसानी
से मान जायेगें.क्या इन नियमों के मानने वाले संबंधित धर्म के अनुयाईयों को समझाया
जा सकेगा. यह जरूर सोचने का विषय है.
कामन सिविल
कोड से देश के हर नागरिक को एक ही कानून को मानने के लिये बाध्य होना पडेगा चाहे वह
किसी भी धर्म का हो.संबंधित व्यक्ति, समुदाय, या फिर परिवार को शादी, तलाक, जमीन जायजाद
का बंटवारा, शिक्षा आदि के लिये यूनीवर्शल कानून के आधार पर कार्य करना पडेगा.सभी धर्मों
को अपने पर्शनल कानून को छोडने की बाध्यता होगी और अपने धार्मिक उल्लेखों से परे जीवन
जीने के लिये बाध्य होना पडेगा.इसका प्रभाव कहीं ना कहीं भारत की धार्मिक एकता पड पडेगा,साथ
ही धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले भारत पर अपनी संप्रभुता को बचाये रखने के लिये खतरा
उत्पन्न हो जायेगा.समान नागरिक संहिता का सीधा उदाहरण गोआ में देखने को मिल सकता है
जहां पर हर धर्म की शादियों में पति पत्नियों
को समान अधिकार प्राप्त हैं,जमीन जायजाद में भी बेटे बॆटी को समान अधिकार मिलता है,
वहां पर तलाक लेने के लिये किसी धर्म की पुस्तक की बजाय कानूनन धाराओं को आधार माना
जाता है, भारत के अलावा अधिक्तर विकसित और विकासशील देश समान नागरिक संहिता को लागू
किये हुये हैं जिनमें फ्रांस, यूके,यूएसए,अस्ट्रेलिया,जर्मनी,और कुछ मुस्लिम देश किंतु
हमें यह भी मानना होगा कि इन देशों में हमारे देश की तरह नागरिकों के धर्म में विभिन्नतायें
नहीं हैं.सन उन्नीस सौ पचास के बाद से यह मुद्दा समय समय पर गर्माता रहा है किंतु किसी
पार्टी ने अपने राजनैतिक लाभ हानि और वोटों के धुर्वीकरण के डर से इस पर बहस करना और
इस मामके को तूल देना सही नहीं समझा,अब भाजपा यदि इसको खंगालने का जिम्मा उठा रही है
तो उसकी सरकार के लिये इसे लागू करना चुनौती का विषय जरूर बन जायेगा. उसे कहीं ना कहीं
मुस्लिम समुदाय के वोटों के ध्रुवीकरण के रिस्क को भी उत्तर प्रदेश मे झेलना होगा. क्योंकि हमारे देश
ने जब हर धर्म को धार्मिक स्वतंत्रता विरासत में देरखी हैं.अगर छीना जायेगा तो निश्चित
है कि धार्मिक विद्रोह का सामना सरकार को करना ही पडेगा.
भाजपा के
चुनावी एजेंडे में समान नागरिक संहिता को लागू करना शामिल था,किंतु सवाल यह उठता है
कि जब पूरे देश के पांच राज्यों में आगामी चुनाव आचुके हैं तब ही यह मुद्दा क्यों प्रकाश
में लाया गया.राजनीति मे इस तरह से शामिल होने वाले मुद्दे चुनाव के लिये तुडुप का
इक्का शाबित होते हैं. बहरहाल बात यह है कि यह संहिता देश के कानून को एक लीक में लाने
का काम करेगी परन्तु इसके लागू होने में इतनी मुश्किले अन्य धर्म के लोग खडा करेंगें
कि सरकार के वोट बैंक के धार्मिक आयात निर्यात का अनुपात डगमगा जायेगा.यदि धार्मिक
अडंगा न हो तो यह कहीं ना कहीं भारत को एकता के मूल मंत्र में पिरो सकता है. किंतु
समस्या इस बात पर है कि यहां पर आज भी कानून को मानने वाले हिंदू, सिख,जैन,और बौद्ध
धर्म के लोग मौजूद हैं. वहीं दूसरी ओर मुस्लिम,ईसाई,और पारसी धर्म के अनुयायियों के
लिये उनके धर्म के पर्सनल ला बोर्ड बने हुये हैं.जिनके धार्मिक नियम कायदों के आधार
पर आज भी फैसले किये जाते हैं. जो आज भी संविधान के साथ स्तरहीन मजाक हैं क्योंकि अनुच्छेद
चौवालिस में समान नागरिक संहिता को लागू करना राज्य की जिम्मेवारी बताई गई है.लेकिन
गोआ ही इसे लागू करने में सफलता हासिल किया.इसका लागू ना होना कहीं ना कहीं हमारे द्वारा
अपने संविधान के अपमान करने के जैसे ही है,हमें समझना चाहिये कि यह कानून एक पंथ निरपेक्ष
और धर्मनिरपेक्ष कानून ही है.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७