शनिवार, 20 अगस्त 2016

हर धतकरम को ललकारता परसाई

हर धतकरम को ललकारता परसाई
आज के तथाकथित साहित्यकारों को हरिशंकर परसाई को याद करने का कोई अधिकार नहीं है.क्योंकि क्षोभ होता है कि परसाई के वंशज आज सत्ता की हरी मखमली कालीन में अपनी लेखनी को नतमस्तक किये हुये हैं.परसाई के लेखन के एक भी कण नजर नहीं आ रहा. व्यंग्य को विधा से निकाल कर शैली बनाने वाले परसाई आज जैसे अकेले हो चुके हैं. क्योंकि उनके वंशज आज चुक चुके हैं. जहां पर व्यंग्य की मार करनी चाहिये वहा पर फूल बिखेरे जा रहे हैं. हम मजबूर हैं कि परसाई को हमे पढना ही पडेगा क्योंकि उनके जैसे लिखने वाला उनके पहले नही हुये और और भविषय में भी नहीं होगा.उनके पहले शरद जोशी जहां एक ओर यह कहते नजर आते हैं कि कमियां और झूठ कहां हैं. वो झूठ को यह कहते हैं कि यह सच नहीं है, परन्तु परसाई ने सच को सच कहने का जज्बा अपने लेखन में दिखाया. उन्होने अपने साहित्यकार मित्रों पर भी व्यंग्य करने और खुद पर भी व्यंग्य करने से नहीं छोडा. उन्होने व्यंग्य को अन्य विधाओं जैसे कहानियों कविताओं आलेखों और उपन्यासों में पिरोकर रख दिया.वर्तमान समय में अखबारी कालम लेखन ने व्यंग्य की धार को कम कर दिया है.व्यंग्य को सार्वकालिक की तरह तात्कालिक कर दिया. डा ज्ञान चतुर्वेदी जैसे व्यंग्यकारों को छोड दें तो देश में अधिक्तर लेखक अपनी छपासरोग की आपूर्ति कर रहे हैं. व्यंग्य के बने हुये कुनबे व्यंग्य को हर दिशा में खींच कर परसाई की आत्मा को हर पल दुखी कर रहे हैं. परसाई ने जो कुछ भी लिखा उसकी उपस्थिति आज भी समाज और सत्ता में उपस्थित है. व्यंग्य के नाम पर सपाटबयानी और हास्य की फुहार मात्र लिखी जा रही है. व्यंग्यकार आज अपनी वरिष्ठता के चलते मित्रों, पत्नी, और सत्ता के सतही विषयों में व्यंग्य लिख रहे हैं.
    हरिशंकर परसायी जो लिखा , जैसा लिखा , जिस समय लिखा वह इतना महत्व नहीं रखता है जितना कि यह महत्व रखता है कि उसकी जरूरत आज भी बहुत ज्यादा है. आज के समय में उनकी रचनाये एक आईने की तरह काम कर रही है. और यह भी सच है कि समाज की विशंगतियों के सामने उसके जैसा कलम का योद्धा ही है जो बिना हार माने आज भी खडा हुया है. लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषाशैली में खास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है. और उसकी विवशताओं के साथ अपने को साथ रख कर आक्रोशित भी होता है और दुखी भी होता है.हम चाहें कहानी संग्रह हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव, पढे. या फिर नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल ,तब की बात और थी भूत के पाँव पीछे, बईमानी  की परत, पगडण्डियों का जमाना,शिकायत मुझे भी है ,सदाचार का ताबीज ,प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ावैष्णव की फिसलन ,तिरछी रेखाये , ठिठुरता हुआ गड्तन्त्र, विकलांग श्रद्धा का दौरा |सभी में आज के समय में चल रहा भ्रष्टाचार, पाखंड , बईमानी आदि पर परसाई जी ने अपने व्यंगो से गहरी चोट की है | वे बोलचाल की सामन्य भाषा का प्रयोग करते है चुटीला व्यंग करने में परसाई बेजोड़ है |हरिशंकर परसाई की भाषा मे व्यंग की प्रधानता है उनकी भाषा सामान्यबी और सरंचना के कारण विशेष शमता रखती है | उनके एक -एक शब्द मे व्यंग के तीखेपन को देखा जा सकता है |लोकप्रचलित हिंदी के साथ साथ उर्दू ,अंग्रेजी शब्दों का भी उन्होने खुलकर प्रयोग किया है |पारसायी के  जीवन का हर अनुभव एक व्यंग्य रहा है. परसाई ने अपने जीवन के अनुभव को रचनाओं में उकेरा है. समाज की विशंगतियों को अपने नजरिये से देखा है. उसे कलम की ताकत से दबोचा है, और फिर पोस्टमार्टम करके पाठकों के सामने रखा है. आज परसाई नहीं है आज भी उनकी रचनाओं को मंचन किया जा रहा है. आज भी उनके दरद . उनके रचना कर्म को समझ कर समाज को दिखाया जारहा है.उन्होने समाज के हर उस धतकरम को ललकारा है.चुनौती दी है और उसके खिलाफ आवाज उठाई है जिसमें आम लेखक और कलम कार अपनी कलम फसाने को जान फसाने की तरह मानते है.हरिशंकर परसाई ने बता दिया है कि व्यंग्य वह विधा है और उस कंबल की तरह है जो शरीर में गडता तो है परन्तु समाज को ठंड से बचाता भी है. उनकी हर रचना कालजयी है. और भविष्य़ में भी रहेगी. जब तक इस समाज में मठाधीश रहेंगें और आम जनों के चूल्हे में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते रहेंगे. तब तक हर रचना दरद अत्याचार बेबसी और विवशता को चीख चींख कर बयान करती रहेगी. परसाई वो कलम कार है जिन्होने साहित्यकारों को भी आडे हाथों लिया है. उन्हे बहुत गुस्सा आती थी जो साहित्यकार सम्मान के पीछी भागता था. उनका मानना था, कि हर अच्छे कलमकार का वास्तविक पुरुस्कार पाठकों और समाज के द्वारा दिया जाने वाला सम्मान है. बाकी सब तो चाटुकारिता के अलावा कुछ नहीं है. आज के समय में जो घट रहा है वह परसाई ने पहले हीं भाँफ लिया था.
    आज के समय के लेखकों का यह मानना है कि परसाई ने जो भी किया वह सिर्फ उनके समय की माँग थी और कुछ नहीं जो भी लिखा गया वह सिर्फ उनहे मन के फितूर के अलावा कुछ भी नहीं है. परन्तु यह नहीं है. उन्होने अपनी रचनाओं में प्रगतिशीलता की बात की है. और उन प्रगतिशीलों की लंगोट को विशेश रूप से जाँची है जिन्होने प्रगतिशीलता के नाम पर अस्लीलता और नंगेपन को ओढा हुआ है और इसको साथ में रखना और रचनाओं में दिखाना अपनी प्रतिष्ठा का मूल मंत्र समझते है.परसाई देखते है कि वो अपनी लंगोट को कितना सूखा रख पाने में सफल है इस तरह की प्रगतिशीलता का केशरिया चोला ओढने के बाद. सच तो यह है कि परसाई उस प्रगतिशीलता को अपनाये हुये थे जो समाज को परिवर्तित कर नये आयाम से जोड सके परन्तु आज के समय में इस प्रथा को लेकर है अपने अपने झंडे और डंडे गाडे उनके नाम को कैश कर रहे है और उस पर सरे आम ऐश कर रहे है. आज के समय में प्रेमचंद्र और परसाई समाज की जरूरत है और माँग जब ज्यादा हो तो जरूरी है कि सही रूप में हम आगामी पीढी को विरासत का सही रूप सही सलामत सौपें नहीं तो आज तक इतिहास लिखने वाले प्रभावी रहे है. और साहित्य का इतिहास भी इसी तरह से मठाधीशों के हाथ के द्वारा लिखा जायेगा तो परसाई जयंतियों में याद करने के योग्य ही बचेगें आज के समय में हर पाठक को परसाई को प्ढना चाहिये जिससे उसके ह्रदय में जल रही आग की गर्मी को कुछ सुकून मिलेगा.....उसकी प्रमुख वजह यह है कि परसाई ने हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। ......

अनिल अयान,सतना ९४७९४११४०७

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...
हमारी आजादी सत्तर साल की होने को है.साठ्योत्तर स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाने के लिये हर भारतवासी उत्सुक नजर आ रहा है. पर इस स्वतंत्रता की परिपाटी अपने सत्तरवें वर्ष में कई नये आयाम खोजने को आतुर है.एक समय वह था जब भारत अविभाज्य होकर परतंत्रता की बेडियों में कसक रहा था और एक आज का समय है जब भारत विभाजित होकर विश्वगुरु और सोने की चिडिया की उपाधि को बचाने के लिये संघर्षरत है.यूं तो कहने को भारत की स्वतंत्रता की सत्तरवी सालगिरह है.पर इस सात दशकों में भारत क्या था क्या हो गया है और आने वाले दशकों भारत किन परिस्थितियों को अपने सामने सुरसा की तरह खडा पायेगा,यह भी एक यक्ष प्रश्न की तरह खडा हुआ है. भारत अपने प्रारंभिक काल से ही लोकतंत्रीय प्रणाली से चलने वाला राष्ट्र बनकर विकासपथ पर आगें बढा.उस समय तात्कालिक सरकार को जहां अपने अस्तित्व की लडाई लडने के लिये प्रयासरत रहना था.कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका और न्यायपालिका से विधायिका तक सब प्रारंभिक बाल्यावस्था में विकसित हो रहे थे.स्व तंत्र होने की वजह से जनता को यह अहसास था कि उनके द्वारा बनाया जाने वाला तंत्र उनकी फिक्र भी करता है और उनके विकास के लिये कार्य भी हर पंचवर्षीय में करता है.उस समय जय जवान और जय किसान दोनो को सम्मानित स्थान भारत में प्राप्त था.भारत अपनी स्वतंत्रता को पोषित करने में लगा हुआ था.उस समय जहां राज्य कम थे तो राजनैतिक दल भी कम थे.सत्ता की राजनैतिक चालबाजियां भी अपनी हद तक थी.संविधान में प्रारंभिक अवस्थागत मूलचूल बदलाव या नवीनीकरण किया जा रहा था.आजादी के तीन दशक भारत के नागरिकों को इस बात का विश्वास दिला चुके थे कि स्व तंत्र में स्व अर्थात जनता जनार्दन को वाकयै जनार्दन की तरह अर्थात केंद्र बिंदु मानकर काम किये जा रहे हैं.
      समय बदला तो आजादी के दशक भी बढने लगे.समय सापेक्ष राजनैतिक दलों स्व तंत्र के बिंदु में बैठे नागरिकों को धक्के मार कर नेपथ्य में ढकेल दिये.समय सापेक्ष कांग्रेस और जनसंघ अपने टुकडों में टूटते चले गये.विद्रोही अपनी विचारधारा और स्वार्थपरता के चलते नये राजनैतिक संगढन बनाना प्रारंभ कर दिये.देश के राज्य विभाजित होते चले गये. नब्बे के दशक तक भारत की स्वतंत्रता अपनी शैशव अवस्था में पहुंच तो गई परन्तु भारत में जातिवाद,क्षेत्रवाद रूप परिवर्तित करके नक्सलवाद का रूप लेने लगा.नये राज्य जैसे जैसे बनते चले गये वैसे वैसे राजनीति में न्यायपालिका में विधायिका का दबाव बढने लगा, विदेशी पूंजी का आधिपत्य बढा तो रुपया अन्य देशों की तुलना में अपनी कमर टोड बैठा.अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति की दर और विकास दर लडखडा सी गई.अब कुर्सी की माया देश को जाल में फंसा ली.सत्ता धारियों पर विपक्ष,,समय समय पर वैचारिक युद्ध जारी रखा.सत्ता बदलाव होते ही यही दांव उलटा पडने से दलों के बीच नैतिक भाईचारा घटता गया और राजनैतिक स्वार्थ का तवा गरम होता गया.महिला सशक्तीकरण मात्र अभियान बनकर रह गया.राजनेताओं ने महिलाओं, धर्म, जाति,और धर्मग्रंथों को अपने वोट बैंक की सिक्योरिटी बना लिये,हर चुनाव में इन कारकों को इस्तेमाल करके कहीं ना कहीं आजादी के नाम पर अधिकारों और कर्तव्यों की की व्याख्या को तोड मरोड कर प्रस्तुत किया गया. समय लगातार रेत की तरह फिसलता चला गया और आजादी का मूल्य अपने मूल रूप को खोकर राजनैतिक चश्में से देखा जाने लगा.स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदानों को भी शक की नजर से और नजरिये से देखा जाने लगा.भारत के विवादित स्थलों जिसमें राम मंदिर और बाबरी मस्जिद से लेकर अविभाज्य काश्मीर को चुनावरथ में बिठाकर सत्ता हाशिल करने की कवायद शुरू कर दी गई.हमारी आजादी उस समय ज्यादा धार्मिक हो गई जब वर्तमान प्रधानमंत्री जी को सत्ता का बहुमत मिला तब से वामपंथ और दक्षिणपंथ नदी के वो दो किनारे हो गये जो चले तो साथ साथ किंतु मिले कभी भी नहीं. आज कल तो भारत की जनता को अपनी आजादी पर भी शक होने लगा. उसे यह समझ में नहीं आता कि वो किसका पक्ष ले.एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाईं नजर आने लगी.विचारधारा के नाम पर ढोंग प्रबल होता चला गया.देश में धार्मिक कट्टरता अपनी चरम सीमा में पहुंच गई.
      सात दशक के अंतिम वर्षों में तो ऐसा महसूस होने लगा कि भारत अपने भीतर ही गृहयुद्द का शिकार हो रहा है. कभी विधायिका कार्यपालिका को अपने पैरों की जूती के स्तर  पर समझने का भ्रम पाल बैठी.कभी न्यायपालिका विधायिका के अनावश्यक दखलंदाजी से तंग आकर गुहार मारते नजर आयी.कभी युवाओं में राजनैतिक विचार धारा विश्वविद्यालयों के ब्लैकबोर्डों से निकल कर आतंकवादी सोच में परिणित होती नजर आई.कभी कट्टर भाजपा महाराष्ट्र में अपने विरोधी पार्टी और काश्मीर में तथागत स्थिति में नजर आई. और दलितों  स्वतंत्रता तो सवणों के घर की रखैल बनी नजर आई.देश का आंतरिक कलह अपनी चरम सीमा में नजर आया.वाक्पट्टु प्रधानमंत्री जी की समय सापेक्ष खामोशी भी जनता जनार्दन को खलने लगी.राजनैतिक सरगर्मी मीडिया के लिये पैसे कमाने का सरल माध्यम बन गया.राजनीति के नये इक्के दिल्ली में जो खल बली मचाये वो तो मीडिया की स्रुर्खियां इस लिये भी बनी ताकी टीआरपी के खेल में वो विजेता बने रहे.आने वाले भविष्य में भारत की आजादी मात्र उस गुट के पास गिरवी रहने वाली है जिसके हाथों में बल होगा.संविधान का विधान भी राजनैतिक पार्टियों के हांथ की कटपुतली बन कर रह रहा है.अब स्व तंत्र में जनता अपने आप को पर तंत्र में जीवन जीने वाला वोट बैंक ही मानती है. जैसे वो राजनैतिक पार्टियों की लगोंट हो.समय के साथ आजादी के मायने भौतिक आजादी के रूप में बदल गई. आजादी साठ साल पार करने के बाद बुढा गई. भारत आज भी अपने वैचारिक स्वतंत्रता के लिये संघर्ष कर रहा है. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता तो अपने सूर्योदय के इंतजार में बुढा गये हैं. भविष्य में भारत की स्थिति विश्व में उसी तरह होगी जैसे की भारत में स्थिति राममंदिर और बाबरी मस्जिद की है.हां हमारे देश का युवा वर्ग आज भी एक उर्जा से भरा हुआ है.उसकी उर्जा आज के समय में चिंतन में गुजर रही है.वह चिंतन कैरियर बनाने की बजाय नेटवर्किंग साइट्स में भरपूर दिख जाता है.उनके पास हर मुद्दे का टोड मौजूद है. लेकिन एक बात की दाद देनी होगी हम भारतीयों की. हम कल भी गर्व से कहते थे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है.आज भी कहते हैं कि हमें भारतीय होने पर गर्व है और भविष्य में मरते दम तक यही कहते रहेंगें कि हमें भारतीय होने पर गर्व है. हम आजाद भारत के निवासी हैं.

अनिल अयान.सतना. 

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

दलित आंदोलन बना सियासी टानिक

                        दलित आंदोलन बना सियासी टानिक
दलित आंदोलन की लोकप्रियता और राजनैतिक वर्चस्व सन १९५६ के धर्म परिवर्तन और अंबेडकर की मृत्यु के बाद ज्यादा देखने को मिला, इस समय ही दलित साहित्य का नव जागरण देखने को मिला.जब राजनैतिक दखल बढा तो दलितों के लिये विश्वविद्यालय प्रवेश और सेवा नियुक्तियों में आरक्षण के लिये एक संवैधानिक सहमति बनी आज के समय में हमारे देश में लगभग अठारह करोड दलित हमारे देश में रह रहे हैं.जैसे जैसे दलित अत्याचार के मामले में सजाओं का प्रतिशत घटा वैसे वैसे अपराध भी दोगुने प्रतिशत से बढ गये.दलित अत्याचार का एक नमूना गुजरात और ऊना कांड के रूप में विगत दिनों भरपूर देखा गया. हैदराबाद युनीवर्सिटी में रोहित वेमुला हत्याकांड भी इस अत्याचार का प्रतिनिधित्व करता है. अपनी मौत के पहले वीसी को लिखे पत्र में इच्छा मृत्यु और दाखिले के समय १० मिलीग्राम सोडियम एजाइड देने की सिफारिश की थी. बाद में उसके मौत को जे एन यू और अन्य विश्वविद्यालयों ने आंदोलन के नाम पर वामपंथियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में परिवर्तित कर दिया गया.उसके नाम पर मीडिया और राजनीति को खूब कैश किया गया. इतिहस के पन्नों की मुडे तो समझ में आयेगा कि दलित आंदोलन की शुरुआत जिस तरह ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई वो काबिले तारीफ थी. उन्होने वाकयै दलितों के लिये सराहनीय काम किये जिसमें दलितों की शिक्षा, महिला शिक्षा,समाज में यथोचित स्थान, और दलित विश्वविद्यालय की स्थापना, आदि प्रमुख रही,परन्तु मुख्यधारा से  दलितों को जोडने का काम बाबा साहब ने जिस तन्मयता से किया वह आज भी दलित आंदोलन के लिये बुनियाद बन हुआ है.यूं तो बौद्ध धर्म में भी दलितों के लिये अपने स्तर पर पैरवी की थी. महात्मा बुद्ध ने अपने समय पर इस आंदोलन का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी सुनिश्चित ही बस नहीं की बल्कि सफल भी रहे क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और आज  हर धर्म में भी सत्ता का आधिपत्य हो चुका है. बाबा साहब से प्रारंभ हुयी प्रेरणा श्रोत की फेहरिस्त आगे चलकर के आर नारायणन,संत कबीर,गाडगे बाबा,रविदास,कबीर,जगजीवन राम, से होते हुये कांशीराम और मायावती तक पहुंच गई, प्रेरणायें बदल गयी तो प्रभाव भी बदल गया.
      दलित आंदोलन आज के समय पर सियासत के लिये पोलियो ड्राप का काम कर रहा है. दलितों के नाम पर वोट मांग कर उनके हक पर करारी चोट की जाती है. यह चोंट मारने का काम दलित पार्टीयों के नेताओं के द्वारा सवर्णों की तुलना में अधिक किया जाता है. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने बताया कि दलित उत्पीडन में सबसे अधिक प्रतिशत उ.प्र राज्य का है. सन २०१३ की रिपोर्ट के अनुसार एससी.एस.टी एक्ट के अंतर्गत हर वर्ष लगभग १५ हजार घटनायें यहां दर्ज होती हैं. इसी स्तर पर सियासत का दारोमदार बसपा के पास सबसे ज्यादा देखने को मिला. विगत दिनों वैश्या जैसे शब्द से भाजपा के अमुक नेता ने संबोधित करने की जुर्रत भरी संसद में बसपा सुप्रीमो के लिये कर डाला. अब तक के घटना क्रम में वैश्या से प्रारंभ हुआ यह राजनैतिक स्टंट बेटी के सम्मान नामक खजूर के पेड से लटक गया है.अब भाजपा और बसपा दोनो उत्तर प्रदेश में स्थित इस खजूर के पेड से उपजने वाले दलित वोट रूपी खजूर को पाने के लिये जी जान लगाने के लिये आतुर नजर आ रहे हैं.उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का इस विवाद में कूदना कहीं ना कहीं चुनाव के दौरान इस खजूर रूपी प्रसाद को पाने का लालच मात्र है. दलित आंदोलनों की पर्याय बनी मायावती के लिये जितने दलित भेडचाल में अपना आक्रामक रुख अपनाये हुये हैं, जिनका कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं है हां दलित आंदोलन और दलित मसीहा के लिये उनसे आंदोलन के नाम पर बलिदान मांगा गया और सभी खुशी खुशी दे रहे हैं. वैसे ही गुजरात में भी हाल बेहाल थे. दलित युवकों की पिटाई और फिर वीडियो का वायरल होना वहां की राजनीति के लिये नाक में दम कर दिया और मानवता भी कहीं ना कहीं प्रभावित हुई. इस मुद्दे में जिस पर गुजरात मुख्य मंत्री की चुप्पी साधे हुई थी वह उनकी हार का प्रत्योत्तर दे रही थी.
      दलितों के लिये जिस तरह से हर राजनैतिक पार्टी की सियासत तेज है उससे ना तो समस्याओं का समाधान होने वाला है और ना ही उन पर हो रहे जुर्म थमने वाले है.जो राजनैतिक दल इसने अधिकारों की पैरवी करते हैं वो सब वास्तविक रूप से अधिकार दिलाने में फिसड्डी हो जाते हैं. जब दलित पार्टियों की सरकार भी बनती है तब भी दलितों पर जुर्म ढाया जाता है. जब उनका नेतृत्व सत्ता में विराजमान होकर कुछ नहीं कर पाता तो वर्तामन उनके लिये अधर में नजर आने लगता है.वर्तमान में आगामी चुनाव के लिये बसपा और भाजपा दलित वोट बैंक को यूपी की जमीन में मजबूत करने की चाल चलना शुरू कर चुकी हैं. अब बसपा यूपी में अपने स्वार्थ के लिये दलित सूत्र को कैश करने में कोई कसर नहीं छॊड रही है. "आओ गाली - गाली खेले" की भावनात्मक पुरवाई का भाजपा की ओर बहते देख सुप्रीमों ने दलितों की शक्ति को अपने पक्ष में लाने के लिये कोई कसर नहीं छोड रही हैं.दलित आंदोलनों की वास्तविकता कहीं ना कहीं राजनैतिक सांचे में ढल चुकी है.आज आवश्यकता है दलित समाज सुधारकों की समाज में उपस्थिति की.जिनका मुख्य उद्देश्य दलित उत्थान हो ना कि राजनैतिक टानिक बनकर पार्टियों की हलक में उतरना."आओ गाली गाली खेलें" वाला खेल तो अभी कुछ दिन खेला ही जायेगा शायद जब तक कि वोट की फसल के लिये ये राजनैतिक खाद में ना बदल जाये.आज की परिस्थितियो में दलित आंदोलन राजनीति का पिछलग्गू हो चुका है. जो उनके समाज के लिये लकवे से कम नहीं है. जिससे लाभ हानि की अपेक्षा रखना बेबुनियाद है.
( लेखक युवा साहित्यकार हैं, लेखक के अपने विचार हैं)
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७





                         दलित आंदोलन बना सियासी टानिक
दलित आंदोलन की लोकप्रियता और राजनैतिक वर्चस्व सन १९५६ के धर्म परिवर्तन और अंबेडकर की मृत्यु के बाद ज्यादा देखने को मिला, इस समय ही दलित साहित्य का नव जागरण देखने को मिला.जब राजनैतिक दखल बढा तो दलितों के लिये विश्वविद्यालय प्रवेश और सेवा नियुक्तियों में आरक्षण के लिये एक संवैधानिक सहमति बनी आज के समय में हमारे देश में लगभग अठारह करोड दलित हमारे देश में रह रहे हैं.जैसे जैसे दलित अत्याचार के मामले में सजाओं का प्रतिशत घटा वैसे वैसे अपराध भी दोगुने प्रतिशत से बढ गये.दलित अत्याचार का एक नमूना गुजरात और ऊना कांड के रूप में विगत दिनों भरपूर देखा गया. हैदराबाद युनीवर्सिटी में रोहित वेमुला हत्याकांड भी इस अत्याचार का प्रतिनिधित्व करता है. अपनी मौत के पहले वीसी को लिखे पत्र में इच्छा मृत्यु और दाखिले के समय १० मिलीग्राम सोडियम एजाइड देने की सिफारिश की थी. बाद में उसके मौत को जे एन यू और अन्य विश्वविद्यालयों ने आंदोलन के नाम पर वामपंथियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में परिवर्तित कर दिया गया.उसके नाम पर मीडिया और राजनीति को खूब कैश किया गया. इतिहस के पन्नों की मुडे तो समझ में आयेगा कि दलित आंदोलन की शुरुआत जिस तरह ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई वो काबिले तारीफ थी. उन्होने वाकयै दलितों के लिये सराहनीय काम किये जिसमें दलितों की शिक्षा, महिला शिक्षा,समाज में यथोचित स्थान, और दलित विश्वविद्यालय की स्थापना, आदि प्रमुख रही,परन्तु मुख्यधारा से  दलितों को जोडने का काम बाबा साहब ने जिस तन्मयता से किया वह आज भी दलित आंदोलन के लिये बुनियाद बन हुआ है.यूं तो बौद्ध धर्म में भी दलितों के लिये अपने स्तर पर पैरवी की थी. महात्मा बुद्ध ने अपने समय पर इस आंदोलन का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी सुनिश्चित ही बस नहीं की बल्कि सफल भी रहे क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और आज  हर धर्म में भी सत्ता का आधिपत्य हो चुका है. बाबा साहब से प्रारंभ हुयी प्रेरणा श्रोत की फेहरिस्त आगे चलकर के आर नारायणन,संत कबीर,गाडगे बाबा,रविदास,कबीर,जगजीवन राम, से होते हुये कांशीराम और मायावती तक पहुंच गई, प्रेरणायें बदल गयी तो प्रभाव भी बदल गया.
      दलित आंदोलन आज के समय पर सियासत के लिये पोलियो ड्राप का काम कर रहा है. दलितों के नाम पर वोट मांग कर उनके हक पर करारी चोट की जाती है. यह चोंट मारने का काम दलित पार्टीयों के नेताओं के द्वारा सवर्णों की तुलना में अधिक किया जाता है. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने बताया कि दलित उत्पीडन में सबसे अधिक प्रतिशत उ.प्र राज्य का है. सन २०१३ की रिपोर्ट के अनुसार एससी.एस.टी एक्ट के अंतर्गत हर वर्ष लगभग १५ हजार घटनायें यहां दर्ज होती हैं. इसी स्तर पर सियासत का दारोमदार बसपा के पास सबसे ज्यादा देखने को मिला. विगत दिनों वैश्या जैसे शब्द से भाजपा के अमुक नेता ने संबोधित करने की जुर्रत भरी संसद में बसपा सुप्रीमो के लिये कर डाला. अब तक के घटना क्रम में वैश्या से प्रारंभ हुआ यह राजनैतिक स्टंट बेटी के सम्मान नामक खजूर के पेड से लटक गया है.अब भाजपा और बसपा दोनो उत्तर प्रदेश में स्थित इस खजूर के पेड से उपजने वाले दलित वोट रूपी खजूर को पाने के लिये जी जान लगाने के लिये आतुर नजर आ रहे हैं.उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का इस विवाद में कूदना कहीं ना कहीं चुनाव के दौरान इस खजूर रूपी प्रसाद को पाने का लालच मात्र है. दलित आंदोलनों की पर्याय बनी मायावती के लिये जितने दलित भेडचाल में अपना आक्रामक रुख अपनाये हुये हैं, जिनका कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं है हां दलित आंदोलन और दलित मसीहा के लिये उनसे आंदोलन के नाम पर बलिदान मांगा गया और सभी खुशी खुशी दे रहे हैं. वैसे ही गुजरात में भी हाल बेहाल थे. दलित युवकों की पिटाई और फिर वीडियो का वायरल होना वहां की राजनीति के लिये नाक में दम कर दिया और मानवता भी कहीं ना कहीं प्रभावित हुई. इस मुद्दे में जिस पर गुजरात मुख्य मंत्री की चुप्पी साधे हुई थी वह उनकी हार का प्रत्योत्तर दे रही थी.
      दलितों के लिये जिस तरह से हर राजनैतिक पार्टी की सियासत तेज है उससे ना तो समस्याओं का समाधान होने वाला है और ना ही उन पर हो रहे जुर्म थमने वाले है.जो राजनैतिक दल इसने अधिकारों की पैरवी करते हैं वो सब वास्तविक रूप से अधिकार दिलाने में फिसड्डी हो जाते हैं. जब दलित पार्टियों की सरकार भी बनती है तब भी दलितों पर जुर्म ढाया जाता है. जब उनका नेतृत्व सत्ता में विराजमान होकर कुछ नहीं कर पाता तो वर्तामन उनके लिये अधर में नजर आने लगता है.वर्तमान में आगामी चुनाव के लिये बसपा और भाजपा दलित वोट बैंक को यूपी की जमीन में मजबूत करने की चाल चलना शुरू कर चुकी हैं. अब बसपा यूपी में अपने स्वार्थ के लिये दलित सूत्र को कैश करने में कोई कसर नहीं छॊड रही है. "आओ गाली - गाली खेले" की भावनात्मक पुरवाई का भाजपा की ओर बहते देख सुप्रीमों ने दलितों की शक्ति को अपने पक्ष में लाने के लिये कोई कसर नहीं छोड रही हैं.दलित आंदोलनों की वास्तविकता कहीं ना कहीं राजनैतिक सांचे में ढल चुकी है.आज आवश्यकता है दलित समाज सुधारकों की समाज में उपस्थिति की.जिनका मुख्य उद्देश्य दलित उत्थान हो ना कि राजनैतिक टानिक बनकर पार्टियों की हलक में उतरना."आओ गाली गाली खेलें" वाला खेल तो अभी कुछ दिन खेला ही जायेगा शायद जब तक कि वोट की फसल के लिये ये राजनैतिक खाद में ना बदल जाये.आज की परिस्थितियो में दलित आंदोलन राजनीति का पिछलग्गू हो चुका है. जो उनके समाज के लिये लकवे से कम नहीं है. जिससे लाभ हानि की अपेक्षा रखना बेबुनियाद है.
( लेखक युवा साहित्यकार हैं, लेखक के अपने विचार हैं)
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७





शीला का बुढापा बनाम यूपी विजय

शीला का बुढापा बनाम यूपी विजय
कांग्रेस ने विगत दिनों साढ्योत्तर पीढी की उम्मीदवार श्रीमति शीला दीक्षित को आखिरकार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया अब वो राजनीति में राज बब्बर के साथ अपना विजय घोष करने की तैयारी मे लीन हो चुकी हैं.आखिरकार १९८९ के नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मंत्रित्व काल के बाद कांग्रेस ने क्या सोचकर इस चुनाव में अपना दाखिला करवाया है यह समझ के परे है. वर्तमान में हाथ का पंजा चौथे नंबर पर विराजमान है. परन्तु वोटों का खेल में अनिश्चित बदलाव करने वाले युवाओं के लिये कांग्रेस के पास कुछ नहीं बचा.शीला दीक्षित के पास युवाओं के लिये क्या संदेश है.हमे नहीं भूलना चाहिये कि दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री केजरीवाल जी  के पास युवाओं का बहुमत था इस वजह से वो दिल्ली में दूसरी बार सफलता हासिल कर शीला दीक्षित को भारी मतों से पराजित किया था.वर्तमान कांग्रेस की उम्मीदवार को उनसे जरूर गुरुमंत्र सीखना चाहिये था.घोषणा के पूर्व उनके पास उत्तर प्रदेश के रहवासी होने का कोई मुद्दा नहीं था. परन्तु घोषणा होते ही उन्होने उत्तर प्रदेश को अपना मायका बनाने मे रत्ती भर पीछे नहीं रही.वो जहां एक ओर कुशल प्रशासक रही वहीं दूसरी ओर दिल्ली को महानगर से केंद्र शासित प्रदेश बनाने में दादी अम्मा का काम किया.परन्तु अब जहां राहुल गांधी युवाओं को प्रेरित करने में जी जान लगा देते हैं वहां पर बूढी आदरणीय शीला जी क्या कमाल कर पायेगीं यह समझ के परे है.
      यह सच है कि कपूरथला में जन्मी और दिल्ली में पली बढी शीला जी का उत्तर प्रदेश से भी नाता रहा है.उमाकांत दीक्षित जी की बहू के रूप से इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होने अपना राजनैतिक कैरियर प्रारंभ किया था,.कन्नौज से सांसद और केंद्र सरकार में मंत्री भी रही.कांग्रेस का यह फैसला इस लिये भी हारे प्यादों से जंग जीतने की ख्वाहिश जैसे है क्योंकि सबसे पहले दिल्ली में केजरीवाल जी ने उनके राजनैतिक तख्ते को धरासायी कर दिया साथ ही साथ जब उन्हे केरल का राज्यपाल जैसा संवैधानिक पद की जिम्मेवारी सौंपी गई तब वो उसमें भी खुद को भ्रष्टाचार जैसे आरोपों से नहीं बचा सकीं.यह उनका राजनैतिक बुढापा ही कहा जा सकता है. मै तो यह सोचता हूं किउनके चयन के बाद अब राहुल गांधी कैसे अपनी चुनावी रैली में कहेंगें कि वो यह चाहते हैं कि आम युवा कांग्रेस के जरिये राजनीति में आगे आयें? मुझे अफसोस इस बात पर भी है कि प्रशांत किशोर ने भी युवा मुख्यमंत्री पद के लिये प्रियंका गांधी का नाम सुझाया था किंतु कांग्रेस ने क्यों नहीं उनकी बात को स्वीकार किया जबकि उन्हें कांग्रेस के द्वारा उप्र के लिये ही नियुक्त किया गया था. इस निर्णय से यह तो तय है कि कांग्रेस ने अपने पुराने समय की रणनीति वाला तुरुप का इक्का इस्तेमाल किया है. जैसे कि वो सत्तर और अस्सी के दशक में हमेशा सवर्णों के दम पर खुद को मजबूत बनाती थी. एक बात और महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस जिस तरह से मुस्लिम वोट के लालच में बोटी बोटी करने वाले उकसाऊ भाषण देने वाले इमरान मसूद को जिस तरह कमेटी में जगह दी है उससे तो साफ है कि कांग्रेस हर जाति के वोट को अपनी झोली मे डालने के लिये हर दांव उपयोग कर चुकी है.
      हम यदि याद करें तो कांग्रेस में गांधी और नेहरू परिवार के सभी सदस्य उत्तर प्रदेश की राजनीति से केंद्र तक का सफर तय किये थे.लेकिन पिछले लगभग तीन दशक से कांग्रेस अपनी जमीन खो चुकी है. जहां एक ओर उप्र. की राजनीति जातियों के समीकरणों पर आधारित राज्यों में अव्वल दर्जे में आती है.इसी लिये यहां का समाज राजनैतिक पार्टियों के दम पर जातियों में बंटा ही बस नहीं होता बल्कि सौहार्द को मिट्टी पलीत करने में कोई कसर नहीं छोडता है. वही दूसरी ओर आजादी के कुछ पंच वर्षीय के बाद कांग्रेस ने खुद को जातीय राजनीति का भामाशाह बना लिया था.इस भामाशाह को बसपा के कांसीराम ने दीमक की तरह नष्ट कर दिया.उन्होने अपनी दत्तक उत्तराधिकारी बहनजी मायावती के साथ चुनावी समीकरणों को कांग्रेस के पाले से अपने अधिकार में लेने में एक पल को देर नहीं की.प्रदेश कांग्रेस के लिये राजबब्बर को भले ही कमान सौंप दी गई हो परन्तु सच तो यह है कि वो अच्छे अभिनेता हो सकते हैं कि वो उन युवाओं के आदर्श नहीं बन सकते जिनके वोट कांग्रेस को मिलने चाहिये, हमे नहीं भूलना चाहिये कि सपा की अखिलेश सरकार की सफलता के पीछे भी अविश्वसनीय युवाओं का जातीय ध्रुवीकरण ही था. कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिये कि नवासी के दशक में उनकी सत्ता और आज दो दशक के बाद उप्र के हालात बदल चुके हैं. युवा अंध विश्वासी कम और अपने कैरियर रोजगार को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं. वो जातीय समीकरणों को समझते हैं परन्तु उसके पीछे भेडचाल से नहीं भागते हैं. राहुल गांधी के बदलाव के नारे,प्रियंका गांधी की सादगी भरी छवि और युवाओं के मुद्दे जैसे शीला जी चयन से नेपथ्य में जा चुके हैं. अब तो इस परिस्थिति में चुनाव में जीत हाशिल करना आग के दरिया को पार करके जाने जैसा ही कठिन है.
(लेखक के अपने विचार हैं,लेखक युवा साहित्यकार एवं स्तंभ लेखक हैं.)
अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...
हमारी आजादी सत्तर साल की होने को है.साठ्योत्तर स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाने के लिये हर भारतवासी उत्सुक नजर आ रहा है. पर इस स्वतंत्रता की परिपाटी अपने सत्तरवें वर्ष में कई नये आयाम खोजने को आतुर है.एक समय वह था जब भारत अविभाज्य होकर परतंत्रता की बेडियों में कसक रहा था और एक आज का समय है जब भारत विभाजित होकर विश्वगुरु और सोने की चिडिया की उपाधि को बचाने के लिये संघर्षरत है.यूं तो कहने को भारत की स्वतंत्रता की सत्तरवी सालगिरह है.पर इस सात दशकों में भारत क्या था क्या हो गया है और आने वाले दशकों भारत किन परिस्थितियों को अपने सामने सुरसा की तरह खडा पायेगा,यह भी एक यक्ष प्रश्न की तरह खडा हुआ है. भारत अपने प्रारंभिक काल से ही लोकतंत्रीय प्रणाली से चलने वाला राष्ट्र बनकर विकासपथ पर आगें बढा.उस समय तात्कालिक सरकार को जहां अपने अस्तित्व की लडाई लडने के लिये प्रयासरत रहना था.कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका और न्यायपालिका से विधायिका तक सब प्रारंभिक बाल्यावस्था में विकसित हो रहे थे.स्व तंत्र होने की वजह से जनता को यह अहसास था कि उनके द्वारा बनाया जाने वाला तंत्र उनकी फिक्र भी करता है और उनके विकास के लिये कार्य भी हर पंचवर्षीय में करता है.उस समय जय जवान और जय किसान दोनो को सम्मानित स्थान भारत में प्राप्त था.भारत अपनी स्वतंत्रता को पोषित करने में लगा हुआ था.उस समय जहां राज्य कम थे तो राजनैतिक दल भी कम थे.सत्ता की राजनैतिक चालबाजियां भी अपनी हद तक थी.संविधान में प्रारंभिक अवस्थागत मूलचूल बदलाव या नवीनीकरण किया जा रहा था.आजादी के तीन दशक भारत के नागरिकों को इस बात का विश्वास दिला चुके थे कि स्व तंत्र में स्व अर्थात जनता जनार्दन को वाकयै जनार्दन की तरह अर्थात केंद्र बिंदु मानकर काम किये जा रहे हैं.
      समय बदला तो आजादी के दशक भी बढने लगे.समय सापेक्ष राजनैतिक दलों स्व तंत्र के बिंदु में बैठे नागरिकों को धक्के मार कर नेपथ्य में ढकेल दिये.समय सापेक्ष कांग्रेस और जनसंघ अपने टुकडों में टूटते चले गये.विद्रोही अपनी विचारधारा और स्वार्थपरता के चलते नये राजनैतिक संगढन बनाना प्रारंभ कर दिये.देश के राज्य विभाजित होते चले गये. नब्बे के दशक तक भारत की स्वतंत्रता अपनी शैशव अवस्था में पहुंच तो गई परन्तु भारत में जातिवाद,क्षेत्रवाद रूप परिवर्तित करके नक्सलवाद का रूप लेने लगा.नये राज्य जैसे जैसे बनते चले गये वैसे वैसे राजनीति में न्यायपालिका में विधायिका का दबाव बढने लगा, विदेशी पूंजी का आधिपत्य बढा तो रुपया अन्य देशों की तुलना में अपनी कमर टोड बैठा.अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति की दर और विकास दर लडखडा सी गई.अब कुर्सी की माया देश को जाल में फंसा ली.सत्ता धारियों पर विपक्ष,,समय समय पर वैचारिक युद्ध जारी रखा.सत्ता बदलाव होते ही यही दांव उलटा पडने से दलों के बीच नैतिक भाईचारा घटता गया और राजनैतिक स्वार्थ का तवा गरम होता गया.महिला सशक्तीकरण मात्र अभियान बनकर रह गया.राजनेताओं ने महिलाओं, धर्म, जाति,और धर्मग्रंथों को अपने वोट बैंक की सिक्योरिटी बना लिये,हर चुनाव में इन कारकों को इस्तेमाल करके कहीं ना कहीं आजादी के नाम पर अधिकारों और कर्तव्यों की की व्याख्या को तोड मरोड कर प्रस्तुत किया गया. समय लगातार रेत की तरह फिसलता चला गया और आजादी का मूल्य अपने मूल रूप को खोकर राजनैतिक चश्में से देखा जाने लगा.स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदानों को भी शक की नजर से और नजरिये से देखा जाने लगा.भारत के विवादित स्थलों जिसमें राम मंदिर और बाबरी मस्जिद से लेकर अविभाज्य काश्मीर को चुनावरथ में बिठाकर सत्ता हाशिल करने की कवायद शुरू कर दी गई.हमारी आजादी उस समय ज्यादा धार्मिक हो गई जब वर्तमान प्रधानमंत्री जी को सत्ता का बहुमत मिला तब से वामपंथ और दक्षिणपंथ नदी के वो दो किनारे हो गये जो चले तो साथ साथ किंतु मिले कभी भी नहीं. आज कल तो भारत की जनता को अपनी आजादी पर भी शक होने लगा. उसे यह समझ में नहीं आता कि वो किसका पक्ष ले.एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाईं नजर आने लगी.विचारधारा के नाम पर ढोंग प्रबल होता चला गया.देश में धार्मिक कट्टरता अपनी चरम सीमा में पहुंच गई.
      सात दशक के अंतिम वर्षों में तो ऐसा महसूस होने लगा कि भारत अपने भीतर ही गृहयुद्द का शिकार हो रहा है. कभी विधायिका कार्यपालिका को अपने पैरों की जूती के स्तर  पर समझने का भ्रम पाल बैठी.कभी न्यायपालिका विधायिका के अनावश्यक दखलंदाजी से तंग आकर गुहार मारते नजर आयी.कभी युवाओं में राजनैतिक विचार धारा विश्वविद्यालयों के ब्लैकबोर्डों से निकल कर आतंकवादी सोच में परिणित होती नजर आई.कभी कट्टर भाजपा महाराष्ट्र में अपने विरोधी पार्टी और काश्मीर में तथागत स्थिति में नजर आई. और दलितों  स्वतंत्रता तो सवणों के घर की रखैल बनी नजर आई.देश का आंतरिक कलह अपनी चरम सीमा में नजर आया.वाक्पट्टु प्रधानमंत्री जी की समय सापेक्ष खामोशी भी जनता जनार्दन को खलने लगी.राजनैतिक सरगर्मी मीडिया के लिये पैसे कमाने का सरल माध्यम बन गया.राजनीति के नये इक्के दिल्ली में जो खल बली मचाये वो तो मीडिया की स्रुर्खियां इस लिये भी बनी ताकी टीआरपी के खेल में वो विजेता बने रहे.आने वाले भविष्य में भारत की आजादी मात्र उस गुट के पास गिरवी रहने वाली है जिसके हाथों में बल होगा.संविधान का विधान भी राजनैतिक पार्टियों के हांथ की कटपुतली बन कर रह रहा है.अब स्व तंत्र में जनता अपने आप को पर तंत्र में जीवन जीने वाला वोट बैंक ही मानती है. जैसे वो राजनैतिक पार्टियों की लगोंट हो.समय के साथ आजादी के मायने भौतिक आजादी के रूप में बदल गई. आजादी साठ साल पार करने के बाद बुढा गई. भारत आज भी अपने वैचारिक स्वतंत्रता के लिये संघर्ष कर रहा है. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता तो अपने सूर्योदय के इंतजार में बुढा गये हैं. भविष्य में भारत की स्थिति विश्व में उसी तरह होगी जैसे की भारत में स्थिति राममंदिर और बाबरी मस्जिद की है.हां हमारे देश का युवा वर्ग आज भी एक उर्जा से भरा हुआ है.उसकी उर्जा आज के समय में चिंतन में गुजर रही है.वह चिंतन कैरियर बनाने की बजाय नेटवर्किंग साइट्स में भरपूर दिख जाता है.उनके पास हर मुद्दे का टोड मौजूद है. लेकिन एक बात की दाद देनी होगी हम भारतीयों की. हम कल भी गर्व से कहते थे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है.आज भी कहते हैं कि हमें भारतीय होने पर गर्व है और भविष्य में मरते दम तक यही कहते रहेंगें कि हमें भारतीय होने पर गर्व है. हम आजाद भारत के निवासी हैं.

अनिल अयान.सतना.