शनिवार, 20 अगस्त 2016

हर धतकरम को ललकारता परसाई

हर धतकरम को ललकारता परसाई
आज के तथाकथित साहित्यकारों को हरिशंकर परसाई को याद करने का कोई अधिकार नहीं है.क्योंकि क्षोभ होता है कि परसाई के वंशज आज सत्ता की हरी मखमली कालीन में अपनी लेखनी को नतमस्तक किये हुये हैं.परसाई के लेखन के एक भी कण नजर नहीं आ रहा. व्यंग्य को विधा से निकाल कर शैली बनाने वाले परसाई आज जैसे अकेले हो चुके हैं. क्योंकि उनके वंशज आज चुक चुके हैं. जहां पर व्यंग्य की मार करनी चाहिये वहा पर फूल बिखेरे जा रहे हैं. हम मजबूर हैं कि परसाई को हमे पढना ही पडेगा क्योंकि उनके जैसे लिखने वाला उनके पहले नही हुये और और भविषय में भी नहीं होगा.उनके पहले शरद जोशी जहां एक ओर यह कहते नजर आते हैं कि कमियां और झूठ कहां हैं. वो झूठ को यह कहते हैं कि यह सच नहीं है, परन्तु परसाई ने सच को सच कहने का जज्बा अपने लेखन में दिखाया. उन्होने अपने साहित्यकार मित्रों पर भी व्यंग्य करने और खुद पर भी व्यंग्य करने से नहीं छोडा. उन्होने व्यंग्य को अन्य विधाओं जैसे कहानियों कविताओं आलेखों और उपन्यासों में पिरोकर रख दिया.वर्तमान समय में अखबारी कालम लेखन ने व्यंग्य की धार को कम कर दिया है.व्यंग्य को सार्वकालिक की तरह तात्कालिक कर दिया. डा ज्ञान चतुर्वेदी जैसे व्यंग्यकारों को छोड दें तो देश में अधिक्तर लेखक अपनी छपासरोग की आपूर्ति कर रहे हैं. व्यंग्य के बने हुये कुनबे व्यंग्य को हर दिशा में खींच कर परसाई की आत्मा को हर पल दुखी कर रहे हैं. परसाई ने जो कुछ भी लिखा उसकी उपस्थिति आज भी समाज और सत्ता में उपस्थित है. व्यंग्य के नाम पर सपाटबयानी और हास्य की फुहार मात्र लिखी जा रही है. व्यंग्यकार आज अपनी वरिष्ठता के चलते मित्रों, पत्नी, और सत्ता के सतही विषयों में व्यंग्य लिख रहे हैं.
    हरिशंकर परसायी जो लिखा , जैसा लिखा , जिस समय लिखा वह इतना महत्व नहीं रखता है जितना कि यह महत्व रखता है कि उसकी जरूरत आज भी बहुत ज्यादा है. आज के समय में उनकी रचनाये एक आईने की तरह काम कर रही है. और यह भी सच है कि समाज की विशंगतियों के सामने उसके जैसा कलम का योद्धा ही है जो बिना हार माने आज भी खडा हुया है. लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषाशैली में खास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है. और उसकी विवशताओं के साथ अपने को साथ रख कर आक्रोशित भी होता है और दुखी भी होता है.हम चाहें कहानी संग्रह हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव, पढे. या फिर नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल ,तब की बात और थी भूत के पाँव पीछे, बईमानी  की परत, पगडण्डियों का जमाना,शिकायत मुझे भी है ,सदाचार का ताबीज ,प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ावैष्णव की फिसलन ,तिरछी रेखाये , ठिठुरता हुआ गड्तन्त्र, विकलांग श्रद्धा का दौरा |सभी में आज के समय में चल रहा भ्रष्टाचार, पाखंड , बईमानी आदि पर परसाई जी ने अपने व्यंगो से गहरी चोट की है | वे बोलचाल की सामन्य भाषा का प्रयोग करते है चुटीला व्यंग करने में परसाई बेजोड़ है |हरिशंकर परसाई की भाषा मे व्यंग की प्रधानता है उनकी भाषा सामान्यबी और सरंचना के कारण विशेष शमता रखती है | उनके एक -एक शब्द मे व्यंग के तीखेपन को देखा जा सकता है |लोकप्रचलित हिंदी के साथ साथ उर्दू ,अंग्रेजी शब्दों का भी उन्होने खुलकर प्रयोग किया है |पारसायी के  जीवन का हर अनुभव एक व्यंग्य रहा है. परसाई ने अपने जीवन के अनुभव को रचनाओं में उकेरा है. समाज की विशंगतियों को अपने नजरिये से देखा है. उसे कलम की ताकत से दबोचा है, और फिर पोस्टमार्टम करके पाठकों के सामने रखा है. आज परसाई नहीं है आज भी उनकी रचनाओं को मंचन किया जा रहा है. आज भी उनके दरद . उनके रचना कर्म को समझ कर समाज को दिखाया जारहा है.उन्होने समाज के हर उस धतकरम को ललकारा है.चुनौती दी है और उसके खिलाफ आवाज उठाई है जिसमें आम लेखक और कलम कार अपनी कलम फसाने को जान फसाने की तरह मानते है.हरिशंकर परसाई ने बता दिया है कि व्यंग्य वह विधा है और उस कंबल की तरह है जो शरीर में गडता तो है परन्तु समाज को ठंड से बचाता भी है. उनकी हर रचना कालजयी है. और भविष्य़ में भी रहेगी. जब तक इस समाज में मठाधीश रहेंगें और आम जनों के चूल्हे में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते रहेंगे. तब तक हर रचना दरद अत्याचार बेबसी और विवशता को चीख चींख कर बयान करती रहेगी. परसाई वो कलम कार है जिन्होने साहित्यकारों को भी आडे हाथों लिया है. उन्हे बहुत गुस्सा आती थी जो साहित्यकार सम्मान के पीछी भागता था. उनका मानना था, कि हर अच्छे कलमकार का वास्तविक पुरुस्कार पाठकों और समाज के द्वारा दिया जाने वाला सम्मान है. बाकी सब तो चाटुकारिता के अलावा कुछ नहीं है. आज के समय में जो घट रहा है वह परसाई ने पहले हीं भाँफ लिया था.
    आज के समय के लेखकों का यह मानना है कि परसाई ने जो भी किया वह सिर्फ उनके समय की माँग थी और कुछ नहीं जो भी लिखा गया वह सिर्फ उनहे मन के फितूर के अलावा कुछ भी नहीं है. परन्तु यह नहीं है. उन्होने अपनी रचनाओं में प्रगतिशीलता की बात की है. और उन प्रगतिशीलों की लंगोट को विशेश रूप से जाँची है जिन्होने प्रगतिशीलता के नाम पर अस्लीलता और नंगेपन को ओढा हुआ है और इसको साथ में रखना और रचनाओं में दिखाना अपनी प्रतिष्ठा का मूल मंत्र समझते है.परसाई देखते है कि वो अपनी लंगोट को कितना सूखा रख पाने में सफल है इस तरह की प्रगतिशीलता का केशरिया चोला ओढने के बाद. सच तो यह है कि परसाई उस प्रगतिशीलता को अपनाये हुये थे जो समाज को परिवर्तित कर नये आयाम से जोड सके परन्तु आज के समय में इस प्रथा को लेकर है अपने अपने झंडे और डंडे गाडे उनके नाम को कैश कर रहे है और उस पर सरे आम ऐश कर रहे है. आज के समय में प्रेमचंद्र और परसाई समाज की जरूरत है और माँग जब ज्यादा हो तो जरूरी है कि सही रूप में हम आगामी पीढी को विरासत का सही रूप सही सलामत सौपें नहीं तो आज तक इतिहास लिखने वाले प्रभावी रहे है. और साहित्य का इतिहास भी इसी तरह से मठाधीशों के हाथ के द्वारा लिखा जायेगा तो परसाई जयंतियों में याद करने के योग्य ही बचेगें आज के समय में हर पाठक को परसाई को प्ढना चाहिये जिससे उसके ह्रदय में जल रही आग की गर्मी को कुछ सुकून मिलेगा.....उसकी प्रमुख वजह यह है कि परसाई ने हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। ......

अनिल अयान,सतना ९४७९४११४०७

कोई टिप्पणी नहीं: