मंगलवार, 8 नवंबर 2016

भैया चुप रहो ! सियासत हावी है

भैया चुप रहो ! सियासत हावी है
दीवाली चकाचौंध में और पटाखों की गूंज के बीच, झीलों की नगरी और मध्य प्रदेश की राजधानी में, जिस प्रकार नाटकीय अंदाज में सिमी के खूंखार आतंकियों का हमारे राज्य की पुलिस ने चौबीस घंटे से भी कम समय में मामला रफा दफा किया। वह वाकयै काबिले तारीफ हैं। यह घटना पूरे देश को अपने केंद्र में समेट ली.राजनैतिक पार्टी दीवाली की स्याह अमावस में भी स्पष्टद्रष्टा बन गये। देश के शुप्तावस्था में पडे नेता अपने अपने दल बल के साथ सरकार की इस प्रशंसायुक्त कार्य में दाग ढूंढने या यह कहूं कि कोलतार की मदद से दाग लगाने की मैराथन दौड में ऐसे आगे आने की कोशिश करने लगे मानो यूपी की रामलीला के साथ एम.पी की रामलीला का पटाक्षेप वही करेंगें।वहरहाल माहौल तो उनके मरने से इतना गर्म नहीं हुआ जितना कि सियासत के हावी होने से हो चुका है.सच जानने की बजाय केंद्र से जांच कमेटी बैठाने और निष्पक्ष जांच करने के लिये केंद्र की भाजपा सरकार से गुजारिस की जा रही है.अब देखना यह है कि सरकार किस तरह अपने अधीनस्थ और भाजपा की मजबूत शिवराज सरकार के जेल मंत्रालय की जांच बैठाती है.मध्यप्रदेश के जेल मंत्रालय की तो पहले ही घिघ्घी बंधी हुई है इस लिये वो चुपचाप अपनी गलती को और लापरवाही को कुबूल कर लिया है पहले ही और बाद में पुलिस की उस टीम को शाबासी दी जिसने यह कृत्य अथवा विपक्ष की नजर में कुकृत्य किया है. देखिये साहब हम ठहरे आम जनता ,अब हम तो यह कह नहीं सकते कि यह एनकाउंटर फर्जी था.जो इस विषय के ज्ञाता है वो तो मीडिया में गोहारी मार मार कर चिल्ला रहे हैं कि यह फर्जी एनकाउंटर था.सरकार ने गुजरात का विकास माडल अपनाया है.वहां भी इसी तरह कुछ सालों पहले फर्जी एनकाउंटर करवा के सरकार ने खूब रस मलाई झेली है.और पुलिस वाले अफसरों के कंधों के स्टार बढाये हैं. इसलिये यह समझ में आता है कि भैया देश की सियासत चल रही है अर्थात जनता पर हावी है इसलिये मैया चुप रहो।
ऐसी घटनाये कभी कभी हमें अंदर से सोचने के लिये हिलाती जरूर हैं.हमारा अंतस ना जाने क्यों कुछ ना कुछ अस्वीकार कर देता है.देखता कुछ और है और सोचता कुछ और है और पूंछता बहुत कुछ है।इस ट्वेंटी ट्वेटी के मैच की तरह के एनकाउंटर में मारे गये सिमी आतंकियों का हूरों से मिलाप करवाना तो हमारे लिये फायदेमंद ही था.कोर्ट में होता तो उनको अभी कई साल और वंचित होना पडता अपनी पसंद की हूरों से.किंतु एनकाउंटर के पूर्व की लापरवाहियां और बाद की तेजगी दोनों विरोधाभाष के रूप में सामने आकर खडे हो जाते हैं.पूर्व की लापरवाहियों की वजह से कहीं ना कहीं जेल के सिस्टम का पोस्ट मार्टम करने का मन करता है और बाद की तेजगी के लिये पुलिस की पीठ को कूटने का मन करता है. मेरे जेहन में जो विचार सवाल के रूप में कौंधते हैं उनको मै आपके सामने रखना चाहता हूं. राजधानी की जेल के कैमरे से लेकर डिजिटल सिस्टम क्यों फेल था?जेल की एमरजेंसी ड्यूटी और कर्मचारी इतने लाचार कैसे थे?पेट्रोलिंग टीम कहां गुम गई थी? जिन आतंकवादियों की पेशी भी वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये होती थी (वकील आयेशा अकबर के अनुसार) निगरानी को को धूल झोंक कर ऊंची दीवाल कैसे कूद गये.उनको जरूरी हथियार कैसे उपलबध करवाये गये? रात में दो बजे से भागे आतंकवादी चार घंटे में मात्र दस किलोमीटर का सफर पहाडियों तक ही तय कर पाये.उन्हे तो शहर से बाहर जाना चाहिये? पुलिस ने उन्हें जिंदा क्यों नहीं पकड सकी? शहीद होने वाला पुलिस कर्मी एक ही निकला,क्या भा़गते समय अन्य पुलिस कर्मी उनके सामने नहीं आये उनको चोंटे क्यों नहीं आई? सबसे बडे यक्ष प्रश्न जो दिमाग की बत्ती जलाते हैं वो है कि सभी एक साथ एक जैसे कपडे पहन कर टोली में क्यों गये. अलग अलग भाग कर एक निश्चित समय में एक स्थान में मिलते फिल्मों में हमने देखा है.जेल में तो कैदियों के कपडे अलग होते हैं तो फिर उन्हें उनके व्यक्तिगत कपडे मिले कैसे? क्या जेल में भी उनसे घूसखोरी की गई थी? एनकाउंटर का वीडिओ बनानेवाला क्या पुलिसवाला ही था? या उसे वीडियो सूटिंग के लिये ही रखा गया था? क्या इतना समय पुलिस को था? और अभी के लिये अंतिम प्रश्न फिलहाल जिस जेल पुलिस ने आतंकवादियों को जेल के अंदर रोकने के लिये पहल नहीं की वो वीडियों के अनुसार बहुत नजदीक से गोलिया दागने का अनुशासन और साहस कैसे जुटा पाई? वाकयै मित्रों हमारी पुलिस व्यवस्था और जेल प्रहरियों की इस लापरवाही और एनकाउंटर के समय मुस्तैदी और जाबांजी को मै भी सलाम करता हूं
इस प्रथा से जहां एक ओर हमारी जेलों में फिल्मिस्तान वाला सिस्टम लागू होने कीमहक आती है जिसमें नो एफ आई आर,नो इनवेस्टीगेशन,फैसला आन दा स्पाट,विथ लाइव वीडियों, और दूसरी तरफ अव्यवस्था,लापरवाही,फर्जीपन का दंश,और सियासी शतरंज के मजबूर प्यादे बनने के की बदबू भी आरही है.कुल मिलाकर जेल विभाग और पुलिस विभाग इस घटना और एनकाउंटर के बाद सरकार की और अन्य राजनैतिक पार्टियों की सियासी महत्वाकांक्षाओं की बलि के रूप में चढती नजर आरही है.रही बात जांच कमेटी और जांच की जिसकी सिफारस विपक्ष पार्टियां कर रही हैं. वो तो सियासी काम है उसमें हमारा क्या दखल.हां लेकिन यह तो सच है कि अगर कमेटी बैठे तो उन्हें इन प्रश्नों को ढूंढने में मदद करनी चाहिये अपने देश की परिस्थितियों के प्रति नजर रखने वाले युवाओं के जेहन में ये प्रश्न जरूर गूंजे होंगें.हो सकता है कई लोग इसके जवाब भी जान चुके हों किंतु कुछ काम हमें जांच कमेटियों के लिये भी छोड देना चाहिये.इस प्रथा से यदि फर्जी का अस्तित्व खत्म हो जाये तो देश हित में है और अगर फर्जी शब्द का अस्तित्व बढता है तो मात्र सियासी सतरंज की चाल के रूप में जनता के सामने आयेगा.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७


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