रविवार, 4 दिसंबर 2016

"स्वर्ण-टकसाल" बने देवस्थानों की सोनाबंदी कब

"स्वर्ण-टकसाल" बने देवस्थानों की सोनाबंदी कब
देव स्थान हमारी आस्था के प्रतीक हैं हम अपनी आस्थानुरूप मंदिरों में भगवान से कुछ ना कुछ मनोकामना मांगने जाते हैं.हमारी आस्था इतनी प्रबल है कि हम अपने कार्यों और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये आस्थानुरूप धन धान्य देव स्थानों को दान के रूप में अर्पित करके चले आते हैं.कितने लोग इसका हिसाब कितना रखते है यह समझ के परे है.शायद कोई नहीं.अराध्य से मांगने की परंपरा में हम जाने अनजाने धन (चाहे वह सफेद हो या काला- अपरिभाषित ) या फिर आभूषण दान करते हैं त्योहारों में यह आस्था मंदिरों में बखूबी परवान चढते आप सबने देखा ही होगा.यहां पर प्रश्न इस बात का नहीं है कि हम इस तरह की दान दक्षिणा का विरोध कर रहे हैं.किंतु इस तरह का आराध्य को चढावा और उसकी देश हित में आर्थिक उपयोगिता देश हित में कितनी है?इस विषय पर कुछ पल के लिये तो विचार कर ही सकते हैं.इस समय जब सरकार नोटों के विमुद्रीकरण के बाद सोने के रखने की सीमा तय कर चुकी है.पुरुष और महिला का सोने के आधार पर वर्गीकरण किया जा चुका है. इन संदर्भों के मध्य सरकार को यह भी संज्ञान में लेना चाहिये कि देवस्थानों में भी दानपेटी और पात्रों में इसके अलावा ट्रस्टों को कितना सोना और हीरे-जवाहरात बिना किसी कागजात के पुजारियों को आस्था के नाम दान कर दिया जाता है.विशेषकर जनता तो ठीक है किंतु जनता से जनताजनार्दनों और उद्योगपतियों की आस्थाये कहीं ना कहीं अचानक जागृत अवस्था में आ जाना और इन देव स्थानों से टैक्स रिलैक्सेशन की उम्मीद लगा बैठना भी अन्य प्रकार की कमाई के क्या संकेत सरकार को नहीं देते हैं.मंदिरों के ट्रस्ट इसे देश के विकास में उपयोग करने से परहेज इस लिये करते हैं क्योंकि वह चढावा है.जनता की आस्था की आहुति हैं किंतु जहां मोदी जी डिजिटल मनी और कालेधन के पीछे हाथ धोकर पडे हैं. उस बीच यह विषय किनारा कर जाये यह शायद जनता की आस्था के साथ खिलवाड होगा.
हमारे देश में ऐसे बहुत से उत्तर और दक्षिण भारत में देव स्थान हैं जहां पर हर जाति धर्म के लोग अपनी आस्थावश जाकर चढावा चढाते हैं.किंतु इसका देश के विकास में कोई योगदान नहीं समझ में आता है.उदाहरण की बात करें तो पद्मनाभस्वामी मंदिर, व्यंकटेश मंदिर,अयप्पा मंदिर, साई बाबा मंदिर इस्कान मंदिर आदि बहुत से उदाहरण हैं जहां आस्थाओं से मिला सोना हीरा जवाहरात और आभूषण देवताओं और आराध्यों को स्पर्श कराकर  तिजोडियों  में कैद कर दिया जाता है.इनका कागजी रूप से कोई दस्तावेज अमूमन मंदिरों के पास नहीं होता है.वार्षिक रूप से ट्रस्टों का आय व्यय ही बस इनके पास दस्तावेजी सबूत होता है.दक्षिण भारत के अमूमन देवस्थान के प्रबंध ट्रस्टी इसकी ब्याज तक लेना पाप मानते हैं.किंतुट्रस्ट के लिये इसका उपयोग बखूबी किया जाता है.मंदिर और देवस्थाओं के विकास के लिये इस धन का उपयोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करना पुण्य माना जाता है,धनवान लोग इसके लिये जमीन धन दान करते हैं.वह पापपुण्य की सीमा से परे होता है.सिर्फ तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ऐसा अपवाद है जहां का स्वर्ण चढावे को बाइस कैरेट के सोने के सिक्कों मेंबदल कर पूरे देश में वितरण किया जाता है. किंतु अधिक्तर देवस्थान ट्रस्ट इससे परहेज करते हैं.हिंदुस्तानी सोने के सबसे बडे आयातकों में स्थान रखते हैं.दोहजार पंद्रह सोलह  में नौ सौ टन सोना आयात किया गया.तथा एक सौ पचहत्तर टन सोने की तस्करी भी की गई.विश्व में सोने के भंडारक के रूप में भारत ग्यारवें स्थान पर काबिज है.तीन हजार टन से भी अधिक सोना भारत के विभिन्न स्थानों में स्थित देवस्थानों के पास तिजोडियों में जमा है.जिसका भारत की अर्थव्यवस्था को स्पर्श तक करने का अधिकार धर्माधिकारियों ने नहीं दिया.भारत की जमीन में फल फूल रहे ये सब आस्था के देवस्थान भारत के लिये जितना धार्मिक महत्व रखते हैं.आर्थिक महत्वहीन शाबित हो रहे हैं.आयात नीति को कहीं का कहीं कम करने की बजाय ये देव स्थान निर्यात नीति को भी रोक कर ये देव स्थान बैठे हुए हैं.
जब सरकार वर्तमान में सक्रिय मुद्रा में सोने को लाने के फिराक में हैं तो अब हम सबको यह अपेक्षा सरकार से हो रही है कि सोनाबंदी की अगली कडी देवस्थानों के नाम पर बंद पडे स्वर्ण टकसाल देश की आर्थिक व्यवस्था के लिये खोल दिये जाये.दान और चैरिटी की श्रेणी में देवस्थानों और ट्रस्टों को भी लाया जाये,मेरे ये विचार किसी की आस्था को ठेस पहुंचाने के लिये नहीं बल्कि आस्था के बहाने दान दक्षिणा को को प्रायोगिक रूप से मानव निर्माण और उत्थान के पावन उद्देश्य की पूर्ति हेतु राष्ट्र के विकास में शामिल करने की पहल करना मात्र है.जो शासन की और धर्माधिकारियों की आपसी सामन्जस्य के बिना कदापि संभव नहीं.यह भी संभव है कि मेरे विचारों से देवस्थान ट्रस्ट कदापि समान्जस्य ना बिठा पाये.किंतु अब समय आ गया है. कि देव स्थान के मानव संसाधन को भी भक्तों के मानव निर्माण और राष्ट्र के धनधान्य निरूपण के माध्यम से विकास कदम में सहयोग करें.आस्था के चिंतन में बदलाव लाकर सोलिड मनी को लिक्विड मनी में बदलने की.जो सरकार के अलावा कोई नहीं कर सकता.जब सरकार आम जन से सोने की आवश्यकता और भंडारण की सीमा की उम्मीद कर सकती है और कानून बना सकती है.तो फिर देव स्थानों के रूप में स्वर्ण टकसालों की धरोहर को भी इस सापेक्ष खडा कर देश की आर्थिक नीति अर्थात स्वर्ण नीति को लागू करे. वित्त मंत्रालय इसमें मध्यस्थ का काम करे.जनता की दान दक्षिणा -देवस्थान ट्रस्ट की आमदनी -राष्ट्र अर्थव्यवस्था आपस में अंतर्संबंधित हो तो जनता और सरकार दोनों की आस्था देव स्थानों के प्रति ज्यादा प्रबल होगी. तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जैसे ही अन्य देव स्थान ट्रस्टों को भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

एक और "अनुशासन पर्व"

एक और "अनुशासन पर्व"
नोटों के विमुद्रीकरण का प्रभाव कम हुआ ही नहीं कि सरकार के औचक फैसले कहीं ना कहीं पर नागरिकों को आश्चर्य में डाल रहीं है.विनोवा भावे आज अगर होती तो निश्चित ही इस लहर को एक और अनुशासन पर्व का नाम जरूर देती.विमुद्रीकरण से ना उबर पाने वाली जनता और बैंक अब इस बात का हिसाब लगायेंगें कि किस लाकर में कितना सोना भरा हुआ है.पुस्तैनी से लेकर अपनी गाढी कमाई से खरीदा गया सोना भी अब सरकार को काले धन की बदबू फेंकता नजर आने लगा.वैसे सरकार ने जो सोना रखने लिमिट तय की है वह कहीं ना कहीं आम जन पर मार कम पडने वाली है.परन्तु शादी और अन्य उत्सवों में आभूषणों के लिये खर्च किये जाने वाले सोने की दर परिवारों के लिये गले का फांस बनने वाली है.यह तो सच है कि सोना और चांदी हर घर में कुछ ना कुछ पुस्तैनी रूप से एक पीढी से दूसरी पीढी में स्थानांतरित होती हैं किंतु इसका पूरी हिसाब सरकार को दे पाना यथा संभव बहुत कठिन होगा.अब सवाल यह उठता है कि सोने के साथ साथ चांदी और प्लेटिनम और हीरे को क्यों किनारे कर दिया गया. क्या काला धन सिर्फ सोने के साथ ही बदला जा सकता.कहीं ना कहीं इनके साथ तटस्थ फैसला नहीं.कभी कभी तो लगता है.की हीरा भी एक माध्यम है जहां काला धन चमक के सामने सरकार को नहीं दिखाई दे रहा है.सोने के सामने अधिक्तर हीरे जवाहरात की भी जांच होनी चाहिये ताकि धन्ना सेठों की तिजोडियों की भी जांच होनी चाहिये.भगवान को दान दिये जाने वाले आभूषण और हीरे जवाहरात पर सरकार क्यों मौन हो जाती है.यह कैसा अनुशासन पर्व है.जिसमें सोने को अनुशासन में लाकर अन्य रत्नों और जवाहरातों को इसके बाहर कर दिया गया.
इंदिरा जी की एमर्जेंसी समय और अब का  आर्थिक एमर्जेंसी कहीं ना कहीं पर कई अर्थों में समता रखती हैं.इस अनुशासन में आम जन के साथ साथ राजनेता भी फरमान के दायरे  में आते जान पडते हैं.जबकी दायरे से वास्तविक रूप से बाहर हैं,मीसाबंदी का यह अनुशासन पर्व जेल भरो आंदोलनों से काफी दूर है.इसमें अर्थ को मूल मानकर सरकार काले धन की जुगत भिडा रही है.किंतु आज तक विदेशों का कालाधन हमारी नजर में नहीं आ पाया.क्या जन धन में कुछ रुपये की रेवडी बांट देने से यह विषय कहीं दब जाता है,क्या आम जनता की परेशानियों की माला बढने वाली है.यह तो आने वाला वक्त बतायेगा.किंतु सरकार के नियमों में हो रहे बदलाव,व्यवसाय को कैशलेस करने की कवायद कहां तक व्यवसाइयों और आम जनता के पक्ष में गई.इस बात को कोई नहीं समझ पाया है.सब सरकार को अपने पक्ष में मान कर सुखद भविष्य की आशा के साथ अपने दुखद वर्तमान को झेलने के लिये तैयार बैठे हैं,उपचुनाव के नतीजे इसके सबूत हैं.किंतु कैश लेस करने की कवायद में इससे जुडे उद्योग फले फूले हैं.किंतु आज भी एक महीने होने को हैं.किंतु बैंक के अधिक्ततर कर्मचारी जनता की विमुद्रीकरण सेवा में व्यस्त हैं.आम जनता आज भी लेश कैश के लिये एटीएम की राह तक रही है.अनुशासन की ऐसी कदमताल जल्दबाजी का परिणाम तो है ही.रही बात सोने की खपत को टैक्स की जंजीरों में कैद करने तो सोने के अलावा भी बहुत सी धातुए और रत्न हैं जिनका उपयोग काले धन को सफेदकरने के लिये हथियार के रूप में हो रहा है.उसे भी इस दायरे में आना चाहिये.जमीन भी कुछ इसी तरह का हथियार है.इनके साथ साथ विदेशों में छिपा काला धन कब जनता के सामने आयेगा.इसका इंतजार है.यही आर्थिक अनुशासन जनता के मन को धैर्य प्रदान कर रहा है.हमारा वर्तमान तो यही कह रहा है.कि चाहे जितना कैशलेस अर्थव्यवस्था की धुन छेडी जाये किंतु भारत की अधिक्तर जनसंख्या कैश के सहारे ही जीवन यापन कर रही है.काला धन कैश लेस अर्थव्यवस्था में आम जनता को ना उलझाये और काले धन के स्रोत को देश में घर वापसी करें यही सरकार का ध्येय होना चाहिये.

अनिल अयान,सतना९४७९४११४०७