मंगलवार, 23 मई 2017

फांसी से ना निकलेगा ये फांस

फांसी से ना निकलेगा ये फांस
दिसंबर सन बारह के उस निर्भया कांड का फैसला सुप्रीम कोर्ट के द्वारा विगत दिनों आ गया। इस फैसले के लिये उस समय से लेकर आज तक पूरे देश में रैलियां, प्रदर्शन, विरोध, आंदोलन किये गये। कोर्ट के रास्ते में इतने साल लग गये कि देखते ही देखते समय ने अपने पर लगा लिये। परन्तु इस घटना से हर जेहन में कई सवाल उठते होंगें जिसके केंद्र में बहन बेटी और महिला का हर वो रिश्ता होगा जो आज खतरे में सहमा है। ऐसा नहीं है कि निर्भया कांड के बाद जो कानून बने वो इस तरह की बलात्कार की घटनाओं को रोक लिये. दिल्ली बस में बलात्कार का प्रतिशत इस कानून के बनने के बाद बढा है। परन्तु पूरी दिल्ली इस मामले में मौन है। उनके पास कोई जवाब नहीं है। हम बलात्कार ना हो इस लिये कोई रास्ता निकालते नहीं है बल्कि बलात्कार होने के बाद पीडिता को न्याय दिलाने के लिये और आरोपियों को सजा दिलाने की बात पर बहस बाजी करते हैं। यदि हम समाज में बलात्कार को रोकने के कदम उठायें तो दूसरा काम न्याय और आरोपियों तक मामला ही ना पहुंचेगा। सवाल यह उठता है कि कोर्ट के द्वारा दी गई फांसी की सजा बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को रोक सकेगी।
आज देश में तेरह साल बाद बलात्कार के आरोपी को फांसी की सजा दी गयी। इस के पूर्व अंतिम फांसी सन २००४ में बंगाल के धनंजय चटर्जी को कोलकाता में एक पंद्रह वर्षीय स्कूली छात्रा के साथ किये गये बलात्कार के लिये दी गयी। वो भी १४ वर्ष तक दलीलों और याचिकाओं के बाद यह निर्णय आया था। आज दो हजार सत्रह में किसी मामले में पांच साल बाद फांसी का निर्णय आया है। अब यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारा कानून और न्यायालय बलात्कार के लिये फांसी की सजा के लिये खुद को कितना अव्यवस्थित समझता है। सबसे अहम बात यह है कि सन बारह में पीडिता की मृत्यु के बाद यह मामला कुछ महीनों के बाद ही फाइलों में बंद हो गया था.किंतु मार्च सन पंद्रह में डाक्यूमेंट्री फिल्म इंडियाज डाटर जिसे लेस्ली उड्र्विन ने निर्देशित किया था। भारत की न्याय व्यवस्था में खलबली मचा दी। इस में दोषी मुकेश के बयान को फिल्म में स्थान दिया गया।यूट्यूब से लेकर बीबीसी में इसे प्रसारित किया गया।मुकेश के घिनौने बयान ने दोबारा जनाक्रोश को उच्चतम शिखर तक पहुंचा दिया। उस समय भारत सरकार ने इसके प्रसारण पर रोक लगाने की अपील की परन्तु उसके पहले ही इसे लाखो यूजर्स देख चुके थे। यह फिल्म भी निर्भया कांड पर पूरी तरह से आधारित थी। इसने न्याय की मांग को और तीव्र कर दिया।एनसीआरबी के सन १५ के अनुसार ३४६०० मामले एक वर्ष में दर्ज हुये जिसमें ३५-४० प्रतिशत मामले आज भी कोर्ट में लंबित है। दो हजार बारह के बाद सरकार ने विशेषकर दिल्ली में ६ फास्टट्रैक कोर्ट का गढन किया गया। जिसको तीन हजार केस दिये गये निपटारा करने के लिये परन्तु उसमें से १६०० मामले इन कोर्ट्स के द्वारा निपटारा ही नहीं कराया जा सका। फास्ट ट्रैक कोर्ट में अधिक्तर बलात्कार पीडितायें बदनामी, दोषियों की ताकत, अपने परिवार और समाज की इज्जत और राजनैतिक व समाजिक दबाव के चलते चुप्पी साध लेती हैं। इसके पीछे भी पितृसत्तात्मक सत्ता प्रमुख कारण रही है। इतना ही नहीं निर्भया जैसी ना जाने कितनी बेटियां हैं जिनका हाल बलात्कार के बाद कष्टमय हो चुका है किंतु उन्हे न्याय नहीं मिल सका क्योंकि उनके साथ कोई मीडिया या कोई महानगर का नाम नहीं जुडा था।आज भारत में औसतन हर आधे घंटे में एक रेप की घटनायें घट रही है। और इनके न्याय के लिये एक दशक का समय भी कम पड जाता है।
सवाल यह खडा है कि क्या समाज अब नपुंसक हो गया है जो कानून और सजा के शस्त्रों के माध्यम से इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिये मजबूर है। हम यह तो चाहते हैं कि हमारे घर की बहन बेटियों को कोई बुरी नजर से देखे नहीं। किंतु हम में से ही कई राह चलते किसी भी राह चलती लडकी को बुरी नजर से देखने के साथ साथ अश्लील कमेंट्स मारने में पीछे नहीं होते। अपने दोस्तों की टोली में हम इतने मग्न हो जाते हैं कि हम भूल जाते हैं कि हमारे जैसे अन्य कई लडके इसी काम को हमारी बहन बेटियों के साथ अंजाम दे रहे होंगें। कायदा तो यह है कि घर से अगर बच्चों को यह सीख दी जायेगी कि सम्मान हर बहन बेटी का बराबर होना चाहिये। समाज में इस सोच को धरासाई करने के लिये कदम उठाने होंगे। पीढियों के बीच की खाई को खत्म करके बच्चॊं की परिवारिक काउंसिलिंग करने की नितांत आवश्यकता है। होता अमूमन यह है कि परिवार में लडके और उसकी जुडी हरकतों को नजरंदाज किया जाता है।उनके भाई होने पर तो गुमान होता है परन्तु उसकी लफंगई पर परदा डाल दिया जाता है।लडकियों को ऐसे बंधन और नियम कानून सिखाए जाते हैं मानो वो वैदिक कालीन परंपरा का निर्वहन कर रही हों। जब तक हमारी सोच  समान नहीं होगी। बेटे बेटी के लिये बराबरी का विचार समाज में नहीं जायेगा। तब तक यह पुरुषप्रधान मानसिकता स्त्री को अपनी जैविक सम्पत्ति समझने की गलती करती रहेगी। फांसी से यह गहराई तक चुभा फांस नहीं निकलने वाला है। आवाज हमारे घर से उठनी चाहिये। स्वतंत्रता और रिश्तों के प्रति दायित्व जितना लडकियों को सिखाये जाते हैं उससे कहीं ज्याद लडकों को भी सिखाये जाने चाहिये। ताकि बलात्कार जैसी घटनाओं में विराम लग सके।

अनिल अयान,सतना

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