शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

"अभिव्यक्ति के वैचारिक खतरे"

"अभिव्यक्ति के वैचारिक खतरे"
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/उठाने ही होंगे/तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब/पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार/तब कहीं देखने मिलेंगी हमको/नीली झील की लहरीली थाहें/जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता/अरुण कमल एक। (मुक्तिबोध) यह कविता तो हम सबने सुनी ही होगी। मुक्तिबोध जैसा रचनाकार बहुत साल पहले यह रचकर चला गया कि मुक्ति का बोध कैसे प्राप्त होगा हर इंशान को। संघर्ष के समय हमें किस विषय पर किस तरह के विचार व्यक्त करने होगें। हर व्यक्ति के अंदर समाज स्थित होता है। समाज में हर व्यक्ति खुद समाज की एक इकाई होता है।हर व्यक्ति समाज में रहता है। समाज की अभिव्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति बनाने की चेष्टा करता है। या फिर समाज में अपनी अभिव्यक्ति को समाज की अभिव्यक्ति बनाने के लिए प्रयास करता है। वैचारिक अभिव्यक्ति से लेकर, सांस्कृतिक सामाजिक, और शैक्षिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के नाम अभिव्यक्ति का महिमामंडन कुछ ऐसे बिंदु हैं जिस पर स्वस्थ बातचीत की आवश्यकता है।
समाज सापेक्ष हमारी अभिव्यक्ति क्या है यह भी हमें समझने की आवश्यकता है। वर्तमान समय में हमने अभिव्यक्ति को अपना अधिकार तो माना है किंतु अभिव्यक्ति को अपने कर्तव्य के रूप में नहीं देखते हैं।भारतीय संविधान के निर्माण के दौरान संविधान सभा में हुई बहसों में ‘विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नागरिक स्वतंत्रताओं की आधार रेखा' कहा गया है. संविधान की धारा 19(1) जिन छह मौलिक अधिकारों का प्रावधान करती है उनमें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पहला स्थान है. अन्य मौलिक अधिकारों की ही तरह विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी आत्यांतिक और अनियंत्रित नहीं है. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त सीमाएं इन बातों के आधार पर लगायी जा सकती हैं- 1)मानहानि, 2)न्यायालय की अवमानना, 3)शिष्टाचार या सदाचार, 4)राज्य की सुरक्षा, 5)दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, 6)अपराध के लिये उकसावा, 7)सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और 8) भारत की संप्रभुता और अखंडता.  आदि कुछ ऐसे बिंदु हैं जो यह स्पष्त करते हैं कि हमारी अभिव्यक्ति की नाक कितनी बड़ी होनी चाहिए और नाक की लंबाई को कितना बढाना चाहिए कि वो कटने से बची रहे।
कभी कभी हमारी स्वतंत्रता हमारे लिखे और बोले गए विचारों को वाद विशेष से जोडने का माध्यम बन जाता है। अगर हम स्वतंत्र अभिव्यक्ति करते हैं तो हमारे ऊपर कोई वाद पंथ या कोई समुदाय हावी नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा है तो हम कहीं ना कहीं पर वैचारिक गुलाम हो चुके हैं। इसके लिए आवश्यक है कि दोनो दिशाओं से मंडराते खतरे अपना सिर उठा रहे हैं उनके बीच समभाव से काम करते हुए एक दूसरे के विचारों का सम्मान दिया जाना चाहिए।हमारी स्वतंत्रता अगर सवाल करने की स्वतंत्रता देती है तो सवालों को सही तर्क और तथ्य के अधारा पर जवाब देने की सहन शक्ति भी प्रदान करती है। जो हमारा कर्तव्य भी है।सवाल करने की ताकत से लोकतंत्र मजबूत बनता है। अपने से भिन्न विचारधारा रखने वाले लोगों की विचारधारा का सम्मान और विचारधाराओं से परे व्यक्ति का महत्व भी लोकतंत्र के लिए जरूरी है। विकसित राष्ट्र के लिए भविष्योन्मुखी दृष्टि का होना जरूरी है। और जरूरी हो जाता है साहसपूर्ण स्वर का सम्मान करना जो  एक  साहस पूर्ण वैचारिक स्वतंत्रता का दूसरा पहलू है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी एक दो पहलू वाल सिक्का है जिसके एक पहलू को तो हम बखूबी याद रखते हैं किंतु दूसरे पहलू को हम बहुत जल्दी भूल जाते हैं। यह भूल जाते हैं कि हमारी स्वतंत्रता से किसी की स्वतंत्रता बाधित ना हो। हमारे विचार अगर आयातित हैं तो हम बहुत जल्दी उग्र हो जाएगें क्योंकि हमारे पास वैचारिक रटन्त विद्या का उथला बोझ है। हमारे पास विषय वस्तु पर ज्ञान का सागर ना होकर मात्र बरसाती नाले का मौसमी बहाव है। इस बहाव में हमारे साथ हमारी शांति बहजाती है और कट्टरता उफान पर आजाती है। आज जरूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ढकोसले को भिन्नता करने की। अगर हम इस भिन्नता को समझ लेते हैं तो शायद हम अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को  सही मायने में उपयोग कर पाएगें। अन्यथा इस स्वतंत्रता को किसी की वैचारिक परतंत्रता के लिए बलिदान करते रहेंगें।
अनिल अयान सतना

९४७९४११४०७

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