मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

सतना के उद्योग बनाम पर्यावरण सुरक्षा


सतना के उद्योग बनाम पर्यावरण सुरक्षा
सतना शहर यानि सीमेंट सिटी,सतना के उद्योग बनाम पर्यावरण सुरक्षा का दारोमदार कही ना कहीं हम सभी के हाथों में होता है परन्तु यह भी सच है कि हमारे प्रयास को कहीं ना कहीं डीठ लगाने का कार्य सीमेंट उद्योग भी करते रहे है.समय दर समय इन उद्योगों की संख्या लगातार बढती जा रही है. क्योंकि इस क्षेत्र में चूना पत्थर की प्रचुर मात्रा पायी जाती है और सीमेंट बनाने के लिये इसका उपयोग मूल कारक के रूप में सामने आता है.इस विषय के कई पहलू हो सकते है परन्तु यदि फायदेमंद पहलू यह है कि इन उद्योगों से कहीं ना कहीं यहाँकी अर्थव्यवस्था की रीड बनती है उसी तरह दूसरा सबसे हानिकारक पहलू यह भी है कि इसके आस पास १० कि.मी. तक का पर्यावरण पूरी तरह से अव्यवस्थित हो जाता है जिसको दोबारा व्यवस्थित होने में आने वाले ५० साल लग जायेगें.इसका कुप्रभाव पर्यावरण और इससे संबंधित ईको सिस्टम में पडता है. आस पास की जमीन, जल और वायुमंडल भी प्रदूषण का शिकार होते आ रहे है. सबसे ज्यादा इसके आसपास रहने वाले लोग और उनके स्वास्थ्य पर पडने वाले प्रतिकूल प्रभाव को हम अपने आर्थिक फायदों के लिये नजरंदाज नहीं कर सकते है.फेफडों,गुर्दे, और ध्वनि संबंधी बीमारियाँ,और हॄदय रोग संबंधी शिकायतों का अंबार है इन उद्योगों के आसपास रह रहे लोगों के जीवन में.
            इस सब के बाद भी यदि पर्यावरण प्रदूषण विभाग यदि सतना को प्रदूषण मुक्त शहर घोषित कर लोगों और प्रशासन की वाहवाही लूटे तो बहुत अफसोस होता है.और आश्चर्य की सीमा भी नहीं रहती है.प्रशासन ने पर्यावरण संरक्षण संबंधित बहुत से नियम कानून और एक्ट बनाये है लेकिन सतना के इन उद्योगो के लिये इस तरह के नियम कानूनों का कहीं प्रभाव नहीं दिखाई पडता है.ना जाने क्यों.सब प्रभाव हीन सा नजर आता है. इस उद्योगों के अंदर की जमीन और पर्यावरण तो बहुत शानदार होता है. खूब धन का खर्च किया जाता है. हरियाली का सघन प्रभाव दिखाई देता है. परन्तु इसके बाहरी सीमा में पर्यावरण की जर्जर स्थिति और प्रदूषण का सबसे ज्यादा कुप्रभाव दिखाई पडता है.समय रहते यह सब  इतना बढने लगा है कि आस पास के लोगों के जीवन अस्तव्यस्त से होगए है. वैसे तो नियम कानून के अंतर्गत पर्यावरण के खिलाफ व्यवहार करने वाले संस्थानों के लिये अनेक प्रकार की सजा और जुर्बाना है परन्तु आर्थिक दृढता के चलते सबके मुँह में ताला लगा होता है.सतना की पर्यावरण का दुषप्रभाव यह है कि बेमौसम बारिस का होना, जमीन उर्वरा क्षमता का ह्रास और जमीन के अंदर के जल स्तर का लगातार नीचे चले जाना और सल्फर की मात्रा की अधिक्तम सीमा के ऊपर पहुँच जाना है.आस पास के जीवजन्तु और जलीय जीव के साथ साथ पेड पौधे भी इसी कुप्रभाव के शिकार हो रहे है.हम सब इतने खुद गर्ज हो गये है कि औद्योगीकरण की भागादौडी में इतना अंधे होगये है कि अपने आर्थिक उन्नयन के लिये अपना मूलभूत विकास उपक्रम को बिसरा दिये है.हम सबकी पुरानी आदत है कि आस्तीन में साँप पालने से बाज नहीं आते है. और उस पर तब तक अंधविश्वास करते है जब तक की वो हमें डस नहीं लेता है.आज के समय की माँग है कि हम सब जागरुक हों. पर्यावरण के प्रति ज्यादा से ज्यादा सोचें और इस के बचाव के लिये कदम भी उठाये.यह स्थिति हर उस जगह की भी है जहाँ पर इस तरह के रसायनिक उद्योग स्थापित है. इस में सतना जिला का नाम विंध्य में प्रथम  है और इस वजह से हमारा प्रथम दायित्व है कि इस केंपेन में हम सब मिल जुल कर पर्यावरण को सुरक्षित करें और प्रदूषण को कम करें.इस पूरे कार्य में यदि हम देखें तो उद्योग ,जनमानस और प्रशासन एक त्रिकोण की तरह कार्य करते है.और केन्द्र में है पर्यावरण जिसे तीनों के एकाकी प्रयासों से ही बचाया जा सकता है.प्रशासन के उद्देश्यों को ताक में रखकर प्रदूषित वातावरण में आर्थिक और औद्योगिक विकास करके भी प्रशासन क्या कर लेगा यदि समाज का हर तबका और जीव जन्तु, पेड पौधे और पर्यावरण बीमार है.
सीमेंट उद्योग सतना के लिये कोई दुश्मन नहीं  है परन्तु उनका पर्यावरण के प्रति उदासीन हो जाना और क्रियाहीन रवैया किसी दुश्मनी से कम भी नहीं है.प्रशासन का पर्यावरण के प्रति उदासीनता,सिर्फ खानापूर्ति कर कागजी कार्यक्रमों की समीक्षा करना भी पर्यावरण से दुश्मनी को ही जग जाहिर करता है. इस लिये इस एकाकी त्रिकोण को चाहिये की पर्यावरण की जर्जर व्यवस्था को मजबूत करें.समाज के साथ हाथ से हाथ मिला कर इस केंपेन मे भागीदारी करें तभी हम अपने अमूल्य पर्यावरण को बचा सकते है. वरना उद्योगों की सीमा रेखा की दीवारों और भवनों की दीवारों पर लिखे नारों के दम पे पर्यावरण नहीं सुरक्षित होने वाला है.
अनिल अयान,सतना.

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

आगामी सरकार की चुनौतियाँ

आगामी सरकार की चुनौतियाँ
कल ही चुनाव परिणामों की घोषणा हुई है और जन मानस ने यह बात स्पष्ट कर दी है कि आज के दौरान जिस तरह की पूर्व पंचवर्षीय कार्यकाल का प्रभाव था वह समय के अनुरूप जनता के ऊपर प्रभाव नहीं डाल पाया है. और इस कुप्रभाव का परिणाम था की सरकार को और अधिक समर्थवान बनने की आवश्यकता है.यह कहीं ना कहीं कठिनतम तो है ही साथ ही साथ बहुत चिंतन पूर्ण कार्य भी होगा.यह सच है कि पूर्व में बनी सरकार ने मध्यप्रदेश को सजाने और सवारने में कोई कसर नहीं छोडी है. परन्तु स्थानीय स्तर पर यह प्रयास कम ही किया गया. स्थानीय उपक्रम तो काफी हद तक सार्थक स्वरूप  में जनता के सामने भी आया परन्तु जनप्रतिनिधियों का कार्यकाल दुविधाओं से भरा था और यह बात जनता के द्वारा दिये गये वोटों ने काफी कुछ साफ भी कर दिया है.इस बार बनने वाली सरकार के लिये यक्ष प्रश्न यहीं है कि सरकार को आगामी पाँच वर्षों के लिये एक कार्ययोजना का निर्माण करना होगा जिस पर पूरी तरह से अमल किया जा सके .वरना अंततः यही देखा गया है कि समय के गुजरने के साथ कार्ययोजना का परिणाम सिर्फ कागजों में निकल कर रह जाता है. मेरे अवलोकन के अनुसार नयी सरकार के सामने कई चुनौतियाँ तो प्रथम दिवस से ही आ खडी है.इसकी प्रमुख वजह इस चुनावों में किये गये वोट वितरण की रेवडी है.
सबसे पहली चुनौती है भितरघात से बचाव,इस बार के चुनाव के दरमियाँ अधिक्तर यह देखा गया है कि सीट ना मिलने की वजह से कई राजनेता भितरघातियों की तरह पार्टी में स्थान बनाये हुये है,जिनका सरकार में सामिल होता सरकार के लिये हानिकारक सिद्ध होसकता है.यही कारण है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद वास्तविक वफादार ,कदवार नेताओं  को उनके कद के अनुसार यथोचित स्थान दिया जाये. ताकि वफादारी का एक सम्मान भी बना रहेगा.दूसरी चुनौती है पिछली गलतियों और आशंकाओं पर पूर्णविराम लगाना.पिछले कार्यकाल में जिस तरह की गलतियाँ और आशंकायें जनता के बीच में बिजली के करेंट की तरह फैली है उसे पूर्णविराम लगाना.क्योंकी सरकार के जन प्रतिनिधि कुछ झूटे वादे सरकार की तरफ से करके मुकर जाते है जिससे सरकार के ऊपर थू थू होती और बने बनायी छवि धूमिल हो जाती है.अगली चुनौती है योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन और जनमानस लाभ, इस चुनौती से सरकार को सबसे ज्यादा बार रूबरू होना पडेगा.जिसकी प्रमुख वजह योजनाओं की संख्या में इजाफा के साथ समुचित व्यवस्था और क्रियान्वयन के लिये मास्टर टीमॊं का गठन करना और उनको अपने उद्देश्यों कीए पूर्ति के लिये दिशानिर्देशन करना ताकि योजनाओं का लाभ समग्र रूप से जनमानस के जरूरत मंद लोगों तक पहुँच सके.एक और प्रमुख चुनौती का सामना सरकार को करना है वह है जन प्रतिनिधियों के क्रिया कलापों पर नजर रखना ताकि वो सब अपने भाई भतीजावाद को छोड कर जनमानस के लिये सरकार के उद्देश्यों को पूर्ण करे. अन्यथा चुनाव के बाद जन प्रतिनिधि जनता के लिये काम करने की बजाय अपने को सजाने सवारने के लिये समय अधिक निकालने लगते है.और जनता के लिये वो ईद का चाँद हो जाते है.इस लिए यह आवश्यक है कि जन प्रतिनिधि जो सरकार और जनमानस के बीच का एक पुल है वो अपने राह पर ईमानदारी से चले ताकि सरकार का संदेश लोगों तक पहुँचें.वह समय जा चुका है जब लोग धर्म सम्प्रदाय के नाम पर प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते थे को यह बात जानना बहुत जरूरी है कि चुनाव यदि विकास के मद पर लडा जायेगा तो सरकार के उद्देश्य जरूर पूरे और जनता के लिये वो ईद का चाँद हो जाते है.इस लिए यह आवश्यक है कि जन प्रतिनिधि जो सरकार और जनमानस के बीच का एक पुल है वो अपने राह पर ईमानदारी से चले ताकि सरकार का संदेश और सरकार की योजनायें जनमानस तक उसी स्वरूप में पहुँचे जिस रूप में सरकार जनता तक पहुँचाना चाहती है.अगली चुनौती है युवा वर्ग को अपने साथ रखना वॄद्धों को सम्मान देना,जो सरकार को आगामी वक्त के लिये सरकार के लिये आवश्यक है. आज के समय पर सरकार होगें. परन्तु यदि जातिवाद,धर्म और संप्रदाय की नींव में यदि सरकार खडी होगी तो उसे धराशायी होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.इन चुनौतियों का समाधान करना समय की माँग है क्योंकी आज तक सरकार ने जो भी काम किया है वह काबिले तारीफ है. परन्तु अपेक्षा भी एक प्रमुख कारक है जो  सरकार को आँखों का तारा बनने के लिये खरा उतरने का माँग कर रही है.
आगामी सरकार के लिये इस लिये आवश्यक है कि समय के रहते और समय की माँग को मानते हुये अपनी चुनौतियों के लिये कमर कसकर अगले पाँचवर्षों के लिये शुभारंभ करें.यदि सरकार विकास और समृद्धि को अपना मुद्दा बनाकर काम करेगी और अपनी पार्टी के जन प्रतिनिधियों पर नकेल कस कर रखेगी तो उसके लिये आगामी पाँच वर्ष ज्यादा लाभकारी हो जायेगे.
अनिल अयान सतना.


.

जेलों में कई बेगुनाह,कौन सुनेगा इनकी आह

कब तक सहे
जेलों में कई बेगुनाह,कौन सुनेगा इनकी आह
भारत की जेलों में आज के समय में ८० प्रतिशत गुनहगार सजा काट रहे हैं. और २० प्रतिशत ऐसे दोषी है जिन्हे इस बात का पता ही नहीं है कि उन्हे किस बात का दोषी माना गया है. कभी या तो किसी गुनहगार का साथ देने के कुसूर ने उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया. तो कभी अपने की जान बचाने की कीमत अदा करने के लिये सलाखों के पीछे चले गये. इस देश की बहुत सी समाजिक पत्रिकायें है बहुत से पत्रकार हैं जो इस बात का पता लगाने के लिये अपने जीवन तक को दाँव में लगा दिया परिणाम आया कि जेलों में सिर्फ समाज के गुनहगार ही सजा नहीं काट रहे है. बल्कि वो बेगुनाह भी अपना जीवन सश्रम कारावास, या कारावास भोग रहे है जिनका कोई माई बाप नहीं है.कोई सुनने वाला नहीं है. समाज में बहुत सी घटनायें घटित होती है जिसमें शक के बिनाह में लोगों को हिरासत में लिया जाता है. उन पर केश चलता है और सुनवाई भी होती है. परन्तु निर्णय यह आता है कि सबूत जिसका समर्थन करते है वो बाइज्जत बरी हो जाता है. और अन्य जेल की सजा भुगत रहे होते है. कभी यह नहीं खोजा जाता है कि सबूत वास्तविक कितने है या फिर कितना मूल्य देकर खरीदा गया है. न्यायालय की व्यवस्था ही ऐसी है जिसमें सबूत और दलीलों का सम्राज्य होता है.जिस पक्ष की दलीलें प्रभावी होती है वो पक्ष ही विजयी होता है. और समय गुजरने के साथ इस तरह के केस की फाइल बंद कर दी जाती है. और फिर शायद ही कोई सुनवाई होती है.समाजिक सरोकारों के झमेले में पडकर ये लोग जेल की सजा भुगत रहे होते है और इनका जीवन भी जेल के अंदर बदतर होता है जेल के बाहर निकलने पर बद से भी बदतर हो जाता है.इसके लिये मै समाज के बेताल खोपडी को ही दोषी मानता हूँ. समाज अपने अख्खड स्वभाव की बेडियों को पहननें के लिये मजबूर होते है.वो आम इंसान के पावर और मजबूरियों को समझने के लिये तैयार ही नहीं होता है.
जेल की चारदीवारी खुद सबूत है हर साल कई महिलायें पुरुष और युवा वर्ग की ऐसी कतार है जो जेल में पहुँचने के बाद अपनी रिहाई की मिन्नते माँगते है और असफल रहते है. जेल की सजा के कुछ दिन तक सब लोग समय समय पर मिलने आते है और समय समय पर अपनी याद दिलाते है परन्तु धीरे धीरे,जैसे जैसे समय गुजरता चला जाता है वैसे वैसे ही लोग दूर होते चले जाते है. ये बेगुनाह मजबूर होकर जेल में अपना जीवन पूरा नहीं तो काफी समय गुनहगारों के बीच गुजारने के लिये मजबूर होते है. गुनाह धीरे धीरे उनके मन मष्तिस्क में प्रवेश करने लगता है. क्योंकि उम्मीद पूरी तरह से इस समाज और उनके परिवार के द्वारा समाप्त कर दी जातीहै. या तो ऐसे बेगुनाह लोग जेल से बाहर जिंदा निकल नहीं पाते है और यदि ऊपर वाले की कृपा से कभी बची कुची जिंदगी का यापन करने यदि ये बाहर आते भी है तो समाज के कुछ प्रतिनिधि धन्ना सेठ इनको दुत्कार दुत्कार कर इस स्थिति में ला देते है कि ये परिस्थितिजन्य अपराधी बनने के लिये मजबूर हो जाते है. कभी जरा इस बात मे गौर करें कि इस तरह के जेलों में बेगुनाह जीवन जीने वालों के लिये माई बाप कौन है. या ये सब भी गेहूँ के साथ घुन के पिसने वाली कहावत चरितार्थ करने के लिये मजबूर ही रहेंगे. आजकल इस समाज के कई कोनों में बहुत संस्थाये है जो इस तरह की दुनिया वाले  बेगुनाह लोगों के जीवन के पीछे अपने जीवन के शोध को लगा देते है. परिवार के साथ मिलकर नया संबल दिया जाता है.टूटती आस को दोबारा बाँधा जाता है और फिर से अधूरी जंग को दोबारा शुरू करने के लिये कदम उठा ही लिया जाता है.तब कहीं जाकर फाइलें खुलती है फिर से जाँच शुरू होती है और फिर से सुनवाई के बाद पक्ष में निर्णय हो पाते है. आखिर न्याय तो मिलता है परन्तु बहुत देर हो जाती है. परन्तु जिन बेगुनाह लोगों तक ये प्रतिनिधि नहीं पहुँच पाते है उनका माईबाप कौन होता है. कोई नहीं ये अपनी बेबस जिंदगी जीने के लिये श्रापित होते है. मुझे लगता है कि अब आवश्यकता है कि न्याय व्यवस्था को ज्यादा पारदर्शी बनाया जाये. उसके बाद जेलों के अंदर भी काउंसिलिंग सेंटर होना चाहिये जो इस तरह के कारावासियों के साथ बात करके कुछ समयोपयोगी समाधान निकाल सकें और पुलिस समाज तथा इन लोगों के बीच एक संबंध स्थापित कर सकें.यदि साल भर में एनजीओ के प्रभावी और कारगर कदम उठे तो इस में कोई शक नहीं है कि इस तरह के केसेस बहुत कम हो जायेंगें. परनुत सबसे ज्यादा परिवर्तन की आवश्यकता है न्यायपालिका के आंशिक परिवर्तन की. जो इस तरह के बेगुनहगारों सही तरीके से जीवन यापन का रास्ता दिखायेगा.अंततः समाज की भूमिका तो सबसे अहम तो हमेशा होती है. यदि शासन माईबाप नहीं बन सकता तो हम सब तो मित्रवत मदद तो कर ही सकते है.
अनिल अयान.सतना.

शनिवार, 2 नवंबर 2013

उजाले को भीतर तक आने दो

उजाले को भीतर तक आने दो
अंतर्मन में विचारों के चिरागों को लगातार जलाने के लिये हम जितना मनन और चिंतन करेंगे उतना ही समाज के लिये लाभप्रद होगा. आज के समय में जितना ज्यादा समाजिक विद्वेश और विघटनकारी तत्वों का प्रतिपादन किया जारहा है उतना ही आज के समय में हर भारतवासी को चाहिये कि वह अपने हर पल के व्यवहार में विवेकशीलता की बढोत्तरी करे और अपने घर से किसी भी नेक मुहिम की शुरुआत करे.हमारे साथ हमेशा यही समस्या रही है कि हम हमेशा ही सोचते तो बहुत ऊँचा है परन्तु उसे कभी भी अपने घर से प्रारंभ करने की चेष्टा नहीं करते है. हर बार दीवाली का त्योहार आता है और चला जाता है परन्तु हर व्यक्ति अपने कुछ पलों की खुशी के लिये इफरात रुपया खर्च कर देता है. वह यह नहीं सोचता है कि इस रकम को कमाने में वह कितना समय कितनी मेहनत जी तोड कर करता है.आज के समय में आवश्यकता है कि हम सब समाज के उस कोने के लोगों तक भी पहुँचें जो समाज से बहिस्कृत कर दिये गये अपने समाजिक और अर्थिक निम्नता की वजह से, जिन्हे समाज अनदेखा कर देता है .जो एक दीपक तक नहीं जलासकते है. हम जितना वैभव और ऐश्वर्य में, जंके मंके में अपना समय विचार और मुद्रा नष्ट करते है उतना भाईचारे और मानवता को अपने जीवन में अपनाने पे कभी विचार नहीं करते है. आज के समय में मानव धर्माचरण करने की आवश्यकता है जिससे सच्ची भावना से समाज का हर वर्ग दीवाली मनाये अब देखिये ना...वर्तमान में हिंदुओं के देवताओं के नाम व उनके चित्रोंका उपयोग उत्पादों तथा उनकी विज्ञप्ति के लिए किया जाता है । दिवाली के संदर्भ में इसका उदाहरण देना हो, तो पटाखों के आवरणपर प्राय: लक्ष्मीमाता तथा अन्य देवताका चित्र होता है । देवताओंके चित्रवाले पटाखे जलानेसे उस देवताके चित्रके चिथडे उछलते हैं और वे चित्र पैरोंतले रौंदे जाते हैं । यह देवता, धर्म व संस्कृतिकी घोर विडंबना है । देवता व धर्मकी विडंबना रोकने के लिए प्रयास करना ही खरा लक्ष्मीपूजन है । अपने युवा दिल की धडकनों से दीवाली में यह भी कहना चाहता हूँ कि दोस्तों ! दीवाली का त्योहार जाते-जाते आपको कुछ संदेश देता है बशर्ते आप उसे समझ पाएँ। कोशिश करें कि अगली दिवाली तक आप इस पर अमल कर पाएँ।करियर की चमक को दूर तक बिखेरने के लिए इस दीपावली कुछ प्रण करें कुछ आत्मचिंतन करें और खुद के लिए कुछ फैसले करें। असफलता से डरें नहीं! अपनी असफलता को न केवल अपने शुभचिंतकों के सामने रखें, बल्कि अपने सामने भी रखें, तब आपके भीतर का अंधेरा अपने आप छँट जाएगा। कई बार आप दोस्तों की सलाह पर कोई कदम उठा लेते हैं, पर क्या कभी आपने सोचा की जरूरी नहीं जो दोस्त कर रहा हो वह आपके के लिए ठीक हो! एक स्तर के ऊपर अगर आपको लगे कि आप किसी अन्य की सफलता से जरा ज्यादा ही जलने लगे हैं तब मन पर जम रही इस बुराईरूपी बारूद को जरूर हटाएँ। इस दीपावली प्रण करें कि अपने करियर को नई ऊँचाई देने के लिए पहले आप अपने आप में खुश रहेंगे। अगर खुश रहेंगे तब सफलता निश्चित रूप से आपके कदम चूमेगी।रोशनी का पर्व है दोस्तों और करियर को नई राह देने के लिए भी यह समय ऐसा है, जब आप कुछ बातों पर अगर ध्यान देंगे तब करियर न केवल रोशनी में नहा जाएगा बल्कि आप ओरों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकेंगे। करियर की चमक को दूर तक बिखेरने के लिए इस दीपावली कुछ प्रण करें, कुछ आत्मचिंतन करें और खुद के लिए कुछ फैसले करें। जिस प्रकार दीपावली के दिन संपूर्ण वातावरण प्रकाशमान हो जाता है ठीक उसी तरह आपका करियर भी दैदिप्यमान हो सकता है बस जरूरत है पहल करने की। हम अक्सर अपने भीतर ऐसी बातों को छुपा कर रखते हैं जिनके बाहर आने का हमें डर रहता है और लगता है कि अगर ये बातें जमाने को पता पड़ गईं तो हमें लोग क्या कहेंगे? अगर आप अपने भीतर साफगोई का उजाला आने देंगे और अगर आप अपनी असफलता को न केवल अपने शुभचिंतकों के सामने रखेंगे बल्कि अपने सामने भी रखेंगे तब आपके भीतर का अंधेरा छँट जाएगा और आप स्वयं को दुनिया के सामने और भी बेहतर तरीके से रख सकेंगेअक्सर हम अपने करियर को हड़बड़ाहट में अलग रास्ते पर ले जाते हैं, अगर आप इस दीपावली से किसी भी निर्णय धैर्यपूर्वक लेंगे तब आपके करियर पर इसका अच्छा असर पड़ सकता है। आप कई बार दोस्तों की राय पर कोई कदम उठा लेते हैं पर क्या कभी आपने सोचा की जरूरी नहीं जो दोस्त कर रहा हो वह आपके के लिए ठीक हो।अपने आप को भीतर से रोशन करें.हम अपने करियर को बनाने के लिए पढ़ाई करते हैं और न जाने कितने प्रकार के नोट्स पढ़ते हैं। ऐसे में कई बार हम अपने आप की ओर ध्यान नहीं दे पाते। दोस्तों जान है तो जहान है। इस कारण अपने आपको भीतर से रोशन करने के लिए नियमित रूप से व्यायाम,योगा आदि जरूर करें।मन से बुराई रूपी बारूद हटाएँ.इंसान का मन में ईर्ष्या,जलन और स्वार्थ की भावनाएँ आना स्वाभाविक हैं। पर एक स्तर के ऊपर अगर आपको लगने लगे की आप किसी अन्य की सफलता से जरा ज्यादा ही जलने लगे हैं, तब मन पर जम रही इस बुराईरूपी बारूद को जरूर हटाएँ वरना यह भविष्य में काफी तकलीफदेह हो सकती है.गर आप मन से प्रसन्न हैं तब निश्चित रूप से आप के आसपास का वातावरण भी खुशियों भरा ही होगा। इस दीपावली प्रण करें की अपने करियर को नई ऊँचाई देने के लिए पहले आप अपने आप में खुश रहेंगे। अगर खुश रहेंगे तब सफलता निश्चित रूप से आपके कदम चूमेगी।अंत में बस इतना ही कि....... हौसला ऐसा होना चाहिये कि..
यदि फलक को जिद है बिजलियाँ गिराने की 
फिर हमें भी जिद है वहीं आशियाँ बनाने की
सभी साथियों को इसी संदेश के साथ दीवाली की अशेश शुभकामनायें.

शौचालय बनाम देवालय


शौचालय बनाम देवालय
बहुत दिनो से देश में एक विवादित बयान में बहस छिडी हुई है कि देवालय से पहले शौचालय. यह एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर बहस बहुत पहले होती तो ज्यादा बेहतर होता क्योंकि आज के समय में आवश्यकता है कि शौचालय वाले बिंब की तरफ ध्यान दिया जाये ताकि देश का समग्र विकास हो सके. आज के समय में देश हमेशा की तरह देवालयों की ज्यादा ही चिंता करने मे लगे है. यदि मै धार्मिक बात करूँ तो धर्मग्रंथों में लिखा है कि धर्म और देवालयों का प्रभाव हर वक्त मानव के हॄदय में रहेगा चाहे जितना भी विनाश हो जाये. चाहे जितना भी विकास हो जाये. मानव इसके प्रति यदि अपने उत्तरदायित्व को दर्शाता है  तो वह उसका अति उत्साह में लिया गया अप्रभावी प्रयास होगा.समाज चाहे जितना प्रयास कर ले परन्तु अंधानुकरण से नहीं बच सकता है क्योंकि वह जानता है कि जहां पर जनता अधिकाधिक जाती है वह उतना ही प्रसिद्ध स्थान होता है.समय रहते हमें अपने विचारों और आचारों को परिवर्तित करके सही निर्णय लेने और उसके अनुसार व्यवहार करने की आवश्यकता है.इसके संबंधित बयान में पूरे देश के मीडिया को ऐसे विचलित कर दिया जैसे कि आस्था में किसी ने बहुत गहरी चोंट कर दी हो और सभी के गाल में  बहुत जोर का तमाचा पडा हो. या यह कहूँ कि किसी ने सफेदपोशी में छिपे दाग को लोगो के सामने उजागर कर दिया हो और उस बेइज्जती से  खिसिया कर सब उस पर अपना गुस्सा दिखा रहे हो.
            आज के समय में चुनाव के माहौल के चलते राजनेता भी समाज की प्रगति की बात गाहे बगाहे कर ही लेते है. वर्ना उन्हे तो यह भी नहीं पता होता की पूरे देश में समग्र स्वच्छता अभियान का कितना प्रभाव पडा है. यह भी तय है कि चुनाव के बहाने ये राजनेता समाज से राज तक का सफर तय करने की कोशिश कर रहे है. समय रहते यदि यह स्पष्ट हो जाता कि शौचालय की आवश्यकता हर घर में है बल्कि देवालय हर घर के लिये होना ना होना उनकी श्रद्धा के ऊपर निर्भर करता है. वरना सार्वजनिक रूप से तो  यह हर गली मोहल्ले और शहर में होता है. और आज के समय में यह भी तय है कि देवालयों का उपयोग सरकारी जमीन मे कब्जा करने और शासकीय फंड को हथियाने के लिये ज्यादा उपयोग करने के लिये किया जा रहा है. और समय समय में न्यूज चैनल अपनी टी आर पी बढाने के लिये भी देवालयों का भरपूर उपयोग करती है. कभी कोई चमत्कार दिखाकर, कभी कोई जादू टोना का सहारा लेकर. कभी किसी साधू बाबा की बातों को लेकर पूरे पूरे दिन एक प्रकार की ब्रेकिंग न्यूज बना दिया जाता है और धीरे धीरे वह हमारी सोच को ब्रेकिंग स्थिति में ला देता है. आशाराम और एक साधू के ऊपर सरकार का विश्वास ही तो था कि विगत दिनों में एक ऐतिहासिक मंदिर में सोने की खोज प्रारंभ हो गई. पूरा महकमा सोने की तलाश में लग गया बिना ज्यादा खोज बीन किये कि वहां पर वाकयै सोना है भी या नहीं.उस कदवार राजनैता का यह बयान कहीं ना कहीं हमें प्रायोगिक जीवन जीने की प्रेरणा देता है. हम हर उस वस्तु और धर्मग्रंथों का सम्मान करे जिसके चलते हमें अपनी विरासत में अनमोल धरोहर मिली है. परन्तु उसका अंधानुकरण करके अपना सारा काम छोड देना और अपना पूरा जीवन भगवान भरोसे छॊडकर वैरागी हो जाना.माता पिता और परिवार को छॊड कर अपनी धुन में रम जाना प्रायोगिक रूप से कहां तक सही है इस बात की विवेचना की आवश्यकता है. आज के समय में यह आवश्यकता बहुत अधिक है कि हम दोनो के बीच सामन्जस्य बना कर रखें और यदि दोनो में असमानता समझ में आती है तो हमारा जीवन कहीं ना कहीं प्रभावित हो जायेगा.
            चुनाव के समय में भले ही नरेद्र मोदी जी ने अपने उदबोधन में यह बात कह दिया हो और देश में फिर नयी परिचर्चा के शिकार हो गये हो.इसी बहाने यदि अन्य राजनीतिज्ञ अपना अपना स्वार्थ परक अर्थ निकाल कर बहस करने में लिप्त हो गये हो परन्तु यदि हम इस वाक्य में गौर करें कि देवालय से पहले शौचालय का ध्यान देने की आवश्यकता है तो हम समझ जायेगे कि ये तो एक बिंब है वास्तविकता को अपने में समेटे हुये.हां यह भी तय है कि चुनाव के समय में ऐसे बयान कहीं ना कहीं पर वख्ता को लोगों के सामने ला देता है और ध्यान केंद्रित करने का काम भी मुफ्त में हो जाता है. आज के समय में जरूरत है कि हम अपने जीवन की मूलभूत जरूरतों को पहले देखे जिसके लिये सरकार तत्पर है वरना यदि ब्रह्मचर्य ही अपनाना है तो समाज पर बोझ बनने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि यदि हम अपने मन की स्वच्छता पर ध्यान ना कर सकें  तो किसी जगह पर भी ध्यान लगाने से हमारे विकार नहीं जायेगें. इस लिये देवालय का मनन हो परन्तु शौचालय का चिंतन भी सारगर्भित होगा.
अनिल अयान,सतना.

फ्लर्ट sameeksha by anil ayaan


फ्लर्ट को पढते पढते मुझे प्रतिमा खनका के लेखन से पहली बार परिचय हुआ.ऐसा लगा की किसी फिल्म की पटकथा से परिचय हो रहा है. प्रतिमा जी ने अपनी ज्यादा उमर ना होते हुये भी फ्लर्ट की इतनी अलग ह्टकर व्याख्या की वह किसी शब्दकोश में शामिल नहीं है. कभी कभी यह भी लगता है कि यह व्याख्यात्मक भाबना कहा तक सर्वमान्य है. क्योंकि इस  समाज में जो फ्लर्ट की व्याख्या की जाती है वह ऐसा बंदा होता है जो अपनी जिंदगी के विकास के लिये किसी भी दिल के साथ खिलवाड कर सकता है.वह किसी का भी इस्तेमाल कर सकता है.परन्तु लेखिका ने अंश नाम के मुख्य पात्र के माध्यम से यह बताया है कि समाज की वह परिभाषा गलत है. पूरी कथा में अंश का किरदार यह बताता है कि वह इंशान भी फ्लर्ट की श्रेणी में आता है. जिसे उसके हालात ,चालें और उसके फैसले अपनी इच्छा से चलाते है.जिसका खुद का विश्वास कई बार टूटा हो, जो खुद के फैसलों के अनुसार बदल जाते है.जिसके दिल से और खेल जाते है जिसका इस्तेमाल अन्य लोग कई बार कर करते है वो लोग भी फ्लर्ट की श्रेणी में आते है.यह उपन्यास एक मजबूर मध्यम वर्गीय परिवार के लडके अंश की जिदगी की दास्तान है जो बहुत ही स्मार्ट है और लडकियों से अपने को बचाने के चक्कर में खुद बखुद लडकियों के प्रेम प्रसंग में परत दर परत वख्त दर वख्त कैद होता चला जाता है वह एक फैशन माडल बन जाता है परन्तु इस मुकाम तक पहुँचने के लिये उसे अपने दिल की भावनाओं को गिरवी रख देता है और बाद में दूसरे की खुशी और सफलता के लिये खुद का इस्तेमाल करवाने के लिये हंसते हंसते हाँ भी कर देता है.
            कथा वस्तु की बात करे तो अंश जो मुख्य किरदार है वह एक मध्यमवर्गीय परिवार का युवा विद्यार्थी है जिसकी मा और बहन है पिता जी का देहांत हो गया है. वह स्कूल की पढाई कर रहा है. उसके दोस्त समीर और मनोज उसे हमेशा लडकियों के बारे में बताते रहते है. वहीं पर उसकी मुलाकात होती है प्रीति से जो उसके जिंदगी की सबसे ज्यादा करीब और बाद में उसकी मंगेतर भी बन जाती  है परन्तु अंश की माडलिंग के नित नये किस्से उसे मजबूर कर देते है कि वह अंश की पत्नी बन पाने में असमर्थ पाती है. स्कूल खत्म होने के बाद अंश माडलिंग आडीशन में चयनित होकर यामिनी के साथ और संजय के साथ मुम्बई जाता है और वहाँ पर यामिनी के सौन्दर्य पर आकर्षित हो जाता है परन्तु दिल टूटने के पहले उसे पता चलता है कि यामिनी शादीशुदा महिला है जो अपने पति की सहमति से यहाँ माडलिंग कर रही है. और जल्द ही और गैर मर्द के साथ शादी रचाकर जापान शिफ्ट हो जाती है और जब वह अंश की जिंदगी में वापिस लौटती है तो अंश की औलाद के साथ और यह वजह ही अंश की पत्नी सोनाली की आत्म हत्या करने का कारण बनता है.
अंश की जिंदगी में यामिनी से पहले जब वह काल सेंटर में काम कर रहा होता है तब कोमल नाम की लडकी भी आती है वह अंश से बेहद प्यार करती है परन्तु अंश नहीं. परिस्थितियाँ अंश को मजबूर करती है कि वह कोमल को उसकी जान बचाने के लिये यह कहे कि वह उससे प्यार करता है.और यही झूठ उसे फिर से फ्लर्ट शाबित कर देता है.अंश का मुम्बई मे माडलिंग के चलते डाली,योगिता और अर्पणा जैसी महत्वाकांक्षी लडकियों को सफलता के शिखर में पहुँचाने के लिये मजबूरी में और अपने मित्र संजय के विकास के लिये मानसिक दैहिक और समाजिक शोषण करना पडता है.अंश जब हर जगह से हार जाता है और एकाकी हो जाता है तब उसे उसी शहर की अमीर घर की लडकी सोनाली से मित्रता का प्रस्ताव मिलता है वह प्रस्ताव के लिये भी संजय जिम्मेवार होता है क्योंकि इसी बहाने उसके नये स्टूडियो का आर्थिक मददगार सोनाली के पिता उसे मिल जाते है. परन्तु सोनाली अंश में इतना डूब जाती है कि वह अपने अंश के रिस्तो की पब्लिसिटी कर देती है.और अंततःवह सोनाली सेशादी करने के लिये राजी हो जाता है परन्तु जब सोनाली को यह पता चलता है कि यामिनी उसके बच्चे की माँ बनकर वापिस उसकी जिंदगी में में आती है और अनजाने ही एक रिकार्डिंग मे संजय और अंश की चालाकी भरे शब्द सुन कर आत्म हत्या कर लेती है परन्तु नाकाम रहती है. इस तरह अंश नाम का मासूम सा शिमला का बच्चा अनजाने मुकाम पाने के लिये लडकियों के फ्लर्ट के लिये पूरे देश में मसहूर हो जाता है.
            पूरे उपन्यास में प्रतिमा जी ने जो भी बताना चाहा है वह तो उन्होने यह स्पष्ट कर ही दिया परन्तु अनजाने में यह भी बता दिया कि युवा वस्था का उठने वाला तूफान या तो किनारे लगा सकता है या सब कुछ अपने साथ बर्बाद भी कर सकता है. कोमल का प्यार, डाली और अन्य माडल्स का अपनत्व सिर्फ एक दिखावा था. कोमल चाहती तो अपने प्यार को बचासकती थी परन्तु गलतफैमियां उसे और प्रीति के प्यार को कुर्बान कर दिया. यामिनी का प्यार बार बार यह बताता है कि प्यार करने की कोई उमर नहीं होती. वह शादी के पहले और शादी के बाद भी किसी से हो सकता है अपने से अधिक और अपने से कम उमर के साथी से. सोनाली का चरित्र में यह बताता है कि अपनी जिंदगी के प्रति गरीब ही बस नही अमीर घर की लडकियाँ भी संजीदा होती है.संजय का चरित्र यामिनी का चरित्र पाठकों को यह  बताता है कि आज के समय में फ़ैशन उद्योग में किस तरह लोग अपनी स्वार्थपरता के लिये मित्रो के विश्वास का गला घोंट देते है. अंश का चरित्र बार बार चींख चींख कर पाठक से यह बात कहता है कि हमें अपने माता पिता की सलाह पे भी काम करना चाहिये.अपनी इच्छा से जो मन कहे उसे कैरियर में चुनना चाहिये.किसी दोस्त के बहकावे में नहीं आकर जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहिये.
            उपन्यास युवा पीढी में फैले प्रेमरोग और आकर्षण में विभेद करने में असमर्थता की गाथा बखान करता है.यह युवा वर्ग को बार बार अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने की सलाह देता है.और सबसे बडी बात यह बताता है दिलों से खेलना हमेशा कोई फैशन नहीं होता कभी कभी दिल मजबूरी में किसी से अनजाने खेल में शामिल हो जाता है और कभी किसी के द्वारा खेल लिया जाता है, प्रतिमा जी २९ वर्ष की उमर में यह उपन्यास पाठकों के बीच रखकर युवापाठकों की संख्या में इजाफा किया है.साहित्यिक सरोकार समाज चेतना में हो सकता है कि यह इतना खरा ना उतरे शीर्षक की हिन्दी बाहुल्यता का अभाव भी कहीं ना कहीं इसके प्रसिद्धि में एक रोडा जरूर बन सकती है.
            

my interview at satna jan sandesh newspaper


अनिल अयान श्रीवास्तव .अनिल अयान.
युवा कवि, कहानीकार,समीक्षक संपादक:शब्दशिल्पी,सतना

        जब से मै कालेज में बी.एस.सी.बायोलाजी कर रहा था,तब से मैने लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया था. शुरुआत में प्रतियोगिताओं के लिये लिखता था.जैसे स्वरचित काव्यपाठ, वकतृत्व कला, भाषण,निबंध, तत्कालिक कहानी लेखन. आदि. फिर मेरी मुलाकात डा. हरीश निगम और डा. लालमणि तिवारी से हुई जो सतना में मेरे कालेज में साहित्य के प्रभारी हुआ करते थे. उनसे संतोष खरे जी केयहाँ आयोजित होने वाली पाठक मंच की गोष्टियों का पता चला.वहीं से मैने औपचारिक रूप से साहित्य मे प्रवेश किया.विज्ञान के विद्यार्थी होने के नाते साहित्य मेरे लिये बिल्कुल नया था.परन्तु कविता में रविशंकर चतुर्वेदी ने रीवा संभाग के सारे कवियों से परिचय कराया. मंजर हाशमी साहब ने शायरों ने परिचय कराया. संतोष खरे ने किताबों और समीक्षाओं के लिये प्रेरित किया. पाठक मंच में मुझे आदरणीय चिंतामणि मिश्र मिले जो उम्रदराज होने के बाद भी जवाँ दिल थे. साहित्य समाज  और पत्रकारिता से वास्तविक रूप से परिचय कराया.उन्होने मुझे समाचार पत्रों में कालम लिखने के लिये प्रेरित किया. आज मै उनके आशीर्वाद से नवस्वदेश और देशबंधु में कालम लिख रहा हूँ. उन्होने समीक्षाओं की बारीकियाँ मुझे बताई.और सबसे बडी बात यह बताई की साहित्य की औकात कितनी है समाज को बदलने की, आज शब्द शिल्पी पत्रिका को मै तीन वर्षों से निकाल रहा हूँ. इस पत्रिका के आगाजसे आज तक के सफर में उनका हर कदम में निर्देशन मुझे मिला..
        अब मुद्दे कीबात पे आना चाह्ता हूँ आज के समय में निःसंदेह युवावर्ग साहित्य से दूर जा रहा है. इसकी प्रमुख वजह साहित्य समय के अनुसार बदलाव करने में असमर्थ रहा जिसतरह युवावर्ग की सोच बदल रही है. आज के समय में पाठकों की कमी नहीं है परन्तु पाठको की बात करने वाला साहित्य नहीं उपलब्ध है. आज के समय में युवा वर्ग साहित्य लिख कर डायरी के पन्नों में कैद करने के लिये विवश है. क्योंकि आज पत्र पत्रिकाओं को साहित्य फिजूल का माल नजर आता है. जो इसे तवज्जो देती है उन्हे खास प्रसिद्ध लोगो के साहित्य से सरोकार है, वह यह नहीं जान पाते की एक अदना सा कलमकार ही लगातार लिखने के बाद खास और प्रसिद्ध हो जाता है. सतना लक्ष्मीपुत्रों का शहर है. परन्तु ये लोग मुजरे, रैंप शो, और धार्मिक गोरखधंधों के लिये अनुदान की कतार खडा कर देते है. परन्तु साहित्य के नाम पर एक फूटी कौडी देने में नाक भौं सिकोड लेते है. मुझे तो एक चिंतामणि जैसे पारस पत्थर मिल गये जो मुझे अनिल श्रीवास्तव से अनिल अयान में परिवर्तित कर दिया. परन्तु युवाकलम कार आज भी ऐसे पारस पत्थर को खोज पाने में असमर्थ है.कहीं ना कहीं मौकों की कमी और सही मार्ग दर्शन ना मिल पाने के कारण वो साहित्य से बहुत दूर हो जाते है.आज के समय में साहित्य यदि पुरुस्कार पाने और पदलोलुपता के लिये लिखा जा रहाहै. परन्तु आम जन की आवाज के लिये लिखा जाने वाला साहित्य यदि कम है  तो भी पढा जा रहाहै. प्रेमचंद्र और परसाई को आज भी लोग बडे चाव से पढना पसंद करते है. आज के समय में जरूरत है कि हम अपनी कोपलों का स्वागत करें वरना हम सब ठूँठ हो जायेगें.यही बात मै अपने अग्रज कलम कारों से भी कहना चाह्ता हूँ.आपने मुझे अपनी बात कहने का अवसर दिया इस हेतु बहुत आभार..शुक्रिया....
अनिल अयान,
९४०६७८१०७०

शब्द शिल्पी-०९ अंक विमोचित.


शब्द शिल्पी
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
शब्द शिल्पी पत्रिका और प्रकाशन,सतना म.प्र.
मारुति नगर,पो.:बिडला विकास,सतना,सम्पर्क:९४०६७८१०४०/९४०६७८१०७० Email: ayaananil@gmail.com
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

शब्द शिल्पी-०९ अंक विमोचित.
सतना से प्रकाशित होने वाली एक मात्र हिन्दी और उर्दू की त्रैमासिक पत्रिका शब्द शिल्पी-०९ (तीसरे वर्ष का प्रथम अंक)का विमोचन कार्यक्रम शब्द शिल्पी पत्रिका और प्रकाशन सतना के तत्वावधान में शनिवार २६ अक्टूबर को शायं ७ बजे सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार संतोष खरे के निवास राजेन्द्र नगर में आयोजित किया गया जिसके मुख्य अतिथि- वरिष्ट कवि और व्यंकट क्र. एक के पूर्व प्राचार्य विनोद पयासी थे. अध्यक्षता श्री संतोष खरे ने की. विशिष्ट अतिथि के रूप में डां राजन चौरसिया सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार उपस्थित हुये. इस अवसर में सतना के वरिष्ट साहित्यकार ,पत्रकार और पत्रिका के संरक्षक तथा मार्गदर्शक श्री चिंतामणि मिश्र विषेश रूप से उपस्थित हुये. कार्यक्रम को संयोजित अनिल अयान ,संपादक शब्द शिल्पी ने किया.
इस अवसर में श्री विनोद पयासी ने कहा कि शब्द शिल्पी से प्रारंभिक समय से जुडा हुआ हूँ. यह पत्रिका लगातार विकास पग पर अग्रसर है. इतना जल्दी सतना जिले में जिस तरह इस पत्रिका ने स्थान बनाया है वह अतुलनीय है. श्री राजन चौरसिया ने कहा अनिल अयान इस पत्रिका को सतना से सीमित संसाधनों के जरिये जिस तरह नियमित रूप से निकाल रहे है वह रेगिस्तान में जलस्रोत तलाश करने की तरह है. वह सतना में एक रिक्त स्थान भरने का काम कर रहे है. साहित्यकारों को एक मंच में एकत्र कर रहे है. सतना धमाका के संपादक रवि मिश्र ने कहा कि शब्द शिल्पी का जो भी काम हुआ है वह श्री चिंतामणि मिश्र के कुशल मार्गदर्शन और अनिल अयान के द्वारा उस मार्ग को सही समय पर चयन करने का प्रयास है हर वर्ष इस पत्रिका में नये कालम जुडे है और पाठकों की संख्या में इजाफा भी हुआ है.डां रेखा चौरसिया ने कहा शब्द शिल्पी सतना की एक मात्र पत्रिका है जो हिन्दी और उर्दू के लिये एक साथ काम कर रही है जो गंगा जमुनी तहजीब को बखूबी निभा रही है. पत्रिका के संरक्षक श्री चिंतामणि मिश्र ने कहा कि पत्रिका जिस तरह विकास कर रही है इस दरमियां संपादक जी की जिम्मेवारी बढ गई है अब उनका कर्तव्य है कि सामन्जस्य बनाते हुये पाठक को हर अंक उम्दा और संग्रहणीय सामग्र उपलब्ध करायें साथ ही साथ हर विधा को पत्रिका में स्थान मिले. अध्यक्षता कर रहे संतोष खरे ने कहा कि पत्रिका तीन वर्षो में बहुत तीव्रता से नये कलेवर में आयी है. और इस सब के पीछे युवा अनिल अयान का काम वन मैन आर्मी की तरह है जिसमें निदेशन का काम चिंतामणि जी का है पत्रिका में अधिक अधिक रचनाकार उत्कृष्ट रचनाओं के साथ ही स्थान पाये जिससे पत्रिका के साहित्यिक स्तर को बरकरार रखा जा सके यह प्रयास होना चाहिये.और संसाधनों की वृद्धि पर भी पत्रिका को लगातार प्रयास करते रहना चाहिये. शब्द शिल्पी कई सालों से एक रिक्त स्थान को प्रभावी रूप से भरा है. अंत में शब्द शिल्पी के संपादक अनिल अयान ने सभी अतिथियों का आभार प्रदर्शन किया.

संपादक
अनिल अयान
शब्द शिल्पी,सतना.
v

उजाले को भीतर तक आने दो


उजाले को भीतर तक आने दो
अंतर्मन में विचारों के चिरागों को लगातार जलाने के लिये हम जितना मनन और चिंतन करेंगे उतना ही समाज के लिये लाभप्रद होगा. आज के समय में जितना ज्यादा समाजिक विद्वेश और विघटनकारी तत्वों का प्रतिपादन किया जारहा है उतना ही आज के समय में हर भारतवासी को चाहिये कि वह अपने हर पल के व्यवहार में विवेकशीलता की बढोत्तरी करे और अपने घर से किसी भी नेक मुहिम की शुरुआत करे.हमारे साथ हमेशा यही समस्या रही है कि हम हमेशा ही सोचते तो बहुत ऊँचा है परन्तु उसे कभी भी अपने घर से प्रारंभ करने की चेष्टा नहीं करते है. हर बार दीवाली का त्योहार आता है और चला जाता है परन्तु हर व्यक्ति अपने कुछ पलों की खुशी के लिये इफरात रुपया खर्च कर देता है. वह यह नहीं सोचता है कि इस रकम को कमाने में वह कितना समय कितनी मेहनत जी तोड कर करता है.आज के समय में आवश्यकता है कि  हम सब समाज के उस कोने के लोगों तक भी पहुँचें जो समाज से बहिस्कृत कर दिये गये अपने समाजिक और अर्थिक निम्नता की वजह से, जिन्हे समाज अनदेखा कर देता है .जो एक दीपक तक नहीं जलासकते है. हम जितना वैभव और ऐश्वर्य में, जंके मंके में अपना समय विचार और मुद्रा नष्ट करते है उतना भाईचारे और मानवता को अपने जीवन में अपनाने पे कभी विचार नहीं करते है. आज के समय में मानव धर्माचरण करने की आवश्यकता है जिससे सच्ची भावना से समाज का हर वर्ग दीवाली मनाये अब देखिये ना...वर्तमान में हिंदुओं के देवताओं के नाम व उनके चित्रोंका उपयोग उत्पादों तथा उनकी विज्ञप्ति के लिए किया जाता है । दिवाली के संदर्भ में इसका उदाहरण देना हो, तो पटाखों के आवरणपर प्राय: लक्ष्मीमाता तथा अन्य देवताका चित्र होता है । देवताओंके चित्रवाले पटाखे जलानेसे उस देवताके चित्रके चिथडे उछलते हैं और वे चित्र पैरोंतले रौंदे जाते हैं । यह देवता, धर्म व संस्कृतिकी घोर विडंबना है । देवता व धर्मकी विडंबना रोकने के लिए प्रयास करना ही खरा लक्ष्मीपूजन है । अपने युवा दिल की धडकनों से दीवाली में यह भी कहना चाहता हूँ कि दोस्तों ! दीवाली का त्‍योहार जाते-जाते आपको कुछ संदेश देता है बशर्ते आप उसे समझ पाएँ। कोशि‍श करें कि‍ अगली दि‍वाली तक आप इस पर अमल कर पाएँ।करियर की चमक को दूर तक बिखेरने के लिए इस दीपावली कुछ प्रण करें कुछ आत्मचिंतन करें और खुद के लिए कुछ फैसले करें। असफलता से डरें नहीं! अपनी असफलता को न केवल अपने शुभचिंतकों के सामने रखें, बल्कि अपने सामने भी रखें, तब आपके भीतर का अंधेरा अपने आप छँट जाएगा। कई बार आप दोस्तों की सलाह पर कोई कदम उठा लेते हैं, पर क्या कभी आपने सोचा की जरूरी नहीं जो दोस्त कर रहा हो वह आपके के लिए ठीक हो! एक स्तर के ऊपर अगर आपको लगे कि आप किसी अन्य की सफलता से जरा ज्यादा ही जलने लगे हैं तब मन पर जम रही इस बुराईरूपी बारूद को जरूर हटाएँ। इस दीपावली प्रण करें कि अपने करियर को नई ऊँचाई देने के लिए पहले आप अपने आप में खुश रहेंगे। अगर खुश रहेंगे तब सफलता निश्चित रूप से आपके कदम चूमेगी।रोशनी का पर्व है दोस्तों और करियर को नई राह देने के लिए भी यह समय ऐसा है, जब आप कुछ बातों पर अगर ध्यान देंगे तब करियर न केवल रोशनी में नहा जाएगा बल्कि आप ओरों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकेंगे। करियर की चमक को दूर तक बिखेरने के लिए इस दीपावली कुछ प्रण करें, कुछ आत्मचिंतन करें और खुद के लिए कुछ फैसले करें। जिस प्रकार दीपावली के दिन संपूर्ण वातावरण प्रकाशमान हो जाता है ठीक उसी तरह आपका करियर भी दैदिप्यमान हो सकता है बस जरूरत है पहल करने की। हम अक्सर अपने भीतर ऐसी बातों को छुपा कर रखते हैं जिनके बाहर आने का हमें डर रहता है और लगता है कि अगर ये बातें जमाने को पता पड़ गईं तो हमें लोग क्या कहेंगे? अगर आप अपने भीतर साफगोई का उजाला आने देंगे और अगर आप अपनी असफलता को न केवल अपने शुभचिंतकों के सामने रखेंगे बल्कि अपने सामने भी रखेंगे तब आपके भीतर का अंधेरा छँट जाएगा और आप स्वयं को दुनिया के सामने और भी बेहतर तरीके से रख सकेंगेअक्सर हम अपने करियर को हड़बड़ाहट में अलग रास्ते पर ले जाते हैं, अगर आप इस दीपावली से किसी भी निर्णय धैर्यपूर्वक लेंगे तब आपके करियर पर इसका अच्छा असर पड़ सकता है। आप कई बार दोस्तों की राय पर कोई कदम उठा लेते हैं पर क्या कभी आपने सोचा की जरूरी नहीं जो दोस्त कर रहा हो वह आपके के लिए ठीक हो।अपने आप को भीतर से रोशन करें.हम अपने करियर को बनाने के लिए पढ़ाई करते हैं और न जाने कितने प्रकार के नोट्स पढ़ते हैं। ऐसे में कई बार हम अपने आप की ओर ध्यान नहीं दे पाते। दोस्तों जान है तो जहान है। इस कारण अपने आपको भीतर से रोशन करने के लिए नियमित रूप से व्यायाम,योगा आदि जरूर करें।मन से बुराई रूपी बारूद हटाएँ.इंसान का मन में ईर्ष्या,जलन और स्वार्थ की भावनाएँ आना स्वाभाविक हैं। पर एक स्तर के ऊपर अगर आपको लगने लगे की आप किसी अन्य की सफलता से जरा ज्यादा ही जलने लगे हैं, तब मन पर जम रही इस बुराईरूपी बारूद को जरूर हटाएँ वरना यह भविष्य में काफी तकलीफदेह हो सकती है.गर आप मन से प्रसन्न हैं तब निश्चित रूप से आप के आसपास का वातावरण भी खुशियों भरा ही होगा। इस दीपावली प्रण करें की अपने करियर को नई ऊँचाई देने के लिए पहले आप अपने आप में खुश रहेंगे। अगर खुश रहेंगे तब सफलता निश्चित रूप से आपके कदम चूमेगी।अंत में बस इतना ही कि....... हौसला ऐसा होना चाहिये कि..
यदि फलक को जिद है बिजलियाँ गिराने की
फिर हमें भी जिद है वहीं आशियाँ बनाने की
सभी साथियों को इसी संदेश के साथ दीवाली की अशेश शुभकामनायें.

सोमवार, 16 सितंबर 2013

बहुत कठिन है यह डगर पनघट की

बहुत कठिन है यह डगर पनघट की
हिन्दी दिवस का आयोजन अभी दो दिन पहले समाप्त हो गया और समाप्त हो गया हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये किये जाने वाले वादे और कायदे. १४ सितम्बर भी आज के समय में प्रचलित हो गया है जिसके अंतर्गत देश के कोने कोने में राज भाषा पखवाडे का समापन किया जाता है. और ऐसा लगता है कि भाषाओ की रानी को  कानी बना कर सम्मानित किया जाता है. १ सितम्बर से १४ सितम्बर का समय वह पखवाडा है जिसमे पूरा देश हिन्दी के नाम को जप कर आस्था प्रदर्शित करने का असफल प्रयास करता है. राजभाषा से राष्ट्रभाषा तक का सफर भी इसी तरह है कि सौ दिन चढे ढाई कोस की यात्रा. परन्तु स्वतंत्रता पश्चात से आज तक राजभाषा पखवाडा और इसके उद्देश्य हम भी जानते है और सरकार भी बखूबी जानती है कि हिन्दी भाषा का वर्चश्व कितना बचा है.आज के समय में भारत में हिन्दी भाषी से ज्यादा प्रभाव अहिन्दी भाषा की प्रतिभा और प्रभाव बहुत ज्यादा है. क्योंकि जो राज्य बन रहे है उनमें हिन्दी के नाम पर लेस मात्र भी नहीं बचा है.
      आज के समय में जरूरत है यह जानने की कि हिन्दी के नाम में बडे बडे भाषण देने वाले लोग,विषय विशेषज्ञ,राजनीतिज्ञ, ही सबसे बडे दोषी है इस भाषा की अर्थी की तैयारी करने में.राज काज की भाषा बनी हिन्दी जिसे आज के समय में राज में उपयोग किया जा रहा है परन्तु काज में तो शून्य स्थिति है. राजभाषा से राष्ट्रभाषा का सफर बहुत ही कठिन है हिन्दी का. भारत की आज की स्थिति में हर क्षेत्र में अंग्रेजी से भरा पडा है. और पहले से अंग्रेजों ने इस भाषा को भारतीय नश्लों की नशों में इस तरह से मिलाया है कि हमारे पूर्वज भी इसी का प्रयोग कर हमारा पेट पाल रहे थे. और हमारे माता पिता ने हमें यह सिखाया है कि हिन्दी तो बहुत सरल है कभी भी पढ सकते हो. अंग्रेजी पढो जिससे लक्टंट साहब बन सकते हो. आज के समय में हर परीक्षा में दो भाषा का प्रयोग किया जारहा है किन्तु अंग्रेजी की प्राथमिकता के आधार पर प्रशनो की सत्यता प्रमाणित किया जाता है. आज के समय हर जगह जहाँ पर हिन्दी का प्रयोग किया जा रहा है वहाँ पर कठिनतम शब्दों का उपयोग उस स्थान का प्रयोग करने वालों के छक्के छुडा देती है. और मजबूरन उसे इंगलिश भाषा का प्रयोग करना पडता है. जो उनके लिये रोजाना के जीवन में वही शब्द प्रयोग किये जाते आ रहे है और भविषय में भी इसका प्रयोग और बढ जायेंगें.इसका प्रमुख कारण यह है कि आज के समय में बाजारवाद का युग बढ रहा है. और उसमे अपना विचार योजना और कार्यों की जानकारी देश विदेश में पहुँचाने का एक ही माध्यम है वह है अंग्रेजी है. क्योंकि वह हमारी मजबूरी है जिसमें हम अपनी हिन्दी को इतना प्रभावी नहीं बना पाये जिसमें इसका प्रयोग देश के अलावा विदेश में हो और देश के ही हर कोने में हो. परन्तु आज के समय में राजभाषा समिति , महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा और भी अन्य संस्थान जिसका गढन ही इस उद्देश्य के लिये किया गया  कि हिन्दी देश के कोने कोने में फैले. परन्तु आज के समय में इस तरह की संस्थायें महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में पढाये जाने वाले प्राध्यापकों, रीडरों, और वाइस चाँसलर्स की सेवा करने में व्यस्त है.हिन्दी की राष्ट्रभाषा की यात्रा सरल तो है परन्तु रास्ता बताने वाले कठिनतम मार्ग में इसे भेजने की तैयारी कर रहे है.सभी जानते है कि आज चाह कर भी वो इसे राष्ट्रभाषा नहीं बना पायेगें क्योंकी न्यायपालिका,कार्यपालिका, विधायिका, और उद्योग जगत का इससे बहुत ज्यादा नुकसान होगा और सबसे ज्यादा नुकसान होगा हिन्दी के तत्सम और तद्भव शब्दों की विशिष्टता के प्रयोगों पे. इस बात से हम परहेज नहीं कर सकते है कि हिन्दी से ज्यादा प्रभाव शाली भाषाये भारत में मौजूद है. जो हिन्दी के साहित्य से ज्यादा विकास की है. हिन्दी के टुकडे करने में बोलियों का बहुत बडा योगदान है जो इसकी क्लिश्टता को हर समय बढाते है. परन्तु अन्य भाषाओं में बोलियों का प्रभाव इतना देखने को नहीं मिलता है.इसलिये वो इससे ज्यादा प्रगति करती है. राज भाषा में अन्य राज्यों का दखल कम होता है परन्तु राष्ट्रभाषा में वो अहिन्दी भाषी राज्य जरूर अडंगा खडा करेंगे जिनको हिन्दी भाषा फूटी आँखी नहीं सोहाती है.

      इसलिये अब राजभाषा पखवाडे को मनाकर एक वरसी की रस्म को निर्वहन करने के बराबर ही है.इसका औचित्य कितना परिणामकारी सिद्ध होगा यह शायद ही कोई जानता है. यह एक बजट के भाग को सुनिश्चित दिशा देने की कदमताल की तरह है.जिसका परेड से कोई वास्ता नहीं है.मुझे लगता है कि आज के समय में हिन्दी राष्ट्रभाषा तभी बन सकती है. जब वह अपने लचीलेपन को बढाकर अन्यभाषाओं के साथ समन्वय करने को राजी है वरना विद्रोह, संप्रदायिकता और विवशता का दंश इसे झेलना ही पडेगा... जब तक हिन्दी में अन्य भाषायें मिलकर एक संकर हिन्दी का स्वरूप नहीं बनेगा तब तक फिलहाल इस पनघट की राह बहुत कठिन है.इसकी प्रमुख वजह सिर्फ क्लिष्टता और इसके सिर में बैठे इसके मठाधीश है.

रविवार, 8 सितंबर 2013

ध्यान कुटिया में ज्यादा ध्यान का परिणाम; आशाराम

ध्यान कुटिया में ज्यादा ध्यान का परिणाम; आशाराम
आसाराम की गिरफ्तारी को लेकर जिस तरह का ड्रामा हुआ और वे तमाम राज्यों में खुलेआम घूमते रहे, उसके बाद क्या सामान्य जांच के जरिए पीड़िता को न्याय मिल जाएगा या फिर इसके लिए सीबीआई जांच करवानी चाहिए? इस पर पूर्व सीबीआई निदेशक जोगिंदर सिंह का कहना है कि सीबीआई के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है, यदि कोई गवाह ही अपनी जबान नहीं खोलेगा तो सीबीआइ क्या कर लेगी? उनके अनुसार, भारत का कानून इतना लचीला है कि गवाह बड़ी आसानी से खरीदे जा सकते हैं, साथ ही गवाहों की सुरक्षा का कोई कानून यहां नहीं है। यदि यह केस भी चंद्रास्वामी और चारा घोटाले की तरह लंबा खिंचता है तो निश्चित रूप से यह मामला प्रभावित हो सकता है। आसाराम की गिरफ्तारी को लेकर जहां तमाम संगठन और आम जनता सड़कों पर प्रदर्शन कर रही थी, वहीं उनकी गिरफ्तारी के बाद उनके समर्थकों ने इसके खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं।कभी निकट रिश्तेदार की मौत, तो कभी बीमारी का बहाना, यहां तक कि प्रवचन में व्यस्तता भी उन्हें गिरफ्तार होने से नहीं बचा पाई। गिरफ्तारी वाले दिन तो वह अपने ही आश्रम में भूमिगत हो गए थे। गिरफ्तार होने से पहले आसाराम और उनके बेटे नारायण साइं पूरे दिन कोई न कोई बहाना बनाते रहे। नारायण साइं ने मीडिया को बताया कि उनके बापू को ट्राइजिमीनियल न्यूरॉल्जिया नामक बीमारी है। इस बीमारी की वजह से उनके चेहरे में दर्द रहता है और वे पिछले १३ साल से इस बीमारी से ग्रसित हैं।सत्ता पक्ष और विपक्ष पर बाबा का दबदबा इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जिस कांग्रेस हुकूमत वाले राजस्थान के जोधपुर में उन पर यह गंभीर आरोप लगता है, वहां से वे बड़ी आसानी से निकलकर भाजपाई मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात, फिर कंग्रेसी मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण के महाराष्ट्र, फिर भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मध्य प्रदेश की लगातार यात्रा करते रहे लेकिन पुलिस उन्हें बजाय गिरफ्तार करने के वीआइपी ट्रीटमेंट देती नजर आई। बाबा के बचाव को लेकर जब भाजपा भी सवालों के कठघरे में खड़ी हो गई तो नरेंद्र मोदी की तरफ से आननफानन में भाजपा नेताओं को आसाराम के संबंध में मौन साधने का आदेश जारी हुआ। भाजपा नेताओं के बयान से हुई किरकिरी को दूर करने के लिए उन्होंने आसाराम पर इशारों ही इशारों में सवाल उठाए लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दरअसल जिस आसाराम को तमाम राज्यों की भाजपाई सरकार मुख्य अतिथि के रूप में पूजती रही हो, उनके लिए अचानक गंभीर आरोपों से घिरे आसाराम न तो निगलते बन रहे थे और न ही उगलते। उधर कांग्रेस भी इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी। यही कारण था कि राहुल गांधी को बबलू और सोनिया गांधी को विदेशी मैडम बताने वाले बाबा से सीधे-सीधे पंगा लेने की बजाय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत शुरू से यही रट लगाते नजर आए कि कानून अपना काम करेगा हालांकि आसाराम की गिरफ्तारी के बाद उनके तेवर कुछ सख्त हुए और उन्होंने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि यौन उत्पीड़न मामले की निष्पक्ष जांच होगी और संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होगी।आज से पहले भी यहाँ देखा गया है की भारत देश में कथा वाचक और ढोंग से परिपूर्ण अन्य प्रजाति के मनुष्यों को जो धर्म के नाम पर व्यापार करते है उन्हें यहाँ की महिलाए और अन्य सभी वो लोग जो धर्मं को मानवीयता से श्रेष्ठ समझते है दिन रात पूजते है और इतना विश्वास करते है की अपनी जान और अस्मिता भी देने से कोई परहेज नहीं करते है . आज के समय में मीडिया भी कही ना कही  इन्हें पब्लिक फिगर बनाने और पब्लिक के बीच में अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिए बहुत इस्तेमाल करते है. और इनको गिराने का  काम भी कहीं ना कही यही चैनल करते है. आशाराम जैसे बहुत से केश मैंने अपने आसपास देखा है परन्तु इसका परिणाम क्या होता है. भोली भली जनता कुछ महीने के बाद आई गयी मान कर फिर से यही शुरू कर देती है यहाँ बाबा ना सही तो कोई और बाबा. बाबा रामदेव का खुल कर मुखरित होना और फिर संतो का बेबाकी से बोलना कहीं न कही आशाराम को मुसिबत में डालेगी ही. परन्तु यहाँ यह भी सच है की आज यदि हम थोडा सा जागरुक होकर धर्म को समझे तो आज के समाया में किसी की जरूरत नहीं है सब धर्मशास्त्रो में वर्णित है और रहे बात शांति की तो वह हमारे कर्मो से बनती है ना की बाबाओ के शरण में जाने से. उनकी शरण में जाकर सिर्फ बीच मझधार का जीवन हे जी सकते है और कुछ नहीं . मीडिया को चाहिए की इस के आलावा भे देश के अन्य मुद्दे है उसे भी पब्लिक से जोड़े अन्यथा वो भी कही न कही धर्म के साथ बलात्कार कर रही है और जनता के साथ भी.

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

लोककलाकारों के जीवन संघर्ष और लोक संस्कृति के उत्कर्ष की लोकगाथा:खम्मा,पुस्तक:खम्मा(उपन्यास),लेखक:आशोक जामनानी, होशंगाबाद, समीक्षा: अनिल अयान,सतना, म.प्र.

लोककलाकारों के जीवन संघर्ष और लोक संस्कृति के उत्कर्ष की लोकगाथा:खम्मा
पुस्तक:खम्मा(उपन्यास),लेखक:आशोक जामनानी, होशंगाबाद, समीक्षा: अनिल अयान,सतना, म.प्र.
श्री आशोक जामनानी की बूढी डायरी और छपाक छपाक की पृष्ठभूमि से ज्यादा प्रभावी और रोमाँचक उपन्यास खम्मा राजस्थान के पश्चिमी भाग माडधरा में बसने वाले लोकसंगीत को संजोने वाले मांगणियार लोगो की संस्कृति सभ्यता और विरासत को सहेजने की प्रभावी प्रस्तावना है. राजस्थान के इन लोककलासाधकों के द्वारा की जाने वाली गंगा जमुनी तहजीब के पालन पोषण तथा उत्सवों में उनकी महत्ता को उपन्यासकार ने अपने मुख्य पात्र बींझा की माध्यम से माडधरा को चूमते हुये घडी खम्मा कर अगाध सम्मान दिया है. इस उपन्यास में उपन्यासकार ने जहाँ एक ओर माडधरा की लोकसंस्कृति के संरक्षक मांगणियार  जाति के जीवन को गहराई से उकेरा है  वहीं दूसरी ओर लोककला के बिचौलियों व दलालों के द्वारा किये जारहे शोषण को भी उपन्यास के माध्यम से समाज और सत्ता को यह संदेश दिया है. कि यदि लोक संस्कृति की रक्षा नहीं की गई तो यह विदेशियों के द्वारा बलात्कृत करके हथिया ली जायेगी. और भारत की यह विरासत सरे आम आत्महत्या करने को  मजबूर हो जायेगी.
            कथा का प्रारंभ बींझा नाम के युवा लोकगीतगायक जो मांगणियार जाति का नेतृत्व करता है, और उसके जमींदार मित्र सूरज के मिलाप से होता है. सूरज जमींदार घराने का युवाराजकुमार है जिसकी पत्नी प्राची का बस एक्सीडेंट में मौत हो गई है और वह बहुत ही एकाकी और तन्हाई का जीवन जी रहा है. बींझा की मित्रता उसे एक बहुत बडा मनोवैज्ञानिक सहारा देता है.सूरज बींझा के गीतों का मुरीद है और वह बींझा की हर कदम में मदद करता है.बींझा की धर्मपत्नी का नाम सोरठ है जो उसके संघर्षपूर्ण जीवन की सच्ची सहचरी होती है.बीझा के साथ उसके बुजुर्ग काका भी रहते है. जिनका साथ पाकर परिवार और मजबूत होता है.उनका नाम मरुखान है.परन्तु कहानी उस समय पहला मोड लेती है जब सूरज बींझा को एक दिन १ लाख रुपये एक लिफाफे में बंद करके देता है और गाँव छोडकर बिना बताये चला जाता है जब मरुखान को पता चलता है तो वह उन रुपयों से खरीदारी करता है. परन्तु बींझा को यह बात अच्छी नहीं लगती. और वह इस बात का गुस्सा सोरठ पर उतारता है. बाद में उसे इस बात की ग्लानि भी होती है.इसके बाद से ही बींझा भी उदास रहने लगता है और परिणाम स्वरूप वह अपने मित्र बिलावल के पास जोधपुर पहुँच जाता है.वह घर वालों को कोई सूचना भी नहीं देता है.वह बिलावल से काम की माँग करता है.बिलावल उसे अपने साथ मेहरानगढ ले जाता है और अपने गाइड के काम से उसे परिचय करवाता है.परन्तु बिलावल के साथ वह बहुत ही ऊब जाता है.कई दिनों के बाद बिलावल उसे कालबेलिया जाति की लोक नृत्यिकाओं सुरंगी और झाँझर से मुलाकात करवाता है.बिलावल की तारीफ से सुरंगी बींझा को अपने साथ रखने को तैयार हो जाती है. सुरंगी एक संघर्षशील गाने बजाने वाली महिलापात्र है. जो भावनात्मक सहारा देकर बींझाको मजबूत करती है. वह उसे बालेसर ले जाती है. उसके साथ बात करतीहै. और अपनी खींवा की कहानी बताती है. जो उसका पूर्व पति होता है. वह बताती है कि इस तरह खींवा चरित्रहीनता का विष पीकर सुरंगी को छोडकर गैर औरत के पास चला जाता है.यहीं पर बींझा का परिचय झाँझर से होता है.वह भी बातों बातों में अपने जीवन की दर्दनाक कहानी बींझा से साझा करती है.यहीं पर पता चलता है कि बिलावल किस तरह उन दोनो की मदद किया था.और अंततः बींझा भी अपने हुनर की दास्ताँ उन दोनो को बयां करता है.इस तरह तीनों के बीच का नाजुक रिश्ता बहुत ही मजबूत हो जाता है.अपना नया सफर शुरू करने से पहले वह सुरंगी की अनुमतिसे अपने परिवार से मिलने गाँव वापिस लौटता है.अपने परिवार के मना करने के बावजूद वह वापिस जैसलमेर पहुँच जाता है. और सुरंगी के साथ रुपया कमाने मे लग जाता है.काम से जीचुराने के चक्कर में वह सुरंगी से डाँट भी खाता है. परन्तु सही समय में उसे अपने जीवन का संघर्ष समझ में आजाता है.एक दिन सुरंगी उसकी मुलाकात विदेशी महिला पर्यटक गाइड क्रिस्टीन से करवाती है जिसका काम विदेशियों को भारत में दर्शनीय स्थलों के बारे में बताना और दिखाना.सुरंगी के मुँह से बींझा की तारीफ सुनकर उसे अपने साथ रख लेती है.क्रिस्टीन की टीम बींझा के साथ रह कर खूब मनोरंजन करती है. दिन गुजरते है और क्रिस्टीन बींझा के साथ अपना ज्यादा समय बिताने लगती है और इसी बीच उनका यह रिस्ता शारीरिक संबंधों की परवान चढने के प्रस्ताव तक पहुँचता है. जिसको पहले ठुकरायेजाने के बाद बींझा के द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है.प्रेम जीवन में परवान चढने लगता है.बाद में समझ में बींझा को आता है कि वह सिर्फ समय गुजारने और अपने शारीरिक भूख मिटाने के अलावा कुछ नहीं अर्थात उसे शारीरिक मनोरंजन का साधन के रूप में क्रिस्टीन इस्तेमाल करती है एक दिन क्रिस्टीन से उसकी काफी बहस होती है और वह अंततः बिन बताये विदेश वापिस लौट जाती है और बदले में बीझा को बहुत सा रुपया दे जाती है.बींझा काफी टूट जाता है और वह अपने गाँव वापिस लौट जाता है. उसके मन की दश सोरठ से छिपती नहीं है. तभी बींझा सोरठ का रात्रि में उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिये सहयोग का आग्रह करताहै परन्तु वह आग्रह सोरठ के द्वार नकार दिया जाता है और नाराजगी भी दिखाई जाती है..कई दिन गुजरने ले बाद सुरंगी उससे मिलने आती है. उसके द्वारा किया गया मनोवैज्ञानिक सहारा बींझा को और संबल प्रदान करता है. इसी उद्देश्य की पूर्ति के बाद सुरंगी अपने शहर वापिस लौट जाती है.समय गुजरता है तभी सूरज का पुनः बींझा के जीवन में आगमन होता है.  यह आगमन बींझा को और मजबूत बनाता है. वह सूरज से विदेश जाने की बात रखता है और सूरज उसे अपने साथ दिल्ली ले आता है. रास्ते में पता चलता है कि सूरज की जिंदगी में प्रतीची नाम की डाक्टर आ गई है. जो सूरज को प्राची के सदमें से बाहर निकाल देती है. और वही बींझा को भी क्रिस्टीन के प्रेम वियोग से बाहर निकालती है.सूरज ब्रिजेन नाम के एक दलाल से बींझा का मिलना तय करता है. और ब्रिजेन बींझा का गाना सुनने के बाद उससे काफी प्रभावित् होता है. और उसे विदेश ले जाने की अनुमति दे देताहै. बातों ही बातो में ब्रिजेन बताता है कि वह भी मणिपुर का एक लोक गायक है और प्रगति की लालच ने उसे एक दलाल बना कर छोड दिया.वह बताता है कि शोहरत हमसे हमारा अपना सब कुछ छीन लेतीहै.बींझा उससे अपने उद्देश्य में अडिग रहने का विश्वास दिलाता है. अंत में बींझा के द्वारा अपने बजाये जाने वाले कवायच को सीने से लगाये जाने की घटना इसकी शुरुआत करती है और कथा की समाप्ति करती है.
            पूरे उपन्यास में नारी पात्रों का जिक्र करें  तो भारतीय नारी पात्र पुरुषवादी सत्ता के प्रति संघर्ष करते उपन्यास में नजर आते है.चाहे वह झाँझर हो, सुरंगी हो, या फिर सोरठ हो. यह सब पुरुष की सामाजिक मानसिक फिसलन से पीडित महिलाये है. परन्तु संघर्ष ने इन्हे एक निर्णायक के रूप में उपन्यास में जगह बनाने में सफल बनाया है.क्रिस्टीन का चरित्र विदेशी संस्कृति में खुले सेक्स, नशे और कमाऊ प्रवृति को उजागर करता है. उसके रग रग में शोषण करना और सेक्स को मनोरंजन मान कर उपभोग करना ही उपन्यास की एक और खासियत है,सोरठ का चरित्र सूरज का चरित्र बींझा के लिये एक रीड साबित होता है जो  रिस्तों की बारीकियों को समझने और उनके बीच समान्जस्य बिठाने में बींझा की मदद भी करता है.अंततः उजागर हुआ परनतु ब्रिजेन का चरित्र शोहरत के सामने मजबूर लोक कलाकार का चरित्र है जो लोकसंस्कृति को छोड कर  वैश्वीकरण की ओर पलायन करने के लिये मजबूर है. और बीझा वह केन्द्रीय पात्र है जिसके चारों ओर सभी पात्र अपनी अपनी विवशता  की गाथा के साथ गुथे हुयेहै.बींझा का महत्वाकांक्षी हो जाना उपन्यास में उसकी मजबूरी और स्वाभिमान को प्रदर्शित करता है.पूरा उपन्यास लोक संस्कृति के बचाव करने वाले लोक कलाकारॊं  के जीवन संघर्ष, बिचौलियों के द्वारा शोषण के शिकार, और पारिवारिक लचरता के साथ साथ संस्कृति को सुरक्षित रखने की जिम्मेवारी को निर्वहन करने तथा रिस्तों के निस्वार्थ संवहन और संवरण  की मार्मिक गाथा है.पूरे उपन्यास की वाक्य संरचना संवाद परिस्थिति जनय चित्रण राजस्थान की धरती ,बोली जीवन चर्या को पाठक के सामने लाने में सफल होती है.बीच बीच में पात्रों के मुख से लोकगथाये और जातक कथाओं का जिक्र उपन्यास को ऐतिहासिकता के और करीब लाता है.बींझा के द्वारा गाये गये लोकगीत पाठकों को राजस्थान की माडधरा की खुशबू को महसूस करने तथा राजस्थानी बोली दरिया के तिलिस्म को पहचानने का संबल देती है.पूरा उपन्यास मागणियार जाति के लोककलाकारों के जीवन संघर्ष और लोक संस्कृति के संरक्षण के दायित्व निर्वहन करने के बीच के संघर्ष को पाठको के सामने लाने मेंसफल रहाहै.पात्रो के नाम भी माडधरा के गर्भ से खोजे गये है जो लोक गीतों में अधिक्तर उपयोग किये जाते रहे है. परन्तु मुझे फिर एक बार महसूस होता है कि पूर्व उपन्यासों की भाँति इस बार भी अन्य पात्र अपने अनकहे  परिणाम के साथ उपन्यास में शामिल रहे उनके जीवन की अनकही गाथा पाठकों को पुनः प्यासा और जिग्यासा से पूर्ण कर देती है.उपन्यास बूढी डायरी की भांति लोक संस्कृति का पोषण करने वाला है जो पाठकों की चेतना को लोक संस्कृति के और करीब ले जाता है. उपन्यास कार को इन्हीं सफलताओं की बधायी देकर लेखनी को विराम देता हूँ.
अनिल अयान ,सतना.म.प्र,
मारुति नगर सतना.

सम्पर्क:९४०६७८१०४०,९४०६७८१०७०स

रविवार, 1 सितंबर 2013

शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस


शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस
शिक्षक दिवस नजदीक है और इस दिन
शिक्षको के सम्मान का एक नया स्वांग रचाया जायेगा. फिर से नये नये तरीके से शिक्षकों के गुणगान किये जायेगे. और अगले ही दिन से वही पुराना ढर्रे पे आजायेगी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक. दबे,कुचले,हर वर्ग से पीडित और हर वर्ग से शामिल होने वाले मजबूर शिक्षक.कभी कभी लगता है कि डाँ राधाकृष्ण को यदि शिक्षण का काम इतना पसंद था तो उन्होने यह कार्य अपने जीवन में क्यों नहीं किया राष्ट्रपति की जिम्मेवारी से मुक्त होने के बाद और यदि सिर्फ यह सद्भावना का मामला था तो यह भी तय है उनको शिक्षकों की उस वख्त की स्थिति को देखते हुये भविष्यगत दूरगामी लाभ देकर जाना चाहिये था. या सरकार के सहयोग से नये नियम और कानून , योजनाये बनवाना चाहिये था. क्योंकी आज के समय में  शिक्षक दिवस भी व्यावसायिक होता जा रहा है. आज के समय में शिक्षक के सम्मान के लिये किसी दिवस की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि आज के समय में शिक्षकों का सम्मान बचा ही नहीं है. क्योंकी आज के समय में शिक्षक, शिक्षक बचा हीनहीं. उन्हे शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, और न जाने किस किस घाट का पानी पिला कर सब मिलावटी बना दिया है.
            आजकल शिक्षक दिवस का यह हाल है कि शिक्षक खुद अपना सम्मान करवाने के लिये आवेदन देते है. अपनी उपलब्धियों का गुणगान खुद करता है और फिर जाकर शिफारिस के बाद कहीं जाकर सम्मान लिस्ट में उसका नाम आ पाता है. हर वर्ष यही ढोंग होता है.५ सितम्बर के लिये तो शिक्षा विभाग अपना विशेष बजट निर्धारित करता है. परन्तु उसका सम्मान के लिये कितना खर्च होता है वह शिक्षा विभाग भी बखूबी जानता है. एक दिन का सम्मान और बाकी ३६५ दिन अपमान करता है शिक्षा विभाग इस शिक्षकों का.आज के समय में शिक्षक हो, अतिथिविद्वान हो, संविदा शिक्षक हो. गुरू जी हो. सब समान वेतन समान काम की लडाई लड रहे है. परन्तु सरकार उसे सुनने की बजाय नया स्वांग रचने की परंपरा का अंधानुकरण इसी लिये करती चली आ रही है. क्योंकी इसी बहाने एक बहुत मोटी रकम इस समारोह के लिये पार कर दी जाती है. काम थोडा सा किया जाता है और दिखावा करोडो का होता है. आज के समय शिक्षक दिवस जैसे दिनो की आवश्यकता क्या है. यदि इसकी आवश्यकता है तो फिर प्राध्यापक दिवस, व्याख्याता दिवस .. प्राचार्य दिवस, और गुरु जी दिवस मनाया जाना चाहिये. आज के समय में एक अच्छी तरह से पढे लिखे शिक्षक को अंगूठा छाप सरपंच, या पालक, या अधिकारी सरेआम पूरे बच्चों के सामने क्लास लगा देता है. और शिक्षक के पास अपने बचाव करने के लिये कोई मौका नहीं मिलता वह सिर्फ सिर झुका कर यस सर ही कह सकता है क्योंकी सामने वाला उसका अधिकारी जो ठहरा. रही बात प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों की तो वहाँ पर जो मैनेजमेंट के ज्यादा करीब होता है वह ज्यादा अर्थ का अधिकारी होता है उसे इंक्रीमेंट उतना ही अधिक मिलता है. जो शिक्षक अपने काम से काम रखता है वह सिर्फ नाम भर का शिक्षक रह जाता है.चाहे प्राइवेट हो या सरकारी सब जगह शिक्षक दिवस का धतकरम करके प्रशासन और प्रबंधन अपने अपने तरीके से स्वांग भरते है. आज के समय में शिक्षकों की जो स्थिति रहती है उसे देख कर हमारे पूर्व राष्ट्रपति जी जरूर अफसोस कर रहे होगें स्वर्ग से कि इस प्रजाति के लिये अपना जन्मदिन दान करके जीते जी बहुत बडा गुनाह कर दिया काश एक बार और जन्म मिल जाये भारत में तो यह भूल सुधार कर देता. परन्तु यह संभव कहाँ है आज कल.
आज सरकार मजदूर से लेकर हर प्रोफेसन वाले से बहुत डरती है. थोडा से हडताल हुई नहीं की लगता है कि कहीं सरकार की राज्य व्यवस्था का बंटाधार कहीं ना हो जाए और तुरंत माँगे मान ली जाती है. परन्तु शिक्षक साल भर मे ५० बार यदि हडताल करें और यह भी छोडिये यदि आमरण अनसन करे तो भी सरकार के कानों में जूँ तक नहीं रेंगती है. जैसे उसे शिक्षकों की कोई चिंता ही नहीं है. और किस बात की चिंता की जाये कौन सा आर्थिक नुकसान होना है उसका. चाहे ४ दिन करें या ४० दिन.. यही सब हाल है जनाब.ऐसा लगता है कि दिहाडी करने वाले शिक्षा के मजदूरों का दिवस है. जिसकी आय एक पखाना उठाने के मजदूर से भी कम है. और उसके चिल्लाने में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है. यह भी सच है कि यदि प्रतिक्रिया की भी तो सिर्फ आस्वासन और झूठे वायदे है.
            अफसोस तो तब होता है जब वो सब आफीसर ,नेता, जो शिक्षक दिवस के दिन शिक्षकों की तारीफ में पुल बाँधने से नहीं थकते है वो सब अगले दिन २४ घंटे के पूर्व ही इस प्रभाव से निकल कर शिक्षकों को समाज में मुर्गा बनाने की आदत से बाज नहीं आते है.शिक्षक दिवस में शिक्षक की स्थिति ठीक उसी तरह है जिसमें महापुरुषों का वह पत्थर का बुत है जिसे साल भर धूल बीट सम्मान करते है और एक दिन उसे धोया पोंछा जाता है माला पहनाया जाता है उसके बारेमें कसीदे पढे जाते है. और अगले दिन से फिर वही सार भर किस्सा चलता रहता है. आज के समय में जरूरत है शिक्षक को जागरुक होने की और अपने अधिकारों की माँग सही लहजे से करने की.नीतिगत तरीके से अपना अधिकार लेने की. और सरकार को चाहिये कि वह इस जिम्मेवार कद को सही सम्मान दिलाये ताकि वह कम से कम भूँखो ना मरे. यह सच्चा सम्मान होगा शिक्षा और शिक्षक का .
नहीं तो यह तो वह रामलीला है जिसके सब पात्र खुश है सिर्फ राम को छोडकर. दिहाडी करने वाले ये शिक्षा के मजदूरों का दिवस इनकी बेबसी में ठहाके लगा कर अपमान करने के अलावा और कुछ नहीं है.

शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस


शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस
शिक्षक दिवस नजदीक है और इस दिन
शिक्षको के सम्मान का एक नया स्वांग रचाया जायेगा. फिर से नये नये तरीके से शिक्षकों के गुणगान किये जायेगे. और अगले ही दिन से वही पुराना ढर्रे पे आजायेगी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक. दबे,कुचले,हर वर्ग से पीडित और हर वर्ग से शामिल होने वाले मजबूर शिक्षक.कभी कभी लगता है कि डाँ राधाकृष्ण को यदि शिक्षण का काम इतना पसंद था तो उन्होने यह कार्य अपने जीवन में क्यों नहीं किया राष्ट्रपति की जिम्मेवारी से मुक्त होने के बाद और यदि सिर्फ यह सद्भावना का मामला था तो यह भी तय है उनको शिक्षकों की उस वख्त की स्थिति को देखते हुये भविष्यगत दूरगामी लाभ देकर जाना चाहिये था. या सरकार के सहयोग से नये नियम और कानून , योजनाये बनवाना चाहिये था. क्योंकी आज के समय में  शिक्षक दिवस भी व्यावसायिक होता जा रहा है. आज के समय में शिक्षक के सम्मान के लिये किसी दिवस की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि आज के समय में शिक्षकों का सम्मान बचा ही नहीं है. क्योंकी आज के समय में शिक्षक, शिक्षक बचा हीनहीं. उन्हे शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, और न जाने किस किस घाट का पानी पिला कर सब मिलावटी बना दिया है.
            आजकल शिक्षक दिवस का यह हाल है कि शिक्षक खुद अपना सम्मान करवाने के लिये आवेदन देते है. अपनी उपलब्धियों का गुणगान खुद करता है और फिर जाकर शिफारिस के बाद कहीं जाकर सम्मान लिस्ट में उसका नाम आ पाता है. हर वर्ष यही ढोंग होता है.५ सितम्बर के लिये तो शिक्षा विभाग अपना विशेष बजट निर्धारित करता है. परन्तु उसका सम्मान के लिये कितना खर्च होता है वह शिक्षा विभाग भी बखूबी जानता है. एक दिन का सम्मान और बाकी ३६५ दिन अपमान करता है शिक्षा विभाग इस शिक्षकों का.आज के समय में शिक्षक हो, अतिथिविद्वान हो, संविदा शिक्षक हो. गुरू जी हो. सब समान वेतन समान काम की लडाई लड रहे है. परन्तु सरकार उसे सुनने की बजाय नया स्वांग रचने की परंपरा का अंधानुकरण इसी लिये करती चली आ रही है. क्योंकी इसी बहाने एक बहुत मोटी रकम इस समारोह के लिये पार कर दी जाती है. काम थोडा सा किया जाता है और दिखावा करोडो का होता है. आज के समय शिक्षक दिवस जैसे दिनो की आवश्यकता क्या है. यदि इसकी आवश्यकता है तो फिर प्राध्यापक दिवस, व्याख्याता दिवस .. प्राचार्य दिवस, और गुरु जी दिवस मनाया जाना चाहिये. आज के समय में एक अच्छी तरह से पढे लिखे शिक्षक को अंगूठा छाप सरपंच, या पालक, या अधिकारी सरेआम पूरे बच्चों के सामने क्लास लगा देता है. और शिक्षक के पास अपने बचाव करने के लिये कोई मौका नहीं मिलता वह सिर्फ सिर झुका कर यस सर ही कह सकता है क्योंकी सामने वाला उसका अधिकारी जो ठहरा. रही बात प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों की तो वहाँ पर जो मैनेजमेंट के ज्यादा करीब होता है वह ज्यादा अर्थ का अधिकारी होता है उसे इंक्रीमेंट उतना ही अधिक मिलता है. जो शिक्षक अपने काम से काम रखता है वह सिर्फ नाम भर का शिक्षक रह जाता है.चाहे प्राइवेट हो या सरकारी सब जगह शिक्षक दिवस का धतकरम करके प्रशासन और प्रबंधन अपने अपने तरीके से स्वांग भरते है. आज के समय में शिक्षकों की जो स्थिति रहती है उसे देख कर हमारे पूर्व राष्ट्रपति जी जरूर अफसोस कर रहे होगें स्वर्ग से कि इस प्रजाति के लिये अपना जन्मदिन दान करके जीते जी बहुत बडा गुनाह कर दिया काश एक बार और जन्म मिल जाये भारत में तो यह भूल सुधार कर देता. परन्तु यह संभव कहाँ है आज कल.
आज सरकार मजदूर से लेकर हर प्रोफेसन वाले से बहुत डरती है. थोडा से हडताल हुई नहीं की लगता है कि कहीं सरकार की राज्य व्यवस्था का बंटाधार कहीं ना हो जाए और तुरंत माँगे मान ली जाती है. परन्तु शिक्षक साल भर मे ५० बार यदि हडताल करें और यह भी छोडिये यदि आमरण अनसन करे तो भी सरकार के कानों में जूँ तक नहीं रेंगती है. जैसे उसे शिक्षकों की कोई चिंता ही नहीं है. और किस बात की चिंता की जाये कौन सा आर्थिक नुकसान होना है उसका. चाहे ४ दिन करें या ४० दिन.. यही सब हाल है जनाब.ऐसा लगता है कि दिहाडी करने वाले शिक्षा के मजदूरों का दिवस है. जिसकी आय एक पखाना उठाने के मजदूर से भी कम है. और उसके चिल्लाने में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है. यह भी सच है कि यदि प्रतिक्रिया की भी तो सिर्फ आस्वासन और झूठे वायदे है.
            अफसोस तो तब होता है जब वो सब आफीसर ,नेता, जो शिक्षक दिवस के दिन शिक्षकों की तारीफ में पुल बाँधने से नहीं थकते है वो सब अगले दिन २४ घंटे के पूर्व ही इस प्रभाव से निकल कर शिक्षकों को समाज में मुर्गा बनाने की आदत से बाज नहीं आते है.शिक्षक दिवस में शिक्षक की स्थिति ठीक उसी तरह है जिसमें महापुरुषों का वह पत्थर का बुत है जिसे साल भर धूल बीट सम्मान करते है और एक दिन उसे धोया पोंछा जाता है माला पहनाया जाता है उसके बारेमें कसीदे पढे जाते है. और अगले दिन से फिर वही सार भर किस्सा चलता रहता है. आज के समय में जरूरत है शिक्षक को जागरुक होने की और अपने अधिकारों की माँग सही लहजे से करने की.नीतिगत तरीके से अपना अधिकार लेने की. और सरकार को चाहिये कि वह इस जिम्मेवार कद को सही सम्मान दिलाये ताकि वह कम से कम भूँखो ना मरे. यह सच्चा सम्मान होगा शिक्षा और शिक्षक का .
नहीं तो यह तो वह रामलीला है जिसके सब पात्र खुश है सिर्फ राम को छोडकर. दिहाडी करने वाले ये शिक्षा के मजदूरों का दिवस इनकी बेबसी में ठहाके लगा कर अपमान करने के अलावा और कुछ नहीं है.

शनिवार, 24 अगस्त 2013

परसायी की नजर में.... डरना मना है.....अनिल अयान,,,,,,सतना


परसायी की नजर में.... डरना मना है.....अनिल अयान,,,,,,सतना,
हरिशंकर परसायी को पढना आज के समय की जरूरत है. उन्होने जो लिखा , जैसा लिखा , जिस समय लिखा वह इतना महत्व नहीं रखता है जितना कि यह महत्व रखता है कि उसकी जरूरत आज भी बहुत ज्यादा है. आज के समय में उनकी रचनाये एक आईने की तरह काम कर रही है. और यह भी सच है कि समाज की विशंगतियों के सामने उसके जैसा कलम का योद्धा ही है जो बिना हार माने आज भी खडा हुया है. लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है. और उसकी विवशताओं के साथ अपने को साथ रख कर आक्रोशित भी होता है और दुखी भी होता है.हम चाहें कहानी संग्रह हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव, पढे. या फिर नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल ,तब की बात और थी भूत के पाँव पीछे, बईमानी  की परत, पगडण्डियों का जमाना,शिकायत मुझे भी है ,सदाचार का ताबीज ,प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा,  वैष्णव की फिसलन ,तिरछी रेखाये , ठिठुरता हुआ गड्तन्त्र, विकलांग श्रद्धा का दौरा |सभी में आज के समय में चल रहा भ्रष्टाचार, पाखंड , बईमानी आदि पर परसाई जी ने अपने व्यंगो से गहरी चोट की है | वे बोलचाल की सामन्य भाषा का प्रयोग करते है चुटीला व्यंग करने में परसाई बेजोड़ है |हरिशंकर परसाई की भाषा मे व्यंग की प्रधानता है उनकी भाषा सामान्यबी और सरंचना के कारण विशेष शमता रखती है |  उनके एक -एक शब्द मे व्यंग के तीखेपन को देखा जा सकता है |लोकप्रचलित हिंदी के साथ साथ उर्दू ,अंग्रेजी शब्दों का भी उन्होने खुलकर प्रयोग किया है |पारसायी के  जीवन का हर अनुभव एक व्यंग्य रहा है. परसाई ने अपने जीवन के अनुभव को रचनाओं में उकेरा है. समाज की विशंगतियों को अपने नजरिये से देखा है. उसे कलम की ताकत से दबोचा है, और फिर पोस्टमार्टम करके पाठकों के सामने रखा है. आज परसाई नहीं है आज भी उनकी रचनाओं को मंचन किया जा रहा है. आज भी उनके दरद . उनके रचना कर्म को समझ कर समाज को दिखाया जारहा है.उन्होने समाज के हर उस धतकरम को ललकारा है.चुनौती दी है और उसके खिलाफ आवाज उठाई है जिसमें आम लेखक और कलम कार अपनी कलम फसाने को जान फसाने की तरह मानते है.हरिशंकर परसाई ने बता दिया है कि व्यंग्य वह विधा है और उस कंबल की तरह है जो शरीर में गडता तो है परन्तु समाज को ठंड से बचाता भी है. उनकी हर रचना कालजयी है. और भविष्य़ में भी रहेगी. जब तक इस समाज में मठाधीश रहेंगें और आम जनों के चूल्हे में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते रहेंगे. तब तक हर रचना दरद अत्याचार बेबसी और विवशता को चीख चींख कर बयान करती रहेगी. पारसाई वो कलम कार है जिन्होने साहित्यकारों को भी आडे हाथों लिया है. उन्हे बहुत गुस्सा आती थी जो साहित्यकार सम्मान के पीछी भागता था. उनका मानना था, कि हर अच्छे कलमकार का वास्तविक पुरुस्कार पाठकों और समाज के द्वारा दिया जाने वाला सम्मान है. बाकी सब तो चाटुकारिता के अलावा कुछ नहीं है. आज के समय में जो घट रहा है वह परसाई ने पहले हीं भाँफ लिया था.
आज के समय के लेखकों का यह मानना है कि परसाई ने जो भी किया वह सिर्फ उनके समय की माँग थी और कुछ नहीं जो भी लिखा गया वह सिर्फ उनहे मन के फितूर के अलावा कुछ भी नहीं है. परन्तु यह नहीं है. उन्होने अपनी रचनाओं में प्रगतिशीलता की बात की है. और उन प्रगतिशीलों की लंगोट को विशेश रूप से जाँची है जिन्होने प्रगतिशीलता के नाम पर अस्लीलता और नंगेपन को ओढा हुआ है और इसको साथ में रखना और रचनाओं में दिखाना अपनी प्रतिष्ठा का मूल मंत्र समझते है.परसाई देखते है कि वो अपनी लंगोट को कितना सूखा रख पाने में सफल है इस तरह की प्रगतिशीलता का केशरिया चोला ओढने के बाद. सच तो यह है कि परसाई उस प्रगतिशीलता को अपनाये हुये थे जो समाज को परिवर्तित कर नये आयाम से जोड सके परन्तु आज के समय में इस प्रथा को लेकर है अपने अपने झंडे और डंडे गाडे उनके नाम को कैश कर रहे है और उस पर सरे आम ऐश कर रहे है. आज के समय में प्रेमचंद्र और परसाई समाज की जरूरत है और माँग जब ज्यादा हो तो जरूरी है कि सही रूप में हम आगामी पीढी को विरासत का सही रूप सही सलामत सौपें नहीं तो आज तक इतिहास लिखने वाले प्रभावी रहे है. और साहित्य का इतिहास भी इसी तरह से मठाधीशों के हाथ के द्वारा लिखा जायेगा तो परसाई जयंतियों में याद करने के योग्य ही बचेगें आज के समय में हर पाठक को परसाई को प्ढना चाहिये जिससे उसके ह्रदय में जल रही आग की गर्मी को कुछ सुकून मिलेगा.....उसकी प्रमुख वजह यह है कि परसाई ने हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। ......

बुधवार, 21 अगस्त 2013

पुलिस सोती,जनता रोती


पुलिस सोती,जनता रोती
अंग्रेजों ने पुलिस की स्थापना इस लिये की ताकि वो लाटसाहबों के हुक्म को बजा सके और आज के समय में अब लाट साहब तो रहे नहीं इसलिये आज के समय मे पुलिस राजनेताओं का हुक्म बजा रही है. और इसका परिणाम रहा है कि पुलिस इतना थक जाती है कि समय आने में सो जाती है और जनता इसी वजह से रोती है.१८६१ के एक्ट के अनुसार जब पुलिस बनी तो यह माना गया कि पुलिस राजनैतिक दॄष्टि से लाभकारी हो.सत्ता का हर आदेश पालन करे .व्यवस्था कायम रखे और शांति बनाये रखे.आजादी के बाद ऐसा माना जाता था कि पुलिस का हो सकता है कि रवैये में परिवर्तन आजाये.परन्तु तब से ले कर आज तक हाल और चाल बद से बदतर हो गया है,.यह सच है कि कोई घटना के घटने में पुलिस महकमें को आडे हाथों लेते है . खूब खिंचायी करते है. परन्तु आज के समय की पुलिस अपंग और चिडचिडी होती जारही है. कारण यह है कि उनके लिये कोई ला और आर्डर नहीं होता है. ड्य़ूटी आने के टाइम होता है परन्तु जाने का कोई टाइम नहीं है. जनता की सेवा कितनी होती है यह तो नहीं पता किन्तु कोई भी मंत्री संत्री या तंत्री आ जाये तो पुलिस की सामत आजाती है.तब तो खाना नहाना सोना जगना सब बेटाइम हो जाता है. आज के समय में पुलिस का काम शांति स्थापना करना जरूर है परन्तु अशांति व्यवस्था बनाने में इनका काफी योगदान होता है. जनता के अनुपात में ना ये सही होते है और ना ही इनके पास कोई आधुनिक हथियार होते है आज भी पुलिस के पास वही पुराने जमाने की थ्री नाट थी बंदूक है और अधिकारियों के पास पिस्तौल है. अधिक्त्तर देखा जाता है कि जो हथियार आर्मी, पैरामलेट्री से रिजेक्ट कर दिया जाता है वह राज्य स्तरीय पुलिस के लिये चयन किया जाता है.
आज के समय में जनता पुलिस थाने में ऐसे जाने से डरती है जैसे कि उसे एफ आई आर लिखवाने नहीं बल्कि सजा भोगने के लिये थाने भेजा जा रहा है. जनता के और पुलिस के संबंधों को मधुर बनाने के लिये यह प्रयास गया कि जनता स्वागत केंद्र खोले गये और कई जिलों के थानों में यह कारगर रूप से काम भी कर रहे है. परन्तु कुछ बदनाम थाने में स्वागत केंद्र में आम जनता का ऐसा स्वागत किया गया कि दोबारा स्वागत करवाने की नौबत ही नहीं आयी.पूरी स्टडी  के बाद पता चलता है. की काम की बहुत ज्यादा मात्रा होने के बाद, परिवार से दूरी बढने के साथ, अधिकतर तनाव का प्रभाव हमारी पुलिस में साफ साफ दिखने लगती है. इसके पीछे इनका कोई दोष नहीं है. जब स्थानों में स्थित थानों के अंदर संख्या की मांग अधिक होती है और पुलिस वालों की आपूर्ति कम होती है तब काम का बोझ बढ जाता है. शासन की तरफ से एक निश्चित वेतनमान मिलने के बाद  भी जरूरते पूरी नहीं होती है. पूरा परिवार अपने मुखिया का समय पाने के लिये तरसता रहता है. पुलिस के निम्नतम स्तर की इकाई कांस्टेबल से लेकर मुंशी तक की सामाजिक स्थिति कुछ ऐसे ही है. और उसके बाद जितना अधिक ओहदा बढता जाता है परिवार के लिये समय उतना ही कम हो जाता है. मजबूर पुलिस करे भी तो क्या करे चाहे चोरी हो डकैती हो, बलवा हो दंगे हो सीमित संसाधनों के साथ अपने रफ टफ पोजीशन को बरकरार रखना बहुत कठिन हो जाता है. जब बीमार जवानों की छुट्टियाँ रद्द की जाती है और उनसे विवशतापूर्ण काम कराया जाता है तो वो सोयेगें ही,और जनता रोयेगी ही,आज के समय में अपराध बढ रहा है ,अपराधी बढ रहे है, अपराधियों के ऊपर लगाये गये इनाम बढा दिये जाते है परन्तु पुलिस को सुविधाओं के नाम पर ढेंगा दिखा दिया जाता है. यह सब सतना रीवा ही नहीं वरन पूरे देश में यही हाल है. हम कभी अपने को एक कांस्टेबल की इस परिस्थियों में अपने को रख कर देखें तो समझ में आता है. कि हमारी स्थिति शायद इनसे बुरी होती. पुलिस के अलावा नगर रक्षा समिति,होमगार्ड  और नगर सेना की स्थिति इससे भी बदतर है. एक मजदूर की कमायी और स्तर ज्यादा सम्मान जनक होती है परन्तु इन तीनों की स्थिति यह है कि इनका सक्रिय रूप से कोई माई बाप नहीं है.यह तय है कि इनकी स्थिति उस नंगे की तरह है जो नहायेगा क्या और निचोडेगा क्या, इनकी आर्थिक स्थिति एक मजदूर से भी बदतर है.आज के समय में जनता के बीच में शांति व्यवस्था बनाये रखना, और अनुशासन बनाये रखना बहुत ज्यादा कठिन है. जनता भी जागरुक है. और पुलिस अपने हतकंडों से बाज आती नहीं है. पुलिस अपना इरीटेशन और तनाव बेबस गरीब जनता पे उतारती है. आज समय की जरूरत है कि सरकार को पुलिस के प्रति अपना रवैया बदलना होगा. सुविधा और हथियारों से लैस , जनता के और पुलिस के संबंधों पर पुनः विचार करने और नये तरीके से सामन्जस्य बैठाने की आवश्य्कता है. वरना जनता की बौखलाहट पुलिस की इमेज इसी तरह खराब करती रहेगी. और पुलिस इसी तरह जनता के हाँथों से पिटती रहेगी. और नेता नपाडी सिर्फ खींस निपोरने के अलावा कुछ काम नहीं करेगें.
अनिल अयान,सतना.

बुधवार, 7 अगस्त 2013

अपाहिज प्रशासन में मौत का आशन

अपाहिज प्रशासन में मौत का आशन
सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है. सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस अपाहिज प्रशासन में मौत का आशन
सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है. सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है.
आज भले ही प्रशासन कुछ भी बहाने बना ले परन्तु यह  भी तय है की लोगों की जानों की कीमत सिर्फ बहानेबाजी नहीं होसकती है. हम क्यों भूल जाते है की जिस तरह यह हादसा हुआ उस तरह के कई हादसे इस शहर में हो चुके है. और तब ही नों इंट्री की बात को हवा मिलती है. कुछ दिनों के बाद मामला शांत हो जाता है और प्रशासन भी अपने काम में उसी तरह लग जाता है. जैसे  की कोई बुरा सपना देखा हो. आज जरूरत है की नियमों  पर पुनः समीक्षा हो और यह तय किये जा सके की ऐसे हादसों के लिए पुलिश के आलावा और कौन से कारक है जो सतना के प्रशासन के थू थू करने के लिए जनता को मजबूर करते है. प्रशासन हमें सुरक्षित रखने के लिए पुलिस देती है. पुलिस अमले की जवाबदारी है की जनता के रक्षा करे. प्रशासन ने नियम बनाया की सुबह से रात तक भारी वाहन प्रवेश करे तो भी प्रवेश होते वाहनों के लिए जिम्मेवार कौन है. क्या पुलिस प्रशासन इतना निकम्मा हो गया की उसके घर के खर्चो के लिए भारी वाहनों के द्वारा दी जाने वाली बकसीस से दिन गुजर रहे है. क्या सरकार को और वेतनमान बढाने की आवश्यकता है ताकि पुलिस वाले इस तरह के नीचतापूर्ण कार्य बंद करने की महान कृपा करे. और नो इंट्री का सख्ती से पालन हो. यह भी सच है की पिछले कुछ महीनों से पुलिश अपहरण कांडो में इतना व्यस्त हो गयी के उसे इस मामले में सोचने का कोई अवसर ही नहीं मिला. प्रशासन को मुख्यमंत्री के स्वागत और सुरक्षा व्यवस्था की चिंता अधिक थी. आम जनता तो सिर्फ इनके लिए कीड़े मकोडो की तरह ही शायद है. दो दिन पहले हुए इस हादसे ने प्रशासन के गाल में जिस तरह का तमाचा लगाया है वह प्रशासन मुख्यमंत्री जी की यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था के दौरान भी नहीं भूलेगा. मन में यह ख्याल क्यों रहा था उस दिन की अपने सतना के अमन चैन को भंग करने के लिए कही यह एक राजनैतिक साजिस तो नहीं थी. परन्तु. ज्यादा हताहत दोनों धर्मों के लोग हुए और सबसे ज्यादा फुटपाथ के वो लोग जिनकी कोई जात थी और कोई पात. वो तो सिर्फ गरीब थे. एक तरफ गम इस बात का है की प्रशासन की नपुंसकता का एक और नमूना इस रमजान के पाकीज मौके में देखने को मिला .ऐसा लगने लगा है इस शहर में किसी के साथ कुछ भी हो सकता है  परन्तु प्रशासन शिखंडी के तरह मौन बना रहेगा भविष्य में भी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. कलेक्टर का देर से पहुँचना और फिर विधायक का आप खोना कहीं कहीं एक घातक परिणाम की आशंका पैदा कर रहा था. यह दर्द विदारक घटना कई प्रश्न समाज और प्रशासन के सामने खड़े करते है. की क्या इसी तरह से सड़क सुरक्षा व्यवस्था रहेगी. क्या. इसी तरह सड़क आम जन के खून से लाल होती रहेगी. क्या इसी तरह प्रशासन सोता रहेगा. क्या जिलाधीश इसीतरह बहाने बनाते रहेगे. क्या पुलिस से बेहतर जिम्मेवारी जनता निभाती रहेगी.
अब जागने की जरूरत है. शासन और पुलिस दोनों को क्योंकि सिर्फ नियमों को तार तार करने की जिम्मेवारी और आम जन को मौत की शूली में चढाने की जिम्मेवारी बस उनकी नहीं है. बल्कि इन सब से ज्यादा जरूरत है आम नागरिक के मन से अपने प्रति एक सम्मान पैदा करने के लिए अच्छे कर्म  करने की. सिर्फ मंत्रियों और आला कमान के अधिकारियो से पीठ ठोकवा कर जनता का सेवक जनता के लिए लाभकारी और फलदायी नहीं होगा बल्कि जनता के बीच जाकर उसकी सुरक्षा का जिम्मा उठाना ही प्रशासन और पुलिस का प्रथम और अंतिम रास्ता होना चाहिए. यह एक मौका है नो इंट्री के नियमो को सख्त करने और जवानों को मुस्तैद करने का. नहीं तो यह पब्लिक सब जानती है की कहाँ से उसे अपने कदम उठाने होते है और फिर उसके लिए वो किसी से भी इजाजत नहीं लेती है भले ही धरा १४४ क्यों लगी हो.कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है.
आज भले ही प्रशासन कुछ भी बहाने बना ले परन्तु यह  भी तय है की लोगों की जानों की कीमत सिर्फ बहानेबाजी नहीं होसकती है. हम क्यों भूल जाते है की जिस तरह यह हादसा हुआ उस तरह के कई हादसे इस शहर में हो चुके है. और तब ही नों इंट्री की बात को हवा मिलती है. कुछ दिनों के बाद मामला शांत हो जाता है और प्रशासन भी अपने काम में उसी तरह लग जाता है. जैसे  की कोई बुरा सपना देखा हो. आज जरूरत है की नियमों  पर पुनः समीक्षा हो और यह तय किये जा सके की ऐसे हादसों के लिए पुलिश के आलावा और कौन से कारक है जो सतना के प्रशासन के थू थू करने के लिए जनता को मजबूर करते है. प्रशासन हमें सुरक्षित रखने के लिए पुलिस देती है. पुलिस अमले की जवाबदारी है की जनता के रक्षा करे. प्रशासन ने नियम बनाया की सुबह से रात तक भारी वाहन प्रवेश करे तो भी प्रवेश होते वाहनों के लिए जिम्मेवार कौन है. क्या पुलिस प्रशासन इतना निकम्मा हो गया की उसके घर के खर्चो के लिए भारी वाहनों के द्वारा दी जाने वाली बकसीस से दिन गुजर रहे है. क्या सरकार को और वेतनमान बढाने की आवश्यकता है ताकि पुलिस वाले इस तरह के नीचतापूर्ण कार्य बंद करने की महान कृपा करे. और नो इंट्री का सख्ती से पालन हो. यह भी सच है की पिछले कुछ महीनों से पुलिश अपहरण कांडो में इतना व्यस्त हो गयी के उसे इस मामले में सोचने का कोई अवसर ही नहीं मिला. प्रशासन को मुख्यमंत्री के स्वागत और सुरक्षा व्यवस्था की चिंता अधिक थी. आम जनता तो सिर्फ इनके लिए कीड़े मकोडो की तरह ही शायद है. दो दिन पहले हुए इस हादसे ने प्रशासन के गाल में जिस तरह का तमाचा लगाया है वह प्रशासन मुख्यमंत्री जी की यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था के दौरान भी नहीं भूलेगा. मन में यह ख्याल क्यों रहा था उस दिन की अपने सतना के अमन चैन को भंग करने के लिए कही यह एक राजनैतिक साजिस तो नहीं थी. परन्तु. ज्यादा हताहत दोनों धर्मों के लोग हुए और सबसे ज्यादा फुटपाथ के वो लोग जिनकी कोई जात थी और कोई पात. वो तो सिर्फ गरीब थे. एक तरफ गम इस बात का है की प्रशासन की नपुंसकता का एक और नमूना इस रमजान के पाकीज मौके में देखने को मिला .ऐसा लगने लगा है इस शहर में किसी के साथ कुछ भी हो सकता है  परन्तु प्रशासन शिखंडी के तरह मौन बना रहेगा भविष्य में भी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. कलेक्टर का देर से पहुँचना और फिर विधायक का आप खोना कहीं कहीं एक घातक परिणाम की आशंका पैदा कर रहा था. यह दर्द विदारक घटना कई प्रश्न समाज और प्रशासन के सामने खड़े करते है. की क्या इसी तरह से सड़क सुरक्षा व्यवस्था रहेगी. क्या. इसी तरह सड़क आम जन के खून से लाल होती रहेगी. क्या इसी तरह प्रशासन सोता रहेगा. क्या जिलाधीश इसीतरह बहाने बनाते रहेगे. क्या पुलिस से बेहतर जिम्मेवारी जनता निभाती रहेगी.

अब जागने की जरूरत है. शासन और पुलिस दोनों को क्योंकि सिर्फ नियमों को तार तार करने की जिम्मेवारी और आम जन को मौत की शूली में चढाने की जिम्मेवारी बस उनकी नहीं है. बल्कि इन सब से ज्यादा जरूरत है आम नागरिक के मन से अपने प्रति एक सम्मान पैदा करने के लिए अच्छे कर्म  करने की. सिर्फ मंत्रियों और आला कमान के अधिकारियो से पीठ ठोकवा कर जनता का सेवक जनता के लिए लाभकारी और फलदायी नहीं होगा बल्कि जनता के बीच जाकर उसकी सुरक्षा का जिम्मा उठाना ही प्रशासन और पुलिस का प्रथम और अंतिम रास्ता होना चाहिए. यह एक मौका है नो इंट्री के नियमो को सख्त करने और जवानों को मुस्तैद करने का. नहीं तो यह पब्लिक सब जानती है की कहाँ से उसे अपने कदम उठाने होते है और फिर उसके लिए वो किसी से भी इजाजत नहीं लेती है भले ही धरा १४४ क्यों लगी हो.