शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

मध्यान भोजन निगलते जहरीले अजगर.



सरकारी स्कूल कई मायनों मे हमेशा बदनाम रहे है इसमे से दो प्रमुख वजहों मे पहली ,खराब परीक्षा परिणाम का रोना और दूसरा मध्यान भोजन मे अनियमितता का रोना. पहली अव्यवस्था का सिर्फ़ मई से जून तक ही रोना रहता है. परन्तु मध्यान भोजन का केश तो हर रोज ही समाचार पत्रों की शुर्खियों मे बना रहता है.और यही इसकी नियति है. अब क्या किया जाये. जिस घटिया भोजन को ये नन्हे मुन्हे बच्चे पचा नही पाते वह भोजन किस तरह इस स्व सहायता समूहों की और शिक्षा विभाग की पेट की आग बुझाता है. यह समझ के परे है. क्या इन्हे अपच नहीं होता  है. क्या इनको हाजमोला की गोलियों की आवश्यकता नहीं पडती है. ना जाने किस मिट्टी से बने है ये जहरीले अजगर. मध्यान भोजन का विचार मेरी समझ के परे है. इसका क्या योगदान है बच्चों को स्कूल  मे लाने हेतु आकर्शित करने मे. बच्चे खाना खाने की लालच मे स्कूल पढने आयेगे.और पूरे दिन भर पढ कर जायेगे. ऐसा सम्भव नहीं है. इस तरह के उपाय सिर्फ़ गरीबी रेखा के नीचे बसर कर रहे लोगो के लिये कारगर हो सकते है परन्तु उससे ऊपर यह अप्रभावी हो जाते है. और जो बच्चे इसका लाभ लेने आते है उनमे से शतप्रतिशत मे थोडा कम सिर्फ़ मध्यान समय मे भोजन ग्रहण करने ही विद्यालय आते है. फ़िर अपने घरवालों के साथ काम मे वापिस चले जाते है.यही तो रोना है इस प्रणाली का जिसके चलते. पढाई लिखाई के नाम पर कितने करोडों का बजट पानी मे बहा दिया जाता है और परिणाम सिर्र शून्य ही आता है. जिस कक्षा तक मध्यान भोजन की योजना लागू है वहां परिणाम बनाया जाता है ताकि किसी की वेतन इंक्रीमेंट ना रुके.ये भी सच है कि इस तरह की योजनाओं का परिणाम यह होता है कि बच्चों के कंधों मे बैग की बजाय सिर्फ़ हाथों मे थाली गिलास और कटोरी होती है. जब मै सोहावल ले शिक्षा महाविद्यालय मे अपनी सेवायें दे रहा था तब मैने महसूस किया कि महाविद्यालय के पीछे बने एक शासकीय प्राथमिक विद्यालय की स्थिति यही थी वहां बच्चे सिर्फ़ और सिर्फ़ भोजन ग्रहण करने ही आते थे.और शिक्षिकाय़ॆं भी सिर्फ़ भोजन वितरण करवाने ही आती थी. खाना बनाने वाली सिर्फ़ ११ बजे से ३बजे तक अपनी सेवाये दिया करती थी. लगभग ये हाल सभी इस तरह के विद्यालयों का है. और इसमे बदलाव की गुंजायिस बिल्कुल भी नहीं है.
   मध्यान भोजन ने सिर्फ़ छात्र संख्या मे बढोत्तरी की है बस ना परीक्षा परिणामो मे बढोत्तरी हुयी और ना ही पढाई के स्तर मे ये तो सिर्फ़ गर्त मे ही हर वर्ष गये  है. और सरकारी योजनाये सिर्फ़ मुंह बनाकर सभी पालकों को. शिक्षा को और इस व्यव्स्था को सरे आम उल्लू बनाये जा रही है. इस योजना का सुपरिणाम जो भी रहा हो, जितना बेहतर रहा हो, परन्तु दुष्परिणाम यह रहा की बच्चो को आहार की पौष्टिकता से दूर कर दिया गया, स्कूल मे फ़ालतू के अन्य समूहों का दखल बढ गया. शिक्षकों को वैसे भी पढाने की फ़ुरसत नहीं थी अब तो एक और बहाना मिल गया. अब बच्चों को और आजाद कर दिया गया कि जाओ और खाओ पियो ऐश करो. ऐसी स्थिति मे जब बच्चे की बुनियाद ही खाने पीने और खेलने की नींव के ऊपर बनेगी तो यह तो तय है की बडी कक्षाओं मे वो शिर्फ़ रट्टू तोता की तरह हो जायेगे. यह भी सच है कि मध्यान भोजन की योजना सिर्फ़ इसलिये बनायी गयी की यदि बच्चों को स्कूल मे ही पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया जायेगा तो सभी बच्चे एक समान रूप से भोजन ग्रहण करेगे और समय की भी बचत होगी. परन्तु यह योजना धरी की धरी रह गयी. अब तो भोजन मे कीडे मकोडे और अन्य जीव जन्तु मिलने लगे है. दाल से दाल और सब्जी से सब्जी गायब होने लगी है उसी तरह इस व्यवस्था के अजगरो के अन्दर का ईमान गायब होने लगा है. ये सब कभी नहीं सोचते है कि सरकार जिस बात की तन्ख्वाह इन सबको दे रही है कम से कम उस काम को तो सही ढंग से करें उसमे भी कोताही बरतने का जो जुनून इन सब तथाकथित आला अफ़सरों और स्वसहायता समूहों के द्वारा मध्यान भोजन तक को अपने जहर से जहरीला बनाने का काम बखूबी अंजाम तक पहुचाया जा रहा है वह योजनाओं मे झाडू लगाने और पूरे समाज मे आने वाली पीढी को बेवकूफ़ बनाने के अलावा कुछ भी नहीं है. इस योजना मे जो भी बजट खर्च करने के  लिये आता है वो सिर्फ़ कुछ प्रतिशत ही खर्च होता है. बाकी तो सब इस अजगरों की पेट की आग बुझाने के लिये भी कम पड जाता है. राशि आवंटन से लेकर अनाज आवंटन तक, फ़िर अनाज को कच्चे से पकाने तक मे सिर्फ़ और सिर्फ़ निगलने की प्रक्रिया होती है और इसी तरह ये शतरंज का खेल शह और मात के साथ हर साल चलता रहता है. राजधानी से स्कूल तक यह योजना भी अपना रूप स्वरूप बदल लेती है.या ये कहूं कि सिर्फ़ और सिर्फ़ मुखौटे लगा लेती है, तो गलत नहीं होगा. इन सब परिस्थितियों के चलते यदि सरकार यही मध्यान भोजन का अनाज सिर्फ़ उन बच्चों को दे जो पूरे दिन उपस्थित होते है और सीधे अनाज ही मुहैया कराये तो इस तरह के कारनामों मे कुछ तो लगाम लगेगी. नही तो वह दिन दूर नही होगा जब डसने वाले सांप जो आज भोजन निगल रहे है वो आने वाले कल मे बच्चों को ही निगल जायेगे.

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

कौन जंगलों का माई-बाप, जनता या आप.


 कौन जंगलों का माई-बाप, जनता या आप.
सतना के आसपास तराई से लेकर हर दिशा मे जंगलों का इफ़रात समूह है. और इस पूरी संपदा को फ़िलहाल वन विभाग और वन मंत्रालय के आधीन सुरक्षित रखने का प्रावधान है. आसपास विभिन्न प्रकार के इमारती लकडियों के हरेभरे पेड पौधे मौजूद है.सरकार के द्वारा हरियाली महोत्सव और वन महोत्सव जैसे कई ऐसे कार्यक्रम है जिनके सहारे बहुत सा धन मिट्टी मे मिला दिया जाता है. और आम जनता को यह खेल समझ  मे नहीं आता है. सरकार के पास बहुत से ऐसे रास्ते है जिनके सहारे वह यह प्रयास करती है कि हर जिला हरा भरा बने उसका रखरखाव हो. पर.ऐसा होता नही है फ़ंड पास होता है और प्राप्त जानकारी के अनुसार उसका वितरण भी कर दिया जाता है. पौधे भी रोप दिये जाते है. रखरखाव के नाम पे सिर्फ़ खानापूर्ति होती है और सारा का सारा पैसा हजम कर लिया जाता है
. सर्वोच्च न्यायालय से लेकर हर स्तर पर वन कटाई पर रोक लगाने के लिये कई नियम और कानून बनते है और राम भरोसे इसका पालन भी होता है. वन माफ़िया के द्वारा लगभग लाखो से करोडों रुपये का वन उपज और बहुमूल्य इमारती लकडियां वन विभाग की ढिलाई और लचर व्यव्स्था के चलते हजम कर लिया जाता है और तथाकथित ईमानदारी  का लबादा ओढे अधिकारियों के खाते मे उसका कुछ प्रतिशत पहुंचा दिया जाता है. वन अपराध की श्रेणी मे आने वाले इस तरह के अपराधों की ना कोई सुनवाई होती है और ना कोई सजा मुर्करर होती है. यह हाल सतना ही नहीं बल्कि पन्ना शहर के अधिकारियों और उनके विभाग का भी है. कहने के लिये जब कभी जोरदार धडपकड होती है तो विभाग के द्वारा जांच कमेटी बिठा दी जाती है. और कुछ दिनों के बाद वो फ़ाइल कूडेदान मे दिखाई पडती है. यहां पर तो जंगली जानवरॊं को भी नहीं बख्सा जाता है तस्करी होने से कोई नही रोक पाता क्योंकि.  विभीषण के चलते  लंका कैसे सुरक्षित है,  ऐसी स्वार्थपरक नीतियों के चलते बंजर जमीन बढती जारही है और वन का परिक्षेत्र उतना ही कम होता जारहा है. रेंजर से लेकर सारे सुरक्षा अधिकारी खबर मिलने के बाद भी टस से मस नहीं होते है. कितना अफ़सोस होता है यह देख कर की जिस बात की शपथ और कसम सारे कर्मचारी अपनी ट्रेनिंग पूरी होने पे खाते है पोस्ट पाते ही उसे पूरी तरह से भुला बैठते है. कुछ ऐसी वन चौकियां देखी गयी है  जिसमे यदि कोई यदि यह शिकायत करने जाता है कि रात मे फ़लाने इलाके मे वन कटाई हो रही है तब यह मान के चलो की रात भर उसे तो हवालात की हवा खानी ही पडेगी भले ही पूरा का पूरा जंगल साफ़ हो जाये.
   ये सब शायद इस बात से अनजान होते है कि इस तरह की मक्कारी से समाज, पर्यावरण और आस पास का कितना नुकसान हो रहा है. लेकिन इस तरह के वन अपराधियों को इससे कोइ फ़र्क नहीं पडता कि पर्यावरण या समाज का क्या होगा उन्हे तो सिर्फ़ अपनी जेबें भरने और सरकारी माल हजम करने से मतलब है. चाहे उसकी कीमत पूरे शहर और राज्य को चुकाना पडे. इसके चलते पूरे वातावरण मे उच्च तापमान. मौसम की अनियमितता, भारी बारिस या सूखा जैसी स्थितियां पैदा हो जाती है. और सभी इसका कुप्रभाव भोगते है. मिट्टी की उत्पादन शक्ति और कटाव भी प्रभावित होती है जिसका प्रभाव किसी न किसी तरह खेती किसानी मे पडता है. और वन संपदा एक बार नष्ट हो जाने पर कई साल उसे दोबारा बनाने मे लग जाते है. जिस जंगली जानवरों की वन विभाग की देख रेख मे तस्करी को अन्जाम दिया जाता है उसकी वापसी तो संभव होता नहीं है पर इस तरह से उनकी प्रजाति का स्तर जरूर प्रभावित होता है. पर इस सबसे वन विभाग के उन भ्रष्ट अफ़सरों को क्या जिनके घर मे कुछ दिनों के अंदर ही चार पहिया गाडियां खडी हो जाती है. जिनके बैंक बैलेंस उनकी आमदनी से कई गुना अधिक मात्र कुछ विनिमयों से हो जाता है. उनकी स्वार्थ की रोटियां पूरी तरह से गैर कानूनी रूप से विकास करती है.
  पर सवाल यह है की बडी मेहनत से तैयार किये जाने वाले इन जंगलों का माई बाप कौन है . जब रक्षक ही भक्षकों के साथ मिल कर अपनी जागीर लुटाने के लिये तैयार बैठा हो. तो और किसी को क्या इल्जाम दिया जाये. बहुत सी संक्षण संस्थाओं की मानीटरिंग तेज करने की जरूरत है. नियमों को और ज्यादा कडे और  प्रायोगिक बनाने की जरूरत है वर्ना.. वो दिन दूर नही कि जलज अभियान और पंचज अभियान सिर्फ़ किताबॊं मे पढेंगे और वन और वन्य प्राणियों के बारे मे सिर्फ़ दादी और नानी की कहानियों मे जिक्र हुआ करेगा, क्योंकी आज इनका माई बाप कोई बचा ही नहीं है और जिसे जिम्मेवारी सौपी गयी है वो सरकार की योजनाऒं को ठेंगा दिखा कर सरकार को ही बस नहीं सभी को बेवकूफ़ बना रहा है. और सब खीस निपोर कर ड्रामा के सामने बैठे हुये दर्शक और श्रोता के रूप मे अपना काम कर रहे है. लेकिन कोई इस बात को समझने के लिये तैयार है ही नहीं की उनकी तालियां अपने ही पर्यावरण के जनाजे मे बज रहीं है.











शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

मंत्री आये , विकास लाये.


कब तक सहें:- मंत्रीआये , विकास लाये.

इस बार मेरे शहर का विकास काफ़ी तेजी से हो रहा है. ना जाने क्यो. शायद फ़िर किसी केंद्रीय मंत्री या राज्य के मुख्य मंत्री जी के आने का अवसर नजदीक आ रहा है. तभी प्रशासनिक अमले को पर लग गये है. दिन रात युद्ध स्तर से काम चल रहा है. सब धुआंधार स्पीड से भाग रहे है. मुझे तो इस बात की खुशी है कि चलो किसी बहाने ही सही इस बूढे शहर को फ़िर से जवानी का जामा पहनाया जारहा है. उसके लिये ठेकेदार, इंजीनियर और अन्य कमाऊखोर अफ़सर चाहे जितना माल हजम करे . क्या फ़र्क पडता है. सब उनकी आदतों मे शुमार है. और माल जितना सरकारी है उतना ही जनता का है. कौन सा उनके बाप का है. और फ़्री का माल खाने और फ़्री की दारू पीने से किसी को कभी परहेज नहीं होता है दोस्तो.
  चौराहों का सौंदर्यीकरण, सडकों को चमाचम करना, डिवाइडर की मरम्मत, और जल्दी जल्दी पौधों का प्लान्टेशन... और भी बहुत कुछ जैसे लाइट्स को सही करना, मेन हाई वे को अपडेट करना बहुत से काम बहुत ही तेजी से लगातार इस शहर मे दिख रहे है. नगर पालिका निगम के नीचे से ऊपर तक के आलाअधिकारियों के पैरो मे तो जैसे पहिये लग गये हो. इतनी तेजी से ट्रैफ़िक को डिस्टर्ब करके ऐसे सरकारी काम होते तो मैने बचपन से आज तक और आज से पचपन तक नहीं देख पाउंगा शायद. काश इसी स्पीड से न्यायालय यदि न्याय करने लगे. और पुलिस गुनहगारों को पकडने लगे तो कसम से कितना अच्छा हो. लेकिन फ़िर यह सोच कर रह जाता हूं और अपने मन को समझा लेता हूं कि शायद वहां किसी मंत्री या मुख्यमंत्री ,या अन्य उच्चस्तरीय मंत्री का कोई डर नही होता होगा. या फ़िर इनको कोई भजता नहीं होगा.
  विकास और साफ़सफ़ाई का वैसे भी राजनीति से बहुत गहरा नाता तथाकथित रूप से रहा है ऐसा मैने राजनीतिशास्त्र की किताब मे पढा था. हां पर देखने को सिर्फ़ चुनाव के पहले या कुछ महीने बाद तक ही मिलता है. यही तो वोट बैंक का बही खाता है जो आम जनता के समझ के परे है.पर गाहे बगाहे यदि ऐसे ही विकास और साफ़ सफ़ाई का अभियान चलता रहताहै तो लगता है कि कुम्भ्कर्ण कभी कभी जाग तो जाता है हाल चाल लेने के लिये. वरना ना कभी केशेस की सफ़ाई होती है. ना न्याय जगत मे साफ़ सफ़ाई होती है. ना भ्रष्टाचार की साफ़ सफ़ाई होती है. पूरा शहर इतने कम सालो मे बूढा दिखने लगा पर सरकार , न प्रशासन , ना अन्य किसी ने जिम्मेदारी निभाई. जिस तरह विकास कार्य  चल रहा है. तो सोचता हूं कि काश  ओवर ब्रिज का काम, बाई पास का काम. और पुराने बाई पास की मरम्मत , हाई वे का फ़ोर लेने का काम इसी स्पीड से काम हो. जो काम हो चुका है उसकी देख रेख हो. पार्कस का रख रखाव जारी ्रहे. ट्रैफ़िक सही सलामत पहुंचे. जाम की स्थिति ना बने. कोई दुर्घटना ना हो. अस्पतालों की स्थिति मे सुधार हो पुस्तकालयों के बुढापे को दूर किया जा सके तो शायद मंत्रियो की आवक भी आमजन के लिये लाभ प्रद होगी. समस्यायें तो बहुत सी होती है. पर क्या कहा जाये. कभी मैने एक शेर लिखा था
 ज़ख्म जब भी उसको दिखाये गये.
खार मरहम की तरह लगाये गये.
ये स्थिति आज भी समाज मे बनी हुयी है. आज भी जब कोई जागरुकता का परिचय देकर समस्याओं के समाधान के लिये शासन के पास, नगर निगम के पास , या न्यायालय मे न्याय के लिये जाता है. तो ये मानिये कि समाधान हो या ना हो न्याय मिले या ना मिले . लेकिन जागरुकता को वो भुला ही बैठता है. जूते और चप्पल घिस जाते है. और समाज सुधार के नाम पे सरकारी बाबू और चपरासी यहां तक की अधिकारी उनके जेब की साफ़ सफ़ाई जरूर कर देते है. जैसे वो अपने घर का काम कराने आया हो. या किसी बडे कर्ज के लिये गोहारी लगा रहा हो. फ़िर तो वो मन ही मन गालियां देकर सिर्फ़ यह मौन निश्चय कर लेता है, कि अपना विकास करो. देश और शहर गया ऐसी की तैसी कराने. उसके लिये चांदी के जूते वाले पावरफ़ुल ये नेता नपाडी है ना. जिनके लिये  सरकारी बाबू और चपरासी यहां तक की अधिकारी अपनी जेबें साफ़ करने के लिये तैयार बैठे रहते है. नहीं तो चांदी के जूते तो है हीं. ऐसी स्थिति मे मुझे तो लगता है. कि  पिछ्ले पैरा मे बताई बीमारियों से निजात पाने के लिये और अपने शहर को मरणासन्न स्थिति से बचाने के लिये या तो चुनाव कराना पडेगा या फ़िर किसी मंत्री -संत्री को सतना बुलाना पडेगा, तभी तो सतना इंदौर और भोपाल की तरह बन पायेगा, भाई अब क्या किया जाये इससे बडे विकास के सपने क्या देखे. अब दिल्ली, जैसे और बडे महानगर बनाने के ख्वाब अपने ५० साल होने के बाद देखना सही रहेगा. क्या है सपने जब टूटते है तो बहुत दुख होता है. चाहे वो अपनी जिंदगी से संबंधित हो या समाज से संबंधित हो. इसी लिये सबसे बढिया किसी बडे मंत्री को बुलाओ  नहीं तो चुनाव कराओ, और विकास कराओ. शहर का मेकब कराओ, और अपने सपने पूरे कराओ. आज कल का यही दस्तूर है. फ़िर खुशियां मनाओ.क्योंकि
खेत पर पानी बरसता है हमारे देश मे.
खेत पानी को तरसता है हमारे देश मे.
यहां पर नेताओं और मंत्रियों को छोड्कर
अब खुशी से कौन हंसता है हमारे देश मे.




गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

समीक्षा: योद्धा सन्यासी विवेकानंद: बसंत पोतदार


समीक्षा: योद्धा सन्यासी विवेकानंद: बसंत पोतदार
स्वामी विवेकानंद: मनुष्य व्यक्त्तिव निर्माण और विश्व बंधुत्व का अजेय योद्धा.
  सन्यासी योद्धा श्री बसन्त पोतदार द्वारा स्वामी विवेकानंद पे आधारित मराठी उपन्यास है. और इसी को आधार मान कर यह अनुवाद  गंगाधर परांजपे ने एक पुस्तकाकार के रूप मे योद्धा सन्यासी स्वामी विवेकानंद हमारे सामने प्रस्तुत की है. पुस्तक का भावों का केंद्र बिंदु सन्यासी योद्धा नामक मराठी उपन्यास है इस हेतु श्री बसंत पोतदार जी और भाषागत शिल्प के लिये  गंगाधर परांजपे जी की कलम बधाई के पात्र है.पूरा अनुवाद संग्रह २१६ पेजों मे  और पांच खण्डों मे  विभक्त है. अन्त मे प्रकाशित १५ पेजों मे संचयित चारुगात्र विवेकानंद इस अनुवाद उपन्यास का उपसंहार है जिसके बिना पूरे उपन्यास का अनुवाद अधूरा है.
   प्रथम खण्ड परमहंस- एक परिचय है द्वितीय खण्ड अस्सी प्रतिशत भक्त ठग होते है शीर्षक से अनुवादित है.तीसरा खण्ड धर्मसम्मेलन मे प्रवेश नहीं नामक शीर्षक से अनुवादित है. चौथे खण्ड मे यदि तुम्हारी मां का अपमान किया तो नामक शीर्षक से अनुवादित है. और अन्तिम खण्ड मे विदेश यात्रा के पूर्व शीर्षक से अनुवादक ने अपनी बात कही है.
प्रथम खण्ड मे संत रामक्रष्ण परमहंस के जीवन का सम्पूर्ण वर्णन किया है.इस भाग के जरिये गंगाधर जी ने परमहंस जी का नरेन्द्र से मिलन और उनके जीवन मे माता की संज्ञा  मिली माँ काली के चमत्कारों का जिक्र है.इसमे माँ काली से साक्षत्कार , श्री राम की साधना, रामक्रष्ण का विवाह, भैरवी से मुलाकात, तोतापुरी से मुलाकात, गोविन्दराय से मुलाकात,शंभूचरण से मुलाकात का जिक्र है. नरेंद्र से उनके गुरु की लगातार ३ मुलाकातों का जिक्र है. और अंततः परमहंस के जीवन का त्याग १५-१६ अगस्त १८८६ के आस पास की घटनाऒं का वर्णन है.
द्वितीय खण्ड मे भक्तो की मनो दशा को पाठकों के सामने रखा गया है. जिसमे लेखक और अनुवादक ने परमहंस जी के सम्पूर्ण जीवन काल की घटनाओं को एक खण्ड मे रखकर भक्ति और ढकोसला के भेद की तुलनात्मक बातों को पाठकों के सामने रखा गया है.सन १८९३ के पहले की, विवेकानंद के जीवन की क्रमिक घटनाऒं का मार्मिक और रोचक वर्णन किया गया है.इस खण्ड मे स्वामी विवेकानंद के भारत से विदेश जाने और और वहां के पूर्व उनके संघर्ष को दर्शाया गया है. जब वो राजस्थान मे गये तो उन्हे किस तरह विविदिशानंद का नाम प्राप्त हुआ इसका भी वर्णन पाठकों के सामने आता है. राजस्थान के बाद गुजरात कि यात्रा का वर्णन किया गया है. इसी तरह महाराष्ट्र ,पूना, गोवा, कन्याकुमारी, हैदराबाद,और यहा से अमेरिका के लिये प्रस्थान करने के लिये सारी वैचारिक और समाजिक जमीन का जिक्र बखूबी बेबाकी से किया गया है.
  तीसरे खण्ड मे धर्मसभाओं मे स्वामी विवेकानंद का प्रवेश और उनके विचारों का वर्णन किया गया है.यहा पर १८९३ के बाद की स्वामी विवेकानंद के विदेश मे निर्मित हुयी प्रतिष्ठा और वैचारिक जमीन के निर्माण की कहानी है, इसमे अमेरिका मे हुये सन१८९४ की फ़रवरी मे विरोधियों के द्वारा निर्मित विरोधो का तट्स्थ वर्णन है. इस खण्ड मे  इंग्लैड के किये गये स्वामी विवेकानंद के कार्यों का जिक्र है. और अंततः पुनः अमेरिका और इंग्लैड की यात्रा और वहां पर स्वामी विवेकानंद के समाज सुधार और मानवनिर्माण की शिक्षा का प्रचार प्रसार करने का लेखक और अनुवादक ने सीधे सपाट वर्णन किया है.
  चौथे खण्ड मे स्वामी विवेकानंद ने किस तरह फ़्रांस, रोम,अदन, कोलम्बो, और फ़िर कोलकाता तक पहुचे इससे सम्बंधित घटनाओं का वर्णन है. इसी खण्ड मे विवेकानंद के द्वारा रामक्रष्ण परमहंस मिशन की स्थापना के बारे मे विस्त्रित वर्णन है.इसी चरण मे  स्वामी विवेकानंद की भगिनी निवेदिता से मुलाकात और उनके जीवन मे निवेदिता का प्रवेश, उनके मिशन मे योगदान का वर्णन है, रामक्रष्ण मठ मे हुये विवादो अर्थात गुरुबंधुओं से स्वामी विवेकानंद के विवादो का वर्णन है.जो कुछ दिनो के बाद शांत होगया, इसी चरण मे बीमार स्वामी विवेकानंद का विदेश यात्रा के पूरव की घटनाओं का वर्णन है.
 अंततः अंतिम चरण मे.२० जून १८९९ से शुरू हुयी विदेश यात्रा जिसमे भारत से लंदन और फ़िर इस्तंबूल जाने का वर्णन है.यहां पर उनकी मुलाकात का जिक्र है जिसमे उनकी मुलाकात कु, मैक्लाड या जो से हुयी जो उनके विचारों की मुरीद थी. वापस भारत आकर  ट्रस्ट की स्थापना, बंगाल की यात्रा.४ जुलाई १९०२ को उनके स्वर्गवासी होने तक की हर घटना का बारीकी से वर्णन किया गया है.
अन्तिम कुछ पेजों मे परिशिष्ट के रूप मे स्वामी विवेकानंद के विभिन्न रूपों का ,व्यक्तित्व कॆ विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है. जिसमे ब्रह्मचारी, पट्टशिष्य, सिद्धि विरोधी, विज्ञान निष्ठ, दलितों के मसीहा, मांसाहारी होने, हाजिरजवाबी होने, से सम्बंधित विभिन्न घटनाओं का, पत्रो के माध्यम से लोगो के विचारों का संग्रह है. यही स्वामी विवेकानंद के सांगोपांग जीवन की लोगो के द्वारा की समीक्षा है.
 सम्पूर्ण अनुवाद पर यदि बात करें तो यह कहने मे कोई संकोच नहीं है कि पूरी पुस्तक स्वामी विवेकानंद शताब्दी वर्ष मे उनके व्यक्तित्व के प्रचार प्रसार के उद्देश्य से पाठक मंच मे भेजी गयी है. गंगाधर परांजपे जी ने अपनी अनुवाद्कीय मे खुद स्वीकार किया है कि  भावपक्ष के नजरिये से इस पूरे उपन्यास मे सिर्फ़ बसन्त पोतदार की बाओ का बिना कोइ फ़ेर बदल किये वर्णन किया गया है. इस पुस्तक का उद्देश्य विवेकानंद के बहुआअयामी जीवन के बारे मे और उससे जुडे विभिन्न आयामो को पाठको के सामने उजागर करना है.साथ ही यह बताना है कि अनासक्त होकर कर्म मे सतत संलग्न होने का नाम विवेकानंद है. पूरी पुस्तक का केन्द्रबिंदु परमहंस और विवेकानंद है. विवेकानंद की जीवनचर्या के साथ वैचारिक सोच को धर्म,समाज, सभ्यता, जाति वर्णव्यवस्था, शिक्षा, मानव चरित्र निर्माण, विज्ञान और तर्क के क्षेत्र मे पाठको के सामने रखना है. इस अनुवाद मे जस्टिस पलोक बसु का अमूल्य योगदान है. जो स्वामी विवेकानंद के विचारों के मुरीद थे.अंतत: पूरी रचना को पढने के बाद यह आकलन कर सकता हूं कि स्वामी विवेकानंद कोमनुष्य के व्यक्त्तिव निर्माण और विश्व बंधुत्व के अजेययोद्धा के रूप  मे  पाठकों के सामने लाना  ही इस पुस्तक का उद्देश्य है.साथ ही मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण की शिक्षा  ही जीवन की सबसे बडी दीक्षा है. जो स्वामी विवेका नंद का मूलमंत्र है.और इस रचना के कालजयी होने का प्रमुख सूत्र है.पूरी रचना को पाठकों के सामने लाने का प्रमुख उद्देश्य पाठकों के सामने स्वामी विवेकानंद के उदीयमान विचारो को पुनुरुत्थान हेतु सामने लाना है.
अनिल अयान.
सतना म.प्र.
संपादक -शब्द शिल्पी,सतना,
सम्पर्क:९४०६७८१०४०,९४०६७८१०७०

नागा संत: कुछ कही कुछ अनकही


नागा संत: कुछ कही कुछ अनकही.
 कुम्भ का पर्व शुरू होते ही साधू संतो की आवक शुरू हो जाती है. सबसी जमात है इनकी हमारे यहां भारत मे. सबसे प्रसिद्ध समूह नागा साधुओं का समूह को हम सब जूना अखाडा के नाम से जानते है. जूना अखाडा या ये कहे नागा साधुओं का अपना देश, ये विशेष प्रकार के संत ,संतों की श्रेणी से कहीं उपर और ज्यादा हठी  स्वभाव के होते हैं. लेकिन शायद कोई जानता हो कि ये इतने हठी क्यों होते है. जीवन का सबसे बडा और कडा तप इनके जीवन की हर घडी मे गुजरता है.मै इस समय आप सभी पाठकों के सामने इसी संदर्भ मे कुछ बात-चीत करूंगा. महन्त, संत, महापुरुष, और अवधूत,ये सभी ब्रह्म्चर्य की अलग अलग बढते क्रम की श्रेणियां है.
  नागा सन्त सिर्फ़ संत ही नही अवधूत होते हैं. जिनके, सोलह नहीं सत्रह संस्कार होते है, इनके जीवन की हर घटना रोचकता और रोमांच से भरपूर होती है. जब आम इन्शान अपने जीवन को ब्रह्म्चर्य की तपस्या मे लगाने के लिये संकल्पित होता है तो उसे सभी परिवार जनों से रिस्ता तोडना पडता है.नागा अवधूत बनने का मतलब यह नही होता कि सिर्फ़ वस्त्र ही त्यागना पडता है.  वस्त्र तो सिर्फ़ एक बहाना है ,अपने को इस मायाजाल से अलग करने के लिये.
परिवार को छोड कर ये ब्रह्मचारी अपने जीवन की मुख्य धारा से कट जाता है.
और भक्ति की धारा से जुड जाता है. नागा बनने के लिये पहले ब्रह्मचारी का जीवन कई सालों व्यतीत करना पडता है. उसके बाद उसे किसी आश्रम मे जाकर अपने जीवन मे गेरुए रंग के वस्त्रो को धारण करके पूर्णरूपेण एक साधू के रूप मे परिवर्तित हो जाना पडता है. जूना अखाडे के पुराने बाबाओं के समूह के सामने नागा बनने आये इन
साधुओं का मेल मिलाप होता है. हम यह भी कह सकते है कि प्रथम मिलन होता है.
जानकारियों का आदान प्रदान होता है.
 परिचय के इस दौर के बाद नागा बनने हेतु इन संतो के वास्तविक ब्रह्मचर्य का स्तर जांचा जाता है. इसके लिये कुछ महीनों से कई साल तक लग जाते है.इसके बाद जूना अखाडे के संत नागा बनने वाले संत के भाई- पट्टीदारो, परिवारो और सगे- संबंधियों के बारे मे पूरा पता लगाते है. वो भी उस संत के बिना संग्यान मे दिये. जब जूना अखाडे के प्रमुख लोगो को लग जाता है कि यह साधू नागा बनने के योग्य है तब उसे महापुरुष बनने हेतु किसी एकांत जगह पर किसी एक मुद्रा मे बिना किसी वस्त्र के खडे रहना पडता है. उस पर सबकी नजर होती है. यह काल कितना लम्बा होता है या होगा इस बात का निर्णय जूना अखाडे वाले करते है. इस तपस्या के बाद. कुम्भ आने तक इन्हे वरिष्ठ नागा बाबा के साथ रखा जाता है. कुम्भ के काल मे इन संतो को अपने जीवित अवस्थ मे अपना श्राध और पिण्डदान करना पडता है. यहा से यह मान लिया जाता है कि अब इस साधू का पूरे संसार से कोई ताल्लुकात नहीं है. यह सभी के लिये स्वर्गवासी हो गया है. इस समय ये अपने सारे वस्त्र त्याग कर सत्रहवां सस्कार करते है, अपने बाल बनवाते है और अपनी तेरहवी और बरषी मे शामिल होते है. और जैन मुनियों के समान निर्वस्त्र हो जाते है. यहां से इन साधुओं का नया जीवन तय होता है.
इसके बाद इनके शरीर मे जूना अखाडे का चिह्न लगाया जाता है और विधिपूर्वक ये जूना अखाडॆ के सदस्य बनाये जाते है.
  नागा बाबाओं का इंतिहान इसी जगह पर खत्म नहीं होता, बल्कि यहां से और कडा हो जाता है. या यह कह सकते है कि अभी तक सिर्फ़ प्रवेश परीछा थी अब तो पूरी पढाई इन्हे करना है.यहां से शुरू होता है हठ योग का जीवन ,या ये कहें कि साधू के जीवन का सबसे कठिन समय का पहला चरण जिसमे सभी नागा बाबाओ के सामने नग्न शरीर मे ये शाबित करना होता है की शरीर ने ब्रह्मचर्य को शोषित कर लिया है. वासना पूरी तरह से खत्म हो चुकी है. क्योकि यदि वासना शरीर मे बची रह गयी तो अगले चरण मे उतना ही ज्यादा कठिनता से गुजरेगी. कई महीनो के कठिन तप के बाद सोना आग मे तप कर निखर आता है. कुछ समय के बाद ब्रह्मचर्य का असली इंतिहान होता है. जिसमे  लिंग भंग की प्रक्रिया होती है. यह इनके जीवन का सबसे पीडा का वक्त होता है. इस प्रकिया मे लिंग की उस नस को निष्क्रिय किया जाता है जो वासना का सम्प्रेषण शरीर मे करती है. जीवन की महानतम और शारीरिक पीडा के बाद अवधूत अब नागा बाबा के स्वरूप को धारण कर चुका होता है. यहां से इसकी १०८ संगम की डुबकियां उपयोगी होने का वक्त उपस्थित होता है. अब ये भगवान शिव के सच्चे भक्त बन जाते है. अब हर प्रकार का नशा और ब्रह्मचारी जीवन इनके लिये उपयोगी होता है. इनकी सेना मे इनका स्वागत किया जाता है. जश्न होता है. उत्सव की तरह इनका सेना मे स्वागत होता है.
   नागा बाबा का यह रूप इतने तप के बाद निखरकर लोगों के सामने आता है. सेना मे पौराणिक समय के समान हाथी, घोडे, और अन्य प्रकार के जीव जन्तु होते है. साथ ही सभी प्रकार के अस्त्र और शस्त्र होते है. ये नागा बाबा जब ,जहां से गुजरते है. उस जगह के लोगो के लिये कौतूहल का विषय बन जाते है. हठ योग के बाद ये इतने ज्यादा हठी और क्रोधी, साथ साथ जिद्दी हो जाते है. कि सबसे पहले इन्ही का सुना जाता है. इन्ही का सम्मान किया जाता है. हर तरफ़ इन्ही की तूती बोलती है. तभी तो  ना गलत ये सहते है और ना ही जुबान से बोलते है. नागा बाबाओं का मानना है की भगवान शिव का अंश इनके अंदर होता है. और यदि ये गलत का साथ देते है तो इनको नर्क भोगना पडेगा. नागाओं का यह भी मानना है कि इन सब ने यह रास्ता सिर्फ़ अपना जीवन सही मार्ग मे चलने के लिये चुना है. ऐसा सिर्फ़ भारत मे ही देखने को मिल सकता है जहां की परम्परायें इतनी मजबूत है.और इतिहास इतना पौराणिक है जो स्तुत्य और प्रण्म्य है.
अनिल अयान.सतना.

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

बौद्धिक आजादी के लिये घिघियाते लोग

कब तक सहें
बौद्धिक आजादी के लिये घिघियाते लोग
 हमारी भारतीय सभ्यता के उपर हुये प्रायोगिक हमलों के बाद इस वक्त तीन केश फ़िर से मीडिया के बुद्धू बक्से मे दिखाया जा रहा है उसमे से एक है आशीश नन्दी का बयान, सलमान रुश्दी का कोलकाता आने पर ममता बनर्जी के द्वारा रोक लगा देना और कमल हासन की फ़िल्म विश्वरूपम पर प्रतिबन्ध की पेशकश.सलमान रुश्दी और आशीश बौद्धिक वर्ग से  सम्बन्ध रखते है. और कमल हासन फ़िल्म जगत के जाने माने अदाकार और फ़िल्म निर्देशक है. दोनो परिस्थितियो को देख्नने पर पता चलता है कि बौद्धिक आतन्कवाद  का ज्यादा ही प्रचार प्रसार किया जा रहा है.बौद्धिक आजादी के लिये ये तीनो नाजायज ही सरकार के  सामने घुटने टेक रहे है. इन पूरे तथ्यो से दो बाते सामने आती है.रुश्दी  और नन्दी की लेखन प्रक्रिया  एक लबादे को हटाने की  कोशिश करती है जिसे आज सभ्यता का अतिवादी चोला कहा जा सकता है. इसके अन्दर कई तथाकथित नामी गिरामी लोग अपने को सभ्यता का पालनहार समझते है.लोकतान्त्रिक देश की वास्तविकता यह है कि ज्यादा अपने मन का राग बजाने से सबके तन के निचले सिरे मे खुजली शुरू हो जाती है.यहा पर समन्वय स्थापित करके ही अपना काम निकाला जा सकता है या निकालने की परम्परा है,ज्यादा कट्टर हो जाने पर अपनी जान से हाथ धोने की तरह हो जाता है.इस देश मे राजनीति का ऐसा ही रवैया है.क्या कर सकते है आप.रुश्दी का देश की कोलकाता नगरी मे  रोका जाना इसी सभ्यता का जीता जागता उदाहरण है.और रही गन्दे साहित्य के प्रराचर होने की और इसके विरोध की पैरवी करने वाले टी.एम.सी. सान्सद साहेब के बयानो की. तो इस देश का कोई ऐसा कोना नही है जिस जगह पर इस साहित्य का कारोबार फल फूल नही रहा है. और वो क्या देश का कोई कानून इसका बाल भी हिला नही सका. कितनी शर्म की बात है.वो खुद बस स्टेन्ड, रैल्वे स्टेशन ,के बुक स्टाल्स मे इस बीमारी को रोकने मे असमर्थ है.
    विश्व रूपम  के मामले की कहानी थोडा अलग परन्तु इसी तरीके से मुद्दे को बनाने और आग लगाने की कहानी है. इसमे कमल हासन जितने गुनह्गार है उससे कई गुना सेन्सर बोर्ड के वो मेम्बर विरोध के अधिकारी है जो इस फ़िल्म को ओ.के. का प्रमाण पत्र दिये है.प्रोड्यूसर और डायरेक्टर का काम है वो फ़िल्म व्यापार से जुडे है. वो तो अपना काम करेगे ही, पर सेन्सर बोर्ड के मेम्बर क्या इस फ़िल्म मे भी अन्डर द टेबल अपना काम करने मे लगे हुये थे.अब यदि इस फ़िल्म को ओ.के. का प्रमाण पत्र दिया गया तो फ़िर हासन साहब का मीडिया के सामने आना जायज है. क्योकी वो तो अपनी बनायी फ़िल्म बाजार मे बेन्चेगे ही. सेन्सर बोर्ड को चाहिये था कि वो आपत्तिजनक सीन्स को हटाने का आदेश देता जिस वजह से मुस्लिम धर्म के अनुयाइयो को ह्र्दयाघात लगा है.यह भी सच है की किसी फ़िल्म का उद्देश्य ये नही होना चाहिये कि किसी धर्म को आहत किया जाये.परन्तु. आज के उसी टॆलीवीजन मे फ़िल्म्स के अन्दर. अश्लीलता .सरे आम आइट्म गाने और अन्य तरीको से पेश कर मानव को सिर्फ़ नर और मादा के रूप मे समाज के सामने पेश किया जाता है. उस वक्त क्यो समाज और धर्म के पन्डे अपनी जुबान क्यो नही खोलते. हमारे धर्म मे आन्च आयी तो हम गोहारी मारने लगे. और अन्य धर्मो की बारी आने पर मूक दर्शक बन गये.
  आशीश नन्दी साहेब  तो ज्यादा ही कबीराना अन्दाज भारत जैसे कट्टर लोकतान्त्रिक देश मे  बेबाकी से प्रस्तुत कर दिया है.सम्वैधानिक कैटेगरी की जनरल के अलावा सभी करप्ट. मतलब जिस डाल मे विराजमान हुये उसी को काटने मे तुल गये. और फ़िर ये कह रहे है कि. कबीरा खडा बाजार मे सबकी मांगे खैर, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर.  उन्हे शायद यह  नही पता कि यह भारत है यहां पर कबीर जैसे युगवादी सन्त को, जो किसी जाति पाति, धर्म और पन्थ को नही मानता था,उसके मरने के बाद उसी के अनुयाइयों ने कबीर पंथ का आराधक बनाकर उसके विचारों के साथ सरे बाजार बलात्कार कर दिया.तो आप किस खेत की मूली है. साहेब यहा का आईना भी प्रतिबिम्ब व्यक्ति को देख कर दिखाता है. क्योकि उसे भी अपनी जान प्यारी है. आज के राजनैतिक माहौल मे किसने कहा था कि गुस्साये और पगलाये तथाकथित सूरज को आईना दिखाने के लिये.अब भोगिये सजा और जिल्लत.
   तीनों के विचार प्रगतिशीलता का प्रचार प्रसार करना है.परन्तु एक सिदधान्त है कि हमारी आजादी हमारे लिये तब तक नुकसान दायक नही है. जब तक कि  उस नुकसान से अपने स्वार्थ की रोटियां सेकने वाले लोग मौजूद ना हो. पर यहां तो पूरी सेना मौजूद है. खैर
आज के समय मे बौदधिक आजादी अपने ही घर मे कारावास भोगने के लिये विवश है. क्योकि बौदधिक आतंकवाद रोकने वाले ही इसे विलायती बाबू बनाकर जनता की आंखो मे धूल झोंक रहे है. और यही वोट बैंकिंग का बेस्ट मैनेजमेट है.