गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

कौन जंगलों का माई-बाप, जनता या आप.


 कौन जंगलों का माई-बाप, जनता या आप.
सतना के आसपास तराई से लेकर हर दिशा मे जंगलों का इफ़रात समूह है. और इस पूरी संपदा को फ़िलहाल वन विभाग और वन मंत्रालय के आधीन सुरक्षित रखने का प्रावधान है. आसपास विभिन्न प्रकार के इमारती लकडियों के हरेभरे पेड पौधे मौजूद है.सरकार के द्वारा हरियाली महोत्सव और वन महोत्सव जैसे कई ऐसे कार्यक्रम है जिनके सहारे बहुत सा धन मिट्टी मे मिला दिया जाता है. और आम जनता को यह खेल समझ  मे नहीं आता है. सरकार के पास बहुत से ऐसे रास्ते है जिनके सहारे वह यह प्रयास करती है कि हर जिला हरा भरा बने उसका रखरखाव हो. पर.ऐसा होता नही है फ़ंड पास होता है और प्राप्त जानकारी के अनुसार उसका वितरण भी कर दिया जाता है. पौधे भी रोप दिये जाते है. रखरखाव के नाम पे सिर्फ़ खानापूर्ति होती है और सारा का सारा पैसा हजम कर लिया जाता है
. सर्वोच्च न्यायालय से लेकर हर स्तर पर वन कटाई पर रोक लगाने के लिये कई नियम और कानून बनते है और राम भरोसे इसका पालन भी होता है. वन माफ़िया के द्वारा लगभग लाखो से करोडों रुपये का वन उपज और बहुमूल्य इमारती लकडियां वन विभाग की ढिलाई और लचर व्यव्स्था के चलते हजम कर लिया जाता है और तथाकथित ईमानदारी  का लबादा ओढे अधिकारियों के खाते मे उसका कुछ प्रतिशत पहुंचा दिया जाता है. वन अपराध की श्रेणी मे आने वाले इस तरह के अपराधों की ना कोई सुनवाई होती है और ना कोई सजा मुर्करर होती है. यह हाल सतना ही नहीं बल्कि पन्ना शहर के अधिकारियों और उनके विभाग का भी है. कहने के लिये जब कभी जोरदार धडपकड होती है तो विभाग के द्वारा जांच कमेटी बिठा दी जाती है. और कुछ दिनों के बाद वो फ़ाइल कूडेदान मे दिखाई पडती है. यहां पर तो जंगली जानवरॊं को भी नहीं बख्सा जाता है तस्करी होने से कोई नही रोक पाता क्योंकि.  विभीषण के चलते  लंका कैसे सुरक्षित है,  ऐसी स्वार्थपरक नीतियों के चलते बंजर जमीन बढती जारही है और वन का परिक्षेत्र उतना ही कम होता जारहा है. रेंजर से लेकर सारे सुरक्षा अधिकारी खबर मिलने के बाद भी टस से मस नहीं होते है. कितना अफ़सोस होता है यह देख कर की जिस बात की शपथ और कसम सारे कर्मचारी अपनी ट्रेनिंग पूरी होने पे खाते है पोस्ट पाते ही उसे पूरी तरह से भुला बैठते है. कुछ ऐसी वन चौकियां देखी गयी है  जिसमे यदि कोई यदि यह शिकायत करने जाता है कि रात मे फ़लाने इलाके मे वन कटाई हो रही है तब यह मान के चलो की रात भर उसे तो हवालात की हवा खानी ही पडेगी भले ही पूरा का पूरा जंगल साफ़ हो जाये.
   ये सब शायद इस बात से अनजान होते है कि इस तरह की मक्कारी से समाज, पर्यावरण और आस पास का कितना नुकसान हो रहा है. लेकिन इस तरह के वन अपराधियों को इससे कोइ फ़र्क नहीं पडता कि पर्यावरण या समाज का क्या होगा उन्हे तो सिर्फ़ अपनी जेबें भरने और सरकारी माल हजम करने से मतलब है. चाहे उसकी कीमत पूरे शहर और राज्य को चुकाना पडे. इसके चलते पूरे वातावरण मे उच्च तापमान. मौसम की अनियमितता, भारी बारिस या सूखा जैसी स्थितियां पैदा हो जाती है. और सभी इसका कुप्रभाव भोगते है. मिट्टी की उत्पादन शक्ति और कटाव भी प्रभावित होती है जिसका प्रभाव किसी न किसी तरह खेती किसानी मे पडता है. और वन संपदा एक बार नष्ट हो जाने पर कई साल उसे दोबारा बनाने मे लग जाते है. जिस जंगली जानवरों की वन विभाग की देख रेख मे तस्करी को अन्जाम दिया जाता है उसकी वापसी तो संभव होता नहीं है पर इस तरह से उनकी प्रजाति का स्तर जरूर प्रभावित होता है. पर इस सबसे वन विभाग के उन भ्रष्ट अफ़सरों को क्या जिनके घर मे कुछ दिनों के अंदर ही चार पहिया गाडियां खडी हो जाती है. जिनके बैंक बैलेंस उनकी आमदनी से कई गुना अधिक मात्र कुछ विनिमयों से हो जाता है. उनकी स्वार्थ की रोटियां पूरी तरह से गैर कानूनी रूप से विकास करती है.
  पर सवाल यह है की बडी मेहनत से तैयार किये जाने वाले इन जंगलों का माई बाप कौन है . जब रक्षक ही भक्षकों के साथ मिल कर अपनी जागीर लुटाने के लिये तैयार बैठा हो. तो और किसी को क्या इल्जाम दिया जाये. बहुत सी संक्षण संस्थाओं की मानीटरिंग तेज करने की जरूरत है. नियमों को और ज्यादा कडे और  प्रायोगिक बनाने की जरूरत है वर्ना.. वो दिन दूर नही कि जलज अभियान और पंचज अभियान सिर्फ़ किताबॊं मे पढेंगे और वन और वन्य प्राणियों के बारे मे सिर्फ़ दादी और नानी की कहानियों मे जिक्र हुआ करेगा, क्योंकी आज इनका माई बाप कोई बचा ही नहीं है और जिसे जिम्मेवारी सौपी गयी है वो सरकार की योजनाऒं को ठेंगा दिखा कर सरकार को ही बस नहीं सभी को बेवकूफ़ बना रहा है. और सब खीस निपोर कर ड्रामा के सामने बैठे हुये दर्शक और श्रोता के रूप मे अपना काम कर रहे है. लेकिन कोई इस बात को समझने के लिये तैयार है ही नहीं की उनकी तालियां अपने ही पर्यावरण के जनाजे मे बज रहीं है.











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