सोमवार, 16 सितंबर 2013

बहुत कठिन है यह डगर पनघट की

बहुत कठिन है यह डगर पनघट की
हिन्दी दिवस का आयोजन अभी दो दिन पहले समाप्त हो गया और समाप्त हो गया हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये किये जाने वाले वादे और कायदे. १४ सितम्बर भी आज के समय में प्रचलित हो गया है जिसके अंतर्गत देश के कोने कोने में राज भाषा पखवाडे का समापन किया जाता है. और ऐसा लगता है कि भाषाओ की रानी को  कानी बना कर सम्मानित किया जाता है. १ सितम्बर से १४ सितम्बर का समय वह पखवाडा है जिसमे पूरा देश हिन्दी के नाम को जप कर आस्था प्रदर्शित करने का असफल प्रयास करता है. राजभाषा से राष्ट्रभाषा तक का सफर भी इसी तरह है कि सौ दिन चढे ढाई कोस की यात्रा. परन्तु स्वतंत्रता पश्चात से आज तक राजभाषा पखवाडा और इसके उद्देश्य हम भी जानते है और सरकार भी बखूबी जानती है कि हिन्दी भाषा का वर्चश्व कितना बचा है.आज के समय में भारत में हिन्दी भाषी से ज्यादा प्रभाव अहिन्दी भाषा की प्रतिभा और प्रभाव बहुत ज्यादा है. क्योंकि जो राज्य बन रहे है उनमें हिन्दी के नाम पर लेस मात्र भी नहीं बचा है.
      आज के समय में जरूरत है यह जानने की कि हिन्दी के नाम में बडे बडे भाषण देने वाले लोग,विषय विशेषज्ञ,राजनीतिज्ञ, ही सबसे बडे दोषी है इस भाषा की अर्थी की तैयारी करने में.राज काज की भाषा बनी हिन्दी जिसे आज के समय में राज में उपयोग किया जा रहा है परन्तु काज में तो शून्य स्थिति है. राजभाषा से राष्ट्रभाषा का सफर बहुत ही कठिन है हिन्दी का. भारत की आज की स्थिति में हर क्षेत्र में अंग्रेजी से भरा पडा है. और पहले से अंग्रेजों ने इस भाषा को भारतीय नश्लों की नशों में इस तरह से मिलाया है कि हमारे पूर्वज भी इसी का प्रयोग कर हमारा पेट पाल रहे थे. और हमारे माता पिता ने हमें यह सिखाया है कि हिन्दी तो बहुत सरल है कभी भी पढ सकते हो. अंग्रेजी पढो जिससे लक्टंट साहब बन सकते हो. आज के समय में हर परीक्षा में दो भाषा का प्रयोग किया जारहा है किन्तु अंग्रेजी की प्राथमिकता के आधार पर प्रशनो की सत्यता प्रमाणित किया जाता है. आज के समय हर जगह जहाँ पर हिन्दी का प्रयोग किया जा रहा है वहाँ पर कठिनतम शब्दों का उपयोग उस स्थान का प्रयोग करने वालों के छक्के छुडा देती है. और मजबूरन उसे इंगलिश भाषा का प्रयोग करना पडता है. जो उनके लिये रोजाना के जीवन में वही शब्द प्रयोग किये जाते आ रहे है और भविषय में भी इसका प्रयोग और बढ जायेंगें.इसका प्रमुख कारण यह है कि आज के समय में बाजारवाद का युग बढ रहा है. और उसमे अपना विचार योजना और कार्यों की जानकारी देश विदेश में पहुँचाने का एक ही माध्यम है वह है अंग्रेजी है. क्योंकि वह हमारी मजबूरी है जिसमें हम अपनी हिन्दी को इतना प्रभावी नहीं बना पाये जिसमें इसका प्रयोग देश के अलावा विदेश में हो और देश के ही हर कोने में हो. परन्तु आज के समय में राजभाषा समिति , महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा और भी अन्य संस्थान जिसका गढन ही इस उद्देश्य के लिये किया गया  कि हिन्दी देश के कोने कोने में फैले. परन्तु आज के समय में इस तरह की संस्थायें महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में पढाये जाने वाले प्राध्यापकों, रीडरों, और वाइस चाँसलर्स की सेवा करने में व्यस्त है.हिन्दी की राष्ट्रभाषा की यात्रा सरल तो है परन्तु रास्ता बताने वाले कठिनतम मार्ग में इसे भेजने की तैयारी कर रहे है.सभी जानते है कि आज चाह कर भी वो इसे राष्ट्रभाषा नहीं बना पायेगें क्योंकी न्यायपालिका,कार्यपालिका, विधायिका, और उद्योग जगत का इससे बहुत ज्यादा नुकसान होगा और सबसे ज्यादा नुकसान होगा हिन्दी के तत्सम और तद्भव शब्दों की विशिष्टता के प्रयोगों पे. इस बात से हम परहेज नहीं कर सकते है कि हिन्दी से ज्यादा प्रभाव शाली भाषाये भारत में मौजूद है. जो हिन्दी के साहित्य से ज्यादा विकास की है. हिन्दी के टुकडे करने में बोलियों का बहुत बडा योगदान है जो इसकी क्लिश्टता को हर समय बढाते है. परन्तु अन्य भाषाओं में बोलियों का प्रभाव इतना देखने को नहीं मिलता है.इसलिये वो इससे ज्यादा प्रगति करती है. राज भाषा में अन्य राज्यों का दखल कम होता है परन्तु राष्ट्रभाषा में वो अहिन्दी भाषी राज्य जरूर अडंगा खडा करेंगे जिनको हिन्दी भाषा फूटी आँखी नहीं सोहाती है.

      इसलिये अब राजभाषा पखवाडे को मनाकर एक वरसी की रस्म को निर्वहन करने के बराबर ही है.इसका औचित्य कितना परिणामकारी सिद्ध होगा यह शायद ही कोई जानता है. यह एक बजट के भाग को सुनिश्चित दिशा देने की कदमताल की तरह है.जिसका परेड से कोई वास्ता नहीं है.मुझे लगता है कि आज के समय में हिन्दी राष्ट्रभाषा तभी बन सकती है. जब वह अपने लचीलेपन को बढाकर अन्यभाषाओं के साथ समन्वय करने को राजी है वरना विद्रोह, संप्रदायिकता और विवशता का दंश इसे झेलना ही पडेगा... जब तक हिन्दी में अन्य भाषायें मिलकर एक संकर हिन्दी का स्वरूप नहीं बनेगा तब तक फिलहाल इस पनघट की राह बहुत कठिन है.इसकी प्रमुख वजह सिर्फ क्लिष्टता और इसके सिर में बैठे इसके मठाधीश है.

रविवार, 8 सितंबर 2013

ध्यान कुटिया में ज्यादा ध्यान का परिणाम; आशाराम

ध्यान कुटिया में ज्यादा ध्यान का परिणाम; आशाराम
आसाराम की गिरफ्तारी को लेकर जिस तरह का ड्रामा हुआ और वे तमाम राज्यों में खुलेआम घूमते रहे, उसके बाद क्या सामान्य जांच के जरिए पीड़िता को न्याय मिल जाएगा या फिर इसके लिए सीबीआई जांच करवानी चाहिए? इस पर पूर्व सीबीआई निदेशक जोगिंदर सिंह का कहना है कि सीबीआई के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है, यदि कोई गवाह ही अपनी जबान नहीं खोलेगा तो सीबीआइ क्या कर लेगी? उनके अनुसार, भारत का कानून इतना लचीला है कि गवाह बड़ी आसानी से खरीदे जा सकते हैं, साथ ही गवाहों की सुरक्षा का कोई कानून यहां नहीं है। यदि यह केस भी चंद्रास्वामी और चारा घोटाले की तरह लंबा खिंचता है तो निश्चित रूप से यह मामला प्रभावित हो सकता है। आसाराम की गिरफ्तारी को लेकर जहां तमाम संगठन और आम जनता सड़कों पर प्रदर्शन कर रही थी, वहीं उनकी गिरफ्तारी के बाद उनके समर्थकों ने इसके खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं।कभी निकट रिश्तेदार की मौत, तो कभी बीमारी का बहाना, यहां तक कि प्रवचन में व्यस्तता भी उन्हें गिरफ्तार होने से नहीं बचा पाई। गिरफ्तारी वाले दिन तो वह अपने ही आश्रम में भूमिगत हो गए थे। गिरफ्तार होने से पहले आसाराम और उनके बेटे नारायण साइं पूरे दिन कोई न कोई बहाना बनाते रहे। नारायण साइं ने मीडिया को बताया कि उनके बापू को ट्राइजिमीनियल न्यूरॉल्जिया नामक बीमारी है। इस बीमारी की वजह से उनके चेहरे में दर्द रहता है और वे पिछले १३ साल से इस बीमारी से ग्रसित हैं।सत्ता पक्ष और विपक्ष पर बाबा का दबदबा इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जिस कांग्रेस हुकूमत वाले राजस्थान के जोधपुर में उन पर यह गंभीर आरोप लगता है, वहां से वे बड़ी आसानी से निकलकर भाजपाई मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात, फिर कंग्रेसी मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण के महाराष्ट्र, फिर भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मध्य प्रदेश की लगातार यात्रा करते रहे लेकिन पुलिस उन्हें बजाय गिरफ्तार करने के वीआइपी ट्रीटमेंट देती नजर आई। बाबा के बचाव को लेकर जब भाजपा भी सवालों के कठघरे में खड़ी हो गई तो नरेंद्र मोदी की तरफ से आननफानन में भाजपा नेताओं को आसाराम के संबंध में मौन साधने का आदेश जारी हुआ। भाजपा नेताओं के बयान से हुई किरकिरी को दूर करने के लिए उन्होंने आसाराम पर इशारों ही इशारों में सवाल उठाए लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दरअसल जिस आसाराम को तमाम राज्यों की भाजपाई सरकार मुख्य अतिथि के रूप में पूजती रही हो, उनके लिए अचानक गंभीर आरोपों से घिरे आसाराम न तो निगलते बन रहे थे और न ही उगलते। उधर कांग्रेस भी इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी। यही कारण था कि राहुल गांधी को बबलू और सोनिया गांधी को विदेशी मैडम बताने वाले बाबा से सीधे-सीधे पंगा लेने की बजाय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत शुरू से यही रट लगाते नजर आए कि कानून अपना काम करेगा हालांकि आसाराम की गिरफ्तारी के बाद उनके तेवर कुछ सख्त हुए और उन्होंने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि यौन उत्पीड़न मामले की निष्पक्ष जांच होगी और संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होगी।आज से पहले भी यहाँ देखा गया है की भारत देश में कथा वाचक और ढोंग से परिपूर्ण अन्य प्रजाति के मनुष्यों को जो धर्म के नाम पर व्यापार करते है उन्हें यहाँ की महिलाए और अन्य सभी वो लोग जो धर्मं को मानवीयता से श्रेष्ठ समझते है दिन रात पूजते है और इतना विश्वास करते है की अपनी जान और अस्मिता भी देने से कोई परहेज नहीं करते है . आज के समय में मीडिया भी कही ना कही  इन्हें पब्लिक फिगर बनाने और पब्लिक के बीच में अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिए बहुत इस्तेमाल करते है. और इनको गिराने का  काम भी कहीं ना कही यही चैनल करते है. आशाराम जैसे बहुत से केश मैंने अपने आसपास देखा है परन्तु इसका परिणाम क्या होता है. भोली भली जनता कुछ महीने के बाद आई गयी मान कर फिर से यही शुरू कर देती है यहाँ बाबा ना सही तो कोई और बाबा. बाबा रामदेव का खुल कर मुखरित होना और फिर संतो का बेबाकी से बोलना कहीं न कही आशाराम को मुसिबत में डालेगी ही. परन्तु यहाँ यह भी सच है की आज यदि हम थोडा सा जागरुक होकर धर्म को समझे तो आज के समाया में किसी की जरूरत नहीं है सब धर्मशास्त्रो में वर्णित है और रहे बात शांति की तो वह हमारे कर्मो से बनती है ना की बाबाओ के शरण में जाने से. उनकी शरण में जाकर सिर्फ बीच मझधार का जीवन हे जी सकते है और कुछ नहीं . मीडिया को चाहिए की इस के आलावा भे देश के अन्य मुद्दे है उसे भी पब्लिक से जोड़े अन्यथा वो भी कही न कही धर्म के साथ बलात्कार कर रही है और जनता के साथ भी.

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

लोककलाकारों के जीवन संघर्ष और लोक संस्कृति के उत्कर्ष की लोकगाथा:खम्मा,पुस्तक:खम्मा(उपन्यास),लेखक:आशोक जामनानी, होशंगाबाद, समीक्षा: अनिल अयान,सतना, म.प्र.

लोककलाकारों के जीवन संघर्ष और लोक संस्कृति के उत्कर्ष की लोकगाथा:खम्मा
पुस्तक:खम्मा(उपन्यास),लेखक:आशोक जामनानी, होशंगाबाद, समीक्षा: अनिल अयान,सतना, म.प्र.
श्री आशोक जामनानी की बूढी डायरी और छपाक छपाक की पृष्ठभूमि से ज्यादा प्रभावी और रोमाँचक उपन्यास खम्मा राजस्थान के पश्चिमी भाग माडधरा में बसने वाले लोकसंगीत को संजोने वाले मांगणियार लोगो की संस्कृति सभ्यता और विरासत को सहेजने की प्रभावी प्रस्तावना है. राजस्थान के इन लोककलासाधकों के द्वारा की जाने वाली गंगा जमुनी तहजीब के पालन पोषण तथा उत्सवों में उनकी महत्ता को उपन्यासकार ने अपने मुख्य पात्र बींझा की माध्यम से माडधरा को चूमते हुये घडी खम्मा कर अगाध सम्मान दिया है. इस उपन्यास में उपन्यासकार ने जहाँ एक ओर माडधरा की लोकसंस्कृति के संरक्षक मांगणियार  जाति के जीवन को गहराई से उकेरा है  वहीं दूसरी ओर लोककला के बिचौलियों व दलालों के द्वारा किये जारहे शोषण को भी उपन्यास के माध्यम से समाज और सत्ता को यह संदेश दिया है. कि यदि लोक संस्कृति की रक्षा नहीं की गई तो यह विदेशियों के द्वारा बलात्कृत करके हथिया ली जायेगी. और भारत की यह विरासत सरे आम आत्महत्या करने को  मजबूर हो जायेगी.
            कथा का प्रारंभ बींझा नाम के युवा लोकगीतगायक जो मांगणियार जाति का नेतृत्व करता है, और उसके जमींदार मित्र सूरज के मिलाप से होता है. सूरज जमींदार घराने का युवाराजकुमार है जिसकी पत्नी प्राची का बस एक्सीडेंट में मौत हो गई है और वह बहुत ही एकाकी और तन्हाई का जीवन जी रहा है. बींझा की मित्रता उसे एक बहुत बडा मनोवैज्ञानिक सहारा देता है.सूरज बींझा के गीतों का मुरीद है और वह बींझा की हर कदम में मदद करता है.बींझा की धर्मपत्नी का नाम सोरठ है जो उसके संघर्षपूर्ण जीवन की सच्ची सहचरी होती है.बीझा के साथ उसके बुजुर्ग काका भी रहते है. जिनका साथ पाकर परिवार और मजबूत होता है.उनका नाम मरुखान है.परन्तु कहानी उस समय पहला मोड लेती है जब सूरज बींझा को एक दिन १ लाख रुपये एक लिफाफे में बंद करके देता है और गाँव छोडकर बिना बताये चला जाता है जब मरुखान को पता चलता है तो वह उन रुपयों से खरीदारी करता है. परन्तु बींझा को यह बात अच्छी नहीं लगती. और वह इस बात का गुस्सा सोरठ पर उतारता है. बाद में उसे इस बात की ग्लानि भी होती है.इसके बाद से ही बींझा भी उदास रहने लगता है और परिणाम स्वरूप वह अपने मित्र बिलावल के पास जोधपुर पहुँच जाता है.वह घर वालों को कोई सूचना भी नहीं देता है.वह बिलावल से काम की माँग करता है.बिलावल उसे अपने साथ मेहरानगढ ले जाता है और अपने गाइड के काम से उसे परिचय करवाता है.परन्तु बिलावल के साथ वह बहुत ही ऊब जाता है.कई दिनों के बाद बिलावल उसे कालबेलिया जाति की लोक नृत्यिकाओं सुरंगी और झाँझर से मुलाकात करवाता है.बिलावल की तारीफ से सुरंगी बींझा को अपने साथ रखने को तैयार हो जाती है. सुरंगी एक संघर्षशील गाने बजाने वाली महिलापात्र है. जो भावनात्मक सहारा देकर बींझाको मजबूत करती है. वह उसे बालेसर ले जाती है. उसके साथ बात करतीहै. और अपनी खींवा की कहानी बताती है. जो उसका पूर्व पति होता है. वह बताती है कि इस तरह खींवा चरित्रहीनता का विष पीकर सुरंगी को छोडकर गैर औरत के पास चला जाता है.यहीं पर बींझा का परिचय झाँझर से होता है.वह भी बातों बातों में अपने जीवन की दर्दनाक कहानी बींझा से साझा करती है.यहीं पर पता चलता है कि बिलावल किस तरह उन दोनो की मदद किया था.और अंततः बींझा भी अपने हुनर की दास्ताँ उन दोनो को बयां करता है.इस तरह तीनों के बीच का नाजुक रिश्ता बहुत ही मजबूत हो जाता है.अपना नया सफर शुरू करने से पहले वह सुरंगी की अनुमतिसे अपने परिवार से मिलने गाँव वापिस लौटता है.अपने परिवार के मना करने के बावजूद वह वापिस जैसलमेर पहुँच जाता है. और सुरंगी के साथ रुपया कमाने मे लग जाता है.काम से जीचुराने के चक्कर में वह सुरंगी से डाँट भी खाता है. परन्तु सही समय में उसे अपने जीवन का संघर्ष समझ में आजाता है.एक दिन सुरंगी उसकी मुलाकात विदेशी महिला पर्यटक गाइड क्रिस्टीन से करवाती है जिसका काम विदेशियों को भारत में दर्शनीय स्थलों के बारे में बताना और दिखाना.सुरंगी के मुँह से बींझा की तारीफ सुनकर उसे अपने साथ रख लेती है.क्रिस्टीन की टीम बींझा के साथ रह कर खूब मनोरंजन करती है. दिन गुजरते है और क्रिस्टीन बींझा के साथ अपना ज्यादा समय बिताने लगती है और इसी बीच उनका यह रिस्ता शारीरिक संबंधों की परवान चढने के प्रस्ताव तक पहुँचता है. जिसको पहले ठुकरायेजाने के बाद बींझा के द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है.प्रेम जीवन में परवान चढने लगता है.बाद में समझ में बींझा को आता है कि वह सिर्फ समय गुजारने और अपने शारीरिक भूख मिटाने के अलावा कुछ नहीं अर्थात उसे शारीरिक मनोरंजन का साधन के रूप में क्रिस्टीन इस्तेमाल करती है एक दिन क्रिस्टीन से उसकी काफी बहस होती है और वह अंततः बिन बताये विदेश वापिस लौट जाती है और बदले में बीझा को बहुत सा रुपया दे जाती है.बींझा काफी टूट जाता है और वह अपने गाँव वापिस लौट जाता है. उसके मन की दश सोरठ से छिपती नहीं है. तभी बींझा सोरठ का रात्रि में उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिये सहयोग का आग्रह करताहै परन्तु वह आग्रह सोरठ के द्वार नकार दिया जाता है और नाराजगी भी दिखाई जाती है..कई दिन गुजरने ले बाद सुरंगी उससे मिलने आती है. उसके द्वारा किया गया मनोवैज्ञानिक सहारा बींझा को और संबल प्रदान करता है. इसी उद्देश्य की पूर्ति के बाद सुरंगी अपने शहर वापिस लौट जाती है.समय गुजरता है तभी सूरज का पुनः बींझा के जीवन में आगमन होता है.  यह आगमन बींझा को और मजबूत बनाता है. वह सूरज से विदेश जाने की बात रखता है और सूरज उसे अपने साथ दिल्ली ले आता है. रास्ते में पता चलता है कि सूरज की जिंदगी में प्रतीची नाम की डाक्टर आ गई है. जो सूरज को प्राची के सदमें से बाहर निकाल देती है. और वही बींझा को भी क्रिस्टीन के प्रेम वियोग से बाहर निकालती है.सूरज ब्रिजेन नाम के एक दलाल से बींझा का मिलना तय करता है. और ब्रिजेन बींझा का गाना सुनने के बाद उससे काफी प्रभावित् होता है. और उसे विदेश ले जाने की अनुमति दे देताहै. बातों ही बातो में ब्रिजेन बताता है कि वह भी मणिपुर का एक लोक गायक है और प्रगति की लालच ने उसे एक दलाल बना कर छोड दिया.वह बताता है कि शोहरत हमसे हमारा अपना सब कुछ छीन लेतीहै.बींझा उससे अपने उद्देश्य में अडिग रहने का विश्वास दिलाता है. अंत में बींझा के द्वारा अपने बजाये जाने वाले कवायच को सीने से लगाये जाने की घटना इसकी शुरुआत करती है और कथा की समाप्ति करती है.
            पूरे उपन्यास में नारी पात्रों का जिक्र करें  तो भारतीय नारी पात्र पुरुषवादी सत्ता के प्रति संघर्ष करते उपन्यास में नजर आते है.चाहे वह झाँझर हो, सुरंगी हो, या फिर सोरठ हो. यह सब पुरुष की सामाजिक मानसिक फिसलन से पीडित महिलाये है. परन्तु संघर्ष ने इन्हे एक निर्णायक के रूप में उपन्यास में जगह बनाने में सफल बनाया है.क्रिस्टीन का चरित्र विदेशी संस्कृति में खुले सेक्स, नशे और कमाऊ प्रवृति को उजागर करता है. उसके रग रग में शोषण करना और सेक्स को मनोरंजन मान कर उपभोग करना ही उपन्यास की एक और खासियत है,सोरठ का चरित्र सूरज का चरित्र बींझा के लिये एक रीड साबित होता है जो  रिस्तों की बारीकियों को समझने और उनके बीच समान्जस्य बिठाने में बींझा की मदद भी करता है.अंततः उजागर हुआ परनतु ब्रिजेन का चरित्र शोहरत के सामने मजबूर लोक कलाकार का चरित्र है जो लोकसंस्कृति को छोड कर  वैश्वीकरण की ओर पलायन करने के लिये मजबूर है. और बीझा वह केन्द्रीय पात्र है जिसके चारों ओर सभी पात्र अपनी अपनी विवशता  की गाथा के साथ गुथे हुयेहै.बींझा का महत्वाकांक्षी हो जाना उपन्यास में उसकी मजबूरी और स्वाभिमान को प्रदर्शित करता है.पूरा उपन्यास लोक संस्कृति के बचाव करने वाले लोक कलाकारॊं  के जीवन संघर्ष, बिचौलियों के द्वारा शोषण के शिकार, और पारिवारिक लचरता के साथ साथ संस्कृति को सुरक्षित रखने की जिम्मेवारी को निर्वहन करने तथा रिस्तों के निस्वार्थ संवहन और संवरण  की मार्मिक गाथा है.पूरे उपन्यास की वाक्य संरचना संवाद परिस्थिति जनय चित्रण राजस्थान की धरती ,बोली जीवन चर्या को पाठक के सामने लाने में सफल होती है.बीच बीच में पात्रों के मुख से लोकगथाये और जातक कथाओं का जिक्र उपन्यास को ऐतिहासिकता के और करीब लाता है.बींझा के द्वारा गाये गये लोकगीत पाठकों को राजस्थान की माडधरा की खुशबू को महसूस करने तथा राजस्थानी बोली दरिया के तिलिस्म को पहचानने का संबल देती है.पूरा उपन्यास मागणियार जाति के लोककलाकारों के जीवन संघर्ष और लोक संस्कृति के संरक्षण के दायित्व निर्वहन करने के बीच के संघर्ष को पाठको के सामने लाने मेंसफल रहाहै.पात्रो के नाम भी माडधरा के गर्भ से खोजे गये है जो लोक गीतों में अधिक्तर उपयोग किये जाते रहे है. परन्तु मुझे फिर एक बार महसूस होता है कि पूर्व उपन्यासों की भाँति इस बार भी अन्य पात्र अपने अनकहे  परिणाम के साथ उपन्यास में शामिल रहे उनके जीवन की अनकही गाथा पाठकों को पुनः प्यासा और जिग्यासा से पूर्ण कर देती है.उपन्यास बूढी डायरी की भांति लोक संस्कृति का पोषण करने वाला है जो पाठकों की चेतना को लोक संस्कृति के और करीब ले जाता है. उपन्यास कार को इन्हीं सफलताओं की बधायी देकर लेखनी को विराम देता हूँ.
अनिल अयान ,सतना.म.प्र,
मारुति नगर सतना.

सम्पर्क:९४०६७८१०४०,९४०६७८१०७०स

रविवार, 1 सितंबर 2013

शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस


शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस
शिक्षक दिवस नजदीक है और इस दिन
शिक्षको के सम्मान का एक नया स्वांग रचाया जायेगा. फिर से नये नये तरीके से शिक्षकों के गुणगान किये जायेगे. और अगले ही दिन से वही पुराना ढर्रे पे आजायेगी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक. दबे,कुचले,हर वर्ग से पीडित और हर वर्ग से शामिल होने वाले मजबूर शिक्षक.कभी कभी लगता है कि डाँ राधाकृष्ण को यदि शिक्षण का काम इतना पसंद था तो उन्होने यह कार्य अपने जीवन में क्यों नहीं किया राष्ट्रपति की जिम्मेवारी से मुक्त होने के बाद और यदि सिर्फ यह सद्भावना का मामला था तो यह भी तय है उनको शिक्षकों की उस वख्त की स्थिति को देखते हुये भविष्यगत दूरगामी लाभ देकर जाना चाहिये था. या सरकार के सहयोग से नये नियम और कानून , योजनाये बनवाना चाहिये था. क्योंकी आज के समय में  शिक्षक दिवस भी व्यावसायिक होता जा रहा है. आज के समय में शिक्षक के सम्मान के लिये किसी दिवस की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि आज के समय में शिक्षकों का सम्मान बचा ही नहीं है. क्योंकी आज के समय में शिक्षक, शिक्षक बचा हीनहीं. उन्हे शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, और न जाने किस किस घाट का पानी पिला कर सब मिलावटी बना दिया है.
            आजकल शिक्षक दिवस का यह हाल है कि शिक्षक खुद अपना सम्मान करवाने के लिये आवेदन देते है. अपनी उपलब्धियों का गुणगान खुद करता है और फिर जाकर शिफारिस के बाद कहीं जाकर सम्मान लिस्ट में उसका नाम आ पाता है. हर वर्ष यही ढोंग होता है.५ सितम्बर के लिये तो शिक्षा विभाग अपना विशेष बजट निर्धारित करता है. परन्तु उसका सम्मान के लिये कितना खर्च होता है वह शिक्षा विभाग भी बखूबी जानता है. एक दिन का सम्मान और बाकी ३६५ दिन अपमान करता है शिक्षा विभाग इस शिक्षकों का.आज के समय में शिक्षक हो, अतिथिविद्वान हो, संविदा शिक्षक हो. गुरू जी हो. सब समान वेतन समान काम की लडाई लड रहे है. परन्तु सरकार उसे सुनने की बजाय नया स्वांग रचने की परंपरा का अंधानुकरण इसी लिये करती चली आ रही है. क्योंकी इसी बहाने एक बहुत मोटी रकम इस समारोह के लिये पार कर दी जाती है. काम थोडा सा किया जाता है और दिखावा करोडो का होता है. आज के समय शिक्षक दिवस जैसे दिनो की आवश्यकता क्या है. यदि इसकी आवश्यकता है तो फिर प्राध्यापक दिवस, व्याख्याता दिवस .. प्राचार्य दिवस, और गुरु जी दिवस मनाया जाना चाहिये. आज के समय में एक अच्छी तरह से पढे लिखे शिक्षक को अंगूठा छाप सरपंच, या पालक, या अधिकारी सरेआम पूरे बच्चों के सामने क्लास लगा देता है. और शिक्षक के पास अपने बचाव करने के लिये कोई मौका नहीं मिलता वह सिर्फ सिर झुका कर यस सर ही कह सकता है क्योंकी सामने वाला उसका अधिकारी जो ठहरा. रही बात प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों की तो वहाँ पर जो मैनेजमेंट के ज्यादा करीब होता है वह ज्यादा अर्थ का अधिकारी होता है उसे इंक्रीमेंट उतना ही अधिक मिलता है. जो शिक्षक अपने काम से काम रखता है वह सिर्फ नाम भर का शिक्षक रह जाता है.चाहे प्राइवेट हो या सरकारी सब जगह शिक्षक दिवस का धतकरम करके प्रशासन और प्रबंधन अपने अपने तरीके से स्वांग भरते है. आज के समय में शिक्षकों की जो स्थिति रहती है उसे देख कर हमारे पूर्व राष्ट्रपति जी जरूर अफसोस कर रहे होगें स्वर्ग से कि इस प्रजाति के लिये अपना जन्मदिन दान करके जीते जी बहुत बडा गुनाह कर दिया काश एक बार और जन्म मिल जाये भारत में तो यह भूल सुधार कर देता. परन्तु यह संभव कहाँ है आज कल.
आज सरकार मजदूर से लेकर हर प्रोफेसन वाले से बहुत डरती है. थोडा से हडताल हुई नहीं की लगता है कि कहीं सरकार की राज्य व्यवस्था का बंटाधार कहीं ना हो जाए और तुरंत माँगे मान ली जाती है. परन्तु शिक्षक साल भर मे ५० बार यदि हडताल करें और यह भी छोडिये यदि आमरण अनसन करे तो भी सरकार के कानों में जूँ तक नहीं रेंगती है. जैसे उसे शिक्षकों की कोई चिंता ही नहीं है. और किस बात की चिंता की जाये कौन सा आर्थिक नुकसान होना है उसका. चाहे ४ दिन करें या ४० दिन.. यही सब हाल है जनाब.ऐसा लगता है कि दिहाडी करने वाले शिक्षा के मजदूरों का दिवस है. जिसकी आय एक पखाना उठाने के मजदूर से भी कम है. और उसके चिल्लाने में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है. यह भी सच है कि यदि प्रतिक्रिया की भी तो सिर्फ आस्वासन और झूठे वायदे है.
            अफसोस तो तब होता है जब वो सब आफीसर ,नेता, जो शिक्षक दिवस के दिन शिक्षकों की तारीफ में पुल बाँधने से नहीं थकते है वो सब अगले दिन २४ घंटे के पूर्व ही इस प्रभाव से निकल कर शिक्षकों को समाज में मुर्गा बनाने की आदत से बाज नहीं आते है.शिक्षक दिवस में शिक्षक की स्थिति ठीक उसी तरह है जिसमें महापुरुषों का वह पत्थर का बुत है जिसे साल भर धूल बीट सम्मान करते है और एक दिन उसे धोया पोंछा जाता है माला पहनाया जाता है उसके बारेमें कसीदे पढे जाते है. और अगले दिन से फिर वही सार भर किस्सा चलता रहता है. आज के समय में जरूरत है शिक्षक को जागरुक होने की और अपने अधिकारों की माँग सही लहजे से करने की.नीतिगत तरीके से अपना अधिकार लेने की. और सरकार को चाहिये कि वह इस जिम्मेवार कद को सही सम्मान दिलाये ताकि वह कम से कम भूँखो ना मरे. यह सच्चा सम्मान होगा शिक्षा और शिक्षक का .
नहीं तो यह तो वह रामलीला है जिसके सब पात्र खुश है सिर्फ राम को छोडकर. दिहाडी करने वाले ये शिक्षा के मजदूरों का दिवस इनकी बेबसी में ठहाके लगा कर अपमान करने के अलावा और कुछ नहीं है.

शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस


शिक्षक दिवस या भक्षक दिवस
शिक्षक दिवस नजदीक है और इस दिन
शिक्षको के सम्मान का एक नया स्वांग रचाया जायेगा. फिर से नये नये तरीके से शिक्षकों के गुणगान किये जायेगे. और अगले ही दिन से वही पुराना ढर्रे पे आजायेगी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक. दबे,कुचले,हर वर्ग से पीडित और हर वर्ग से शामिल होने वाले मजबूर शिक्षक.कभी कभी लगता है कि डाँ राधाकृष्ण को यदि शिक्षण का काम इतना पसंद था तो उन्होने यह कार्य अपने जीवन में क्यों नहीं किया राष्ट्रपति की जिम्मेवारी से मुक्त होने के बाद और यदि सिर्फ यह सद्भावना का मामला था तो यह भी तय है उनको शिक्षकों की उस वख्त की स्थिति को देखते हुये भविष्यगत दूरगामी लाभ देकर जाना चाहिये था. या सरकार के सहयोग से नये नियम और कानून , योजनाये बनवाना चाहिये था. क्योंकी आज के समय में  शिक्षक दिवस भी व्यावसायिक होता जा रहा है. आज के समय में शिक्षक के सम्मान के लिये किसी दिवस की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि आज के समय में शिक्षकों का सम्मान बचा ही नहीं है. क्योंकी आज के समय में शिक्षक, शिक्षक बचा हीनहीं. उन्हे शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, और न जाने किस किस घाट का पानी पिला कर सब मिलावटी बना दिया है.
            आजकल शिक्षक दिवस का यह हाल है कि शिक्षक खुद अपना सम्मान करवाने के लिये आवेदन देते है. अपनी उपलब्धियों का गुणगान खुद करता है और फिर जाकर शिफारिस के बाद कहीं जाकर सम्मान लिस्ट में उसका नाम आ पाता है. हर वर्ष यही ढोंग होता है.५ सितम्बर के लिये तो शिक्षा विभाग अपना विशेष बजट निर्धारित करता है. परन्तु उसका सम्मान के लिये कितना खर्च होता है वह शिक्षा विभाग भी बखूबी जानता है. एक दिन का सम्मान और बाकी ३६५ दिन अपमान करता है शिक्षा विभाग इस शिक्षकों का.आज के समय में शिक्षक हो, अतिथिविद्वान हो, संविदा शिक्षक हो. गुरू जी हो. सब समान वेतन समान काम की लडाई लड रहे है. परन्तु सरकार उसे सुनने की बजाय नया स्वांग रचने की परंपरा का अंधानुकरण इसी लिये करती चली आ रही है. क्योंकी इसी बहाने एक बहुत मोटी रकम इस समारोह के लिये पार कर दी जाती है. काम थोडा सा किया जाता है और दिखावा करोडो का होता है. आज के समय शिक्षक दिवस जैसे दिनो की आवश्यकता क्या है. यदि इसकी आवश्यकता है तो फिर प्राध्यापक दिवस, व्याख्याता दिवस .. प्राचार्य दिवस, और गुरु जी दिवस मनाया जाना चाहिये. आज के समय में एक अच्छी तरह से पढे लिखे शिक्षक को अंगूठा छाप सरपंच, या पालक, या अधिकारी सरेआम पूरे बच्चों के सामने क्लास लगा देता है. और शिक्षक के पास अपने बचाव करने के लिये कोई मौका नहीं मिलता वह सिर्फ सिर झुका कर यस सर ही कह सकता है क्योंकी सामने वाला उसका अधिकारी जो ठहरा. रही बात प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों की तो वहाँ पर जो मैनेजमेंट के ज्यादा करीब होता है वह ज्यादा अर्थ का अधिकारी होता है उसे इंक्रीमेंट उतना ही अधिक मिलता है. जो शिक्षक अपने काम से काम रखता है वह सिर्फ नाम भर का शिक्षक रह जाता है.चाहे प्राइवेट हो या सरकारी सब जगह शिक्षक दिवस का धतकरम करके प्रशासन और प्रबंधन अपने अपने तरीके से स्वांग भरते है. आज के समय में शिक्षकों की जो स्थिति रहती है उसे देख कर हमारे पूर्व राष्ट्रपति जी जरूर अफसोस कर रहे होगें स्वर्ग से कि इस प्रजाति के लिये अपना जन्मदिन दान करके जीते जी बहुत बडा गुनाह कर दिया काश एक बार और जन्म मिल जाये भारत में तो यह भूल सुधार कर देता. परन्तु यह संभव कहाँ है आज कल.
आज सरकार मजदूर से लेकर हर प्रोफेसन वाले से बहुत डरती है. थोडा से हडताल हुई नहीं की लगता है कि कहीं सरकार की राज्य व्यवस्था का बंटाधार कहीं ना हो जाए और तुरंत माँगे मान ली जाती है. परन्तु शिक्षक साल भर मे ५० बार यदि हडताल करें और यह भी छोडिये यदि आमरण अनसन करे तो भी सरकार के कानों में जूँ तक नहीं रेंगती है. जैसे उसे शिक्षकों की कोई चिंता ही नहीं है. और किस बात की चिंता की जाये कौन सा आर्थिक नुकसान होना है उसका. चाहे ४ दिन करें या ४० दिन.. यही सब हाल है जनाब.ऐसा लगता है कि दिहाडी करने वाले शिक्षा के मजदूरों का दिवस है. जिसकी आय एक पखाना उठाने के मजदूर से भी कम है. और उसके चिल्लाने में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है. यह भी सच है कि यदि प्रतिक्रिया की भी तो सिर्फ आस्वासन और झूठे वायदे है.
            अफसोस तो तब होता है जब वो सब आफीसर ,नेता, जो शिक्षक दिवस के दिन शिक्षकों की तारीफ में पुल बाँधने से नहीं थकते है वो सब अगले दिन २४ घंटे के पूर्व ही इस प्रभाव से निकल कर शिक्षकों को समाज में मुर्गा बनाने की आदत से बाज नहीं आते है.शिक्षक दिवस में शिक्षक की स्थिति ठीक उसी तरह है जिसमें महापुरुषों का वह पत्थर का बुत है जिसे साल भर धूल बीट सम्मान करते है और एक दिन उसे धोया पोंछा जाता है माला पहनाया जाता है उसके बारेमें कसीदे पढे जाते है. और अगले दिन से फिर वही सार भर किस्सा चलता रहता है. आज के समय में जरूरत है शिक्षक को जागरुक होने की और अपने अधिकारों की माँग सही लहजे से करने की.नीतिगत तरीके से अपना अधिकार लेने की. और सरकार को चाहिये कि वह इस जिम्मेवार कद को सही सम्मान दिलाये ताकि वह कम से कम भूँखो ना मरे. यह सच्चा सम्मान होगा शिक्षा और शिक्षक का .
नहीं तो यह तो वह रामलीला है जिसके सब पात्र खुश है सिर्फ राम को छोडकर. दिहाडी करने वाले ये शिक्षा के मजदूरों का दिवस इनकी बेबसी में ठहाके लगा कर अपमान करने के अलावा और कुछ नहीं है.