शनिवार, 15 जुलाई 2017

किसी की बपौती नहीं है कविता

किसी की बपौती नहीं है कविता / कवि धर्म बनाम कविपुत्र धर्म
नाश के दुख से कभी/ दबता नहीं निर्माण का सुख/ प्रलय की निस्तब्धता से/ सृष्टि का नव गान फिर - फिर/ नीड का निर्माण फिर - फिर/ नेह का आह्वान फिर - फिर।  यह वो कविता है जो हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कलम का दायित्व निर्वहन करते हुये लिखी थी। इस कविता तो कहा जाता है कि अन्य कविताओं की तरह उनके बेटे अभिताब बच्चन जी ने कापी राइट करा कर रखा हुआ था  और तर्पण कार्यक्रम में जब कुमार विश्वास ने साहित्यिक विश्वास के साथ इसको गाया और हरिवंश राय बच्चन जी को अपना साहित्यिक प्रणाम करके लोगों के सामने रखा साथ ही साथ उसका वीडियों यूट्यूब में अपलोड किया गया तब से  एक विवाद गहराया। अभिताब जी ने केश करके कुमार विश्वास को कानूनन नोटिस भेजा और उसका जवाब भी कुमार विश्वास ने अपने राजनैतिक अंदाज में देते हुये उसकी कमाई का बत्तीस रुपये अभिताब जी को वापिस कर दिया। क्या कविता का अपमान किया था कुमार विश्वास ने या कवि का अपमान किया गया। क्या स्व. बच्चन जी की कविता को चोरी करके अपने नाम से कुमार विश्वास ने दर्शकों के सामने रखा। अगर ऐसा नहीं था तो कापीराइट क्या साहित्यिक धर्म से बढ कर है। क्या साहित्यकार के पुत्र होने के नाते अभिताब जी का कुमार विश्वास जी के साथ कोई साहित्यिक और सामाजिक रिश्ता नहीं है। अगर है तो फिर कविता की बपौती के लिये कोर्ट का नोटिश मेरे जैसे कलमकार के गले नही उतरता।
      यह साहित्य और काव्य परंपरा के इतिहास का एक ऐसा विषय पैदा हुआ जिससे कई सवालात मन में जागृत हुए। समान्यतः यह देखा जाता है कि कवि सम्मेलनों मुशायरों  में संचालक कवि अन्य मसहूर कवि शायरों की रचनायें सम्मान के साथ पढते हैं गाते हैं और श्रोताओं तक पहुंचाते हैं। वो जिन कवियों और शायरों की कविताओं को पढते हैं बयाकदे उनका नाम तक लेते हैं। और ये वीडियों यूट्यूब में बाकायदे अपलोड किये जाते हैं ताकि वो कार्यक्रम यादगार बने। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि इस तरह का केश किसी कवि ने दूसरे कवि पर किया हो कि तुमने एक नामी गिरामी कार्यक्रम में मेरी कविता मेरे नाम से क्यों पढी। एक कवि एक पाठक भी है और वह अगर अच्छी रचना पढता है उसे वह रचना पसंद आती है तब वह उसका प्रयोग उसके रचनाकार का उद्द्धरण देते हुये करने के लिये स्वतंत्र होता है। कमलकार की रचना तब तक वैयक्तिक है जब तक वह स्वांताह सुखाय के लिये लिख कर डायरी में कैद है। अगर वह प्रकाशित हो गई। या श्रोताओं के बीच आ गई तब से वह समाज की रचना हो जाती है। हर रचनाकार चाहता है कि उसकी रचनायें उसके नाम को मरने के बाद भी जग में अमर करती रहें।
      अब सवाल यह है कि क्या कविता कवि तो ठीक है उनके परिवार की पैतृक संपत्ति है। क्या गायत्री मंत्र श्लोक, राष्ट्र गान और राष्ट्रगीत आदि भी इसी तरह कापीराइट हो जाने चाहिये। अभिताब जी के अनुसार देखा जाये अगर ऐसे ही कापीराइट का सिस्टम चलता और उपर्युक्त मंत्रों श्लोकों के रचनाकार अगर जीवित होते और उन्होने  अगर हम सब पर केश कर दिया होता तो हम सब पाठकों और रचनाकारों की कहानी समाप्त हो चुकी होती। स्व. बच्चन जी ने यह  कभी नहीं सोचा होगा कि उनका सगा पुत्र अभिताब जी  उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास के ऊपर उन्ही की रचना के प्रचार प्रसार के कारण केश कर देगें। एक पुत्र अपना पुत्र धर्म निभाने का भ्रम पाले बैठा है जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं है जो बालीवुड और सरकार के ब्रांड एम्बेस्डरशिप के ना जाने कितने कांटेक्ट से जुडे हुये हैं। दूसरी तरफ उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास उनकी मृत प्राय कविता को युवा और मीडिया के सामने ससम्मानपूर्वक लाकर अपने कवि धर्म को निर्वहन कर रहे है। तब भी वो गलत हो गये क्योंकि कानूनन अपने खून को अधिकार है कि वो अपने बाप के माल पर अपना अधिकार जमाये। भले ही वो कविता जैसा भावनात्मक शब्द शक्ति क्यों ना हो।  जिस कविता के भाव को लेकर कविता का गायन कुमार विश्वास ने किया वह जग हिताय था। कविता का मर्म हम समझ सकते हैं कि कविता अगर श्रृष्टि के नवगान का आह्वान कराती है तो वह नेह के प्रसार को भी आह्वानित करती है। अफसोस कि यह आह्वान उनके पुत्र नहीं समझ सके और बालीवुड की बाजारी सोच के चलते कविता को धार बनाकर एक कवि को कविता गाने के नाम पर कानून की बारीकियों के आमना सामना करना पडा। हम अगर स्व. बच्चन जी को निशा निमंत्रण और मधुशाला जैसी रचनाओं और कृतियों की वजह से जानते हैं इसमें अगर कुछ और इजाफा करने का काम कुमार विश्वास ने किया तो क्या गलत लिया।
      कुमार विश्वास ने भले ही आप राजनैतिक पार्टी में शामिल हुये हो। भले ही साहित्यिक जगत में उन्हें मंचीय कवि के रूप में जाना जाता हो। भले ही वो राजनीति में शामिल होकर विवादित रहे हो। किंतु कवि के रूप में उनकी ही प्रतिभा थी कि कवि सम्मेलनों की नीरसता को खत्म करने की सोच और साहित्यिक गीतों की परंपरा को उन्होने कालेज कैंपस और युवा मन के अंदर तक घर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुमार की लोकप्रियता ने कपिल के लाफ्टर शो को कवितामय कर दिया जो उस शो के इतिहास में पहली बार था। कुमार की कविता के प्रति वफादारी के चलते विभिन्न अवसरों में सिर्फ टीआरपी के पीछे अंधी दौड में दौडने वाले प्राइवेट चैनलों ने कविता को अपने दर्शकों तक पहुंचाने के लिये विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया जिसमें कविता हुआ। कविता के साथ रचनाकार और रचना पर विमर्श हुआ। और साहित्य के प्रति एक नया दृष्टिकोण दर्शकों तक पहुंचा। यह सब काम करने के लिये अभिताब जी के पास वक्त ना होगा। इस सब से कुमार को अगर कुछ मूल्य मिल भी रहा है तो उनके जीविकोपार्जन के लिये नहीं है। वर्षों से चली आ रही एक कटु शिलालेख जिसमें यह कहा गया कि कविता या साहित्य पेट नहीं भरता सिर्फ प्रसिद्धि देता है, को कुमार ने मिटाने का काम किया। अगर वो अपनी कविताओं को बस उस कार्यक्रम में सुनाये तो व्यक्तिगत स्वार्थ समझ में आता है किंतु एक कविधर्म को निर्वहन करते हुये उन्होने अपने अग्रज कवि साहित्यकारों को मीडिया और दर्शकों के सामने लाने का सराहनीय काम किया है। जो साहित्यिक परंपरा का मूल भी है। मुझे लगता है कि कविता को किसी की बपौती नहीं मानना चाहिये। कवि कविता जग के लिये लिखता है। कवि के स्वर्गवासी होने के बाद कविता पर अगर उसके बेटे का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा कवि वंश के हर रचनाकार का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा पाठक वर्ग का अधिकार है जो हमेशा रहेगा। कवि धर्म कविपुत्र धर्म से ज्यादा श्रेष्ठ था है और रहेगा। अभिताब जी यह साहित्यिक अपरिपक्वता और कुमार विश्वास की यह साहित्यिक परिपक्वता ही थी कि इस विवाद को कोर्ट के दरवाजे तक पहुंचना पडा।"नेह का आह्वान फिर - फिर" का उत्स अगर अभिताब जी समझ जाते तो विवाद यह था ही नहीं भले वो बिग बी हो। पर इस बार एंगरी ओल्ड मैन की छवि बिग ब्रदर पर ज्यादा हावी रही। हमारा साहित्य और साहित्यिक विरादरी इस तरह की छवि का कट्टर विरोधी है।
अनिल अयान

सतनाकिसी की बपौती नहीं है कविता / कवि धर्म बनाम कविपुत्र धर्म
नाश के दुख से कभी/ दबता नहीं निर्माण का सुख/ प्रलय की निस्तब्धता से/ सृष्टि का नव गान फिर - फिर/ नीड का निर्माण फिर - फिर/ नेह का आह्वान फिर - फिर।  यह वो कविता है जो हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कलम का दायित्व निर्वहन करते हुये लिखी थी। इस कविता तो कहा जाता है कि अन्य कविताओं की तरह उनके बेटे अभिताब बच्चन जी ने कापी राइट करा कर रखा हुआ था  और तर्पण कार्यक्रम में जब कुमार विश्वास ने साहित्यिक विश्वास के साथ इसको गाया और हरिवंश राय बच्चन जी को अपना साहित्यिक प्रणाम करके लोगों के सामने रखा साथ ही साथ उसका वीडियों यूट्यूब में अपलोड किया गया तब से  एक विवाद गहराया। अभिताब जी ने केश करके कुमार विश्वास को कानूनन नोटिस भेजा और उसका जवाब भी कुमार विश्वास ने अपने राजनैतिक अंदाज में देते हुये उसकी कमाई का बत्तीस रुपये अभिताब जी को वापिस कर दिया। क्या कविता का अपमान किया था कुमार विश्वास ने या कवि का अपमान किया गया। क्या स्व. बच्चन जी की कविता को चोरी करके अपने नाम से कुमार विश्वास ने दर्शकों के सामने रखा। अगर ऐसा नहीं था तो कापीराइट क्या साहित्यिक धर्म से बढ कर है। क्या साहित्यकार के पुत्र होने के नाते अभिताब जी का कुमार विश्वास जी के साथ कोई साहित्यिक और सामाजिक रिश्ता नहीं है। अगर है तो फिर कविता की बपौती के लिये कोर्ट का नोटिश मेरे जैसे कलमकार के गले नही उतरता।
      यह साहित्य और काव्य परंपरा के इतिहास का एक ऐसा विषय पैदा हुआ जिससे कई सवालात मन में जागृत हुए। समान्यतः यह देखा जाता है कि कवि सम्मेलनों मुशायरों  में संचालक कवि अन्य मसहूर कवि शायरों की रचनायें सम्मान के साथ पढते हैं गाते हैं और श्रोताओं तक पहुंचाते हैं। वो जिन कवियों और शायरों की कविताओं को पढते हैं बयाकदे उनका नाम तक लेते हैं। और ये वीडियों यूट्यूब में बाकायदे अपलोड किये जाते हैं ताकि वो कार्यक्रम यादगार बने। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि इस तरह का केश किसी कवि ने दूसरे कवि पर किया हो कि तुमने एक नामी गिरामी कार्यक्रम में मेरी कविता मेरे नाम से क्यों पढी। एक कवि एक पाठक भी है और वह अगर अच्छी रचना पढता है उसे वह रचना पसंद आती है तब वह उसका प्रयोग उसके रचनाकार का उद्द्धरण देते हुये करने के लिये स्वतंत्र होता है। कमलकार की रचना तब तक वैयक्तिक है जब तक वह स्वांताह सुखाय के लिये लिख कर डायरी में कैद है। अगर वह प्रकाशित हो गई। या श्रोताओं के बीच आ गई तब से वह समाज की रचना हो जाती है। हर रचनाकार चाहता है कि उसकी रचनायें उसके नाम को मरने के बाद भी जग में अमर करती रहें।
      अब सवाल यह है कि क्या कविता कवि तो ठीक है उनके परिवार की पैतृक संपत्ति है। क्या गायत्री मंत्र श्लोक, राष्ट्र गान और राष्ट्रगीत आदि भी इसी तरह कापीराइट हो जाने चाहिये। अभिताब जी के अनुसार देखा जाये अगर ऐसे ही कापीराइट का सिस्टम चलता और उपर्युक्त मंत्रों श्लोकों के रचनाकार अगर जीवित होते और उन्होने  अगर हम सब पर केश कर दिया होता तो हम सब पाठकों और रचनाकारों की कहानी समाप्त हो चुकी होती। स्व. बच्चन जी ने यह  कभी नहीं सोचा होगा कि उनका सगा पुत्र अभिताब जी  उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास के ऊपर उन्ही की रचना के प्रचार प्रसार के कारण केश कर देगें। एक पुत्र अपना पुत्र धर्म निभाने का भ्रम पाले बैठा है जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं है जो बालीवुड और सरकार के ब्रांड एम्बेस्डरशिप के ना जाने कितने कांटेक्ट से जुडे हुये हैं। दूसरी तरफ उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास उनकी मृत प्राय कविता को युवा और मीडिया के सामने ससम्मानपूर्वक लाकर अपने कवि धर्म को निर्वहन कर रहे है। तब भी वो गलत हो गये क्योंकि कानूनन अपने खून को अधिकार है कि वो अपने बाप के माल पर अपना अधिकार जमाये। भले ही वो कविता जैसा भावनात्मक शब्द शक्ति क्यों ना हो।  जिस कविता के भाव को लेकर कविता का गायन कुमार विश्वास ने किया वह जग हिताय था। कविता का मर्म हम समझ सकते हैं कि कविता अगर श्रृष्टि के नवगान का आह्वान कराती है तो वह नेह के प्रसार को भी आह्वानित करती है। अफसोस कि यह आह्वान उनके पुत्र नहीं समझ सके और बालीवुड की बाजारी सोच के चलते कविता को धार बनाकर एक कवि को कविता गाने के नाम पर कानून की बारीकियों के आमना सामना करना पडा। हम अगर स्व. बच्चन जी को निशा निमंत्रण और मधुशाला जैसी रचनाओं और कृतियों की वजह से जानते हैं इसमें अगर कुछ और इजाफा करने का काम कुमार विश्वास ने किया तो क्या गलत लिया।
      कुमार विश्वास ने भले ही आप राजनैतिक पार्टी में शामिल हुये हो। भले ही साहित्यिक जगत में उन्हें मंचीय कवि के रूप में जाना जाता हो। भले ही वो राजनीति में शामिल होकर विवादित रहे हो। किंतु कवि के रूप में उनकी ही प्रतिभा थी कि कवि सम्मेलनों की नीरसता को खत्म करने की सोच और साहित्यिक गीतों की परंपरा को उन्होने कालेज कैंपस और युवा मन के अंदर तक घर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुमार की लोकप्रियता ने कपिल के लाफ्टर शो को कवितामय कर दिया जो उस शो के इतिहास में पहली बार था। कुमार की कविता के प्रति वफादारी के चलते विभिन्न अवसरों में सिर्फ टीआरपी के पीछे अंधी दौड में दौडने वाले प्राइवेट चैनलों ने कविता को अपने दर्शकों तक पहुंचाने के लिये विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया जिसमें कविता हुआ। कविता के साथ रचनाकार और रचना पर विमर्श हुआ। और साहित्य के प्रति एक नया दृष्टिकोण दर्शकों तक पहुंचा। यह सब काम करने के लिये अभिताब जी के पास वक्त ना होगा। इस सब से कुमार को अगर कुछ मूल्य मिल भी रहा है तो उनके जीविकोपार्जन के लिये नहीं है। वर्षों से चली आ रही एक कटु शिलालेख जिसमें यह कहा गया कि कविता या साहित्य पेट नहीं भरता सिर्फ प्रसिद्धि देता है, को कुमार ने मिटाने का काम किया। अगर वो अपनी कविताओं को बस उस कार्यक्रम में सुनाये तो व्यक्तिगत स्वार्थ समझ में आता है किंतु एक कविधर्म को निर्वहन करते हुये उन्होने अपने अग्रज कवि साहित्यकारों को मीडिया और दर्शकों के सामने लाने का सराहनीय काम किया है। जो साहित्यिक परंपरा का मूल भी है। मुझे लगता है कि कविता को किसी की बपौती नहीं मानना चाहिये। कवि कविता जग के लिये लिखता है। कवि के स्वर्गवासी होने के बाद कविता पर अगर उसके बेटे का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा कवि वंश के हर रचनाकार का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा पाठक वर्ग का अधिकार है जो हमेशा रहेगा। कवि धर्म कविपुत्र धर्म से ज्यादा श्रेष्ठ था है और रहेगा। अभिताब जी यह साहित्यिक अपरिपक्वता और कुमार विश्वास की यह साहित्यिक परिपक्वता ही थी कि इस विवाद को कोर्ट के दरवाजे तक पहुंचना पडा।"नेह का आह्वान फिर - फिर" का उत्स अगर अभिताब जी समझ जाते तो विवाद यह था ही नहीं भले वो बिग बी हो। पर इस बार एंगरी ओल्ड मैन की छवि बिग ब्रदर पर ज्यादा हावी रही। हमारा साहित्य और साहित्यिक विरादरी इस तरह की छवि का कट्टर विरोधी है।
अनिल अयान
सतना

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