बंदऊं
गुरु पद पदुम परागा।
गुरु का
कोई दिन होता है क्या। गुरु तत्वज्ञान देने के लिये इस धरा में आता है और इसी तत्वज्ञान
को प्राप्त करके शिष्य अपने पथ में आंगे बढकर अपनी मंजिलों को आसानी से प्राप्त कर
लेता है। गुरु वेदव्यास से शुरू हुई यह परंपरा आज इस बाजारवाद के युग तक पहुंच चुकी
है। पूर्णिमा में गुरु की वंदना करना भी अपने में एक वरदान से कम नहीं है। यह रीति
वैदिक कालीन रही है। पुरातन गुरु को देवों से ज्यादा श्रेष्ठ स्थान दिया गया। वेद पुराणों
से लेकर साहित्य के अन्य रचनाकारों ने अपने उद्धरणों में यह स्पष्ट कर दिया कि गुरु
के बिन ज्ञान के सही रूप को ग्रहण करने की स्थिति में शिष्य़ कभी नहीं आपाता है। मेरे
प्रिय संत कबीर ने कहा कि-सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज।सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुण लिखा
न जाए।।अगर मै इस पूरी धरती के बराबर बडा कागज बनाऊं और दुनिया
के सभी वृक्षों की कलम बना लूं सातो सामुद्रों
के बराबर स्याही बना लूं तो भी गुरु के गुण को लिखना संभव नहीं है।गुरु भारतीय इतिहास
में ऐसे होते थे। गुरु महिमा के लिये शिष्यों के पास शब्द कम पड जाया करते थे। गुरु
का महत्व समाज से लेकर राष्ट्र तक बहुत ज्यादा होता था। राजा से लेकर वजीर तक गुरु
को अपने से बढकर सम्मान देते थे। नरेंद्र को परमहंश ना मिलते तो वो स्वामी विवेकानंद
नहीं बन पाते। हर व्यक्ति के जीवन में गुरु का एक विशेष स्थान होता है जो अन्य रिश्ते
उसके जीवन से कभी भी नहीं छीन सकते हैं। मनुस्मृति में लिखा गया है कि जो आपको वेद
पुराण की बातें बताये वही सिर्फ गुरु नहीं होता बल्कि वो भी गुरु की संज्ञा में आता
है जिसने आपको जीवन जीने का मूल मंत्र कुछ छणों के साथ में बता दिया।
किंतु परन्तु आज के समय में गुरु का वर्चश्व
और अस्तित्व भी जैसे कालग्रास में समा गया है। गुरु और शिक्षक को एक ही तराजू में तौलने
की परंपरा ने गुरु की गुरुता को और हल्का कर दिया है। गुरु का स्थान अगर स्कूल कालेज
में पढाने वाले शिक्षक ले लेंगें तो गुरु का सर्वव्यापी व्यक्तित्व ग्रहण के प्रभाव
में आ जायेगा। आज के समय में गुरु के भेष में संपर्क में आने वाले व्यक्ति ढॊंगी और
महत्वाकांक्षी होते हैं। औसतन यह देखा गया है कि गुरु का त्रिकाल दर्शी व्यक्तित्व
अपने क्षितिज की ओर जा रहा है।-गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव।आज के
समय पर गुरु लोभी और शिष्य लालची हो गये हैं। दोनों खुद को इतना ज्यादा विद्वान समझते
हैं कि दोनों एक दूसरे पर दांव खेलने की कोशिश करते हैं और दोनों इस दांव के चक्कर
में पडकर पत्थर से बनी नाव पर बैठ कर जल श्रोत को पारकरने की जिद करते हैं। इतना ही
नहीं है बल्कि गुरु और शिष्य की जोडी भी हास्यास्पद हो चुकी है। जरा इस दोहे को देखिये-जाका
गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद। जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला
तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।वर्तमान
में गुरु अगर मां है तो मां का आदर समाज में कम हुआ है। गुरु अगर आपका अग्रज है तो
वह अपने अग्रज होने को भूल रहा है। समाज में गुरु की स्थिति महज पुस्तकीय ज्ञानार्जन
प्रदान करना ही रह गया है। विद्यालयों को बाजार में उतार दिया गया है जिसमें ज्ञानार्थ
कोई आना नहीं चाहता और सेवार्थ कोई जाना नहीं चाहता। गुरु पूर्णिमा के इस अवसर पर अगर
हम धार्मिक गुरुओं की बात करें तो कभी बालकांड में इन पंक्तियों में सार्वकालिक गुरु
की वंदना की गई थी जिसकी सार्थकता को यह जग बखूबी जानता है। बंदउं गुरु पद कंज कृपा
सिंधु नररूप हरि।महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर। मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल
की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और
जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।
आज कल इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को
कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह
कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड
पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते
हैं।सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट
केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के
खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए
लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे
कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों। गुरु के स्थान को जहां पर वेद पुराण और धर्म ग्रंथों
को समाज तक पहुंचाने के माध्यम के रूप में जाना जाता था वहीं आज कुछ आख्यानों और कपोल
कल्पित लोक कथाओं के आधार पर पूरी की पूरी सप्ताह खत्म कर देते हैं। जिन गुरुजनों ने
वास्तविक रूप से धर्मग्रंथों की रिचाओं को समाज तक सही रूप से पहुंचाया है वह देश विदेश
में गुरुता को विश्व विख्यात कर रहे हैं परन्तु यह संख्या विरली ही है। हमारे यहां
गुरु पूर्णिमा में लगे हाथ उन गुरुओं की भी पूजा हो जाती है जिन्होने गुरु का चोला
ओढा और मठाधीश बनकर मोटी मलाई की चिकनाई का आनंद उठा रहे हैं। और खुद को इस चिकनाई
से फिसलने से बचा भी नहीं पाते। बहरहाल इस बात का संतोष है कि विरले ही सही परन्तु
समाज में ऐसे व्यक्तिव मौजूद तो हैं। धीरे धीरे इस बाजारवाद ने अगर इन गुरुओं को अपना
ग्रास ना बनाया तो निश्चित ही गुरु वंदना और पूर्णिमा की सार्थकता और सर्वव्यापकता
भविष्य में भी बनी रहेगी।
अनिल अयान,सतना
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