मंगलवार, 3 मार्च 2020

डॆथ वारेंट से उत्पन्न जनमानस पर प्रभाव

डॆथ वारेंट से उत्पन्न जनमानस पर प्रभाव
 निर्भया कांड के आरोपियों की फांसी का निर्णय वारेंट, डेथ वारेंट तीसरी बार निरस्त कर दिया गया, पहला वारंट सात जनवरी, को दूसरा वारेंट सत्रह जनवरी को और तीसरा वारंट सत्रह फरवरी को आदेशित किया गया।  दया याचिकाओं को जो दौर इस केस में देखने के लिए मिला वह अप्रत्याशित रहा। पटियाला हाउस के जज का यह कहना कि गुनहगारों को कोर्ट जब तक जीने का अधिकार देता है तब तक फांसी देना पाप है। दोषियों के वकील सिंह साहब कहते हैं कि मै दावे के साथ कह रहा हूँ कि तीन मार्च को फाँसी नहीं होगी।नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का के आकड़े बताते हैं कि इस तरह के मामले में छः से अधिक ड़ेथ वारेंट दिखावे के लिए जारी हुए किंतु फांसी नहीं दी गई, बस समय दर समय टलती रही। इन सभी तथ्यों से कुछ तस्वीर इस बात के लिए निश्चित हो जानी चाहिए कि अब उम्रदराज होती बेटी के माता पिता के लिये क्या बचता है यदि उनकी बेटी के साथ ऐसी कोई दुर्घटना भारत देश में हो जाये। निर्भया मामले में जिसमें इतना मीडिया, एनजीओ, और तात्कालीन प्रशासन और सरकार में परिवार का जो सहयोग किया उसका क्या औचित्य निकलता है जिसमें दोषियों को दोषी करार देने के बावजूद दया याचिकाओं के भंवर जाल में सुरक्षित रखा जा रहा है। क्या ऐसे तरीकों से फास्ट ट्रैक न्यायालयों के बारे में सोचना व्यर्थ हो जायेगा। क्या न्याय की उम्मीद करना छोड़ देना होगा।
      यह सोचने की आवश्यकता है कि आरोपियों के वकील किस पावर का इस्तेमाल करके फांसी ना होने का दावा कर रहे हैं, न्यायाधीश किस आईपीसी की धारा के अंतर्गत इस तरह के गैरमानवीय जघन्य अपराध में लिप्त आरोपियों को भगवान की दुहाई देकर डेथवारेंट निरस्त करने की घोषणा कर देते हैं। क्या राष्ट्रपति जी को जिस अधिकार के तहत दया याचिका में दया दिखाने का अधिकार है, तो ऐसे मामलों में दया निरस्त करके तुरंत फांसी देने के लिए न्यायालय को आदेशित करने का अधिकार नहीं है, यदि नहीं है तो क्या सरकार संसद में यह प्रस्ताव लाकर संविधान के अनुच्छेदों में बदलाव करने के लिए विशेष सत्र नहीं बुला सकती। परंतु सरकार यह काम क्यों करेगी, राष्ट्रपति जी, न्यायाधीश महोदय, यह काम क्यों करेंगें, सबके पास आईपीसी, संवैधानिक अनुच्छेदों की दुहाइयाँ हैं, सबके पास मजबूरियों का पोथन्ना है, किंतु रास्ता निकालने की राह के बारे में सोचने के लिए समय शासन प्रशासन और सरकार के पास नहीं है, सरकार के पास तो शाहीन बाग, दिल्ली विधान सभा चुनाव, ट्रंप यात्रा की तैयारियाँ और उपद्रवी आंदोलनकारियों को देखकर गोली ना मारा जाए इसके लिए कारण खोजने से फुरसत ही कहाँ है। न्यायालय महामहिम राष्ट्रपति और सरकार इन दोषियों को ससम्मान बरी करके समाज के लिए मिशाल कायम करने का काम करना चाहिए, जब फांसी नहीं दे पा रहे हैं, दोषियों के सामने और उनके वकील के सामने कानून, कायदा, संविधान सब बौने हैं तो किस तरह यह माना जाये कि हमारा देश बड़ा है, संविधान बड़ा, न्यायालय में तुरंत फुरंत न्याय होता है, इतना समय तो पावरफुल नेताओं के दोषियों को सजा सुनाने में भी न्यायालय को नहीं लगता है।
      जनमानस इस तरह की राजनैतिक नौटंकी को देख भी रहा है और समझ भी रहा है, कि अब अपने ही देश में ऐसे रैपिस्ट और उनके व्यवसायी वकील डंके की चोंट में न्यायालय के निर्णयों को चुनौती देगें और देश में रेप बढेगें, बदले में जनता के हाथों पर आने पर रैपिस्ट को सरे राह और सरे चौराहे पर पुलिस और जनता मौत के घाट उतार कर भीड़ में तब्दील हो जाएगी, और न्यायव्यवस्था और संविधान के लिए भी एक शब्द रहेगा, स्थगित। क्योंकि जब सरकारें अपने देश की बहन बेटियों की आबरू से खेलने वाले गुनहगारों के लिए फांसी के निर्णयों के लिए दया याचिकाओं पर विचार मंथन करने लगेगी तो निश्चित ही न्याय करने के लिए आम जनता ही कानून अपने हाथ में  लेगी। सरकार को इस समय अपनी आबरू बचाने के लिए सोचना पड़ रहा है, सरकार के लिए जब खुद नुमांइंदों के द्वारा काला अक्षर इतिहास के पन्नों में लिखा जा रहा हो तब इस बेगैरत व्यवस्था में आम जन और बेटियों के माता पिता को संघारक का रूप लेना ही पड़ेगा, कोर्ट कचेहरी के चक्कर से दूर खुद का न्याय करना ही पड़ेगा, अन्यथा देश की पालिकाओं, कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका को अपने मूल कार्य को बिना एक दूसरे के दखल से करना पड़ेगा, जनता का टूटा हुआ विश्वास सत्ता में काबिज राजनेताओं के लिए आने वाले चुनावों में खतरनाक परिणाम दे सकता है। धर्म, और राजनीति के पाखंड के अलावा जनमानस में न्याय और कानून का ड़र बना होना देश के हित में होगा।
अनिल अयान, तना
९४७९४११४०७




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