बहुत जल्दी चल दिये सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट
ॠषि सुतीष्ण की धरती में वैसे तो मवाली से ले कर बवाली तक पैदा हुए। अमीर से गरीब तक ने पैदा होकर इस धरती का मान बढ़ाया है। पर इतने सालों के इतिहास में इस धरती ने यदि कुछ खास किस्म का इंशान पैदा किया है तो वो है डा हरीश निगम, हम सबके लिए यह अनजाना नाम हो सकता है। किंतु साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छॊड़ने वाले हरीश निगम नाम के व्यक्ति का व्यक्तित्व अव्यक्त सा रहा । सतना के लोगों ने मात्र उन्हें स्वशासी महाविद्यालय के प्राध्यापक के रूप में जाना, समाज शास्त्र के नाम पर उनके वख्तव्य दैनिक समाचार पत्र में छपे भी और पढ़े भी गए। वो सामाजिक मुद्दे चाहे दहेज हो, बलात्कार हो, समाजिक और आर्थिक विस्थापन हो, समाज और राजनीति हो, या फिर समाज और अर्थ व्यवस्था हो। वो हर फन मौला इंशान थे। सन दो हजार तीन में जब मै कालेज की पढ़ाई में गया तो शांत चित, सालीन, और स्कूटी से जीवन भर कालेज जाने वाले डा हरीश निगम सर ना नुकुर, विवादों से दूर, गोपनीय विभाग की वो बंद बिल्डिंग में ड्यूटी करते हुए मिले। शायद ही कोई विद्यार्थी उनकी वजह से परेशान हुआ हो। बाद में पता चला कि ये वही हरीश निगम हैं जो लगातार अखबारों में नवगीत के कालम लिखते हैं। ये वही हरीश निगम हैं जिनके बाल गीत बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।
जी हां मै उसी हरीश निगम की बात कर रहा हूँ जिसे शायद देश का कोई अखबार नहीं होगा जिसने ना प्रकाशित किया हो। पुरानी पत्र पत्रिकाओं में कादंबनी से लेकर नवनीत, वीणा से लेकर इंद्र प्रस्थ भारती ने बाल रचनाओं के लिए डा हरीश निगम को साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान दिया।उनकी कहानियों पर टेलीफिल्मों का निर्माण हुआ और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद द्वारा प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों में भी उनकी रचनाएँ शामिल की गई हैं। बाल भारती, चंपक, पराग, नंदन, बालहंस, लोटपोट, सुमन सौरभ, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, रविवार, आजकल, नवनीत, नया ज्ञानोदय, मधुमती, सरिता, मुक्ता, मनोरमा, मेरी सहेली, गृहशोभा, आउटलुक, सीनियर इंडिया, आज, अमर उजाला, संडेमेल, स्वतंत्र भारत, लोकमत, ट्रिब्यून, नई दुनिया, नवभारत, दैनिक जागरण, शिखर वार्ता जैसी पत्रिकाओं व पत्रों में उनकी कहानियाँ, नवगीत, गजलें, कविताएँ, बालगीत, बालकथाएँ आदि प्रकाशित हैं। देश के किसी भी विचार धारा के अखबार रहे हों उन्हें बाल साहित्यकार के रूप में जाना समझा पढ़ा और गुना भी, देश में सतना की धरती ही नहीं बल्कि विंध्य में एक मात्र बालसाहित्यकार पैदा हुआ और वो था डा हरीश निगम। बच्चों के बचपन की धुन को वो बडप्पन के साथ सुने भी गुने और शब्दों के माध्यम से बुने भी। उन्होने समय की धरातल में बचपन की बानगी को बालगीतों और बाल कविताओं में पिरोया। उनकी बाल गीत और बाल कविताए फिलहाल चार राज्यों के प्राथमिक पाठ्यक्रम में शामिल किए गये।सुंदर-सुंदर सरस बिंबमयी शब्दावली पाठक को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।उनका एक कहानी-संग्रह 'हरापन नहीं लौटेगा' भी प्रकाशित है। एक बालगीत-संग्रह 'टिंकू बंदर' तथा एक बालकथा 'मिक्कू जी की लंबी दुम' प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्त अनेक सहयोगी संकलनों यथा– नवगीत अर्धशती, यात्रा में साथ-साथ, गीत और गीत, बीसवीं शताब्दी, गज़लपुर, चुने हुए बालगीत में उनके नवगीत एवं उनकी गजलें और बाल कविताएँ संग्रहीत हैं। एक बानगी- भइया बस्ते जी/
थोड़ा अपना वजन घटाओ/भइया बस्ते जी/हम बच्चों का साथ निभाओ/भइया बस्ते जी।/गुब्बारे से फूल रहे तुम/भरी हाथी से,/कुछ ही दिन में नहीं लगोगे/मेरे साथी से।/फिर क्यों ऐसा रोग लगाओ/भइया बस्ते जी।/कमर हमारी टूट रही है/कांधे दुखते हैं,/तुमको लेकर चलते हैं कम/ज्यादा रूकते हैं।/कुछ तो हम पर दया दिखाओ/भइया बस्ते जी।
उनकी यह बस उपलब्धि नहीं थी गीतों को श्रंगार की मार्मिक धरती से पुरुस्थापित करने और नवगीतों में विंधय का नाम अखिल भारतीय स्तर पर लेजाने का काम अनूप अशेष के बाद हरीश निगम का ही था। अखबारों में नवगीत को रचनाओं के रूप में प्रकाशित करने के लिए नितांत आवश्यकता को भी उन्होने समझा और माना। नवगीतों में उन्होने जगबीती को उकेर दिया। मर्म को टटोलने वाले ये गीत गीतों के अगर बीस नहीं थे तो उसके उन्नीस भी नहीं थे। गीतों में गाँव से लेकर जिंदगी , समाज से लेकर गाँव तक की बात की। फसलों से लेकर त्योहारों तक की बाद अपने ही अंदाज से हरीश निगम ने किया। 'होंठ नीले धूप में' एवं 'अक्षर भर छाँव' उनके प्रसिद्ध नवगीत संग्रह हैं। उनके नवगीतों में कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है, इसीलिए उन्हें सुकुमार नवगीतों का सम्राट कहा जाता है। एक नवगीत की बानगी देखिए- सुख अंजुरि-भर/दुख नदी-भर/जी रहे/दिन-रात सीकर!/ढही भीती/उड़ी छानी/मेह सूखे/आँख पानी/फड़फड़ाते /मोर-तीतर!/हैं हवा के होंठ दरक/फटे रिश्ते/गाँव-घर के/एक मरुथल/उगा भीतर!/आक हो-/आए करौंदे/आस के/टूटे घरौंदे/घेरकर/बैठे शनीचर!
वादों और विचारधाराओं से परहेज करने वाले हरीश निगम सतना की साहित्यिक पोंगापंथी से दूर होकर वीरानी में लेखन करते रहे। कई पाठकों को उनका घर द्वार तक नहीं पता था। माँ शारदा की धरती में आशीष लेकर वो चाहते तो विज्ञान का शिक्षण भी कर सकते थे किंतु समाजशासत्र को चुनकर उन्होने समाज की परिपाटी में नवाचार करने की ठानी। कवि मन ने उन्हें कलम उठाकर चलने के लिए मजबूर कर दिया। आज पूरा देश हरीश निगम के जाने को साहित्य में नवगीत और बाल साहित्य का कभी ना खत्म होने वाला रिक्त स्थान बना रहा है। विंध्य क्षेत्र भी इस साहित्य युग के पुरोधा को याद करके गमगीन होता। कई अखबारों के नवगीत के कालम भी रिक्त हो जाएगें। हाँ यह तय है कि उनकी जगह कोई और प्रकाशित होगा किंतु हर रचनाकार का स्वर्ण युग होता है। हरीश निगम अपने शिखर में पहुँच कर संध्या होने से पहले ही भौतिक रूप से अस्त हो गए। उनकी रचनाएँ अब उनकी याद के रूप में हम सबकी सहोदर होगीं वो कभी अस्त नहीं होगीं। वो इस सहोदर को याद करवाती रहेगीं।।मुझे कालेज से साहित्य के इस क्षेत्र में पहुँचाने का श्रेय डा हरीश निगम और डा लाल मणि तिवारी ही थे। उन्होने ही तत्कालिक पाठक मंच संयोजक संतोष खरे का पता और गोष्ठियों की जानकारी दी। हमारी शब्द शिल्पी को एक अभिभावक के रूप में उन्होने स्नेह दिया। कल का शनीचर उनको लील गया अपने काल के गर्भ में। साहित्य की इस आकस्मिक घटना के बाद बस इतना ही कहना शेष है कि बहुत जल्दी चल दिये आप, सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट "हरीश सर"।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७
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