सोमवार, 19 नवंबर 2018

जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ - अनिल अयान

जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ - अनिल अयान

कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ।
इस दोहे में कबीर ने उस समाज को अपने साथ चलने के लिए लुकाठी उठाई जो समाज हिंदुत्व और मुस्लिम संप्रदाय के झगड़े में लिप्त था। कबीर के समय समाज की जो दशा थी वह दशा वर्तमान समाज की होती जा रही है। समाजिक विद्वेष चिंता का कारन बना हुआ है। जिस समय कबीर कबीराना अंदाज को काशी की माटी महसूस कर रहा था उसी समय पूरा देश मुस्लिम आक्रमण का शिकार था। कबीर इतने चालाक रहे कि वो कोई भी बात दूसरे से शुरु नहीं की। खुद को केंद्र में रखकर समाज को आइना दिखा दिया। कबीर अगर समाज की पीड़ा को सहन नहीं कर सका तो उसने अपनी जुबान को तलवार से ज्यादा धारदार बना ली। बेशर्म समाज के ठेकेदारों को उसी तलवार की नोंक के दम पर लोहा मनवा लिया, एक यायावर, एक अख्खड़, संत जिसे लोग संत नहीं मानते थे एक रचनाकार के रूप लिये कबीर ने कब समाज को सुधार करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे दिया यह वो खुद भी समझ नहीं पाया। कबीर के लेखन का अपना एक रस था वह था निंदा रस, इस रस में वह जब डूब कर लिखता था तो उसे इस बात का कोई भय नहीं होता था कि समाज उसके बारे में क्या सोचेगा और क्या प्रतिक्रिया देगा।
कबीर का अरबी अर्थ महान है और वह महान काम कर गया। कबीर के लेखन में जहां धार्मिक पाखंड का सीधा पोस्टमार्टम किया गया। वही दूसरी ओर उसके लेखन में हिंसा जाति पांति का खुलकर विरोध किया गया। उन्होने इतना ही नहीं सदाचार और  सत्य और अहंकार के त्याग, परोपकार और निर्गुण ब्रह्म को आराध्य मानने को प्रोत्साहन भी दिया। उसकी कबीराना लेखनी और उनका जुलाहेपन ने पाठक को घुटने के बल झुकने के लिए विवष कर दिया।कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है कबीर ने लिख दिया कि उसके जुलाहे में कौन कौन से दृष्टिकोण समाहित हैं। कबीर की वाणी में वो सूत्र समाया है जिसका उपयोग करके देश का धार्मिक विद्वेष खत्म हो सकता है। कबीर की साखियों में अदैत ईश्वरवाद का वह सार है जिसकी परिभाषाएं अपरिभाषित है। यह तो सच है कि देश के लम्बरदारों ने देश को धर्म के नाम पर, वोट के नाम पर, जाति के नाम पर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की रोटियों को पकाने के लिए बांट दिया है। यह बंटवारा कबीर के समय पर भी था और जब पूरे जीवन भर कबीर ने काशी का पानी पिया और मरने के लिए उसे उसे मगहर जाना पड़ा। कबीर की कबीराई को उनकी साखियों ने अमर कर दिया। कबीर की आत्मा को उनकी पंक्तियों ने शातिं प्रदान करती रही। कबीर का कर्म उसके धर्म से बड़ा हो गया।  कबीर कबीर अपनी संधा-भाषा की उलटबाँसियों और समाज सुधार के दोहों के लिए प्रसिद्ध रहे।
कबीर ने आत्म-परिचय की शैली में जो कुछ कहा है, उसकी एक झलक-भर वहाँ देना सुसंगत होगा।
कबीर—‘‘मैंने अपनी जाति और कुल दोनों को बिसार दिया है एवं उलट दिया है। अर्थात् शूद्रता छूट गई, मैं वरेण्य-ब्राह्मण की कोटि में आ गया,
मैं धरती पर जीनेवाला जुलाहा नहीं हूँ, मैं सुन्न महल में सहज-समाधि की स्थिति में परमात्म-तत्त्व को बुनता हूँ।मैंने पंडित और मुल्ला दोनों को छोड़ दिया है। किसी भी मज़हब या संप्रदाय के बंधन से मुक्त हूँ। इसलिए कोई सैद्धान्तिक द्वन्द्व मेरे मार्ग में नहीं है।‘‘मैं तत्त्व के ताने-बाने से अपने लिए दिव्य परिधान तौयार कर उसे धारण करता हूँ।आगे चल कर मैं वहाँ पहुँचा, जहाँ मेरा ‘मैं’ भी न रहा।" इन बातों को सुनने के बाद यह कहा जा सकता है कि सनातन मूल्यों के पहरेदार थे कबीर दास, इस धरती को छोड़ के एक क्षण के लिए भी कहीं जाना पसन्द नहीं करते, सेवा ही उनका जीवन होता है। कबीर का मनुष्य पाखंड से दूर है, कबीर का प्राणी अपने कर्म से पहचाना जाता है, कबीर का साहित्य जनजागरण के लिए था। कबीर मौखिक व्यंग्य कार थे। कबीर हिंदी साहित्य के सुकरात के रूप में साखियों की अमृत वर्षा पाठकों में करते रहे।
कबीर के नाम पर आज कबीर पंथियों ने अपना एक गुट बना लिया। कबीर को अपने घर की जागीर बनाकर उसके नाम को उपयोग करने वाले क्या ये समाज के ठेकेदार कबीर के आचरण को अपना पाएगें। कदापि नहीं शायद, क्योंकि आज भी पोंगापंथी की बीमारी को पोषित करने वाले लोग कबीर महोत्सव के नाम पर उनके नाम के कसीदे पढ़े जाने का रिवाज है। कबीर के नाम पर शहरों की इमारतों को पहचान, चौक चौराहों की पहचान, विद्यालयों और महाविद्यालयों के नाम पर हमारे नेता मौन हैं। कबीर की कही हुई बातें समाज को गालियों की तरह महसूस होती हैं। कबीर की वाणी को गुनने की बजाय हम अपना अपना साधने में लिप्त हैं। एक बात और जो कबीर के बारे में करना जरूरी है वो है कि समाज में दलित साहित्य के रचने वाले कबीर को अपना पुरोधा मानते हैं किंतु कबीर ने यह सिद्ध कर दिया कि दलित व्यक्ति की पीड़ा को दलित के साथ साथ कोई भी भला मानुष गा सकता है। जो लोग कबीर की जाति खोज कर उन्हें दलित सिद्ध करने का असफल प्रयास करते रहे अंततः वो हार मान लिए। साहित्यकारो ने कबीर की जाति खोजने की कोशिश की। हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा धर्मवीर भारती, पुरुषोत्तर अग्रवाल,आदि आदि वो साहित्यकार थे जो कबीर के लेखन के साथ साथ उसके परिवार जाति धर्म और हिंदू मुसल्मान, दलित और गैर दलित की परिभाषाओं में बांधने के लिए ग्रंथों की रचनाएं कर डाली, राजकमल प्रकाशन ने इस लेखन को जमकर कैश किया। कबीर की लुकाठी के साथ चलने की आवश्यकता हमारे देशवासियों को है। कबीर के अनुसार हमें अपने घर के अंदर के उस कालिख को खत्म करने के लिए और दाह करने के लिए तैयार रहना होगा जो पाखंड की कालिमा फैलाता है। कबीर के दोहे ,साखियों को गुनगुनाना ही उनकी उपस्थिति की साक्षी है। वार रे जुलाहे तुमने तो अपनी उदासी की चादर बुनकर समाज की उदासी को दूर करने के लिए अमरत्व प्राप्त कर लिया अंत में उन्हीं की ये पंक्तियां आपके सामने है जो बताते हैं कि कबीर भौतिक रूप से कैसे थे।
"जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।'

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

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