नेपथ्य में बिलखती हिंदी
एक सितम्बर से १४ सितम्बर तक की गतिविधियाँ हिंदी के लिये समर्पित रहती हैं. राजकाज की भाषा के विकास और उत्थान के कसीदे सीमा से परे हो कर पढे गये.हिंदी के सेवक हिंदी की सेवा करते दिखे.अन्य लहजे में कहें तो गाहे बगाहे हिंदी से अपनी सेवा करवाने वाले इस पखवाडे में हीं सिर्फ हिंदी की दिखावटी सेवा कर मेवा पाने का प्रयास हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी करके कल ही फुरसत हुये.यदि हम परिणाम की बात करेंगें तो यह भी बेमानी होगा.राजभाषा के पखवाडे में जितने लोग और विद्वान दिखने वाले लोग माइक के सामने हिंदी को ऊपर उठाने की बात करते है वो ही सही मायनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा न बनाये जाने के पैरोकार है. क्योंकी यदि हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित हो गई तो उनकी अच्छी खासी आमदनी वाली दुकान में ताला लगा समझिये. कहने को आज के समय में हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु कई संस्थायें है जिनको शासन और सरकार ने हिंदी के विकास के लिये बहुत सी जिम्मेवारी सौपी है. परन्तु यहाँ भी रेवडियाँ ही बाँटी जा रही है. अपने अपने दफ्तरों में बैठ कर इनके अधिकारी सरकारी दामाद बने बैठे है अधिक्तर योजनायें और खर्च करने के लिये सरकार के द्वारा दिये जाने वाला फंड लैप्स हो जाता है और गाहे बगाहे सितम्बर माह मे हिंदी के कसीदे पढने के लिये समाज और देश भर में निकलते है.
संविधान सभा में जब हिंदी की स्थिति को लेकर जब दो दिवसीय चर्चा का आयोजन १२ सितम्बर १९४९ से १४ सितम्बर १९४९ तक हुआ तब भी तत्कालिक राष्ट्रपति स्व. डा राजेन्द्र प्रसाद, ने अंग्रेजी में ही अपना उद्बोधन दिया. प्रधान मंत्री स्व.जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजी की पैरवी ज्यादा की थी. तब से लेकर आज तक भाषा संबंधी अनुच्छेदों राजभाषा अनुच्छेद ३ ग और १४ क में तीन सौ से अधिक बार संशोधन किया गया जो आज के समय में भाग १७ के रूप में संविधान में उपस्थित है. संवैधानिक स्थिति के अनुसार तब से आज तक भारत की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेजी सह भाषा है. तब से लेकर आज तक संविधान सभा की अनुशंसा में इस १४ दिन राजभाषा पखवाडे के रूप में मनाये जाने लगे.उस वक्त डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देवनागरी लिपि को भारत की राष्ट्रीय लिपि बनाने की भी अनुशंसा की थी परन्तु उस बात को आज भी दबा कर खत्म कर दिया गया.
एक वह दिन था और एक आज का दिन, राज भाषा पखवाडा का चलन जगत में चलने लगा .हर छोटी बडी संस्था राजभाषा के प्रचार प्रसार के साथ राष्ट्रभाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिये हर वर्ष एक नाटक का मंचन करते है. परन्तु परिणाम सिफर होता है.प्रायोगिक रूप से देखे कि हिंदी हमारी रोजमर्रा की भाषा रही है. परन्तु आज के समय में भागदौड और बाजारवाद के अवसरो के दरमियान यह भी हिंदी और इंगलिश का मिश्रित रूप हो गई है.जिसे आज के समय हिंगलिश के रूप में जाना जाने लगा है.जो आज भी चलन में है.विशुद्ध हिंदी या यह कहें की तत्सम और तद्भव शब्दों से बनी हिंदी से कार्य और ज्यादा दुरूह् हो रहे है. अधिक्तर हिंदी माध्यम विद्यालय अंग्रेजी माध्यम मे बदल गये है. यहाँ तक आगामी पीढी को अंग्रेज बनाने की कवायद हम नर्शरी से शुरू कर देते है. आज के समय में अंग्रेजी ना बाँच पाने और बोल पाने वाला व्यक्ति अनपढ और गंवार समझा जाने लगा है.
सिविल सर्विसेस परीक्षा का बखेडा अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है. ऐसी स्थित में राष्ट्र भाषा तक पहुँचने की कवायद बेमानी सी नजर आती है. आज के समय में अधिक्तर राजकीय काम अंग्रेजी से होता है. ऐसा लगता है कि हिंदी पहले कभी भाषा की माकान मालिक थी आज तो वह अंग्रेजी के फ्लैट में किराये से रहने को मजबूर हो चुकी है. हम जिस बहुभाषावाद के सिकंजे में फंसते जा रहे हैं उससे यही परिणाम निकलेगा कि मूल हिंदी के शब्द बिलखते नजर आयेगें और अन्य भाषाओं जैसे फारसी, उर्दू ,अरबी, के मिश्रण से हिंदी अपने में ही गुम हो जायेगी। आज के परिवेष में भले ही हम इस बात के लिये दंभ भरते हों कि हिंदी सिर्फ भाषा नहीं वरन बाजारवाद का पर्याय बन चुकी है तो उन्हे मै इस बात से अवगत कराना चाहता हूँ कि हिंदी आज के समय में अपनी राजभाषा की अस्मिता बचाने में असफल हैं। आज के समय में अधिक्तर राजकाज हिंदी की बजाय हिंदी और अंग्रेजी में हो रहा है। राजस्व और न्यायालय की भाषा आम जन से कोसों दूर नजर आती है। और उच्च शिक्षा,बाजार,तकनीकि तक में हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रण हिंगलिश पर्याप्त सुख भोग रही है।
क्या इसी तरह से हिंदी का विकास होगा. आज जरूरत है कि यह प्रयास हो कि इस तरह की संस्थाओ के अस्तित्व को समाप्त कर संयुक्त आयोग गठित करने की. जमीनी स्तर पर प्रयास किया जाये. जागरुकता अभियान चलाये जाये. शिक्षा विभाग उच्च शिक्षा विभाग का सहयोग बच्चों और युवाओं में हिंदी के प्रति रूझान बढाने में मदद करे. अन्य राज्यों में भी हिंदी भाषियों को स्थान और सम्मान मिलने के साथ साथ रोजगार मिले. वरना हिंदी का अस्तित्व खतरे में आन पडा है कुछ राज्यों को छोड कर हिंदी के बोलने वाले वख्ता कम होते जा रहे है. अन्य भाषी राज्य हिंदी को अपने राज्य के लिये कलंक समझते है. हमें अपने मन के भ्रम को टॊड कर वास्तविकता की जमीन मे कदम बढाना होगा और हिंदी को पहले धरातल मे घर घर की बोली बनानी होगी.
हिंदी को यदि वास्तविक स्थान दिलाना है तो सिंहासन में बैठ हिंदी की तंदूर में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकना बंद करना होगा। सर्वप्रथम हिंदी को भारत में सम्मानजनक स्थान और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिये राजनैतिक और संवैधानिक पहल करनी होगी। इस हेतु अन्य राज्यों का भी समर्थन जरूरी होगा।। जब हिंदी को अन्य भाषी राज्यों में भी उतना ही स्नेह मिलेगा जितना कि गिनती के हिंदी भाषी राज्यों में मिल रहा है तभी कुछ बेहतर हो सकता है। अन्यताः यह पखवाडा पितृ पक्ष के पंद्रह दिनों की तरह हर वर्ष मनाया जाता रहेगा और संबंधित संस्थान, विभाग, विश्वविद्यालय और हिंदी के चाटुकार सेवक लाभान्वित होते रहेंगें। अंग्रेजी हिंदी का अपहरण कर अपना लबादा उसे पहनाती रहेगी और हम बाजार में खडे होकर अपनी सहूलियत के लिये हिंगलिश को ससम्मान से अपनाते रहेंगें।हिंदी का बिलखना कब विलाप और उसके अंतिम सांसों की डोर बन जायेगा हम पहचान नहीं पायेंगें।
हम सबके अंदर हिंदी रक्त में प्रवाहित हो रही है और यही प्रवाह हमें हिंदी के रक्षक के रूप में स्थापित करने की उर्जा देता है। यह बात अलग है कि व्यवसायिकता के युग में हिंदी को लेकर सत्ता पक्ष और उनके नुमाइंदे इतने सक्रिय और योजनायुक्त नहीं नजर आते जितना कि हिंदी के प्रति आस्था रखने वाले पाठक श्रोता और परिवारजन, हिंदी की कथा तो अनंत है हिंदी को दिगंत तक पहुँचाने के लिए हम दृढ़संकल्पित हैं, यह कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि हमारे आसपास कितने लोग साथ देने के लिए आगे आते हैं भाषा के लिए यदि हमारे इरादे में घोल मोल नहीं है तो फिर दस कदम साथ चलने वाले चंद्र सेवी तो मिल ही जाते हैं। हिंदी के लिए हिंदी का पाठक वर्ग ही उसका पालनहार हो सकता है। नकारात्मकता की उर्जा के साथ हमें नयी सुबह का इंतजार हृदय की भाषा के लिए करना चाहिए।राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिये अन्य भाषा भाषी राज्यों को अपने पक्ष में करना होगा. अभी फिल हाल यह प्रयास होना चाहिये कि हर दिवस हिंदी दिवस हो. हमें हिंदी को जनसुलभ,सर्वसुलभ,और अपनी आगामी पीढ़ी को हिंदी और इसकी बोलियों के बारे में कम से कम साक्षर करने की कोशिश होनी चाहिए। अपने घर में अजनबी की तरह हिंदी न हो इस चिंता को चिंतन में परिवर्तित करना होगा।
अनिल अयान,सतना
संपर्कः९४७९४११४०७
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