मंगलवार, 14 मार्च 2023

अंतर्मन की आवाजें हैं कविताएँ

 अंतर्मन की आवाजें  हैं कविताएँ


विश्व कविता दिवस इक्कीस मार्च के अवसर पर


कविता कब और कैसे जन्म लेती है, कविता की सांद्रता को महसूस करके देखिए, कविता महर्षि बाल्मीकि के उस श्लोक से जनमी होगी जो क्रोंच पक्षी के मैथूनरथ होने के समय पर शिकारी के तीर से भेदने के पश्चात उत्पन्न पी़ड़ा का उन्वान बनी होगी। कवि गोपाल दास नीरज ने कहा कि कविता का सौंदर्य मानव हृद्य से कवि बनने की पराकाष्ठा तक की यात्रा में है। उनके अनुसार आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य, मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य। हमारे अंतर्मन की भावभंगिमाएँ जब अपने सर्वोच्च शिखर में पहुंच जाती है, मन उद्विग्न हो जाता है जब कविता की धारा बह निकलती है। कविता की उत्पत्ति ही यह निश्चित करती है कि व्यक्ति कितनी पीड़ा व अवसाद को महसूस कर रहा है, वह किस हद तक अंतर्मन से टूट रहा है। उसने कितना कुछ सहा है। 


आम जन के हृदय से कविता क्यों नहीं निकलती है। क्योंकि उसके पास किसी घटना, किसी वस्तुस्थिति को अनुभव करने, एहसास करने और आँख मूँदकर महसूस करके एकात्म होने का समय ही नहीं है। लिखने की परंपरा त्वरित परंपरा है। इसमें सोचने समझने की लंबी प्रक्रिया नहीं होती है। कोई कवि अचानक ही कोई दृश्य देखकर खुश होता है, दुखी होता है, या फिर क्रोधित होकर आक्रोश से भर जाता है। कविता का उद्भव ही भावों का तीव्र प्रवाह होता है। इस प्रवाह के प्रभाव में जो कुछ लिख जाता है वह काव्य हो जाता है। यह काव्य यदि तुकांत हो गया, लय बद्ध होगया, रसयुक्त हो गया, छंद बद्ध हो गया, गेय हो गया तो कविता पैदा हो गई। वह काव्य यदि इन बंदिशो को तोड़कर मुक्त हो गया तो निबंध हो गया। कहानी, व्यंग्य और नाटक उपन्यास का रूप ले लिया।


कवि हृदय होना भी ऊपर वाले का उपहार होता है, हर किसी को यह उपहार या वरदान नहीं मिलता है, लेकिन जिस मानव मन को यह नसीब हो गया, उसको दुख-सुख बाँटने का सबसे बड़ा साधन लिखना ही लगता है, उसे कोई साथी मिले ना मिले कोई फर्क नहीं पड़ता, कविता लिखना अर्थात विचलित मन की शांति की पराकाष्ठा है। इस पराकाष्ठा में एक चेतन मन की अवचेतन मन अर्थात चित्त से मिलन होता है। वो सब कागज में उकेरता चला जाता है जो मन के धरातल में उपस्थ्ति है। इस उपस्थित भावों का वेग शब्दों के रूप में कागज पर लिखावट बनता चला जाता है। तुकबंदी से शुरू हुई यात्रा शब्दों की जादूगरी के जरिए आगे बढ़ती है। यह यात्रा विभिन्न भाव पक्ष और कला पक्ष के माध्यम से कवित्व को चरम पर ले जाती है। कविता का प्रवाह अंतर्मन से बाह्य वातावरण को आंदोलित करते का काम करता है। कविता की सार्थकता सिर्फ आपबीती को शब्द देना नहीं है बल्कि आपबीती से होते हुए जगबीती को धारण करना है। कविता एक ओर जहाँ लिखने और पढ़ने वाले को संतोष देने का काम करती है वहीं विभिन्न विद्यरूपताओं को भी सामने लाती है। कविता अपने अंदर यदि समंदर की खामोशी को समेटे हुए है तो नदी के तेज प्रवाह को भी धारण किए हुए है। कविता लिखना हृदय और मस्तिष्क की साधना है। ताकि दिलोदिमाग की कसक को उकेरा जा सके।


कविता का सौंदर्य कितना गहरा हो सकता है यह कवि के लेखकीय कौशल और पाठक की उस कविता के प्रति अंतर्भाव पर निर्भर करता है। कविता छंद बद्ध हो, या छंद मुक्त यदि उसमें सच को धारण करने की छमता है तो कविता को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है, पढ़ा जा सकता है और मनन किया जा सकता है। कविता से आंदोलन, और क्रांति पैदा करने की आशा करना भी सही माना जा सकता है। इतिहास गवाह रहा है कि कवियों की कलम से निकली कविताओं ने गीत का रूप लेकर आंदोलन के मुख्य स्वर के रूप में सामने रहीं। कविता ने हिन्दी ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं को विश्व पटल मे जन जन तक पहुँचाया है। विश्व कविता दिवस सन उन्नीस सौ  निन्नायनवे के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में सुनिश्चित हुआ। कविता का महत्व विश्व शांति और सौहार्द में बना रहे इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ इस दिवस को मनाता है। वैश्विक शांति के लिए कविता भी एक माध्यम बन सकती है एक कारक हो सकती है। यह विश्व ने स्वीकार किया। यह स्वीकृति तो भारत ने पहले से दे रखी है। भारतीय इतिहास और परिदृश्य में यदि नजर ड़ालें, और पुराने इतिहास के पन्ने पलटने पर देखा जा सकता है कि स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय राजव्यवस्था में यदि रत्नों की बात की जाती थी तो कवियों का वर्चश्व रहा है। कवियों ने वीरगाथाएँ भी गई है, भक्ति की बागडोर भी सम्हाली है, कवियों ने प्रकृति वर्णन भी किया है और कवियों ने आन्दोलन भी खड़ा करने में चाणक्य के रूप में उपस्थिति दर्ज की है। 


कविताएँ और शब्दों की कसीदाकारी का हुनर जितना पुराना होता जाता है, भावों की गहराई शब्दों के साथ उतरती चली जाती है। इसमें तुरपाइयाँ नहीं होती है, इसमें बुनावटें होती हैं, इसमें एक एक शब्द एक एक रेशे के समान अपनी अहमियत रखता है। कविताओं की आवश्यकता इसलिए भी है ताकि हम आत्म अवलोकन कर सके, जग अवलोकन कर सकें, और अवलोकन के बाद की यात्रा पूरी करते हुए काव्य को जन्म दे सकें। काव्य ब्रह्म का रूप माना गया है, इसको साधनों के माध्यम से साधना जरूरी है, शब्दों की जादूगरी विध्वंशक ना हो जाए इसलिए नियंत्रण की आवश्यकता भी है। हर परिदृश्य की अपनी सीमा है, सीमा पार करने के बाद कविता का सृजन दोषपूर्ण बन जाता है। इस सीमा रेखा को पहचानना कवि की सूझ बूझ पर निर्भर करता है। समर्थ होना एक पहलू है और विवेकशील होना दूसरा पहलू। दोनो पहलुओं के बीच में से कविता की उत्पत्ति हो यह समय की माँग है। आवेग के वेग में संवेग बनाए रखना जरूरी है। वर्तमान समय की माँग है कि हम जहाँ रह रहे हैं वहाँ की आवोहवा को परखते हुए कवि का दायित्व पूरा किया जाए। साहित्य में शब्द शक्ति बनी हुई हैं, जो पूर्व प्रदत्त हैं, लक्षणा में बात न करके अविधा में बात करना आवश्यक है। अन्यथा आपने द्वारा रचित साहित्य शासकों के सौजन्य से विष उत्सर्जी साहित्य की श्रेणी में घोषित कर दिया जाएगा। आपके लेखन पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाएगा और आपको कलम रखने को मजबूर कर दिया जाएगा। 


हर कलमकार को इस बात का भान होना चाहिये कि हम जिस देश के नागरिक है उसकी नागरिकता खतरे में ना आ जाए, विश्व कविता दिवस में इसका अवलोकन, खुद के लेखन को खंगालने का समय है। यहाँ पर कविता के माध्यम से भाईचारे, निरपेक्षता, संस्कृति संरक्षण की बात की जा सकती है, किन्तु प्रगतिशीलता और राष्ट्रविरोधी स्वर के रूप में पहचान स्थापित नहीं की जा सकती है। शासक यदि मुखर है तो बुद्धिमानी इसी में है कि कविता का सीधा होना बौद्धिक अपराध की श्रेणी में आएगा। कलमकार बौद्धिक अपराधी घोषित कर दिया जाएगा। आपका बुद्धिजीवी होना, बुद्धि का वमन करना, और आपका कवि होना आपके लिए श्राप हो जाएगा। कविता से विष निकलना है  या अमृत यह तो अमृत काल के कलमधारी कवि को सुनिश्चित करना है। इस अवसर पर विश्व कविता दिवस की आत्म अवलोकन हेतु शुभकामनाएँ देते हुए इतिश्री करता हूँ।


जो ग्राहक है, वो ठगा ही जाएगा

 जो ग्राहक है, वो ठगा ही जाएगा

अनिल अयान

हम सब कही भी, कभी और और किसी भी रूप में बाजार से जुड़े हुए हैं, और बाजार हमारी जेब को तौलने का काम कर रहा है। जब हम बाजार से जुड़े हुए हैं, तो हम या तो विक्रेता हैं, दुकानदार हैं, या फिर उपभोक्ता है अर्थात ग्राहक हैं, बाजार में ग्राहकी करने के लिए सभी को जागरुक होना होगा, उपभोक्ता और ग्राहकी में आने वाली समस्याओं से बचने के लिए ग्राहक कितना पढ़ा लिखा है यह जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी यह है कि वो कितना जागरुक है। आज इस लेख में कुछ बातें फिर से दोहराने की जरूरत है ताकि जो हम परीक्षा में पास होने के लिए जानते हैं उसे जीवन में उपयोग करते रहें। उपभोक्ता एक ऐसा व्यक्ति होता है जो किसी भी वस्तु या सेवा प्राप्त करने के बदले किए भुगतान के बाद उसके उपभोग से संतुष्टि प्राप्त करता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में उपभोक्ताओं को शोषण के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने के लिए अधिनियम पारित किया गया था। एक उपभोक्ता का शोषण किया जाना तब कहलाता है जब किसी वस्तु/सेवा के उपभोग से प्राप्त लाभ उसके लिए भुगतान की गई कीमत से कम होता है। उपभोक्ताओं की सुरक्षा का अधिकार भारत में वस्तु बिक्री अधिनियम 1930 लागू होने के साथ शुरू हुआ। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत उपभोक्ताओं को 6 अधिकार दिए गए। वस्तुओं और सेवाओं की गुणवत्ता आईएसआई/ एबी/ आईएसओ/ एफपीओ/ ईसीओ/ जैसे प्रतीकों से प्रदर्शित होती है।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 को 24 दिसंबर 1986 को संसद में पारित किया गया था। जिसे भारत में उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 राष्ट्रीय स्तर, राज्य स्तर और जिला स्तर पर यानी तीनों स्तरों पर उपभोक्ता विवाद का निवारण करने के लिए मंच प्रदान करता है। सन् 1987 ईस्वी में राजस्थान उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू किया गया था। एक जिला फोरम में उन सभी मामलों पर अधिकार क्षेत्र है जहां माल और सेवा का मूल्य मुआवजे का दावा INR 20 लाख से अधिक नहीं है। सन् 1851 ईस्वी में गरीबों ने कानूनी सहायता के लिए आंदोलन किए जिसे मद्देनजर रखते हुए फ्रांस सरकार ने कानून बनाएं। सन् 1980 में कानूनी सहायता के लिए एक समिति का गठन किया गया। सन् 1987 में राजस्थान कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम पारित किया गया।उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को कोप्रा कंस्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट,1986  के नाम से भी जाना जाता है। उपभोक्ता को बचाने के लिए सरकार ने कई स्तरों में उपभोक्ता फोरम बनाए। पर उस तक पहुँचेगा कौन, निश्चित ही हम आप ही जाएगें और तब जाएगें जब हम उसके बारे में जानेंगें।

भारत में मुख्य 6 उपभोक्ता अधिकारों पर एक नज़र डालते हैं- सुरक्षा का अधिकार, सूचना देने का अधिकार, चुनने का अधिकार, सुने जाने का अधिकार, निवारण का अधिकार, उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार। उन वस्तुओं और सेवाओं के मार्केटिंग के खिलाफ उपभोक्ताओं की सुरक्षा को स्पष्ट करता है जो जीवन और संपत्ति के लिए हानिकारक हो सकते हैं। सुरक्षा का अधिकार,‌ इस अधिकार के अंतर्गत जब हम कोई भी वस्तु खरीदते हैं तो या कोई भी सेवा का उपभोग करते हैं तो हमें यह जानने का अधिकार है की दी जाने वाली वस्तु अच्छी क्वालिटी की है या नहीं,यह हमारे शरीर को नुकसान तो नहीं पहुंचाएगी। सुरक्षा के अधिकार के अंतर्गत वस्तु की मैन्युफैक्चरिंग के बारे में जानने का हमें पूरा अधिकार है कि वस्तु सही प्रकार से मैन्युफैक्चर की गई है कि नहीं, वस्तु को बनाने में सही चीजों का उपयोग किया गया है कि नहीं। किसी उपभोक्ता को उत्पाद खरीदते समय उसकी बारीकियों के बारे में जानने का अधिकार है। इस अधिकार का उद्देश्य हर व्यक्ति को उसकी मात्रा, शक्ति, शुद्धता, मानक और माल की कीमत के अलावा उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में पूछताछ करने में मदद करना है। यह सर्वोत्कृष्ट है कि किसी उत्पाद से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी आपको प्रदान की जाती है, उत्पाद को बुद्धिमानी से खरीदने से पहले। विभिन्न उपभोक्ता अधिकारों के बीच, यह उपभोक्ता को समझदारी और जिम्मेदारी से काम करने में सहायता करता है और इस तरह उन्हें किसी भी उच्च दबाव वाली बिक्री तकनीकों के लिए गिरने से बचाता है।  हमें अपने पसंद की वस्तु खरीदने का अधिकार है। दुकानदार हमें बिना हमारी पसंद के कोई वस्तु खरीदने पर मजबूर नहीं कर सकता है। यदि विक्रेता ऐसा करता है तो उपभोक्ता को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत उपभोक्ता न्यायालय में रिपोर्ट करने का अधिकार है। अधिक प्रतिस्पर्धा वाले बाजार में हमें अक्सर यह देखने को मिलता है कि दुकानदार कई सारी वस्तुओं के बीच हमें असमंजस में डाल देते हैं फिर स्वयं की पसंद की वस्तु को खरीदने पर जोर देते हैं।यह विशेष अधिकार भारतीय जनता को बाजार में किसी भी अन्याय के खिलाफ निडर होकर अपनी राय प्रस्तुत करने के लिए सशक्त बनाने पर जोर देता है। इस अधिकार के अनुसार उपभोक्ता के अधिकारों का उल्लंघन होने पर वह अपनी चिंताओं को सुनाने के लिए मंच तक पहुंच सकता है। उपभोक्ता के अधिकारों का उल्लंघन होने पर वह कंज्यूमर कोर्ट में रिपोर्ट कर सकता है। हर उपभोक्ता को उपभोक्ता अदालत और अन्य संगठनों में सुनवाई का अधिकार दिया जाता है जो केवल उपभोक्ता अधिकारों को बचाने के लिए होते हैं।हर उपभोक्ता को अपनी वास्तविक शिकायतों को सामने रखने और बेईमान शोषण के खिलाफ लड़ने का अधिकार है। आपको अपनी समस्याओं के निवारण और अपने प्रश्नों को हल करने का अधिकार है। आए दिन रोज जिला स्तर पर कई मामलों की सुनवाई की जाती है। एक उपभोक्ता के रूप में, आपको अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के बारे में पता होना चाहिए। यह अधिकार प्रत्येक उपभोक्ता को उनके अधिकारों के बारे में सशक्त बनाने का लक्ष्य रखता है।

उपभोक्ता  संरक्षण आवश्यकता आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराने के लिए, प्रदूषण से सुरक्षा कराने के लिए, उपभोक्ताओं के कल्याण के लिए, अशिक्षित व्यक्तियों के हितों की सुरक्षा के लिए, अधिकार के प्रति जागरूक लाने के लिए है।आज सामान्य उपभोक्ता को उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की क्वालिटी, शुद्धता, उपयोगिता,समान को कैसे उपयोग करना हैं, मूल्य तुलना , विज्ञापन से बचान आदि के बारे में जानकारी कराना परम आवश्यक है। ताकि वह सही जानकारी के आधार पर सही समय पर, सही वस्तु का चुनाव कर सके। इसके लिए उपभोक्ता को यह आवश्यक है कि वह उपभोक्ता के अधिकार को समझें।प्रदूषण से सुरक्षा प्रदान करना उपभोक्ता संरक्षण का महत्वपूर्ण कदम हैं। आज प्रदूषण की समस्या काफी अधिक बढ़ गई है। जैसे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तथा मृदा प्रदूषण आदि । आज शुद्ध जल का सेवन बहुत कम ही लोग कर कर पा रहे हैं। जिसके कारण कई प्रकार की बीमारियों का सामना करना पड़ता है।कारखानों (Factory)से निकालने वाले धुएं इतने अधिक विषैले, जहरीले होते हैं। जिसका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है यह वायु को दूषित करने से हैं।आज सड़क पर लोग कम गाड़ी की संख्या अधिक देखने को मिलती हैं । गाड़ियों के हर्न से निकलने वाला आवाज काफी घातक होता हैं। ध्वनि प्रदूषण नाच बाजे में काफी अधिक होता है । इन सभी से बचने के लिए उपभोक्ता को सुरक्षा प्रदान करने के लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है। मानव जाति का कल्याण करना उपभोक्ता संरक्षण का महत्व है। आज विश्व का प्रत्येक मानव पहले उपभोक्ता है और बाद में कोई और ।हम सभी किसी न किसी रूप में उपभोक्ता ही हैं । इसमें स्वयं व्यापारी भी शामिल होता है। मानव कल्याण के लिए यह परम आवश्यक है कि सभी मनुष्य को इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुएं एवं सेवाएं , सस्ती, सुंदर, शुद्ध एवं सही क्वालिटि की हो। ऐसा करने से मनुष्य का स्वास्थ सुधरेगा और मनुष्य जाति का और अधिक कल्याण होगा। जो व्यक्ति पढ़े लिखे नहीं हैं उनको शिक्षित बनाना तथा वस्तुओं के बारे में सही जानकारी प्राप्त करना उपभोक्ता संरक्षण का कार्य है।

बिना पढ़े लिखे लोग दुकानदार द्वारा ठगे जाते हैं। उपभोक्ता को यह पता नहीं होता है कि उन्हें कौन- सा वस्तु लेना चाहिए और कौन नहीं। ना समझ लोगों को सामान/माल के प्रति शिक्षित करना उपभोक्ता संरक्षण का महत्व है। यदि उपभोक्ता को उपभोक्ता संरक्षण का अधिकार पता होगा तो वह कभी भी दुकानदार के द्वारा ठगा नहीं जा सकता है। एक उपभोक्ता का क्या क्या अधिकार होता है। उपभोक्ता को अपने अधिकार के प्रति जागरूक होने के लिए उपभोक्ता संरक्षण का महत्व है। आज का उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति बिल्कुल भी चिंतित नहीं है उसे क्या अधिकार प्राप्त हैं मालूम ही नहीं है। 15 मार्च को प्रत्येक साल विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है । इस दिन उपभोक्ताओं के अपने अधिकार या कंज्यूमर राइट्स के प्रति जागरूक होने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। उपभोक्ता के साथ कभी भी धोखाधड़ी, माल में मिलावट, कम माप- तोल, रंगदारी आदि नहीं हो इसके लिए यह किया जाता है। उपभोक्ता अपने अधिकारों को समझ जाए तो वह कभी भी इसका शिकार नहीं हो पाएंगे। बचाव ही सुरक्षा है, क्योंकि बाजार में एक बार यदि जेब कट गई तो दो बारा जेब के पैसे लाने में बहुत मसक्कत करना पड़ता है। आइए जागरुक ग्राहकी करें और जेब कटने से बचाएँ।

 

अनिल अयान

संपर्क- 9479411407

 

 

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

शायरी का अज़ीम चित्रकार "राहत"

शायरी का अज़ीम चित्रकार "राहत"

दो गज ही सही मेरी मिल्कियत तो है।
ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया।।।

इंदौर की धरती और अदब आज उदास है, रेख़्ता मायूसी से घिरा हुआ है, हिंदवी अपनी गंगा जमुनी विरासत को सहेजने सहेजते असहज सी हो रही है। कवि सम्मेलन और मुशायरों की शान में जैसे मावस की स्याह गहरी रात आ चुकी है, जबसे सबने सुना की कोरोना ने इंदौर के अज़ीम शायर, चित्रकार और  अदब के खिदमतगार जनाब राहत कुरैशी, यादि कि जाने माने शायर राहत इंदौरी साहब नहीं रहे। राहत तो न हिंदी अदब में है न ही उर्दू अदब में क्योंकि दोनों ने एक कलम का सिपाही को दिया।
राहतुल्ला कुरैशी उर्फ बचपन के कामिल भाई सन पचास के दशक में इस दुनिया में आए, प्रारंभिक शिक्षा के बाद  के वो उर्दू की शिक्षा ग्रहण किए,देवी अहिल्या बाई विश्वविद्यालय में उर्दू के प्राध्यापक भी रहे, लेकिउनका मिजाइस अकादमिक दुनिया में नहीजमा, यही वजह रही कि उनके अंदर छिपा कलाकाऔर कलमकार ने पूरी दुनिया को अपने ख्याल का मुरीबना दिया।
अपने विशेष अंदाज से दर्शकों और श्रोताओं को अपनी शेरों शायरी तथा गीत ग़ज़लों नज़्मों में वो सम्मोहन ही बस नहीं पैदा किए, बल्कि जम्हूरियत, मुल्क, ग़रीबी, मजहब, भाईचारे, विश्वबंधुत्व की बात भी करके गए। पेशे से प्राध्यापक रहने की वजह से उनकी शायरी का मयार मुशायरों और कवि सम्मेलनों में अलग अंदाज लिए होता था।
उन्होंने अपने हुनर को भारत के विभिन्न प्रदेशों, देश की उर्दू अकादमी और तो और विश्व के हिंदी और उर्दू जानने वाले मुल्कों तक उन्होंने इंदौर मध्यप्रदेश और भारत का नाम रोशन किया। कोरोना काल साहित्य जगत के लिए काल बनकर आया और की कलमकारों को अपने आगोश में ले लिया।
राहत इंदौरी ऐसी शख्सियत रहे जिन्होंने अदब के साथ साथ फिल्म जगत में अपना सिक्का जमाया, उनके अनुभव और अदब की खिदमत का ही परिणाम था कि फिल्म जगत में उनकी भूमिका बतौर गीतकार रही वो कई फिल्मों में गीत लिखे और वो लोगों की जुबानों में सुमार रहे। वो जिन 11 फिल्मों में गीत लिखे उसमें से प्रमुख मुन्ना भाई एमबीबीएस, करीब, खुद्दार, बेगम जान, प्रमुफिल्में रहीं। उनके गीत शेरों शायरी, नज़्में, और ग़ज़लें आम दर्शकों की जुबान में रहे, वो आम बोलचाल की भाषा में शायरी करते थेउनकी भारी बुलंद आवाज़ श्रोताओं के दिलों में राज करती रही। उन्होंने अपनी विरासत अपने दोनों बेटों फैज़ल राहत और सतलज राहत को सौंप कर गए। किसी इंटर व्यू में वो एंकर से यह कहते नजर आए कि यदि मैं शायर ने होता तो चित्रकार होता या फुटबॉल और हाकी का खिलाड़ी होता। इससे यह भी बात साफ हो जाती है कि वो अपने कालेज के समय पर इन दोनों खेलों में माहिर थे।
राहत इंदौरी भी अपनी बेबाकी और इस राजनैतिक वातावरण के बीच की बार कैमरे और मीडिया के सामने आडे हाथों आए,,क्योंकि कहीं न कहीं उनका लहजा राजनैतिक परिदृश्य और परिवेश को पंच नहीं पाया। कभी शायरी का मिज़ाज ज्यादा तल्ख हुआ तो उनकी पंक्तियां पेपर और मीडिया में टीआरपी बढ़ाने का काम कर गईं। पर यह भी सच था कि राहत इंदौरी में इंदौर मध्यप्रदेश की जान बसती थी, उन्होंने कभी भी अपनी सर जमीं को जलील नहीं किया, अदब को शर्मिंदा नहीं किया। व्यक्तिगत रुप को एक किनारे रखें तो राहत इंदौरी मध्य प्रदेश ही नहीं देश के उर्दू अदब की रूह बने रहे मध्य प्रदेश में मंज़र भोपाली, कैफ भोपाली, राहत इंदौरी जैसे शायरों से मुशायरे रोशन होते रहें। आज जब राहत इंदौरी साहब अदब को छोड़कर गए, तब उनके मुद्दों को उछालने की संकीर्णता यदि मीडिया औश्र सोशल मीडिया में चलाया जा रहा है वह अदब की बेइज्जती ही है। एक रचनाकार को रचनाकार ही समझ सकता है।।। राहत साहब के जाने से रेख़्ता और हिंदवी अदब में खाली जगह है। वो कभी नहीं भर पाएंगी। राहत साहब के कलाम इस फिज़ा में गूंजते रहेंगे और हर मुशायरे में उनकी रिक्तता का अहसास कराते रहेंगे। अंत में उनके कलाम के कुछ मिसरे उनकी खिराजे अकीदत में पेश हैं।
सभी का खुश हैं शामिल यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है।
मैं मर जाऊं तो मेरी एक पहचान लिख देना।
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना।

लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं।

अनिल अयान
सतना
संपर्क 9479411407

रविवार, 9 अगस्त 2020

आप ज्ञानार्थ बुलाइए तो, वो सेवार्थ जाएगें।

आप ज्ञानार्थ बुलाइए, वो सेवार्थ जाएगें

राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की जा चुकी है, शिक्षाकाल अब पंद्रह वर्ष का हो चुका है, जनसंख्या बढ़ रही है, शिक्षा की मांग‌ बढ़ रही है, आपूर्ति विद्यालय घटाकर  पूरी करने का मन सरकार ने बना दिया है। विगत दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने बारह हजार से ऊपर विद्यालय बंद करने के लिए आदेश जारी कर चुकी है। सबसे ज्यादा सतना के क्षेत्र में विद्यालय बंद करने की रूपरेखा तैयार हो गई है। माध्यमिक शिक्षा मंडल भोपाल से संबंधित ये विद्यालय निश्चित ही प्राथमिक व पूर्व माध्यमिक होंगें जिसमें छात्र संख्या कम है, माध्यमिक विद्यालय और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय शायह ही इस विभीषिका से गुजर रहें हों। विद्यालयों का सूत्र वाक्य होता है ज्ञानार्थ आइए सेवार्थ जाइए। पर जब ज्ञानार्थ बच्चों को प्रारंभ से विद्यालय नहीं बुलाया जाएगा तो वो सेवार्थ कैसे जाएगें।यह यक्ष प्रश्न का उत्तर सरकार और विभाग को खोजने की जरूरत है। बनाना जितना कठिन है, मिटाना उतना ही सरल।
सरकार ने यह जानने की कोशिश करती तो होगी कि आखिर सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक विद्यालय क्यों बीमार हैं। इसकी प्रमुख वजह इस विद्यालय परिसर में पूर्व प्राथमिक अर्थात खेलकूद वाले विद्यालय, किंडरगार्टन वाले शिक्षा के केंद्र नहीं हैं, पर आंगनबाड़ी केंद्र जरूर हैं जिसमें मां और बच्चे का पहले से पंजीकरण होता है। विद्यार्थियों को प्रारंभ से ही विद्यालय की आदत डालने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि सरकार प्राथमिक विद्यालय परिसर में आंगनबाड़ी केंद्रों को बतौर किंडरगार्टन स्कूल के रूप में विकसित करें ताकि कक्षा पहली से उसी आंगनबाड़ी केंद्र के बच्चों का प्रवेश प्राथमिक विद्यालय में सीधे कर लिया जा सके। सरकार को इससे किंडरगार्टन स्कूल अलग से नहीं खोलना पड़ेगा और उसे छात्र संख्या भी मिलेगा। इस माध्यम से आंगनवाड़ी केन्द्रों में आने वाली सुविधाओं का लाभ बच्चों को जन्म से लेक‌र प्राथमिक शिक्षा तक‌ मिलेगा। स्वास्थ्य परीक्षण भी स्वास्थ्य कार्यकर्ता के द्वारा नियमित होता रहेगा। मध्यान भोजन में अलग अलग व्यय भी स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्र के लिए नहीं करना पड़ेगा।
महिला बाल विकास और शिक्षा विभाग को इस बारे में संयुक्त पहल कर कार्ययोजना तैयार करने की जरूरत है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि परिवार, प्री प्राइमरी विद्यालय, के बाद बच्चा प्राथमिक विद्यालय में पहुंचता है। सरकार की नाकामी इसी में है कि उनके पास प्री प्राइमरी विद्यालय नहीं हैं इसलिए विद्यालय बंद होने की कगार में हैं। शिक्षा का अधिकार बेमानी क्यों हो रहा है। सरकार प्राइवेट विद्यालयों को अपनी नज़र के सामने रखती तो है पर वहां की अच्छी बातें अपने शासकीय विद्यालयों में उपयोग नहीं करती, एक मोहल्ले में चार कमरों का प्राइवेट  विद्यालय खुलता है और पहले ही साल वहां 50 संख्या तो गिरी दशा में हो जाती है क्योंकि वहां पर मैनेजमेंट, शिक्षक और प्रिंसिपल पूरी कोशिश करते हैं, संपर्क करते हैं, उसी के आधार पर उनकी वेतन वृद्धि होती है, शासकीय विद्यालयों में हेडमास्टर और शिक्षिकाओं को छात्र संख्या से लेना देना नहीं है, वो संपर्क अभियान नहीं करते, और तो और मध्यान भोजन में 20 की जगह पचास की इंट्री जरूर हो जाती है।। हर प्राइवेट प्राइमरी विद्यालय में नर्सरी, प्रेप वन, प्रेप टू कक्षाएं कक्षा एक के पहले होती हैं, शासकीय विद्यालयों में इन गतिविधियों को लागू करना चाहिए, तो छात्र संख्या बढ़ेगी, शासन के मद में विद्यालय के लिए बजट आता है, कभी भी वह बजट विद्यालय के बच्चों की पब्लिसिटी, प्रवेश के समय प्रचार के लिए पंपलेट, परिणामों का समाचार समाचार पत्रों में नहीं भेजा जाता, प्राइवेट विद्यालयों में बिना बजट के भी यह सब काम मीडिया के माध्यम से जन जन तक पहुंचा दिए जाते हैं ताकि अभिभावकों की नजर में विद्यालय का कद बढ़े, शासन को विद्यालय के प्रचार प्रसार के बारे में भी आगे आना होगा। अभिभावकों को यही नहीं पता कि शासन की योजनाओं, बच्चों को लाभ और कौन सी छात्रवृत्ति शासकीय विद्यालयों में मिलती है। अभिभावकों को शासकीय विद्यालयों की गुणवत्ता और निशुल्क सुविधाएं पता चलेगी तो निश्चित है कि गरीब और अति गरीब परिवार अपने बच्चों को भेजेगा। शासकीय विद्यालयों में यदि प्राइवेट विद्यालयों की दस प्रतिशत भी पढ़ाई  और सही मूल्यांकन हो, तो बच्चे उसी तरह जुड़ेंगे जैसे माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में संघर्ष करके जुड़ते हैं। इसके लिए 40 हजार पा रहे हेडमास्टर और 25 हजार पा रही शिक्षिकाओं को  विद्यालय की छात्र संख्या और गुणवत्ता के बारे में पहले करने से यह बात बनेगी।।।
सरकार यदि समय से शिक्षक शिक्षिकाओं की भर्ती करें, विद्यालयों मे दी जानेवाली निशुल्क सुविधाएं और योजनाओं को जन साधारण तक गांवों में प्रचार प्रसार करवाए तो आंगनवाड़ी केन्द्रों से दलिया और खीर खाने वाले बच्चे सीधे प्राथमिक विद्यालय ही पहुंचने लगेंगे। आईएएस ब्यूरोक्रेट्स की रिपोर्ट के आधार पर विद्यालयों को बंद करने या स्थानांतरित करने का कदम संबंधित विद्यालयों और गांवों के लिए कितना हानिकारक है यह समझना जरूरी है, आप संबंधित गांवों में बच्चों को न खोज पाने की असफलता का सही निदान खोजने की बजाय, एक आदेश और मंत्री जी के एक हस्ताक्षर से उस स्थान को बंजर भूमि घोषित कर रहे हैं जहां आने वाले होनहार बालक बालिकाओं का चंद्रयान निर्मित किया जा सकता है। उन छात्रविहीन विद्यालयों के उन्नयन और विकास की बात करने की बजाय अपने खर्चों को कम करने के लिए पूरे क्षेत्र को शिक्षा विहीन बनाने की कोशिश करना बच्चों के साथ अन्याय नहीं तो और क्या है। आप सभी तरीके से निदान करें, विद्यालयों को आगे बढ़ाने का कदम बढ़ाएं वहीं के बच्चों के द्वारा भविष्य में प्रावीण्य सूची में ताकि स्थान सुनिश्चित हो सके। एक गांव में एक विद्यालय खोलने के लिए वहां के सरपंच और ग्रामपंचायत के कर्मचारियों , गांववासियों को कितना मशक्कत करना पडता है, विधायक, सांसद, शिक्षा अधिकारी, जनपद जिला प्रशासन के अधिकारियों के पीछे लगे रहने के बाद कहीं विद्यालय खोलने का आदेश मिलता है, फिर बनने में की साल लगते हैं, फिर शिक्षा विभाग से नियुक्ति होते होते सालों लग जाते हैं। तब कहीं जाकर विद्यालय चलना प्रारंभ होते हैं। इन सबके बीच शिक्षा के इन अंगों को यदि बीमार हैं तो काटने की बजाय उपचार कराया जाए। शासन प्राइवेट विद्यालयों की टांग खिंचाई के लिख एक पटांग बोलने की बजाय यदि जमीनी बातों को विद्यालयों में लागू करें तो निश्चित है विद्यालयों को बंद करने की आवश्यकता नहीं होगी। यह नोटबंदी और शराबबंदी नहीं है कि घोषणा हुई और विद्यालय बंद,, सरकार और प्रशासन से यही कहना चाहूंगा कि सही तरीके आप बच्चों को ज्ञानार्थ बुलाइए तो निश्चित ही वो पंद्रह साल के बाद सेवार्थ समाज में जा पाएंगे।
यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं

अनिल अयान
संपर्क-9479411407

रविवार, 24 मई 2020

लॉक डाउन में फंसे मास्साहब

लॉक डाउन में फंसे मास्साहब
मार्च के अंतिम सप्ताह से लॉक डाउन प्रारंभ हो गया था, आज इस का 4.0 संस्करण समाप्त होने की कगार में है, आगे अभी कितनी अवधि के लिए यह आपातकालीन व्यवस्था बढ़ेगी कोई नहीं जानता, इस समय पर सभी ने भरपूर संघर्ष किया, खुद को बचाने, समाज को बचाने, सभी को जागरुक बनाने के लिए भरसक प्रयास किये गये, और उसी का परिणाम था कि हम सब अपने आप को सुरक्षित रह पाये, लॉकडाउन प्रारंभ होना ही था कि परीक्षाएँ बच्चों के सिर पर थी, महाविद्यालय, प्रवेश परीक्षा, बोर्ड परीक्षाएँ सिर पर खड़ी थी, इसकी घोषणा के चलते अधिक्तर परीक्षाएँ स्थगित कर दी गई, कक्षा नौंवी तक जनरल प्रमोशन देकर पास कर दिया गया। उच्च शिक्षा जगत, और स्कूल शिक्षा जगत पूरी तरह से सकते में आ गया, लगभग पचहत्तर दिनों का यह दौर मार्च से जून तक का जो होता है वह स्पष्ट रूप से शिक्षक, शिक्षा, विद्यालय, बच्चों और अभिभावकों के लिए बहुत दुख दायी रहा। बीच मझधार में फंसी ट्रेन का ना कोई सिग्नल था और ना ही कोई स्टॆशन, क्योकि स्टेशन मास्टर ही बैरी पिया बन गये, आपातकाल की इस तिमाही में आर्थिक टूटन से ग्रसित होने वाले शिक्षक शिक्षिकाओं की पीड़ाओं को समझने वाले ना संगठन थे, ना निदान करने वाले प्रशासनिक कदम उठ सके।
इस अवसाद से बचने के विद्यालयों और महाविद्यालयों में वैकल्पिक संसाधन खोजे गये ताकि बच्चों को बाँधे रखा जा सके, इसके लिए सिपाहियों के रूप में शिक्षा के सिपेहसालार शिक्षक और शिक्षिकाओं को काम सौंपा गया, ताकि वो बच्चों से संपर्क साध सकें, ताकि ये तीन महीने कहीं विद्यालयों और महाविद्यालयों के लिए पतझड़ ना बन जाये, बच्चों की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि परीक्षाओं के बीच मझधार में फंसे ये तीन महीने की छुट्टियाँ न मरने देने वाली ना मोटाने वाली शाबित हुई, स्कूल काँलेज सब बंद होने की वजह से सही मार्गदर्शन मिलना कठिन हो गया, इन सबके बीच सरकार और शिक्षा मंत्रालय ने बहुत सी एडवाइजरी जारी की ताकि बच्चों को परीक्षाओं के भय से दूर रखा जा सके, बच्चों के अभिभावक सुख चैन से बच्चों की परवरिश कर सकें, उधर दूसरी तरफ स्कूल कालेज बंद होते ही इस प्रवेश के मौसम में सूखा  पड़ गया, सब जब घरों में कैद हो गये उस बीच में स्कूल में किस बात का एडमीशन, बच्चों के इस अकाल उत्सव  में स्कूल कालेज ने बच्चों के संपर्क सूत्र खोजकर व्हाट्स ऐप समूह बनाये गये, उसमें लाइव क्लासेस के लिए जूम ऐप का उपयोग किया, सरकार ने जूम ऐप को गैरकानूनी करार कर दिया तो भी शासकीय और प्राइवेट स्कूल कालेज और अन्य संस्थानों ने इसका खूब प्रयोग किया। कुल मिलाकर घर बैठे शिक्षक और शिक्षिकाओं को बच्चों को व्यस्त रखने के लिए दिन रात लाइव क्लासेस लगाने का स्वांग रचना पड़ा, जिन मोबाइल्स का उपयोग करना शिक्षक शिक्षिकाओं को वर्जित था, बच्चों को इसकी वजह से सजा मिलती थी उसी को सशक्त माध्यम बनाकर विरोधाभाष खड़ा कर दिया गया। कोचिंग और ट्यूशन तक बंद करने की दशा में शिक्षक शिक्षिकाओं के घर में आर्थिक अकाल और आपातकाल की स्थिति बन गयी।स्कूल और कालेज प्रबंधन के पास तो इतनी भी समाइत नही थी कि इनके बदले वो इन शिक्षक शिक्षिकाओं को कम से कम कुछ ज्यादा वेतन मान दे सकते, और तो और उनके वेतनमान से भी कटौती करने की नौटंकी शुरू हो गयी। 
विद्यालयों और महाविद्यालयों ने भी आधी अधूरी तन्ख्वाह देकर एक सुंदर सा संदेश दे दिया कि इस आपातकाल में हमारे पास धन का अकाल आ गया है, आप शिक्षा दान देते रहो और विद्यालय महाविद्यालय परिवार की निस्वार्थ भाव से सेवाकरते रहो, हम आपको वेतन का कुछ प्रतिशत देकर उपकृत करते रहेंगें, लाइव वीडियो, आनलाइन क्लासेस, सोशल मीडिया समूह में बच्चों को पकड़ने की यह कोशिश स्कूल जिन शिक्षक शिक्षिकाओं के माध्यम से जारी रख रहा है उनके परिवार के प्रति इस तरह का ओछा व्यवहार यह बता दिया कि संकटकाल में शिक्षकों का हुनर ही उनका सहारा है, चाहे स्कूल हो या घर हो, शासकीय शिक्षक शिक्षिकाओं का तो हाल इसलिए ठीक था कि वेतन से एक दिन का वेतन सरकार ने अनुदान के रूप में नहीं दिया, प्राइवेट स्कूल कालेज में तो अप्रैल तो अप्रैल, मई जून भी पूरा अकाल ही अकाल और भयंकर सूखा दिखाया जा रहा है, उपकृत करने वाली धनराशि जो स्कूल कालेज के द्वारा शिक्षक शिक्षिकाओं के खाते में बतौर आपातकाल का वेतन भेजा जाता है वह तो ऊँट के मुंह में जीरा की तरह होता है। इस आपातकाल में चालाक किस्म के विद्यालयों और महाविद्यालयों ने अपने संगठनों की बैठकें आयोजित करके सरकार और प्रशासन तक को अपने वश में कर लिया कि ये संगठन अतिगरीब हैं, जो वेतन दे पाने में असमर्थ हैं, सोचने वाली बात है कि साल भर की फीस ये स्कूल कालेज अभिभावकों से लेते हैं, या तो आनलाइन फीस जमा करवाते हैं, तब बसंत होता है, और नब्बे दिन का आपातकाल आ गया तो धन का अकाल हो गया, समय समय का फेर देखिये देश के अनेक शहरों के विद्यालय महाविद्यालय के मैनेजमेंट जो आज तक इस तरह के संगठनों की बैठकों में जाना खुद की तौहीन समझते थे वो भी इसलिए बैठकों में शामिल हो रहे हैं कि इसी बहाने संगठन में शक्ति का प्रयोग करके शिक्षक शिक्षिकाओं का वेतन पूरा न देना पड़े।
आपातकाल में जब हर वर्ग संकट में है उस बीच में शिक्षा जगत के ये नुमांइदे बहुत ही शालीन और संकोची होते हैं, किसी से मांग नहीं सकते, राशन की दुकान में खड़े नहीं हो सकते, मैनेजमेंट से वेतन के बारे में पूछ नहीं सकते, भले ही नमक रोटी खा लें, जमा पूंजी खर्च कर दें, पर रहेंगें संस्था के प्रति समर्पित ही, कई सकूल कॉलेज के मैनेजमेंट ने ऐसा कहर ढ़ाया कि स्टाफ की छटनी कर दी क्या टेम्प्रेरी क्या पर्मानेंट, कई शिक्षक शिक्षिकाओं को प्रमोशन का लॉली पाप थमाकर अचानक की झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया, शिक्षा के सिपेहसालारों के गाल पर। इन सब परिस्थितियों में को देखकर ऐसा लगा कि शिक्षक शिक्षिकाएँ अगर मजबूरीवश नंगे हुए सालीनता से भिखारी बने तो दूसरी तरफ स्कूल और कॉलेज तो शौकियन ही नंगे हो गये, और भिखारी बनकर धन अकाल का प्रदर्शन करने लगे। शिक्षक शिक्षिकाएँ इस पूरी माहौल में असहाय इसलिए भी हैं क्योंकि उन्हें यदि बेरोजगार नहीं होना है तो भागे भूत की लंगोटी मिल तो रही हैं, वो इसी बात पर खुद को भाग्यवान समझ रहे हैं,जिन बच्चों और शिक्षक शिक्षिकाओं की वजह से स्कूल कालेज अपने शिखर तक पहुँचते हैं, उन मास्साहबों और मास्टरी साहिबाओं के परिवारों की इस दुर्गति के लिए कौन जिम्मेवार है प्रश्न यह नहीं है, किंतु इस तरह बीच मझधार में अकेला छॊड़ देना शिक्षा जगत की माफियागिरी नहीं तो और क्या है, अपने हिसाब से काम करने वाले और नये रास्ते प्रतिपादित करने वाले ये प्राइवेट विद्यालय और महाविद्यालय शिक्षा के बाजार में झंडावरदार बने बैठे हैं और इन प्राइवेट विद्यालयों और महाविद्यालयों के संगठन हैं तो इन मास्साहबों के संगठन अगर हैं तो इस अत्याचार को क्यों बर्दास्त कर रहे हैं। सरकार के पास इन बेसहारों के लिए कोई सहायता है भी या नहीं इस का उत्तर किसी के पास नहीं है, संबंधित शिक्षा बोर्ड़ के पास इस समस्या का निदान क्या हो सकता है शिक्षा विभाग और संबंधित विभागों और मंत्रालयों के पास शिक्षा के इन सुपात्रों के भविष्य के लिए कोई योजना नहीं है, इन परिस्थितियों में जब इनका ना कोई बीमा, ना कोई आर्थिक पैकेज, ना कोई आर्थिक मदद, ना कोई नेतृत्व हैं उन परिस्थितियों के बीच इनके पालन हार कौन बनकर इनको कौन उबारेगा यह सवाल पूरे समाज को खोजना होगा।

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

सोमवार, 11 मई 2020

काहे का लॉक डाउन, काहे की सोशल डिस्टेंसिंग

काहे का लॉक डाउन, काहे की सोशल डिस्टेंसिंग

समाचार देखना और पढ़ना दोनों का अब अलग अलग अर्थ रह गया है, देखने वाले समाचार अब मात्र समय बिताने का माध्यम रह गये हैं, समाचार चैनल्स की विश्वसनीयता की भी संदेह के घेरे में आ चुके हैं, समाचार चैनल्स के मालिक कितनी बार फेक न्यूज दिखाने की वज़ह से पब्लिक में माफी माँग चुके हैं, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता में अभी भी सब निःसंदेह हैं, प्रिंट मीडिया के आंकड़े विश्वास करने योग्य हैं, वहीं दूसरी तरफ सोशल मीडिया की राम कहानी तो अविश्वास पर टिकी हुई हैं, मुद्दों को ट्रोलिंग, कट्टर पंथी और कम्यूनिस्ट के नाम से बंटे यूजर्स अपने अपने चश्में से जूतम पैजार करने में लिप्त पाए जाते हैं। आपको लगता होगा कि मै कहाँ की बात लेकर बैठ गया, टाइटल कुछ और हैं बाते कुछ और शुरू हुई, किंतु ऐसा नहीं है मीडिया का लॉक डाउन और और सोशल डिस्टेंसिंग को जन जन तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम है। 
सरकारों और प्रशासन का अपना मत है, लॉक डाउन और और सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर, उद्योगपतियों और पूंजी पतियों का अपना मत है। विभिन्न देशों का अपनी अर्थ व्यवस्था के अनुरूप अलग अलग विचार है इस मुद्दे पर, लेकिन वर्तमान में सबसे ज्यादा पीडित, पलायन कर रहे मजदूर, घर बैठे वर्क फ्राम होम कर रहे नौकरी पेशे से जुड़े हुए लोग हैं, मानसिक दबाव बढ़ रहा है, सरकारों की घॊषणाओं को ना पूँजीपति पालन कर रहे हैं, मध्यमवर्ग की जमा पूँजी खत्म होने को है, कई लोगों को प्राइवेट नौकरियों से निकाल दिया गया, या घर बिठा दिया गया, सरकारों को उन सबके लिए कोई फुरसत नहीं है, ये लोग ना ही सड़कों में खाना मांग सकते हैं और ना ही राशन की दुकानों में खड़े होकर गल्ला इकट्ठा कर सकते हैं, सरकारी आर्थिक मदद इन लोगों के लिए नहीं होती, ये बीच के समाजिक कुनबे से ताल्लुकात रखने वाले लोग हैं। इसलिए इनकी मरन सबसे ज्यादा है, दिखावे की जिंदगी में मसगूल ये लोग अपने जीवन यापन के लिए नौकरी खोजने या काम में लौटने का इंतजार कर रहे हैं।
विभिन्न माध्यमों से जब सुनने में आता है, कि लॉक डाउन बढ़ेगा तो आशाएँ समाप्त होने लगती हैं, वजह यह है कि हमारी पहचान में देश के विभिन्न प्रदेशों से पुलिस, चिकित्सा वर्ग के लोग हैं, और उनकी स्थिति सुनकर ऐसा लगता है कि वो अब ऐसा युद्ध कर रहे हैं जहाँ पर उनके पास अस्त्र शस्त्र हैं ही नहीं, सब थक चुके हैं, हमारे माननीय प्रधान मंत्री जी और अन्य मंत्री, मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और अन्य मत्री अपनी घोषणाएँ कर रहे हैं, आश्वासनों की बाढ़ आ रही हैं, पर यह सब कहाँ विनमय किया जा रहा है, इनकी घॊषणाओं के बाद विभिन्न प्रदेशों से मजदूर घर लौट रहे हैं, भूखे, प्यासे, लुटे हुए, ठगे हुए, बेबस ये लोग मक्कार लोगों, पूँजीपतियों की वजह से लाचार होकर अपनी माटी की ओर लौट रहे हैं, सरकारों की योजनाएँ, सुविधाएँ भोजन, आर्थिक मदद क्या इनके लिए नहीं हैं, इसका जवाब किसी के पास नहीं है, वहीं दूसरी तरफ सरकार पचास दिन होने के बाद अब होश में आकर ट्रेनों, बसों और विभिन्न माध्यमों से बच्चों और मजदूरों को भूसे की तरह भरकर गंतव्य में पहुँचाने का स्वांग भर रही है। यह काम लॉक डाउन के पहले क्यों नहीं किया गया। इसका जवाब किसी के पास नहीं है, और जिसके पास है वो चुप बैठा है।
लॉक डाउन का मजाक बनकर रह गया है, जो दिखाया जा रहा है, वो सच कितना है यह कोई नहीं जानता, घोषणाए नाम भर की हो रही हैं, व्यवस्थाएँ संतोषप्रद नहीं हैं, देवालय से ज्यादा महत्ता आबकारी और शराब के ठेकों को दी जा रही है, उद्योगों से मजदूरों को भगा दिया गया है, अब उद्योग या मशीनों को कौन चलाएगा इस का जवाब किसी के पास नहीं है, किसानों की फसलें बारिस आंधी पानी में खराब हो रही हैं इसका कोई उत्तरदायित्व नहीं ले रहा है, मेडिकल स्टाफ और सुविधाएँ अस्त व्यस्त हैं इसका जवाब किसी के पास नहीं है, बस लॉक डाउन  की गिनती, १.०, २.०, ३.०, ४.० गिनवाया जा रहा है, हाथ धुलवाने, एक मीटर की दूरी बनाने की बातें की जा रही हैं, और इन सब नियमों की धज्जियाँ खुद ब खुद उड़ाई जा रही हैं, जिसके लिए कोई भी सवाल जवाब पूँछना बताना गलत माना जाता है। हम संक्रमण की तीसरी स्टेज में प्रवेश कर चुके हैं, हमारे निर्णय बहुत देर से जनता के सामने आ रहे हैं, रिजर्व बैंक और सरकार के कर्जे से जनता अनजान हैं, पीएम केयर्स में सब उलझ कर रह गए हैं, इन सबके बीच में यदि जनता को खुद को बचाना है तो खुद ही हाथ पैर मारना होगा, यही शास्वत सत्य है।
मौतें बढ़ रही हैं, दवाएँ हम खोज नहीं पाए हैं, हम अपनी गल्तियों से बहुत देर के बाद सीख लेते हैं, सरकारे इसके लिए उत्तर दायी हैं, सरकारे सिर्फ एलिट वर्ग के लिए उत्तरदायी हैं, आम जन, मजदूर किसान के लिए कोई उत्तरदायी क्यों नहीं है, ट्रैक पर उनकी मौतें हों, सडक हादसों पर उनकी मृत्यु का भी मीडिया उत्सव मना रही है। सरकार के हाथ से नियंत्रण निकलता जा रहा है। ऐसा सबको महसूस होता है। हास्पीटल्स और वहाँ काम करने वाले लोगों की दुर्गति को हम नजरंदाज नहीं कर सकते। प्रशासन के द्वारा बनाई गई सारी व्यवस्थाएँ धीरे धीरे अव्यवस्थित हो रही हैं, क्वारेंटाइन सेंटर्स की स्थिति, सोशल डिस्टेंसिंग को मानना, ग्रीन सिटी अब धीरे धीरे रेड़ जोन में बदल रहे हैं, इन सबके बीच में कड़े नियमों में ढील देना, शराब की दुकानें खोलना, भीड़ जुटाने की सरकारी व्यवस्था क्यों की जा रही हैं, रोज जहाँ मौतों का आंकड़ा सैकडो़ं से पार है, संक्रमण का आंकड़ा हजारों में हैं उन सबके बीच लॉक डाउन और और सोशल डिस्टेंसिंग का मखौल उडाया जा रहा है। मीडिया जागरुक करने की बजाय, धर्म और जातिगत बहसों, प्रायोजित कार्यक्रमों में व्यस्त है, चैनल्स न्यूज को न्यूड कर के तमाशा दिखा रहे हैं।
हम सबको यह स्वीकार कर लेना चाहिए लॉक डाउन और और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्द अब अपने अर्थ की खोज में लग गए हैं, सरकारों के पास मात्र यह आदेश हैं, प्रशासन के पास लोगों को घर पहुँचाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है, मेडिकल फील्ड के डाक्टर्स और अन्य स्टाफ मजबूर बन चुका है, क्वारेंटाइन सेंटर्स अजायब घर बनकर रह गए हैं, इस मर्ज की कोई दवा हम खोज नहीं पाए हैं, योजनाओं से और घोषणाओं से आप इस महामारी से खुद को नहीं बचा सकते हैं, जीवन यापन करना है तो निश्चित ही हमें काम के लिए निकलना पड़ेगा, हम चाँदी की चम्मच लेकर तो पैदा नहीं हुए जिसके लिए सरकारे नतमस्तक हैं। हम अपना काम करे सरकार और प्रशासन को अपना काम करने दें, क्योंकि वो हमारे पीछॆ डंडा लेकर नहीं दौड़ सकते हैं।
हमें अपनी सुरक्षा, अपने परिवार की रक्षा, उनके लिए रोटी कपड़ा मकान की व्यवस्था खुद करना है, सरकार मजबूर होकर अब हम सबको सतर्क कर सकती है, हम सबको घर पर नहीं बिठा सकती, हम सबका स्वविवेक है कि लॉक डाउन और और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्दावली को समझने की बजाय आवश्यकतानुसार अपने बचाव के लिए उपयोग करे और सांप भी मर जाए लाठी भी न टूटे वाली कहावत को चरितार्थ करें, इतने लॉक डाउन  देखने के बाद हम सबको मान लेना चाहिए कि हमारी सुरक्षा और बचाव के लिए हम जिम्मेदार है, और हमारे पहल करने से ही हम बच सकते हैं, क्योंकि आने वाले समय में सरकारें जिस तरह की छूट दे रही हैं वो हमारे लिए और घातक है। इसलिए अपने प्रति जागरुक बनें और हम अपनी सुरक्षा खुद करें, सरकार को अपना काम करने दें। 

मंगलवार, 5 मई 2020

"शांति के पुजारी हम, जगत को बुद्ध देते हैं"

बुद्ध जयंती ७ मई पर विशेष-

"शांति के पुजारी हम, जगत को बुद्ध देते हैं"
हम भारत देश के रहवासी हैं इस बात का गर्व होता है हमें इसके पीछे कई कारण और गौरव की बातें हैं, उसमें से एक प्रमुख कारण हमारी धरती पर महात्मा बुद्ध का जन्म लेना भी रहा है। छतरपुर के श्रीप्रकाश पटेरिया,वरिष्ठ साहित्यकार लिखते हैं, मिलावट कुछ नहीं करते जो देते  शुद्ध देते हैं, शांति के पुजारी हम, जगत को बुद्ध देते हैं" हमारे देश ने विश्व को सिद्धार्थ के रूप में पैदा हुए गौतम बुद्ध दिया।" बुद्ध होना आसान नहीं है, उनके बारे में दलाई लामा का विचार है कि हिंदू और बौद्ध दोनों ही धर्मों के लिए बुद्ध का होना अर्थात धर्म का होना है। बुद्ध इस भारत की आत्मा हैं। बुद्ध को जानने से भारत भी जाना हुआ माना जाएगा। बुद्ध को जानना अर्थात धर्म को जानना है।
यह संयोग ही है कि वैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563 को हुआ। इसी दिन 528 ईसा पूर्व उन्होंने बोधगया में एक वृक्ष के ‍नीचे जाना कि सत्य क्या है और इसी दिन वे 483 ईसा पूर्व को 80 वर्ष की उम्र में दुनिया को कुशीनगर में अलविदा कह गए। वो अपनी पत्नी यसोधरा को को छोड़े तो उनके ऊपर निश्चित ही बहुत से सवाल खड़े किये गए, बहुत सी अंगुलियाँ उठी किंतु वो अपने ज्ञान के खोज को पूरा करने के पश्चात हमारी धरा में अपनी विचारधाराओं को स्थापित करने वाले नये धर्म को स्थापित करके गए जिसे बौद्ध धर्म कहा गया और उनके विचारों की बहने वाली धारा को बुद्ध दर्शन का नाम दिया गया। इस बुद्ध दर्शन के मुख्‍य तत्व : चार आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर बुद्ध का मौन, बुद्ध कथाएँ, अनात्मवाद और निर्वाण। बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं। त्रिपिटकों का एक भाग है धम्मपद। प्रत्येक व्यक्ति को तथागत बुद्ध के बारे में जानना चाहिए। यह तीन मूल सिद्धांत पर आधारित माना गया है- अनीश्वरवाद .अनात्मवाद .क्षणिकवाद। यह दर्शन पूरी तरह से यथार्थ में जीने की शिक्षा देता है।
अनीश्वरवाद में बुद्ध ईश्वर की सत्ता नहीं मानते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम पर चलती है। प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कारण-कार्य की श्रृंखला। इस श्रृंखला के कई चक्र हैं जिन्हें बारह अंगों में बाँटा गया है। अत: इस ब्रह्मांड को कोई चलाने वाला नहीं है। न ही कोई उत्पत्तिकर्ता, क्योंकि उत्पत्ति कहने से अंत का भान होता है। तब न कोई प्रारंभ है और न अंत। अनात्मवाद का यह मतलब नहीं कि सच में ही 'आत्मा' नहीं है। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है। यह प्रवाह कभी भी बिखरकर जड़ से बद्ध हो सकता है और कभी भी अंधकार में लीन हो सकता है।स्वयं के होने को जाने बगैर आत्मवान नहीं हुआ जा सकता। निर्वाण की अवस्था में ही स्वयं को जाना जा सकता है। मरने के बाद आत्मा महा सुसुप्ति में खो जाती है। वह अनंतकाल तक अंधकार में पड़ी रह सकती है या तक्षण ही दूसरा जन्म लेकर संसार के चक्र में फिर से शामिल हो सकती है। अत: आत्मा तब तक आत्मा नहीं जब तक कि बुद्धत्व घटित न हो। अत: जो जानकार हैं वे ही स्वयं के होने को पुख्ता करने के प्रति चिंतित हैं।क्षणिकवाद के अनुसार  स ब्रह्मांड में सब कुछ क्षणिक और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं। सब कुछ परिवर्तनशील है। यह शरीर और ब्रह्मांड उसी तरह है जैसे कि घोड़े, पहिए और पालकी के संगठित रूप को रथ कहते हैं और इन्हें अलग करने से रथ का अस्तित्व नहीं माना जा सकता।
बुद्ध जब अपने ज्ञान पुंज से विश्व प्रकाशवान करने का उद्देश्य बनाये तब हम पाते हैं कि बुद्ध के अनुयायी दो भागों मे विभाजित थे भिक्षुक- बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जिन लोगों ने संयास लिया उन्हें भिक्षुक कहा जाता है उपासक- गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए बौद्ध धर्म अपनाने वालों को उपासक कहते हैं. इनकी न्यूनत्तम आयु 15 साल है. इसके अलावा इस धर्म में बौद्धसंघ में प्रविष्‍ट होने को उपसंपदा कहा जाता है.प्रविष्ठ बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं- बुद्ध,धम्म,संघ। हर धर्म विभाजित हो जाता है और यह धर्म भी दो भागों में विभाजित हो गया जो 
हीनयान और महायान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। धार्मिक जुलूस सबसे पहले बौद्ध धर्म में ही निकाला गया था.बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र त्यौहार वैशाख पूर्णिमा है जिसे बुद्ध पूर्णिमा कहा जाता है.बुद्ध ने सांसारिक दुखों के संबंध में चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया है, दुख,  दुख समुदाय
दुख निरोध, दुख निरोधगामिनी प्रतिपदा। बुद्ध ने इससे दूर होने के लिए अष्टांगिक मार्ग की बात कही जिसमें म्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प,
सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि।बुद्ध के अनुसार अष्टांगिक मार्गों के पालन करने के उपरांत उसे निर्वाण प्राप्त होता है. अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, किसी भी प्रकार की संपत्ति न रखना, शराब का सेवन न करना, असमय भोजन करना, सुखद बिस्तर पर न सोना, धन संचय न करना, महिलाओं से दूर रहना नृत्य गान आदि से दूर रहना. आज के समय पर यह बहुत कठिन हो गया धारण करना।
अनीश्वरवाद के संबंध में बौद्धधर्म और जैन धर्म में समानता है। गौतम बुद्ध को भी हिन्दुओं के वैष्णव सम्प्रदाय में को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। दशावतार में वर्तमान में ९वाँ अवतार बुद्ध को माना जाता है। बुद्ध, विष्णु के अवतार के रूप में बुद्ध का उल्लेख सभी प्रमुख पुराणों तथा सभी महत्वपूर्ण हिन्दू ग्रन्थों में हुआ है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः बुद्ध की दो भूमिकाओं का वर्णन है- कलयुगीय अधर्म की स्थापना के लिये नास्तिक (अवैदिक) मत का प्रचार तथा पशु-बलि की निन्दा।  कुछ पुराणों में बुद्ध के उल्लेख का सन्दर्भ दिया गया है, हरिवंश पर्व, विष्णु पुराण, भागवत पुराण, गरुड़ पुराण, अग्निपुराण, नारदीय पुराण, लिंगपुराण, पद्म पुराण आदि।  हिन्दू ग्रंथों में जिन बुद्ध की चर्चा हुई है वे शाक्य मुनि (गौतम) से भिन्न हैं-तथापि हिन्दू ग्रंथों में जिन बुद्ध की चर्चा हुई है वे शाक्य मुनि (गौतम) से भिन्न हैं- बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति (श्रीमद्भागवत) इस भागवतोक्त श्लोकानुसार बुद्ध के पिता का नाम 'अजन' और उनका जन्म 'कीकट' (प्राचीन उड़ीसा?) में होने की भविष्यवाणी की गयी है। 
बुद्ध ने कुछ बातें हिंदु धर्म के विरोध में भी प्रचारित की जैसे गौतम बुद्ध ने ब्रह्म को कभी इश्वर नहीं माना। ब्रह्मा की आलोचना खुद्दुका निकाय के भुरिदत जातक कथा में कुछ इस तरह मिलती है: "यदि वह ब्रह्मा सब लोगों का "ईश्वर" है और सब प्राणियों का स्वामी हैं, तो उसने लोक में यह माया, झूठ, दोष और मद क्यों पैदा किये हैं? यदि वह ब्रह्मा सब लोगों का "ईश्वर" है और सब प्राणियों का स्वामी है, तो हे अरिट्ठ! वह स्वयं अधार्मिक है, क्योंकि उसने 'धर्म' के रहते अधर्म उत्पन्न किया।" बुद्ध ने आत्मा को भी नकार दिया है और कहा है कि एक जीव पांच स्कन्धो से मिल कर बना है अथवा आत्मा नाम की कोई चीज़ नहीं है। बुद्ध ने वेदों को भी साफ़ तौर से नकार दिया है। इसका उल्ल्लेख हमे तेविज्ज सुत्त और भुरिदत्त जातक कथा में मिलता है। बुद्ध, अरिट्ठ को सम्भोधित करते हुए कहते है : "हे अरिट्ठ ! वेदाध्ययन धैयेवान् पुरुषों का दुर्भाग्य है और मूर्खो का सौमाग्य है। यह (वेदत्रय) मृगमरीचिका के संमान हैं। सत्यासत्य का विवेक न करने से मूर्ख इन्हें सत्य मान लेते हैं। हिन्दू धर्म जहा चार चार वर्ण में भेद बताता है तो वही बुद्ध ने सभी वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) को समान माना। अस्सलायान सुत्त इस बात की पुष्टि करता है कि सभी वर्ण सामान है। [9] बुद्ध का वर्ण व्यवस्था के खिलाफ एक प्रसिद्ध वचन हमें वसल सुत्त में कुछ इस प्रकार मिलता है :"कोई जन्म से नीच नहीं होता और न ही कोई जन्म से ब्राह्मण होता है। कर्म से ही कोई नीच होता है और कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता है।"
बुद्ध के जन्म दिवस के अवसर जब हम बुद्ध को याद कर रहे हैं तो यह जरूरी है कि महात्मा बुद्ध अपने परिवार और समाज से जिस प्रकार छोड़कर अपने ज्ञान विवेक और धर्म का मोहपाश तैयार किया वह भारत में आज भी मौजूद है यह पाश आज भी समाज को एकैक की भावना को बनाये हुए हैं, विश्व में तो बुद्ध को स्थापित करने के लिए विभिन्न देश बौद्ध धर्म और महात्मा बुद्ध को अपना आराध्य मानते हैं वैश्विक धर्मों में बौद्ध धर्म आज भी शीर्ष में बना हुआ है। यह सिद्ध करता है बुद्ध कालखंडीय नहीं है बल्कि वैश्विक, सर्वकालिक और चिरकाल तक मानव सभ्यता में वास करने वाले हैं, यहीं उनकी श्रेष्ठता और महानता को परिभाषित करता है।

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

बुधवार, 25 मार्च 2020

जैविक आपातकाल के बीच हमारे कर्तव्य


जैविक आपातकाल के बीच हमारे कर्तव्य
आज जब पूरा विश्व कोविड़-१९ से लड़ रहा है, और हमारे देश में प्रधानमंत्री जी ने जनता कर्फ्यू और फिर पूरे देश को इक्कीस दिन के लिए लॉक  डाउन करने की घोषणा कर दिया है, इन परिस्थितियों के बीच मे पूरा देश एक आपातकाल और अनुशासन की महीन रेखा में खड़े होने के लिए मजबूर हो चुका है, देश और राज्य हो या फिर समाजिक ढाँचा हो किंतु आज के समय की माँग है कि हम खुद को इस महामारी के तीसरे चरण के दौर में एक दूसरे से अलग कर लें, इन सबके बीच यह देखा जा रहा है, सोशल मीड़िया में जबर्जस्त रूप से अफवाहों का दौर चल रहा है, लोग सोचे समझे बिना ही एक दूसरे की पोस्ट्स और बातों को आने वाले परिणामों के बिना ही साझा करने से परहेज कर रहे हैं, भारत में रह रहे लोगों को विश्वभर की बातों को भावनात्मक जुड़ाव के साथ साझा किया जा रहा है और साथ में आगे भी शेयर करने की अपील की जा रही है, हम अपने देश के हालातों पर चर्चा नहीं करना चाह रहे हैं, हमारे पास इस महामारी से लड़ने के लिए क्या सुविधायें हैं इस पर हम बात नहीं करना चाह रहे हैं, हमारे देश में आज के समय में जितने भी कोविड़-१९ के केसेस सामने आये हैं, उनसे लड़ने और बचने के लिए क्या रास्ते अपनाने होंगे उन सब बातों को साझा करने की बजाय अफवाओं के बहाव में बहना बिल्कुल भी उचित नहीं हैं,
      भारत में जब यह वाइरस अपने पहले स्टेज में था, उस समय देश दुनिया से बेखबर हम अपने में व्यस्त थे, स्वास्थ्य और गृह मंत्रालय इस बात से अनभिग्य था कि हमारे देश के पास इस महामारी से लड़ने के लिए क्या सुविधायें उपलब्ध थी, जनता कर्फ्यू के दिन भी हमारी मूर्खता एक नमूने जग जाहिर हुए, हमने कई निर्णयों का खूब विरोध किया, सरकारों को खूब गालियाँ दी, निर्णयों की खूब अबाही तबाही की, जनता कर्फ्यू के दिन हमारे देश में कई जगह लोग सड़कों पर अपनी वाहवाही का प्रदर्शन करते हुए दिखे। जब धीरे धीरे देश लॉक डाउन होते दिखा तो भी हम सतर्क नहीं हुए, प्रधानमंत्री जी जब पूरे देश को लॉक डाउन करने की घॊषणा किए तब समझ में आया कि देश के पास पर्याप्त सुविधायें नहीं हैं, और मेडिकल क्राइसिस के बीच में सुरक्षा और सावधानी ही बचाव है, हमारे देश के विभिन्न अस्पतालों के डाक्टर्स का ट्वीट आने लगा उच्च स्तरीय मास्क और सुरक्षात्मक उपकरणों का देश में कमी हो रही है, इसलिए जनता खुद को बचाने के लिए खुद ही सावधानी बरते और एकांतवास के चली जाए, किंतु इन सबके बीच मध्य प्रदेश में नई सरकार का निर्माण हो गया, आपात कालीन सत्र में बहुमत सिद्ध हो गया, और सपथ ग्रहण समारोह भी हो गया, इन सबके लिए बचाव के किस स्तर के उपायों का उपयोग किया गया, इस पर भी मंथन होना चाहिए, राजनीतिज्ञों के लिए क्या आइसोलेशन और क्वार्टराइन के उपाय जरूरी नहीं, बातें अधिक्तर हाथ धोने से घर से बाहर न निकलने तक आ पहुँची, पर पूरा विश्व इसके उपचार के लिए कोई दवा नहीं खोज पाया, एक वायरल हुए वीडियों में सुरजेवाला जी ने सरकार की सबसे बड़ी गलतियों को उजागर करते हुए स्वास्थ्य और मेडिकल उपकरणों के निर्यात को मार्च तक जारी रखने की बात करते हैं जिसकी वजह से आज डाक्टर्स और हास्पीटल स्टाफ के लिए संकटकाल उत्पन्न हो चुका है।
      हम सबको यह स्वीकार करना होगा कि, चीन के वूहान से प्रारंभ हुए इस वाइरस का प्रभाव, चीन के सहयोगी रूस और उत्तरी कोरिया में बहुत कम रहा, इतना ही नहीं चीन के वूहान के अलावा बीजिंग और संघाई जैसे शहरों में इसका क्या प्रभाव रहा इस पर किसी की नजर नहीं गई, यदि हम चीन के विरोधी देशों की बात करें तो यूएसए, दक्षिण कोरिया, यूके, फ्रांस, इटली, स्पेन, एशिया के विभिन्न देश विभिन्न रूप से प्रभावित हो गए, और वहां की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से पिट गई। वैश्विक विरोधाभाषों के चलते चीन और विभिन्न विरोधी देशों के बीच में चल रहे विद्वेश का आपातकालीन प्रभाव पूरे विश्व के अधिक्तर देश भोग रहे हैं। विकसित देशों की स्थिति जब हमारे सामने हैं, बीबीसी लंदन, और एएनआई न्यूज चैनल्स इन सब समाचारों से भरे पड़े हैं तब यह जरूरी हो गया है कि हम जैसे विकासशील देश मानवधर्म का परिचय देते हुए, स्वानुशासन का परिचय देते हुए ही खुद को और अपने देश की मानव प्रजाति को बचा सकते हैं। हमें समझना होगा कि यहाँ हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई बने सभी अब भाई भाई के संदेश को हृदय से पालन करना होगा। आइसोलेशन और क्वार्टराइन से ही हम खुद को बचा पाएगें, हमें अपने सरकार और मंत्रिमंडल से उम्मीदों की आशा करने का हक तो बनता है।
      जब हमारे प्रधानमंत्री जी इक्कीस दिन के लिए जब पूरे देश को लॉक डाउन की घोषणा किए तब पूरे देश में विभिन्न प्रकार के आर्थिक आय वाले मजदूरों, दिहाड़ी करने वाले कामगारों और खेतिहर किसानों के लिए क्या व्यवस्था है, इस पर भी बात होनी चाहिए, दिहाड़ी मजदूर कैसे घर चलायेगें, रोज कमाने खाने वाले क्या करेंगें, सड़क पर दुकान लगाने वाले, फुटपाथी कारोबारी क्या करेंगें, देश में इतने उद्योगपति हैं, विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले इवेंट और ब्रांड एम्बेस्डर हैं, विधायिका के जन प्रतिनिधि और शासकीय सेवा में इन्कम टैक्स देने वाले करोड़पति परिवार के लोग हैं, जो इनकी मदद के लिए आगे आएं, डाक्टर्स और हास्पीटल्स को मेडिकल उपकरणों, मास्क, और ग्लव्स की खेप देकर मदद कर सकते हैं, इतना ही नहीं सरकारें आर्थिक जनगणना के अनुसार आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों के लिए आर्थिक मदद के रूप में मासिक सहयोग राशि और दैनिक उपयोग  के लिए राशन उपलब्ध करायें, यदि हम अपने क्षेत्र की बात करें तो सीमेंट फैक्ट्रियाँ, मंदिर ट्रस्ट, सामाजिक संगठन और आर्थिक संगठनों के पदाधिकारिगण इन तबकों का पूरा सहयोग करें। इन सबके अलावा विभिन्न राज्यों की सरकारों और प्रशासनिक अधिकरियों को शासकीय अस्पतालों को सक्षम और सभी उपकरणों से लैस बनाने के लिए सरकारी खरीद के लिए विशेष फंड़ उपलब्ध कराये। अतिरिक्त बजट उपलब्ध कराने के लिए गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय को सक्रिय कदम उठाए। जिला पंचायत जनपद पंचायतों, और ग्राम पंचायतों, खाद्य विभाग के अधिकारियों को एपीएल और बीपीएल के घरों में, मनरेगा मजदूरों, को कम से कम दो माह का राशन ईधन दवा सुविधाये उपलब्ध कराएं, आगनवाड़ी के माध्यम से, उचित मूल्य की दुकानो से महिलाओं, बच्चियों, और बस्तियों में इसका वितरण सुनिश्चित किया जाए। हमें इस बात पर विश्वास करना चाहिए कि जब आस्ट्रेलिया और आसपास के देशों में भयावह आग का कहर बरपा था तब प्रार्थनाएँ ही बरसात लाने के लिए कारगर सिद्ध हुई थीं, ऐसी ही प्रार्थनाओं की आवश्यता आज भी है  ताकी चीन की इस मूर्खता का, विश्व में मानव प्रजाति के उत्थान एवं सुरक्षा हेतु आशा और उम्मीद से कोई नया रास्ता सुनिश्चित किया जा सके।
      विभिन्न स्थानों पर रहने वाले वरिष्ठ नागरिकों, दिव्यांगों,  और असहाय लोगों, भिक्षुकों को बसेरा, या विभिन्न शासकीय स्थानों में सुरक्षित किया जाए उनके जीवन यापन की व्यवस्था की जाए। केंद्र सरकार ने इस हालात के लिए जिस पंद्रह हजार करोड़ का इंतजाम किया है उसके अतिरिक्त विधायक निधियाँ, सांसद निधियों को भी इसी कार्य के लिए उपयोग करने के लिए निर्देशित किया जाए, देश के पाश कार्पोरेटरों, जैसे अम्बानी ग्रुप, अडानी ग्रुप, टाटा ग्रुप, बिड़ला ग्रुप, बड़ी मेडिकल फार्मा कंपनियां अपने मुनाफे, वार्षिक लाभांश का कुछ प्रतिशत  जन सहयोग के लिए खर्च करें और आर्थिक रूप से विपन्न लोगों के लिए सहायता का हाथ बढ़ाएँ। इतना ही नहीं देश में विभिन्न आश्रम, मठ, मंदिर, चर्च, मस्जिदों की कमेटियाँ, गुरुद्वारा समिति भी इस काम में आगे आकर जन समान्य का सहयोग करके देश को आर्थिक और समाजिक रूप से मजबूत बना सकते हैं, तभी देश की असमानता की खाई को पाटते हुए इस वैश्विक जैविक महामारी के आपातकाल से लड़ सकेंगे।जहाँ पूरा विश्व इस महामारी से जूझते हुए अपनी जान की बाजी लगा रहा है इस संकट के समय में निश्चित ही उदारता और जागरुकता का परिचय देते हुए ज्यादा कुछ नहीं तो अपने आसपास के सहायतार्थ लोगों को सहयोग कर सकते हैं। जन जन के सहयोग, जन जन के साथ से हम अपनी दृढ इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए निश्चित ही इस आपातकाल से लड़कर खुद को, अपने परिवार को देश को बचा सकते हैं।
अनिल अयान, सतना
९४७९४११४०७
     
 

रविवार, 15 मार्च 2020

"आप" की सरकार बनाम आज के सरोकार

"आप" की सरकार बनाम आज के सरोकार 

विगत रविवार को अरविंद केजरीवाल जी दिल्ली के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने, एक आई.आई.टियन से अपना कैरियर की शुरुआत करने वाले अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से वाणिज्यकर में सेवाएँ देते हुए समाज को सूचना कानून और सूचना के अधिकार के लिए जन जागरुकता लाने का काम किया, तथा अन्ना हजारे के आंदोलन में खुद की सहभागिता को मजबूत करते हुए आम आदमी पार्टी की स्थापना की और दिल्ली के चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जी को भारी मतों से हराकर अप्रत्याशित जीत दर्ज की, दिल्ली की जनता को आमजन के सरोकारों से जॊड़ते हुए उनका प्रचंड मत प्राप्त करके विगत दो बार मुख्य मंत्री के रूप में सेवाए दिया। शुरुआती दौर में आपको जनजागरुकता, और सूचना के अधिकार के लिए कई पुरुस्कारों से नवाजा गया, रमन मैग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित केजरीवाल को पहले तो राष्ट्रीय पार्टियाँ कुछ समय का कुकुरमुत्ता छाप कुछ समय हेतु उगी पार्टी मानकर खूब मजाक उड़ाया, और ना जाने कितने चुटकुले, कितने वीडियों कितने कार्टून अरविंद केजरीवालपर केंद्रित रहे, अरविंद केजरीवाल की अनय राज्यों में रैलियों में थप्पड़, और काली स्याही फेंकने की घटनाएँ उनके साथ उनके दृढ़ संकल्प को और बढ़ाने का काम किया। जिन पार्टियों ने आप पार्टी का मजाक बनाया और उसके ऊपर आरोप लगाए उन्ही पार्टियों को हराकर आपने तीसरी बार सरकार बनाने में खुद को सफलता दर्ज की। कई पार्टियाँ यह जोड़ घटाना करने में लग गई कि उनके पार्टियों के राजनेताओं के परिवार के वोट तो आप में नहीं चले गए। आम आदमी पार्टी ने कहीं आम आदमी की दुखती नब्ज को तो नहीं सहला दिया।
अरविंद केजरीवाल जो पूर्व से आईआईटी और ब्यूरोक्रेट के रूप में देश की मशीनरी को समझकर फूंक फूंककर कदम रखा, अन्ना आंदोलन के दम पर लोकपाल की नाव के सहारे विरोध का सागर पार करने की कोशिश की और आज अपने अनुभव, राजनैतिक समझ और संदर्भों को सही तरीके से देश में उपयोग करने में माहिर रहे, इसी का परिणाम है कि इस बार केजरीवाल ६०+ सीट के साथ कई राजनैतिक दलों की जमानत जब्त करवा दी और वर्तमान देश में सत्तारूढ़ भाजपा की बोलती बंद करने में सफलता प्राप्त की। स्टिंग आपरेशन, मंचीय चैलेंज, आतंकवाद और आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच में अरविंद केजरीवाल के उम्मीदवारों ने क्रिकेट के मैच के अंतिम ओवर्स में कंट्रोल योर नर्व्स को फालो किया और अपने जनविकास के मुद्दों से खुद को भटकने नहीं दिया। भाजपा के ट्रोल सिस्टम को ध्वस्त करते हुए, कांग्रेस के विरोध का सामना करते हुए आप पार्टी ने अपने किए गए कामों को जनता और देश के सामने रखा और खरीदे हुए न्यूज चैनल्स के लगातार बिकाऊ प्रसारणॊं और फरेबी एग्जिट पोल्स की पोल खोलकर रख दिया। जनता को राष्ट्रीय मुद्दों के पीछॆ भागने के बजाय, उनके रोटी कपड़ा और मकान, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, परिवहन, और आर्थिक सुदृढ़ता की नींव को मजबूत करने का काम किया और प्रचार प्रसार भी इन्हीं बातों का किया। सी.ए.बी की रिपोर्ट के अनुसार अगर दिल्ली को फायदे की सरकार का तमखा मिला तो क्यों मिला इस बात का प्रचार प्रसार अपनी खर्च सीमा के अंदर रहते हुए किया। अरविंद केजरीवाल ने हर प्रचार प्रसार में कम खर्च, सुलझी हुई रणनीति, मुफ्त बिजली, पानी, यातायात, महिलाओं को दी जाने वाली सुविधाओं को गिनवाया, तो क्या आने वाले समय में अन्य राज्यों को इससे सीख लेने के लिए आगे आना चाहिए। अन्य राज्यों और पार्टियों के लिए यह भी चिंतन विमर्श का मुद्दा बनेगा।
अरविंद केजरीवाल अब जब मुख्यमंत्री बन ही गए हैं तो उन्होन सौम्य रूप से राष्ट्रवाद को स्वीकार करते हुए देश की सेवा करने का फैसला किया है, आप सरकार की पुरानी गल्तियाँ जिसकी वजह से उनको मुँह की खानी पड़ी, अब न दोहराई जाए इस बात का उन्हें ध्यान रखना होगा, यह सच है कि केजरीवाल सरकार ने अपने कार्यकाल में काफी गल्तियाँ भी की, जिसमें डिक्टेटरशिप, सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत माँगना, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास जैसे आप के पुराने नीव के पत्थरों को पूरी तरह से वर्तमान आप से हटा देना, राष्ट्रीय मुद्दों पर मौन धारण कर मौनी बाबा की तरह व्यवहार करना, अब चुनाव के बाद कितना सही और कितना गलत निर्णय था यह जरूर आप की सरकार और केजरीवाल को सोचना होगा, दिल्ली विश्वविद्यालय, जे एन यू, जामिया इस्लामिया वि वि, गार्गी कालेज, श्री राम इस्टीट्यूट में हुई घटनाओं पर दिल्ली के राज्य सरकार की चुप्पी अब जनता को खल सकती है, शिक्षा की बात अगर हो रही है, तो उच्च शिक्षा में उठ रहे हाथ और हिंसा को दर्शक बने देखना आप की सरकार को शोभा नहीं देता, इतना ही नहीं शाहीन बाग का विरोध, दिल्ली के विभिन्न मुद्दों जिसमें आप का कोई राजनैतिक वैचारिक बिंदु निकल कर नहीं सामने आया उस पर भी अब बात करने की आवश्यकता है, अभी तक तो चुनाव की कसमकस और जीत हार के परिणाम की चिंता थी किंतु अब तो खुद पार्टी की सरकार है। जन सरोकारों के साथ साथ आज के राजनैतिक सरोकारों, राष्ट्रीय मुद्दों में दिल्ली प्रदेश के मुख्यमंत्री क्या सोचते हैं किसका पक्ष लेते हैं इसका भी पूरे देश को इंतजार है, यहाँ पर बात हिंदू और मुस्लिम की नहीं बल्कि सही पक्ष को सामने लाने की है, उदाहरण के लिए अगर दिल्ली मे महिला वर्ग को निशुल्क आवागमन की सुविधा देकर खुद को उनके बेटे के रूप में प्रतिस्थापित करते हैं तो गार्गी कालेज में हुए बच्चियों के साथ बर्बरता और जामिया में हुई हिंसा के संदर्भ में तो आप के विचार जनता और मीडिया तक आने की उम्मीद तो की जाती है। निर्भया कांड में डॆथ वारेंट, अपने पूर्व के कारनामों की भांति सत्तारूढ़ पार्टी के भ्रष्टनेताओं की पोल खोल अभियान की शुरुआत, दिल्ली के सेना के शहीदों के लिए दी जाने वाली सुविधाए और सम्मान राशि, दिल्ली में विभिन्न त्योहारों के दौरान पर्यावरण प्रदूषण के लिए और कारगर कदम, ब्यूरोक्रेसी और न्यायालयों पुलिस महकमे की कार्य प्रणाली को दुरुस्त करने की मुहिम और अन्ना हजारे जैसे मार्गदर्शन को मुख्यधारा से जोड़ने की कवादय में आम आदमी पार्टी कितनी कूबत रखेगी यह भी आने वाले सालों में देखना है।
यह निश्चित है कि नई सरकार नये पाँच साल, नये राजनैतिक और आर्थिक लक्ष्य सरकार के सामने होंगे,  नई योजनाओं से जनता जनार्दन की उम्मीदों में खरे उतरने की आशा केजरीवाल सरकार को सच्चे और अच्छे जननायक के रूप में आगे बढ़ने के लिए उर्जा का काम करेगी, लेकिन इन सबके बीच दिल्ली अपने राजकुमार को उन विभिन्न मुद्दों पर भी मुखर देखना चाहती है जिसमें उनकी खाँसी, उबासी, उनकी चुप्पी प्रश्नचिन्ह लगाकर किनारा कर लेती है, उच्चशिक्षा, महिला और बेटियों के मुद्दे, केंद्र और राज्य के बीच में असमान्जस्य के बीच, निर्भया कांड में डेथ वारेट में में पीडिता की माँ का सहयोग और सार्थक मदद करना तो भी उनका ही दायित्व बनता है।हमारे देश में बालक बालिकाओं का अनुपात किस तरह दिल्ली में बराबर रहे इस बात पर भी राज्य सरकार को सोचना चाहिए, आर्थिक मुद्दे के साथ साथ पारिवारिक और समाजिक मोर्चे पर भी आप सरकार को बेटियों, उनके परिवार और माता पिता को आर्थिक मजबूती प्रदान करने की पहल करना होगा। मुख्य मंत्री का अब विगत वर्षों की भाँति आंदोलन करना, अपने अधिकारों को केंद्र सरकार से न प्राप्त होने पर हो गया, कहकर आगे बढ़ जाना आदि क्रियाकलापों के अतिरिक्त भी अधिकार की लड़ाई लड़ने की योजना बनानी होगी, अरविंद केजरीवाल आने वाले दशकों में इस देश में एक नये व्यक्तित्व के रूप में स्थापित होने वाले राजनेता बनेगें, उनकी आम आदमी पार्टी आम आदमी की पीड़ा का निदान करने वाला अनुभवी वैद्य बनकर अपना नाम सार्थक करेगी इस हेतु उनको आज के मुद्दों पर चुप्पी तोड़ना होगा। तभी तीसरा कार्यकाल इस देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।

अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

ध्रुवीकरण व विकेंद्रीकरण के खेल में उलझी सियासत

"कमलनाथ" बनाम "कमलनाल" की राजलीला

ध्रुवीकरण व विकेंद्रीकरण के खेल में उलझी सियासत


मार्च का पहला सप्ताह मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार के लिए हाई टेक ड्रामा लिए रहा, विधायकों के अपहरण की घटनाओं में कथित रूप से गुनहगार बनी भाजपा ने अपने कमल दल की पंखुडियों को समेट करके रख लिया है। राज्य में स्थापित कांग्रेस सरकार को खुद के हाथों के पंजे लड़ाने से फुर्सत नहीं हैं, सरकार बनने के साथ ही ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुख्य मंत्री की दावेदारी को जिस तरह कमलनाथ जी को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के लि सुयोग्य बताकर काबिज किया, इसी का परिणाम है कि विरोध की उस समय दबाई गई चिंगारी आज तेज लपटों के साथ कुर्सी की महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित कर रही है, सरकार के द्वारा लगातार बयान देना, सरकार के मंत्रियों के द्वारा सामूहिक स्तीफा, विधायकों को भाजपा की सह में पकड़ में लेना, रातो रात कांग्रेस की कैबिनेट बैठक, ज्योतिरादित्य जी का दिल्ली में भाजपा और प्रधानमंत्री जी से मिलना आदि कितनी ही घटनाएँ हैं जो मध्य प्रदेश सरकार को खतरे में डाल दी है। मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित वयोवृद्ध राजनेता कमलनाथ अपने पत्तों को इस खेल में सम्हालपाने में नाकामयाब हो रहे हैं, कांग्रेस की आंतरिक कलह हमेशा से उनके लिए सिर दर्द बनी हुई हैं, विधायकों की हार्स ट्रेडिंग करने के मामले में भाजपा पुरानी खिलाड़ी रही है, इसके पहले के अन्य राज्यों के चुनाव इस बात की गवाही देते रहे हैं।
इस खेल में माहिर भाजपा पहले तो असंतुष्ट विधायकों के विश्वास को अपने कबजे में लेकर सेंध मारी करती हैं, इसी खेल में कांग्रेस के असंतुष्ट विधायक और मंत्री भी फंस गए। भले ही कांग्रेस ने इतने महीने मध्य प्रदेश की सरकार को घटीस लिया हो किंतु राह इतनी सरल नहीं है जितनी की दिख रही है, सरकार बनाने के लिए लालची किस्म के विधायकों की गद्दारी, संगठन में वरिष्ठ और पावरफुल नेताओं का निरस्तीकरण, करोड़ों में बिक जाने वाले बिन पेंदी के विजेता राजनीतिज्ञ, पूरी तरह से सरकार के साथ विभीषणगिरी करते नज़र आए। अपने ही क्षेत्र की बात की जाए हमारे विधायक ही कांग्रेस से खफा होकर भाजपा का प्रचार करने उतरे, अजय सिंह राहुल, राजेंद्र सिंह, और अन्य कदवार नेताओं के बीच की फूट कांग्रेस में साफ दिखाई दी, विगत महीनों में हुए कमलनाथ जी के दौरे में ये स्थिति साफ दिखाई दी। इस तरह का भितरघात, और आंतरिक फूट कांग्रेस सरकार के लिए गढ़ को ढाने के लिए काफी थी। कांग्रेस को इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि कांग्रेस को इस लिए जीत नहीं मिली क्योंकि वो सत्ता में काबिज होने के लिए सर्व श्रेष्ठ थे, बल्कि कांग्रेस को इसलिए जीत मिली क्योंकि भाजपा की तीन पंचवर्षीय सरकार को ज्यादा ही अहंकार हो गया था, वो आरक्षण, घोटालों में लिप्त हो गई थी, उसने अनारक्षित आम जनमानस को चुनौती दी थी, जनता सब जानती है और उसी का परिणाम भाजपा ने मध्य प्रदेश में भोगा। इतने महीनों में भाजपा ने सिर्फ मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सियासी नौटंकी के देखा उनकी गल्तियों को नोट डाउन किया।
भाजपा की हाई कमान में कांग्रेस की मध्य प्रदेश सरकार पहले से निशाने में थी, दिल्ली चुनावों के बाद के नंबर में खड़ी मध्य प्रदेश की सत्ता उसकी पारखी नजरों के सामने दिन रात झूल रही थी, कई महीनों से लिखी पटकथा का रंगमंचन आखिरकार होली के अवसर पर ही प्रारंभ हुआ। मार्च की क्लोजिंग के बीच किरकिरी बनी मध्य प्रदेश सरकार अल्पमत में आने लगी, यदि इस पंचवर्षीय सरकार को कांग्रेस नहीं सम्हाल सकी तो उसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की आंतरिक पंजा लड़ाओ भागमभाग, मंत्री पद की विधायकों की लोलुपता, और अपने अपने स्वार्थ में आंतरिक पिसाव में चकनाचूर होता कांग्रेस का आंतरिक ढांचा माना जाएगा। कांग्रेस का ग्राफ जिस तरह पूरे देशा में अन्य राज्यों में गिर रहा है, वह कांग्रेस को दम तोड़ने भी न देगा, दम लगाकर हुंकार भरने भी न देगा, आजादी के पहले से स्थापित कांग्रेस को उन्हीं के भितघातियों ने नैया डुबाने वाली स्थिति पैदा कर दी है। राजशाही, जमींदारी, राजघराने वाले नेताओं से भरी कांग्रेस, आज भी अपने अपने पावर और अपने अपने गुटों में बटी कांग्रेस को एक जुट होकर राजनीति में उतरने की आवश्यता है, टुकड़े टुकड़े गैंग बनाने वाली कांग्रेस, परिवारवाद के चक्रव्यूह में घिरी कांग्रेस को चक्रव्यूह भेदन करने के लिए खुद का अभिमन्यु खोजना होगा, सर्व सम्मति से उसे सर्वाधिकार प्रदान करना होगा, राहुल गांधी जी को जिस उम्मीद के साथ कांग्रेस की कमान सौंपी गई वह तो पानी फेर गए, मीड़िया ने वैसे भी कांग्रेस की छीछालेदर की हुई है, कांग्रेस में संयोजन करने वाले कदवार राजनीतिज्ञों का अकाल इस बात का संकेत हैं, कांग्रेस को आगे बढ़ना है और सरकार बचाने की अग्नि परीक्षा में पास होना है तो निश्चित ही उसे अपने पंचत्त्वों को समाविष्ट करते हुए एक होना पडेगा पंजे को बंद करके मुट्ठी में बदलना पड़ेगा। तभी कमलनाथ सरकार बचेगी। कांग्रेस को समझना होगा कि अब युवा नेतृत्व को सत्ता में स्थापित किया जाए, विकेंद्रीकरण को ध्रुवीकरण में बदलने की आवश्यकता है।
भाजपा तो अपना खेल खेल रही है, वह खेल जो अन्य राज्यों में खेला गया, यदि यह खेल न खेला गया, तो मध्य प्रदेश की पूर्वभाजपा के नेताओं मंत्रियों के द्वारा फैलाए गए रायते की कढ़ी कमलनाथ सरकार बनाने की तैयारी कर रही है, राजनीति में सब जायज है, वो सब कुछ जो सत्ता पाने के लिए सही हो, इस में गिरावट का कोई मापदंड़ नहीं है, कोई भी नहीं, चाणक्य, और हिटलर की कही बातों को शब्दशः अपनाने वाले वर्तमान भाजपाई हर राज्य को भगवा रंग में रंगने के लिए युद्ध स्तर की तैयारी किए हुए हैं, मीडिया से लेकर, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तक नतमस्तक हो चुकी है, ऐसे विश्वविजेता भाजपा के विजय रथ के सामने घोड़े बेंचकर सोने वाली कांग्रेस कितना मजबूती से सामना कर मध्य प्रदेश के छत्रप को बचापाती है। यह तो आने वाला समय बताएगा, आज की राजनीति, किताबों की राजनीतिशास्त्र नहीं रह गई, बल्कि सामदाम दंड भेद वाली राजनीति हो गई हैं, जिसके केंद्र में पंचवर्षीय सरकार है, और इस केंद्र लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किसी भी हद तक गिरना पड़े तो गिरो। विभीषणों को अपने साथ मिलाते चलो तो विजय अपनी होगी वाले सिद्धांत को मानती भाजपा निश्चित ही मध्य प्रदेश की सत्ता के निकट हम सबको महसूस हो रही है, शह और मात के इस खेल में कांग्रेस अपनी फौज की वजह से कमजोर पड़ती जा रही है, और भाजपा कांग्रेस की फौज को मिलाकर खुद को मजबूत महसूस कर रही है। आने वाला भविष्य कमलनाथ है या कमलनाल का यह तो आने वाला भविष्य का अप्रैल बताएगा।

अनिल अयान

मंगलवार, 3 मार्च 2020

डॆथ वारेंट से उत्पन्न जनमानस पर प्रभाव

डॆथ वारेंट से उत्पन्न जनमानस पर प्रभाव
 निर्भया कांड के आरोपियों की फांसी का निर्णय वारेंट, डेथ वारेंट तीसरी बार निरस्त कर दिया गया, पहला वारंट सात जनवरी, को दूसरा वारेंट सत्रह जनवरी को और तीसरा वारंट सत्रह फरवरी को आदेशित किया गया।  दया याचिकाओं को जो दौर इस केस में देखने के लिए मिला वह अप्रत्याशित रहा। पटियाला हाउस के जज का यह कहना कि गुनहगारों को कोर्ट जब तक जीने का अधिकार देता है तब तक फांसी देना पाप है। दोषियों के वकील सिंह साहब कहते हैं कि मै दावे के साथ कह रहा हूँ कि तीन मार्च को फाँसी नहीं होगी।नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का के आकड़े बताते हैं कि इस तरह के मामले में छः से अधिक ड़ेथ वारेंट दिखावे के लिए जारी हुए किंतु फांसी नहीं दी गई, बस समय दर समय टलती रही। इन सभी तथ्यों से कुछ तस्वीर इस बात के लिए निश्चित हो जानी चाहिए कि अब उम्रदराज होती बेटी के माता पिता के लिये क्या बचता है यदि उनकी बेटी के साथ ऐसी कोई दुर्घटना भारत देश में हो जाये। निर्भया मामले में जिसमें इतना मीडिया, एनजीओ, और तात्कालीन प्रशासन और सरकार में परिवार का जो सहयोग किया उसका क्या औचित्य निकलता है जिसमें दोषियों को दोषी करार देने के बावजूद दया याचिकाओं के भंवर जाल में सुरक्षित रखा जा रहा है। क्या ऐसे तरीकों से फास्ट ट्रैक न्यायालयों के बारे में सोचना व्यर्थ हो जायेगा। क्या न्याय की उम्मीद करना छोड़ देना होगा।
      यह सोचने की आवश्यकता है कि आरोपियों के वकील किस पावर का इस्तेमाल करके फांसी ना होने का दावा कर रहे हैं, न्यायाधीश किस आईपीसी की धारा के अंतर्गत इस तरह के गैरमानवीय जघन्य अपराध में लिप्त आरोपियों को भगवान की दुहाई देकर डेथवारेंट निरस्त करने की घोषणा कर देते हैं। क्या राष्ट्रपति जी को जिस अधिकार के तहत दया याचिका में दया दिखाने का अधिकार है, तो ऐसे मामलों में दया निरस्त करके तुरंत फांसी देने के लिए न्यायालय को आदेशित करने का अधिकार नहीं है, यदि नहीं है तो क्या सरकार संसद में यह प्रस्ताव लाकर संविधान के अनुच्छेदों में बदलाव करने के लिए विशेष सत्र नहीं बुला सकती। परंतु सरकार यह काम क्यों करेगी, राष्ट्रपति जी, न्यायाधीश महोदय, यह काम क्यों करेंगें, सबके पास आईपीसी, संवैधानिक अनुच्छेदों की दुहाइयाँ हैं, सबके पास मजबूरियों का पोथन्ना है, किंतु रास्ता निकालने की राह के बारे में सोचने के लिए समय शासन प्रशासन और सरकार के पास नहीं है, सरकार के पास तो शाहीन बाग, दिल्ली विधान सभा चुनाव, ट्रंप यात्रा की तैयारियाँ और उपद्रवी आंदोलनकारियों को देखकर गोली ना मारा जाए इसके लिए कारण खोजने से फुरसत ही कहाँ है। न्यायालय महामहिम राष्ट्रपति और सरकार इन दोषियों को ससम्मान बरी करके समाज के लिए मिशाल कायम करने का काम करना चाहिए, जब फांसी नहीं दे पा रहे हैं, दोषियों के सामने और उनके वकील के सामने कानून, कायदा, संविधान सब बौने हैं तो किस तरह यह माना जाये कि हमारा देश बड़ा है, संविधान बड़ा, न्यायालय में तुरंत फुरंत न्याय होता है, इतना समय तो पावरफुल नेताओं के दोषियों को सजा सुनाने में भी न्यायालय को नहीं लगता है।
      जनमानस इस तरह की राजनैतिक नौटंकी को देख भी रहा है और समझ भी रहा है, कि अब अपने ही देश में ऐसे रैपिस्ट और उनके व्यवसायी वकील डंके की चोंट में न्यायालय के निर्णयों को चुनौती देगें और देश में रेप बढेगें, बदले में जनता के हाथों पर आने पर रैपिस्ट को सरे राह और सरे चौराहे पर पुलिस और जनता मौत के घाट उतार कर भीड़ में तब्दील हो जाएगी, और न्यायव्यवस्था और संविधान के लिए भी एक शब्द रहेगा, स्थगित। क्योंकि जब सरकारें अपने देश की बहन बेटियों की आबरू से खेलने वाले गुनहगारों के लिए फांसी के निर्णयों के लिए दया याचिकाओं पर विचार मंथन करने लगेगी तो निश्चित ही न्याय करने के लिए आम जनता ही कानून अपने हाथ में  लेगी। सरकार को इस समय अपनी आबरू बचाने के लिए सोचना पड़ रहा है, सरकार के लिए जब खुद नुमांइंदों के द्वारा काला अक्षर इतिहास के पन्नों में लिखा जा रहा हो तब इस बेगैरत व्यवस्था में आम जन और बेटियों के माता पिता को संघारक का रूप लेना ही पड़ेगा, कोर्ट कचेहरी के चक्कर से दूर खुद का न्याय करना ही पड़ेगा, अन्यथा देश की पालिकाओं, कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका को अपने मूल कार्य को बिना एक दूसरे के दखल से करना पड़ेगा, जनता का टूटा हुआ विश्वास सत्ता में काबिज राजनेताओं के लिए आने वाले चुनावों में खतरनाक परिणाम दे सकता है। धर्म, और राजनीति के पाखंड के अलावा जनमानस में न्याय और कानून का ड़र बना होना देश के हित में होगा।
अनिल अयान, तना
९४७९४११४०७




सोमवार, 12 अगस्त 2019

आखिर स्वतंत्रता के मायने क्या है?


वंदेमातरम सुजलाम सुफलाम मलयजशीतलाम शस्य श्यामलाम मातरम की परिकल्पना करने वाले बंकिम दा आज खुश होंगें की वंदनीय भारत माता अपने स्वतंत्रता के ७२ वर्ष पूर्ण कर चुकी है। सन १७५७ से शुरू हुआ विद्रोह जो मिदनापुर से शुरू हुआ वह बुंदेलखंड और बघेलखंड में १८०८-१२ के समय पर अपने शिखर में था। अंततः सन अठारह सौ सत्तावन जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का वर्ष माना जाता है। फिर उसके बाद चाहे बंग भंग आंदोलन हो या फिर बंगाल का विभाजन, चा फिर भगत चंद्रशेखर आजाद युग रहा हो। चाहे करो या मरो वाला अगस्त आंदोलन की बात की जाये। या फिर दक्षिण पूर्व एशिया में आजाद हिंद आंदोलन और आजाद हिंद फौज की भूमिका हो। सब इस स्वतंत्रता से अटूट रूप से जुडे हैं। आज के समय में कितना जरूरी हो गया है ,समझना कि आजादी के मायने क्या है. जिस तरह के संघर्ष के चलते अंग्रेज भारत छॊड कर गये और भारत को उस समय क्या खोकर यह कीमती आजादी मिली यह हमे हर समय याद रखना होगा. आज  ७० वर्ष के ऊपर होगया है भारत अपने विकसित होने की राह सुनिश्चित कर रहा है. वैज्ञानिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण के नये आयाम गढ रहा  है. आज के समय समाज, राज्य, राष्ट्र और अन्य विदेशी मुद्दे ऐसे है जिनके चलते स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान में पानी फिरता नजर आ रहा है.
ट्रिस्ट विद डेस्टिनी भाषण के अंश, जवाहरलाल नेहरू ने तात्कालीन समुदाय से लाल किले में जो कहा वह आज इतने वर्षों के बाद भी बहुत महत्वपूर्ण है। जो निम्नलिखित है।“आज एक बार फिर वर्षों के संघर्ष के बाद, भारत जागृत और स्वतंत्र है। भविष्य हमें बुला रहा है। हमें कहाँ जाना चाहिए और हमें क्या करना चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानों और श्रमिकों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम निर्धनता मिटा, एक समृद्ध, लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश बना सकें। हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं को बना सकें जो प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके? कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण हैं। आज हम दुर्भाग्य के एक युग को समाप्त कर रहे हैं और भारत पुनः स्वयं को खोज पा रहा है। आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो केवल एक क़दम है, नए अवसरों के खुलने का। इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है निर्धनता, अज्ञानता, और अवसर की असमानता मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही इच्छा है कि हर आँख से आंसू मिटे............” मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया. अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी. क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ. अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था. उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.
धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है. आजादी ७२ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे. शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.आज के समय में वैचारिक आजादी के मायने विचारों की लीपापोती और विचारों के माध्यम से निकले शब्दों को आक्रामक बनाकर प्रहार करने की राजनीति की जा रही है। आज हम स्वतंत्रता की ७३ वीं वर्षगाँठ मनाने जा रहे है और यह भी जानते है कि आज के समय में कितना जरूरी हो गया है यह समझना कि आजादी के मायने क्या है। जिस तरह के संघर्ष के चलते अंग्रेज भारत छॊड कर गये और भारत को उस समय क्या खोकर यह कीमती आजादी मिली। आज ७३ वर्ष के ऊपर हो गया है स्वतंत्र भारत जो अपने विकसित होने की राह सुनिश्चित करने की उहापोह में संघर्ष कर रहा है। वैज्ञानिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण के नये आयाम गढ रहा है। आज के समय समाज, राज्य, राष्ट्र और अन्य विदेशी मुद्दे ऐसे है कि आज के समय में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान में पानी फिरता नजर आ रहा है। ऐसा महसूस होता है कि पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और आज अपने राजनेताओं के गुलाम हो गये हैं
जब सन सैतालिस में देश आजाद हुआ उस समय की स्थिति और आज की स्थितियों के बीच जमीन आसमान का अंतर हो चुका है यह अंतर समय सापेक्ष है। आज के समय में भारतीय जनता पार्टी का सम्राज्य लगभग पूरे देश के राज्यों में फैल चुका है। और वैचारिक दृष्टिकोण भी इसी पार्टी के रंग में रोगन हो चुका है। आज के समय में राष्ट्रभक्ति की परिभाषा परिवर्तित होकर पार्टी जन्य हो चुकी है। राजनैतिक अवमूल्यन अगर गिरा है तो उसके प्रचार प्रसार को तीव्र करने के लिये समाज के पांचवें स्तंभ की भूमिका महती हो गई है। आज के समय में मीडिया के विभिन्न रूप भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। वर्तमान में स्वतंत्रता के क्या मायने रह गये हैं यह प्रश्न दिमाग को बार बार कचोटता है। संविधान, स्वतंत्रता की पसलियां हैं, संविधान मनवाने वाले इसकी रीढ़ और इस पूरे ढ़ाचे का दिल आम लोग या दूसरे शब्दों में यूं कहे कि संविधान लोगों के दिल में बसता है। वर्तमान में चल रही पसली तोडू स्वतंत्रता को क्या कहा जाये स्वतंत्रता या फिर उद्दंडता ? इसका निर्धारण तो अब जनता को ही करना शेष रह जाता है।  सामाजिक परिस्थितिया लोगों को दुर्भाग्य से बचाने की जगह दुर्भाग्य में झोंकने जैसी हैं। करोड़ों की सेवा का भाव सिर्फ हजारों तक सिमट कर रह गया है! भारत नये युग में कदम तो बढ़ा रहा है पर कीचड़ सने पैरों के साथ, लोग कदम तो नाप रहे हैं पर जमीन गंदी करने के बाद।  देश को दिया जाने वाला समर्पण जात संप्रदाय पर मरने मारने को समर्पित है। संस्थायें बनी तो पर प्राणदायनी की जगह प्राणघातिनी बन बैठी। लोगों की मानसिक संकीर्णता स्वतंत्रता का पर्याय बनने तक पहुँच गई! क्या स्वतंत्र भारत के इसी भविष्य का सपना देखा था उन हजारों लाखों ने जो देश पर मर मिटे? क्या आज की स्वतंत्रता जनाधिकारो को परिपूर्णता तक ले जाती है, आजादी उसी सीमा तक सही है जब तक यह किसी संप्रदाय विशेष को उकसाने या अपमानित करने का कार्य न करे. जहां चित्त भयमुक्त हो, जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें।इसी संदर्भ में 'गीतांजलि' में रबीन्द्र नाथ टैगोर की रचना में स्वतंत्रता के सही मायने को बेहतर ढ़ंग से समझा जा सकता है जिसमें उन्होने लिखा है कि -
जहां ज्ञान मुक्त हो; जहां दिन रात-विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों; जहां हर वाक्य दिल की गहराई से निकलता हो; जहां हर दिशा में कर्म के अजस्त्र सोते फूटते हों; निरंतर बिना बाधा के बहती हो जहां मौलिक विचारों की सरिता; तुच्छ आचारों की मरू रेती में न खोती हो, जहां पुरूषार्थ सौ-सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो; जहां पर कर्म, भावनाएं, आनंदानुभूतियां सभी तुम्हारे अनुगत हों, हे प्रभु, हे पिता  अपने हाथों की कड़ी थपकी देकर उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ।
अनिल अयान,सतना
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